धृतराष्ट्र और दुर्योधन और शकुनि और गांधारी : विचित्रवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र धृतराष्ट्र थे। वे जन्मांध होने के कारण राजा नहीं बन सके। उनके छोटे भाई पाण्डु को ही राजा घोषित किया गया। परंतु पाण्डु की असमय मृत्यु के कारण धृतराष्ट्र ने राजा का कार्यभार सँभाला। यद्यपि उचित व अनुचित, करणीय व अकरणीय का ज्ञान उन्हें भली प्रकार से था, तो भी पुत्र मोह में वे निष्पक्ष नहीं रह पाए। अपने अंधेपन के कारण उनके साथ हुए अन्याय के विचार के कारण वह अनुचित निर्णय लेते रहे। यही उनके विनाश का मूल कारण बना। #दुर्योधन
उदाहरण के रूप में, युधिष्ठिर प्रथम बार जुआ खेलकर अपना सर्वस्व गँवा बैठे तथा उन्हें वनवास का दंड स्वीकार करना पड़ा। उस समय धृतराष्ट्र ने उनको बुलाकर उनका खोया हुआ सर्वस्व लौटा दिया। इस घटना से उनकी न्यायप्रियता के दर्शन होते हैं। परंतु अपने पुत्र मोह में युधिष्ठिर को पुनः जुआ खेलने के लिए बुलाना अन्याय ही दर्शाता है।#दुर्योधन
ऐसा कहा जाता है कि धृतराष्ट्र में एक हजार हाथियों के समान बल था। यह सत्य है कि शारीरिक बल की दृष्टि से वे बहुत बलवान थे। जब उन्होंने यह सुना कि अकेले भीम ने ही उनके सभी पुत्रों का वध किया था, भीम के बारे में उनके क्रोध का पारावार न रहा। भीम से बदला लेने की आंतरिक भावना से वह जल रहे थे। युद्ध समाप्ति के बाद भीम उनसे मिलने गए। श्रीकृष्ण भी भीम के साथ गए। श्रीकृष्ण दुष्टों के साथ दोहरी दुष्टता से व्यवहार करने वालों में से थे। उन्होंने धृतराष्ट्र की बदले की आंतरिक भावना को पहचान लिया। इसलिए उन्होंने भीम की एक लोहे की मूर्ति बनवा ली थी। जब धृतराष्ट्र ने भीम को आलिंगन के लिए पास बुलाया, श्रीकृष्ण ने भीम के स्थान पर लोहे की मूर्ति का ही आलिंगन करवा दिया।
दुर्योधन का बल

भीम को आलिंगन के बहाने धृतराष्ट्र ने लोहे की मूर्ति को अपने शक्तिशाली आलिंगन से चकनाचूर कर दिया। मूर्ति के अनेक टुकड़े हो गए। दुर्योधन हस्तिनापुर का राजकुमार तथा राज्य का उत्तराधिकारी था। वह ईर्ष्या एवं लोभ का अवतार था। वह एक अद्भुत इच्छाशक्ति का सुदृढ़ व्यक्ति था। वह एक अच्छा वक्ता व राजनीतिज्ञ था। वह एक अच्छा मित्र भी था। भले ही स्वार्थवश ही क्यों न हो, उसने कर्ण की योग्यताओं को पहचान कर उसे मित्र बनाकर अंग राज्य का राजा घोषित कर दिया तथा कर्ण से जीवन के अंतिम क्षण तक मित्रता निभाई।
उसमें स्वछंद रूप से शासन करने की क्षमता थी। उसके आदेश का पालन न करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। उनके पिता राजा धृतराष्ट्र या पितामह भीष्म में भी नहीं।
दुष्ट व्यक्ति की दुष्टता की क्या सीमा हो सकती है, दुर्योधन उस दुष्टता का प्रतीक है। उसने अनेक बार व अनेक प्रकार से भीम की हत्या करने के असफल षड्यंत्र रचे। अपने पिता की पूर्ण सहमति से उसने पाण्डवों के लिए का निर्माण करवाकर पाण्डवों को जीवित जलाने की योजना बनाई। अपने मामा शकुनि के सहयोग से युधिष्ठिर को धोखा देकर वह सब हथिया लिया, जो कानूनी रूप से और वंश परंपरा से उनका था। पाण्डवों को देश निकाला देकर जंगलों में भिजवाने के बाद वह उनको दुखी होते हुए देखने एवं आनंदित होने के उद्देश्य से पाण्डवों के पास वन की ओर चल दिया। षड्यंत्र रचकर ऋषि दुर्वासा को पाण्डवों को शापित करने के उद्देश्य से पाण्डवों के पास जाने के लिए प्रेरित किया। मकासुर को जंगली सुअर के छद्मरूप में अर्जुन का वध करने के लिए तैयार किया। बिना युद्ध के ‘सुई की नोक पर जमीन देना’ भी स्वीकार नहीं किया।
