
आदि शंकराचार्य जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय जानने की इच्छा से आपने हमारे पेज का चयन किया उसके लिए आपका धन्यवाद और आपका स्वागत हैआदि शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य जी का संझिप्त परिचय
हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने वाले शंकराचार्य एक महान समन्वय वादी संत थे। एक तरफ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार का सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ जन सामान्य में प्रचलित मूर्ति पूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। उन्होंने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का संदेश दिया अर्थात् संसार में ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
विद्वानों के अनुसार का जन्म लगभग 500 ईसा पूर्व में हुआ था, इस आधार पर वे शंकराचार्य और गौतमबुद्ध को समकालीन मानते हैं। इनका जन्म केरल में ‘कालपी’ नामक स्थान हुआ माना जाता है। उनके पिता शिवगिरि तथा माता आर्यम्बा थी। उनके पिता की छाया उनके बाल्यावस्था में उठ गई थी, अतः वे अपनी माता की एकमात्र संतान रहे।आदि शंकराचार्य
शंकर ने जन्म से ही अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने मात्र तीन वर्ष की आयु में ही संस्कृत, मगधी और प्राकृत भाषाएं सीख लीं। आठवें वर्ष में वे वेदों में पारंगत थे। उनका उपनयन संस्कार 15वें वर्ष में हुआ। यज्ञोपवीत संस्कार के समय माँ से भिक्षा मांगने की प्रथा थी। किन्तु शंकर ने भिक्षा हेतु माँ के पास न जाकर सर्वप्रथम एक सफाईकर्मी महिला के पास जाकर प्रार्थना की, ‘माँ भिक्षामि देहि’। यह उनकी क्रांतिकारी नवीन दृष्टि थी।आदि शंकराचार्य
अपनी माता से संन्यास की अनुमति प्राप्त कर शंकर लम्बी पदयात्रा कर नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर तीर्थ पहुँचे, जहाँ महाविद्वान आचार्य गोविन्द पाद जी ने उन्हें संन्यास धर्म में दीक्षित किया। कालांतर में वे वाराणसी पहुँचे जहाँ उन्होंने अनेक पुस्तकों का लेखन किया। उनकी विद्वता की ख्याति चारों तरफ फैलने लगी। इसी समय उनको अपने जीवन का एक विशिष्ट उल्लेखनीय अनुभव मिला। एक दिन वे गंगा स्नान हेतु जा रहे थे
तभी मार्ग में एक चाण्डाल आ गया। जब शंकर के साथियों ने उससे से वहाँ से हट जाने के लिये कहा तो चाण्डाल ने शंकराचार्य से पूछा- आप तो ‘सर्वात्मैक्य और ‘अद्वैत’ के संदेशवाहक हैं। जब सर्वज्ञ ब्रह्म है तो फिर आप किसको कह रहे हैं, “गच्छ दूरमिति” दूर हो जाओ।
शंकर को उसकी बातों से आभास हो गया कि यह देववाणी है, वे उस चाण्डाल के सामाने साष्टांग लेट गये और कहा, “आपने मुझे ज्ञान दिया है अतः आप मेरे गुरु हुए।” इस घटना के बाद जाति-भेद, वर्ण-भेद और मानव-मानव में अन्तर करने की प्रवृत्ति का खण्डन करने की भावना शंकराचार्य में और भी तीव्र हो गई। उनके जीवन का संदेश था कि जिसने सर्वत्र एक ही अस्तित्व का अनुभव पा लिया है वही मेरा गुरु है- भले ही वह ब्राह्मण हो या चाण्डाल।आदि शंकराचार्य
शंकराचार्य ने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अटूट सूत्र में बांध दिया। उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों- दक्षिण में रामेश्वरम में शृंगेरी मठ, पश्चिम में द्वारिका में शारदा मठ, उत्तर में हिमालय पर बद्रीनाथ मठ तथा पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की। अपनी 32 वर्ष की अल्पायु में शंकर ने 200 के लगभग ग्रंथों की रचना की। उनके मुख्य ग्रंथों में ब्रह्मसूत्र, भगवत गीता और दस प्रमुख उपनिषदों पर टीका शामिल हैं।आदि शंकराचार्य
समाज के विखंडन को रोकना, अंधविश्वास व कुरीतियों से धर्म को मुक्त करना, विविध देवी-देवताओं की बढ़ती संख्या और व्यर्थ के कर्मकाण्डों का खण्डन, समाज व्यवस्था को मर्यादित करना शंकर का महान् मार्गदर्शन था जिसने तत्कालीन जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था। शंकर ने ही गौतमबुद्ध को भगवान के नवम् अवतार के रूप में सर्वसाधारण द्वारा स्वीकृत कराया तथा शूद्रों व स्त्रियों को भी वेद ज्ञान का अधिकार दिलाया। अपने 32 वें वर्ष में हिमालय के केदारनाथ क्षेत्र में भ्रमण करते-करते उत्तर कैलाश पर्वत की ओर जहाँ शिव मंदिर है, जाकर वे अंर्तध्यान हो गये। इसके पश्चात वह कभी भी दिखाई नहीं दिये। उनकी समाधि आज भी केदारनाथ मंदिर के समीप स्थित है।
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