
चाफेकर बन्धु जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय जानने की इच्छा से आपने हमारे पेज का चयन किया उसके लिए आपका धन्यवाद और आपका स्वागत हैचाफेकर बन्धु
चाफेकर बन्धु जी का संझिप्त परिचय
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में चाफेकर बन्धुओं का बलिदान सुनहरे अक्षरों में अंकित है। इन तीनों भाईयों के नाम क्रमशः दामोदर चाफेकर, बालकृष्ण चाफेकर व वासुदेव चाफेकर थे। दामोदर का जन्म पुणे के पास चिंचवाड़ में 25 जून 1869 को हुआ था।
बालकृष्ण का जन्म 1873 और सबसे छोटे भाई वासुदेव का जन्म 1880 में हुआ थाचाफेकर बन्धु। इन तीनों भाईयों को देश की आजादी की आवाज बुलन्द करने के कारण 1898 और 1899 में फाँसी पर लटका दिया गया था। इन युवाओं के बलिदान ने उस वक्त भारतीय युवकों के मन में देश पर मर मिटने का जज्बा उत्पन्न कर दिया था।चाफेकर बन्धु
दामोदर चाफेकर तथा बालकृष्ण ने “हिन्दू धर्म संरक्षिणी सभा” का गठन किया। स्वधर्म और स्वदेश प्रेम की भावना उत्पन्न करने वाले शिवाजी उत्सव व गणपति उत्सव में ये अपनी युवा टोली के साथ बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इन युवा देशभक्तों के प्रेरणास्रोत थे।
तिलक जी द्वारा सम्पादित “केसरी” पत्र के लेख इन युवकों को आंदोलित करते थे। चाफेकर बन्धु कहते थे- ‘केवल बैठे-बैठे शिवाजी की गाथा का गुणगान करने से आजादी नहीं मिल सकती। हमें शिवाजी और बाजीराव की तरह कमर कसकर संघर्ष करना होगा।”
दामोदर ने एक बार ब्रिटिश राज के सम्मान में यूनिवर्सिटी में चल रही एक बैठक के टेंट उखाड़ दिये और कई अंग्रेजों की पिटाई की। मुम्बई में तो उन्होंने ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की मूर्ति को जूतों की माला पहनाकर कालिख पोत दी। भोले-भाले हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराने वाले ईसाई प्रचारकों की भी वे अच्छी खबर लेते थे।
सन 1897 में जब पुणे में प्लेग की महामारी फैल रही थी, अंग्रेज प्रशासन इस बीमारी की आड़ में नागरिकों को परेशान कर रहा था। चाहे जिस घर में घुसकर उसे प्लेग के कीटाणुओं से ग्रस्त बताकर खाली कराया जा रहा था। मि. वाल्टर चार्ल्स रैण्ड नामक अंग्रेज अफसर बीमारी से राहत दिलाने के स्थान पर जनता का उत्पीड़न कर रहा था।
उसके अत्याचारों से लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। 22 जून 1897 की रात को पुणे में महारानी विक्टोरिया का साठवाँ राज्याभिषेक दिवस मनाया जा रहा था। प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड अपने एक साथी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट के साथ समारोह से लौट रहा था। अचानक गोलियों की बौछार शुरु हो गई।
गोलियों के अचूक निशाने लगने से दोनों बेमौत मारे गये। इस प्रकार निरीह जनता पर हो रहे जुल्मों का बदला ले लिया गया।दामोदर व बालकृष्ण चाफेकर को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उनका तीसरा साथी गणेश शंकर कमजोर दिल निकला। पुलिस का दबाव पड़ने पर उसने सारा राज खोल दिया और वह सरकारी गवाह बन गया।
उसकी गवाही के आधार पर अंग्रेज सरकार दोनों भाइयों को फाँसी पर लटकाना चाहती थी। गणेश शंकर के पलटी मारने से दामोदर व बालकृष्ण का छोटा भाई वासुदेव चाफेकर क्रोध में आग बबूला हो उठा। वासुदेव ने अपनी साथी महादेव रानाडे को साथ लेकर गणेश शंकर और साथ ही उसके भाई की भी गोली मारकर हत्या कर दी। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
दामोदर चाफेकर को 18 अप्रैल 1898 को, वासुदेव चाफेकर को 8 मई 1899 को व बालकृष्ण चाफेकर को 12 मई 1899 को पुणे में फाँसी पर लटका दिया गया। पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। तीनों सगे भाई मातृभूमि की बलिवेदी पर कुर्बान
1857 की क्रांति के 42 वर्ष बाद यह पहला बलिदान था। इन नौजवान देशभक्तों के अद्वितीय आत्मबलिदान की मिसाल भारत सहित पूरे विश्व के इतिहास में शायद ही कोई दूसरी मिलती है।
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