अपने समस्त भाइयों तथा असंख्य मित्रों, साथ ही सभी योद्धाओं के विनाश के बाद वह एक तालाब में कूद कर छिप गया। अन्ततोगत्वा भीम के साथ द्वन्द्व युद्ध में भीम ने उसकी जंघा चीर दी और वह (दुर्योधन) मारा गया।
शकुनि महारानी गांधारी का भाई तथा दुर्योधन का मामा था। वह दुष्टता की सीमा का प्रतीक था। कौरव वंश के पूर्ण विनाश के लिए वातावरण बनाने और उसे कार्यान्वित करने वाला प्रमुख पात्र शकुनि ही था। शकुनि ही दुर्योधन के लिए सभी दुर्नीतियाँ बनाता था। यदि वह दुर्योधन को उत्तम सलाह देता, तो महाविनाशकारी युद्ध को टाला जा सकता था।
लाक्षागृह उसी की योजना से बनवाया गया। पास के खेल में युधिष्ठिर को बुलवाकर धोखे से हराने का विचार भी उसी का ही था ‘अक्षरहृदया’ मंत्र के द्वारा पासे के खेल में युधिष्ठिर को हराकर उनका सर्वस्व छीन लेने का कार्य उसी ने करवाया। परिणामस्वरूप पाण्डवों को बारह वर्षों तक वनवास तथा तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास का दंड भी भोगना पड़ा। अज्ञातवास में पहचाने जाने पर पुनः तेरह वर्षों के दंड की शर्त भी उसी ने ही रखवायी।
अपने समस्त भाइयों तथा असंख्य मित्रों के साथ सभी योद्धाओं के विनाश के बाद वह एक तालाब में कूद कर छिप गया। अन्तोगत्वा भीम के साथ द्वन्द युद्ध में भीम ने उसकी जँघा चीर दी और वह (दुर्योधन) मारा गया। एक अत्यंत सात्विक व्यक्तित्व की महिला गांधारी नारी मात्र के लिए आदर्श उदाहरण के रूप में थी। अपने भाई शकुनि तथा बड़े बेटे के नेतृत्व में उसके बेटों के द्वारा किए गए धार्मिक कुकृत्यों के कारण उसको जीवनभर अकथनीय मानसिक यातनाओं को सहन करना पड़ा।
वह गंधार नरेश की पुत्री तथा कौरवों के राज्य की महारानी थी। वह अति अल्प भाषिणी थी। जब जानकारी मिली कि उसका विवाह एक जन्मांध राजा से होने वाला है तो उसने भी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर पति के समान ही दृष्टिहीन रहने का संकल्प कर लिया। “जो सुख मेरे पति को नहीं मिला, उस सुख का उपयोग मैं भी नहीं करूँगी।” यह पावन विचार उसके पतिव्रता होने का प्रमाण है। वास्तविक जीवन या पुराणों में ऐसी पवित्र आत्मा के कितने कम उदाहरण मिलेंगे!
बुद्धारंभ से पूर्व जब दुर्योधन उसके पास आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा तो उसे यही कहा “यतो धर्मः ततोजयः” अर्थात् “जहाँ धर्म हैं, वहीं विजय है।”कोई भी माता, जिसका पुत्र भले ही अत्यंत दुष्ट और दुष्चरित्र हो क्यों न हो, अपने पुत्र की सफलता एवं कल्याण का ही विचार करेगी। परन्तु पवित्र विचारों की अतुलनीय माता गांधारी पुत्र से कहती थी। “पुत्र, सदा धर्म की ही जय होती है।” गांधारी ने युद्ध में धर्म की विजय देखी। उसके सभी अधर्मी पुत्र युद्ध में मारे जा चुके थे। वह टूट चुकी थी तथा दहाड़ें मार-मार कर रो रही थी।
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