“अधर्म से कमाया धन व्यर्थ में ही खर्च हो जाता है।” कर्ण की कथा से हम यह सीख ले सकते हैं। कर्ण बहुत दानशील था। वह अर्जुन तथा भीष्म की श्रेणी में गिना जाने वाला महायोद्धा था। पर कुसंगति एवं दुर्भाग्य ने उसके जीवन को अर्थहीन बना दिया। कुंती से उत्पन्न प्रथम पुत्र कर्ण के जन्म, उत्थान, पतन एवं मृत्यु की कथा रुलाने वाली है।
एक बार ऋषि दुर्वासा राजा कुंतीभोज के यहाँ अतिथि के रूप में पधारे। वह वहाँ अल्प अवधि के लिए रुके। राजा की गुणशीला सुंदरी पुत्री कुंती ने उनकी सेवा तथा स्वागत पूर्ण श्रद्धापूर्वक की। संतुष्ट होकर ऋषि ने उसे अलौकिक मंत्र दिया और कहा “यदि इस मंत्रोच्चार के साथ किसी देवता को स्मरण करोगी, वह तुरंत प्रकट होंगे और पुत्र प्राप्ति का वर दे जायेंगे।” मंत्र देकर उन्होंने प्रस्थान किया।

किशोर अवस्था में निष्पाप वृत्ति से कुंती ने एक दिन सूर्योदय की स्वर्णिम रश्मियों (सुनहरी किरणों) से आकर्षित होकर सूर्य देव का स्मरण करके मंत्र का उच्चारण किया। तुरंत सूर्य देव दिव्य प्रकाश के साथ प्रकट हुए तथा उसे दिव्य कवच एवं कुंडल युक्त पुत्र दे गए।
अविवाहित होने के कारण लोक-लाज के भय से आतंकित होकर उसने बालक को एक बक्से में बंद करके नदी में छोड़ दिया। अधीरथ नामक एक सारथी (रथवान) ने उस तैरते हुए बक्से को देखा और उठाकर खोल लिया। सुंदर एवं अलौकिक बच्चे को देखकर उसके आश्चर्य एवं प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने उसे अपने पुत्र के रूप में अपना लिया। उसका नाम कर्ण रख दिया।

