कुंती ,मादरी तथा द्रोपदी : राजा शूरसेन की एक गुणवंती तथा रूपवती कन्या पृथा थी। उनके चचेरे भाई कुंतीभोज के यहाँ कोई संतान नहीं थी। अतः उन्होंने पृथा को गोद ले लिया। उसके बाद से उसका नाम कुंती हो गया। पुरु वंश के राजा पाण्डु ने कुंती तथा मादरी से विवाह किया।
पाण्डु निःसंतान थे। कुंती को दुर्वासा ऋषि से एक दिव्य मंत्र प्राप्त हुआ था। जब वह किशोरी थी। ऋषि ने वरदान दिया था कि “मंत्र जाप के साथ जिस देवता का आह्वान करोगी, वह तुम्हें अपने जैसा गुणवान पुत्र देंगे।” उस मंत्र की सहायता से कुंती के तीन पुत्र तथा मादरी के दो पुत्र हुए। पाँचों पाण्डु के नाम पर पाण्डव कहलाए। वन में पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् मादरी सती हो गई। (पति के साथ ही अग्नि में कूद गई। कुंती ने पाँचों का लालन-पालन किया।

कुंती एक अत्यंत शालीन महिला थी। उन्हें सांसारिक व्यवहार की गहरी समझ थी। युधिष्ठिर को उन्होंने अनेक अवसरों पर उचित परामर्श देकर उनका उत्साह बढ़ाया। परंतु उन्होंने अपने दुःखों एवं चिंताओं को भुला दिया। वारणावत के लाक्षागृह अग्निकांड के पश्चात् एकचक्र नगरी के ब्राह्मण के घर में कुंती ने पूरी समझदारी, परिपक्वता एवं कुशलता दिखाई।
कुंती ने जीवन चिंताओं एवं परेशानियों में बिताया। उन्हें अपने पुत्रों के बारे में छिपाया। रहस्य अन्य लोगों तक प्रकट होने की चिंता सताती थी। कर्ण के जन्म की घटना भी उनमें से एक थी। ऐसा कहा जाता है कि कुंती के आग्रह पर पाँचों पाण्डवों ने द्रोपदी को सामूहिक (साँझी) पत्नी मान लिया क्योंकि अलग-अलग पलियाँ बच्चों को आपस में लड़वाकर घर की एकता भंग करेंगी, ऐसा कुंती का अनुमान था। कुंती को पक्का विश्वास था कि उसके पुत्र भविष्य में अवश्य राज्य करेंगे।
राजा द्रुपद की एकमात्र पुत्री द्रोपदी का वास्तविक नाम कृष्णा था। वह नील (काले) वर्ण (रंग) की थी। वह यज्ञ की अग्नि से प्रकट हुई थी। यद्यपि वह पाँच महारथियों की पत्नी थी, परंतु उसने अपने जीवन में अगणित (अपार) संकट तथा यंत्रणाएँ झेलीं। एक बार तो वह राज्य की महारानी भी थी, परंतु दुर्भाग्य ने उसे अन्याय तथा अपमान सहन करने पर विवश किया। उसे दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन एवं शकुनि एवं अन्य सभी के द्वारा अपमान एवं कटाक्ष सहन करने पड़े।
वनवास के काल में उसे घोर संकटों का सामना करना पड़ा। विधि का विधान देखिए। एक समय की रूपवती महारानी को जंगलों में भूखे-प्यासे गरीबी के दिन बिताने पड़े। यहाँ तक कि विराट की राजधानी में रानी सुदेशना की दासी के रूप में उनकी सेवा भी करनी पड़ी।
द्रोपदी:
श्रीकृष्ण के साथ द्रोपदी की मित्रता एवं भक्ति विशेष रूप अतुलनीय थी। जब कभी वह संकट में होती थी, सदा एकमात्र श्रीकृष्ण ही उसका सहारा व सहायक बने, न कि उसके पाँच शक्तिशाली पति। जब दुष्ट दुःशासन ने कौरवों के दरबार में उसके ‘चीर हरण’ का प्रयत्न किया, उसने श्रीकृष्ण का ध्यान किया, उन्हें अपना स्वाभिमान एवं सम्मान बचाने की प्रार्थना की।
