
द्रोणाचार्य ने वेद और वेदांत के औपचारिक पाठ्यक्रम के साथ-साथद्रोणाचार्य तत्कालीन अन्य शस्त्र-शास्त्रों की विद्या विशेष रूप से सामरिक विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली थी। आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते-करते द्रोण के मित्र राजकुमार द्रुपद ने मित्रता के उत्साह में द्रोण को वचन दिया कि राजा बनने पर वह आधा राज्य द्रोण को दे देंगे।अध्ययन के पश्चात् द्रोण ने कृपाचार्य की बहन से विवाह कर लिया। उनके यहाँ अश्वत्थामा नाम का पुत्र हुआ। द्रोण अत्यंत निर्धनता में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने सुना कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य उन्होंने भी अपना भाग्य बदलने का विचार किया। परंतु जब वह परशुराम
जी के यहाँ पहुँचे, तब तक वह अपनी सारी संपत्ति दान कर चुके थे। अतः द्रोणाचार्य परशुराम जी ने द्रोण को शस्त्रविद्या में निपुण करने का प्रस्ताव रखा। परशुराम महादेव शिव के शिष्य थे। धनुर्विद्या में वह पूर्ण तज्ञ थे। उनके जैसा उस समय अन्य कोई धनुर्धर नहीं था। द्रोण प्रसन्नता पूर्वक उनसे धनुर्विद्या सीखकर निपुण हो गए।द्रोण को स्मरण था कि द्रुपद ने राजा बनने पर उनकी सहायता का वचन दिया था। अतः पर्याप्त मात्रा में दान की अपेक्षा से वह राजा द्रुपद के यहाँ पहुँचे। उनकी आशा के विपरीत द्रोण का घोर अपमान किया गया। द्रुपद ने कहा “एक राजा और एक भिखारी में मित्रता कहाँ संभव है ? अतः द्रोण के मन में बदले की आग

जलती रही। सभी शस्त्रों के विशेषज्ञ भीष्म पाण्डवों तथा कौरवों को शस्त्र विद्या सिखाते रहे। कृपाचार्य उनके कुलगुरु थे। अतः वह भी कौरवों व पाण्डवों को शस्त्र विद्या सिखाने में सहायता करते थे, क्योंकि भीष्म धृतराष्ट्र को राज्य कार्य संभालने में सहायता करने के लिए पर्याप्त समय देते थे।एक दिन द्रोणाचार्य अपने साले कृपाचार्य से मिलने के लिए उनके निवास पर गए। भीष्म ने सभी राजकुमारों को शस्त्र विद्या सिखाने के लिए आचार्य के नाते द्रोण की नियुक्ति कर दी। अतः द्रोण को अपनी आजीविका चलाने का उत्तम साधन प्राप्त हो गया। कुछ दिनों की शिक्षा के पश्चात् द्रोण को अर्जुन की ग्रहण शक्ति की क्षमता का अनुमान हो गया।
द्रोणाचार्य
अतः उन्होंने अर्जुन की ओर विशेष ध्यान देना आरंभ किया। दिन-रात के अभ्यास व परिश्रम के फलस्वरूप अर्जुन तत्कालीन (उस समय के) श्रेष्ठतम धनुर्धारी बन गए। द्रोण ने अपने महान शिष्य अर्जुन को राजा द्रुपद को युद्ध में हराकर बंदी बनाकर लाने का आदेश दिया। अर्जुन ने अपने गुरु के आदेश का तुंरत पालन किया तथा अति सरलता से बंदी द्रुपद को आचार्य के सामने प्रस्तुत किया। द्रोण ने द्रुपद से कहा, “द्रुपद, अब तुम मेरे दास हो। परंतु मैं तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहता, अब तुम मेरे मित्र रहकर तुम अपने राज्य के आधे भाग पर ही राज्य करोगे। अब हम समान स्त के मित्र हुए। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद के

गर्व (स्वाभिमान) को चोट पहुँचायी।अतः द्रुपद द्रोण से अपमान का बदला लेने के उचित (उपयुक्त) अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। अर्जुन द्रुपद की पुत्री द्रोपदी को स्वयंवर में जीत कर ले गए। इस प्रकार वह राजा द्रुपद के दामाद बन गए। महाभारत के युद्ध में द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न पांडवों के सेनापति नियुक्त हुए। धृष्टद्युम्न ने ही आचार्य द्रोण का वध किया। इस प्रकार द्रुपद को अपने अपमान का बदला चुकाने की प्रसन्नता हुई।भीष्म के पश्चात् आचार्य द्रोण कौरव सेना के सेनापति नियुक्त किए गए। युद्ध कला में व्यूह रचना में उन्हें आश्चर्यजनक कुशलता प्राप्त थी। उनकी इस कुशलता के कारण शत्रु सेना को महान क्षति (हानि)
द्रोणाचार्य
हुई। द्रोण यदि अर्जुन को युद्ध स्थल से दूर जाने के लिए विवश न करते और दुर्योधन को ठीक समय पर उचित परामर्श न देते तो अभिमन्यु का वध असंभव होता। की द्ध से पूर्व द्रोण ने धृतराष्ट्र और दुर्योधन को सलाह दी थी कि वे युधिष्ठिर को उसका राज्य लौटाकर शांति संधि कर लें। परंतु लाचार होकर उनकी ओर से उन्हें भी युद्ध में भाग लेना पड़ा।
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