कौरवों एवं पाण्डवों की औपचारिक शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य कृप एवं आचार्य द्रोण ने अपने शिष्यों की कुशलता की परीक्षा का दिन निश्चित कर दिया। राज्य परिवार के अतिरिक्त समाज की अपार जन-शक्ति वहाँ उपस्थित थी। अर्जुन सभी परीक्षाओं में सर्वोत्तम घोषित किए गए। अतः दुर्योधन के मन में ईर्ष्या व घृणा के भाव अधिक गति से जागृत हो गए।
कार्यक्रम के अंत में प्रवेश द्वार पर वज्राघात जैसी कठोर व तीव्र ध्वनि सुनाई दी। एक दिव्य व्यक्तित्व वाला तरुण योद्धा सामने आया। उसने ताली बजाकर अर्जुन को चुनौती दी। यह तरुण कर्ण था। अपने प्रथम पुत्र को देखकर कुंती उसे कवच-कुण्डलों के कारण पहचान गई। इस अनपेक्षित विकराल परिस्थिति में कुंती गिरकर अचेत हो गई।
उसने अर्जुन द्वारा दर्शायी गई सभी कुशलताओं का सरलता से प्रदर्शन कर दिखाया। यह देखकर दुर्योधन अत्यंत प्रसन्न हो गया। उसने उसको गले लगाकर आजीवन मित्रता का आश्वासन दिया। दुर्योधन ने उसे उसी समय अंग देश (प्रदेश) का राजा भी घोषित कर दिया। उसके बाद उनोहने ने अर्जुन को परस्पर युद्ध के लिए चुनौती दी। दोनों आचार्य इस दृश्य से भयभीत एवं शंकालु हो गए। उन्होंने इस स्पर्धा को टालने के लिए उस को अपने वंश का परिचय देने के लिए कहा। उसी समय अधीरथ वहाँ पहुँचा और उसने कर्ण को ‘पुत्र’ कहकर संबोधित किया। पिता-पुत्र परस्पर गले भी मिले।
भीम को उसके के वंश का पता चलते ही वह एकदम दहाड़ा तथा उसको फटकारते हुए बोला कि “तुम अर्जुन से युद्ध करने के लिए उपयुक्त पात्र नहीं हो। तुम अपने वंश के कार्य के अनुरूप घोड़ों की लगाम सँभालो।”
उसके परशुराम के आश्रम में ब्राह्मण के छद्मवेश में उनसे उच्च स्तरीय शस्त्रविद्या सीखने के लिए पहुँचा। परशुराम जी ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। उसने अपने अनुशासन एवं सीखने में लगन एवं तन्मयता के गुणों के कारण शीघ्र ही गुरुदेव को प्रसन्न कर लिया एवं उनसे ब्रह्मास्त्र जैसा महत्वपूर्ण अस्त्र प्राप्त कर लिया।
एक दिन गुरुदेव उसकी जाँघ पर सिर रखकर विश्राम (नींद) कर रहे थे। अचानक एक तीक्ष्ण डंक वाले कीड़े ने उसकी जंघा पर डंक मार दिया। कर्ण को असहनीय पीड़ा हुई तथा जंघा से रक्त धारा बहकर नीचे की ओर बहने लगी। परंतु कर्ण इस भाव से कि गुरुदेव के विश्राम में विघ्न न पहुँचे, बिना हिले-डुले कष्ट को सहन करते हुए बैठा रहा। कुछ देर बाद नींद खुलने पर गुरुदेव सारी परिस्थिति समझ गए। उन्होंने क्रोधित होकर कर्ण से कहा कि वह ब्राह्मण पुत्र नहीं है। उसे उन्होंने सत्य बताने को कहा। वह – तो क्षत्रिय वंश से है। परशुराम जी क्षत्रिय-विरोधी थे। अतः उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि अत्यंत आवश्यकता के समय उसे उनसे सीखी हुई सारी विद्या का विस्मरण हो जायेगा। दुर्योधन के जिद्दी स्वभाव का मूल कारण भी कर्ण ही था।
कर्ण को मित्र एवं राजा घोषित करके दुर्योधन उसको उपकृत (उपकार) कर चुका था। अतः कृतज्ञता की भावना के वशीभूत होकर कर्ण दुर्योधन के लिए कुछ भी करने के लिए सदा तत्पर (तैयार रहता था। शकुनि, दुर्योधन और दुःशासन की कुसंगति में फँसकर द्रोपदी को भरी सभा में अर्ध नग्न या पूर्ण नग्न करने के षड्यंत्र में वह भी सम्मिलित हो गया।
कर्ण का व्यक्तित्व परिचय
अन्यथा कर्ण दानवीर एवं महान व्यक्तित्व का धनी था। किसी के माँगने पर वह कुछ भी दान कर सकता था, यह उसकी प्रतिज्ञा थी। इसी दान-वृत्ति का अनुचित लाभ उठाकर इंद्रदेव ने अपने पुत्र अर्जुन की कर्ण से युद्ध में जान बचाने के उद्देश्य से धोखे से ब्राह्मण वेश में उसके कवच-कुंडल ही माँग लिए। कर्ण ने सहर्ष -कुंडल शरीर से काटकर दान कर दिए। कवच- युद्ध आरंभ होने वाला था। कुंती कर्ण के पास गई और उससे पांडवों के पक्ष में युद्ध करने का आग्रह किया क्योंकि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र तथा पाण्डवों का ज्येष्ठ भ्राता था। यह सुनकर कर्ण दंग रह गया।
कुंती ने उसे उसके जन्म की घटना बताकर बार-बार उसे अपने साथ ले जाने का प्रयत्न किया। कर्ण ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया कि ऐसे समय में दुर्योधन का साथ छोड़ना अधर्म होगा। दुर्योधन ने ही तो कठिन परिस्थितियों में उसका साथ दिया था। तथा अंत में कहा कि उसका साथ छोड़कर वह संसार में कायर कहलाएगा। परंतु उसने अपनी माता को एकदम निराश व ‘खाली हाथ नहीं लौटाया। वह बोला, “माता! यद्यपि आपने अपनी विकट परिस्थिति के कारण मुझे जन्म देते ही त्याग दिया, मैं आपको निराश नहीं लौटने दूंगा। मैं केवल अर्जुन से ही युद्ध करूँगा। यदि अर्जुन का वध हो गया, तो मैं पाण्डवों के साथ मिल जाऊँगा। उस स्थिति में भी आपके पास पाँच पुत्र ही होंगे।”
कर्ण-अर्जुन के युद्ध में भाग्य ने कर्ण का साथ नहीं दिया। उसका सारथी साल्व था। साल्व कर्ण को भला-बुरा कहता रहा। उसे डाँटता रहता तथा उसे ताने मारता रहता। उसका उद्देश्य कर्ण का मनोबल गिराना था। अंत में कर्ण अर्जुन के बाणों से घायल होकर भूमि पर गिर गया। उसके प्राण पखेरू उड़ गये (वह मर गया)।

अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करे महभरात आप संघ की आधिकारिक वैबसाइट से भी प्राप्त कर सकते है उसके लिए आप यहाँ क्लिक करे http://rss.org और आप हमारे पोर्टल के माध्यम से भी जानकारी ले सकते है उसके लिए यहाँ क्लिक करे https://rsssangh.in