ज्यों-ज्यों दुःशासन ऊपर का वस्त्र (साड़ी) खींचता जाता, त्यों-त्यों साड़ी बढ़ती ही जाती। यह दुष्कर्म करते-करते दुष्ट दुःशासन थक कर भूमि पर गिर गया व बेहोश हो गया।
एक बार विख्यात क्रोधावतार दुर्वासा ऋषि दुर्योधन की कुप्रेरणा से वन में पाण्डवों के यहाँ असंख्य साथियों के साथ पधारे । पाण्डवों ने उनका यथा योग्य स्वागत-सत्कार किया। ऋषि ने युधिष्ठिर से कहा, “हमें भूख लगी है। स्नान-ध्यान करके हम तुरंत लौटेंगे, तब तक भोजन तैयार करवा लें।”
द्रोपदी एकदम दुर्वासा के आतंक (क्रोध) के बारे में सोचकर घबरा गई। द्रोपदी को सूर्य देव ने एक दिव्य पात्र भेंट किया था। साथ ही वर दिया था कि जब तक द्रोपदी उस पात्र में से खाना नहीं खा लेगी, वह पात्र मन चाहे व्यंजन एवं भोजन देता रहेगा। संयोग से तब तक द्रोपदी भोजन कर चुकी थी। अब पात्र से और भोजन प्राप्त करने की संभावना समाप्त थी। दुर्वासा ऋषि के अभिशाप से त्रस्त होकर (डरकर) द्रोपदी ने श्रीकृष्ण का ध्यान करके उनकी उपासना की। तुरंत श्रीकृष्ण प्रकट हुए और बोले “कृष्णा (द्रोपदी) ! बहुत भूख लगी है। भोजन परोसिए।” यह सुनकर द्रोपदी अत्यंत विचलित (दुख से परेशान) हो गई। उसने श्रीकृष्ण को बताया कि अब पात्र से खाना नहीं मिलेगा। श्रीकृष्ण ने कहा “चिंता मत करो, वह बर्तन मुझे दिखाओ” ऐसा कहकर उन्होंने द्रोपदी से वह पात्र लेकर उसमें ध्यानपूर्वक झाँका-टटोला। उन्हें पात्र के कोने में अन्न का एक अत्यंत सूक्ष्म-सा दाना चिपका हुआ दिखाई दिया। उन्होंने उसी दाने को खाकर संतोष व्यक्त किया।
उनके संतुष्ट होते हो ऋषि दुर्वासा व उनके साथियों को भी स्वादिष्ट भोजन करके संतुष्टि की अनुभूति हुई तथा वे द्रोपदी को शुभाशीष देते हुए बाहर से ही लौट गए।
बुद्ध आरंभ होने से पूर्व शांति दूत के रूप में श्रीकृष्ण स्वेच्छा से हस्तिनापुर जाने के लिए तैयार हुए। द्रोपदी ने उन्हें अपने खुले व उलझे हुए बाल दिखाए व स्मरण कराया कि उसके बाल दुःशासन के रक्त से धुलने के बाद ही सुलझाए व गूंथे जाएँगे। श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देकर ढौंढ़स बँधाया।
एक क्षत्राणी राजकुमारी एवं महारानी द्रोपदी ने अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया। उसे सदा स्मरण रहता था कि दुष्ट दुःशासन ने भरी सभा में उसे बालों से पकड़कर घसीटा था तथा उसने उसी समय सबके सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह दुःशासन के रक्त से बाल धोने के बाद ही बालों को संवारेगी। यह प्रतिज्ञा उसके उज्ज्वल चरित्र का दर्शन कराती है। और उसने अपने पति भीम के द्वारा दुःशासन का वध करने और उसकी छाती का रक्त द्रोपदी को देने के बाद ही अपने बाल सँवारे व गूँथे

उसके कष्टों की कथा का अंत अभी तक नहीं हुआ था। युद्ध जीतकर पाण्डवों ने अपना राज्य वापस पा लिया। परंतु उसके तुरंत बाद द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचों पुत्रों एवं उसके भाई धृष्टद्युम्न की सोते समय हत्या कर दी थी। द्रोपदी ने अर्जुन से कहा कि अश्वत्थामा के वध के बाद ही उसे शांति मिलेगी। अर्जुन ने उसकी यह भी इच्छा पूर्ण कर दी ।
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