
नकुल ,सहदेव और अभिमन्यु : नकुल भाइयों में चौथे तथा सहदेव सबसे छोटे थे। वे दोनों देवताओं के चिकित्सक (वैद्य) अश्विनी देव के आशीर्वाद से उत्पन्न हुए थे। मादरी उनकी माता थी। क्योंकि वन में पाण्डु स्वर्ग सिधार गए थे तथा मादरी उनके साथ सती हो गई थी, कुंती ने ही शेष तीनों भाइयों के साथ दोनों को विशेष ध्यानपूर्वक पाला।
राजा विराट के यहाँ एक वर्ष के अज्ञातवास के काल में नकुल धर्मग्रंथी नाम से घुड़शाला में घोड़ों के प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किये गए। पशु चिकित्सा में वह तज्ञ थे।
सहदेव, जिन्हें युधिष्ठिर ज्ञान में असुरों के गुरु शुक्र के समान योग्य मानते थे, विराट की गोशाला में गायों (गऊओं) की देखरेख के लिए नियुक्त किए गये। युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ का आयोजन किया, सहदेव ने ही श्रीकृष्ण के नाम का प्रथम विशेष पूज्य व्यक्ति के नाते प्रस्ताव रखा था। दोनों भाइयों ने महाभारत युद्ध में वीरता एवं साहसपूर्ण ढंग से पौरुष एवं पराक्रम दिखाया। शत्रु सेना के असंख्य सैनिकों को यमलोक पहुँचाया। सहदेव ने महाभारत के दुष्ट एवं षड्यंत्रकारी पात्र शकुनि का वध किया।
महाभारत का सबसे छोटा वीर योद्धा अभिमन्यु था। सोलह वर्ष की आयु में वह युद्ध में वीरगति को पा गया (मारा गया)। उसका वध कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में अनैतिक हत्याओं में से एक था।यह अर्जुन व सुभद्रा का पुत्र था तथा श्रीकृष्ण का भांजा (बहन का पुत्र) था। कोमल आयु में ही बालक अभिमन्यु अपने पिता एवं चाचा-ताउओं से युद्ध कला के सभी अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा लेकर निपुण (तज्ञ) हो गया था।
सोलह वर्ष की आयु में ही राजा विराट की पुत्री उत्तरा से उसका विवाह करा दिया गया। युद्ध में उसके वध के समय उसके विवाह को हुए केवल बीस दिन ही हुए थे।
प्रथम दिन के युद्ध में पाण्डवों की सेना की भीषण क्षति (हानि) हुई। जहाँ कहीं भी भीष्म जाते वहाँ मौत का तांडव नृत्य होता । (सैनिक बहुत संख्या में मारे जाते)। उसका सहन नहीं कर सका। उसने भीष्म पितामह पर आक्रमण कर दिया। यह दृश्य अत्यंत विरोधाभासी था। एक ओर एक ही वंश के वरिष्ठतम प्रौढ़ भीष्म पितामह थे, दूसरी ओर उसी वंश का सबसे छोटा बालक था। दोनों आमने-सामने होकर युद्ध कर रहे थे। ज्यों ही उसका का रथ महानतम योद्धा भीष्म की ओर चुनौती देता हुआ बढ़ता, बहुत से वरिष्ठ जन बीच में आकर भीष्म का बचाव करते हुए
अभिमन्यु

अभिमन्यु से युद्ध करते। उसी टकराव (युद्ध) के बीच कृतवर्मा को उसका का एक बाण तथा साल्व को पाँच बाण लगे। भीष्म को उसके नौ बाण लगे। दुर्मुख का रथ नष्ट हो गया तथा उसका शीश कटकर धरती पर लोट-पोट होने लगा। उसके एक बाण से कृपाचार्य का धनुष टूट गया।
पाण्डवों की सेना प्रथम दिन ही समाप्त हो जाती। यदि वीर बालक अभिमन्यु भीष्म से टकराने का साहस न करते। जब और जहाँ भी पाण्डव सेना में खलबली मचती, अभिमन्यु तुरंत वहाँ पहुँचकर मोर्चा सँभाल कर रक्षा करते।
युद्ध के तेरहवें दिन अर्जुन को मुख्य युद्ध क्षेत्र से हटकर उन्हें चुनौती देने वालों से युद्ध करना पड़ा, द्रोणाचार्य ने सेना की ‘कमल व्यूह’ में रचना की। फिर युधिष्ठिर पर सीधा आक्रमण कर दिया। भीम, सात्यकी, धृष्टद्युम्न, चेकितान, कुंतीभोज, द्रुपद, घटोत्कच, युद्धमन्यु, शिखंडी, उत्तमौजस, विराट, कैकेय तथा अन्य अनेक योद्धाओं ने द्रोणाचार्य को रोकने का प्रयास किया, परंतु वे सब असफल हो गए तथा व्यूह तोड़ नहीं सके।
तब निर्भीक महारथी अभिमन्यु ने अपना रथ द्रोणाचार्य की ओर मोड़ा। उसके पुराने अनुभवी सारथी सुमित्र ने उन्हें सतर्क किया “आचार्य कुशलता एवं अनुभव में अतुलनीय हैं। यद्यपि आप वीरता में उनके समान हैं।” निडर योद्धा अभिमन्यु ने रथ को आगे बढ़ाने का आदेश दिया। उसने कौरव सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। व्यूह को तोड़कर अपने बढ़ने का मार्ग बनाया। परंतु जयद्रथ ने समय पर सभी को सावधान करके व्यूह रचना पुनः सुधार कर दृढ़ कर ली।
कौरव योद्धा एक-एक करके गिरते गए। अभिमन्यु के बाणों से सैनिकों के शरीर घायल होकर भूमि पर गिरते जाते। सारा युद्ध क्षेत्र बाणों, धनुषों, तलवारों, ढालों, रथ के टुकड़ों, कुल्हाड़ियों, भालों आदि युद्ध के शस्त्रों तथा सैनिकों के सिरों से पटा पड़ा था (भरा हुआ था)।
अभिमन्यु की युद्ध की गति को रोकने में असमर्थ कौरव योद्धाओं, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, शकुनि, साल्व तथा अन्यों ने मिलकर अभिमन्यु पर सामूहिक आक्रमण किया। परंतु वह निश्चिंत होकर एक-एक को बारी-बारी हराता रहा। तब दुःशासन अपना रथ अभिमन्यु के रथ के सामने ले आया। काफी देर तक युद्ध चलता रहा। दुःशासन बेहोश होकर अपने रथ पर ही गिर पड़ा तथा उसके रथवान ने रथ को दूर ले जाकर दुःशासन की जान बचा ली। तब अभिमन्यु पर कर्ण ने आक्रमण किया। परंतु अभिमन्यु के एक बाण ने कर्ण के धनुष को तोड़ दिया। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अभिमन्यु ने कर्ण और उसके सहायकों को युद्ध में उलझाये रखा। कौरव सेना पूरी तरह से हतप्रभ (निराश) हो चुकी थी।
युद्ध के नियमानुसार ईमानदारी से युद्ध करने में असमर्थ कौरव योद्धाओं को देखकर द्रोणाचार्य ने विश्वासघात (धोखा) किया। उन्होंने कर्ण के कान में कहा “अभिमन्यु के कवच को छेदना असंभव है। घोड़ों की लगामों को निशाना बनाकर उसे असमर्थ करके पीछे से उस पर आक्रमण करो।” कर्ण ने वैसा ही किया और अभिमन्यु धराशायी हो गया।
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