
भास्कराचार्य जी का संझिप्त का परिचय का जाने
भास्कराचार्य जी का संझिप्त परिचय
भारतीय इतिहास में दो भास्कराचायों का विवरण मिलता है। इनमें से भास्कराचार्य प्रथम का जन्म नौवी शताब्दी में हुआ था। वे दर्शन तथा वेदान्त के प्रकाण्ड पंडित थे। यहाँ हम विशेष चर्चा भास्कराचार्य द्वितीय की करेंगे जिनका जन्म 1114 ई. में हुआ था। ये गणित व खगोल शास्त्र के महान् वैज्ञानिक थे।
कुछ विद्वानों के अनुसार उनका जन्म मध्य प्रदेश के बिदूर नामक स्थान पर हुआ था। जबकि कुछ का मानना है कि उनका जन्म कर्नाटक के बीजापुर में हुआ था। परन्तु विद्वानों के मध्य इस बात पर कोई मतभेद नहीं है कि भास्कराचार्य द्वितीय का कर्मक्षेत्र उज्जैन था। उज्जैन स्थित ज्योतिषीय वेधशाला के प्रधान के रूप में उन्होंने काफी लम्बे समय तक कार्य किया।
जब भास्कराचार्य की आयु केवल बत्तीस वर्ष की थी तो उन्होंने अपने प्रथम ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ की रचना की। सिंद्धात शिरोमणि चार भागों में हैं ये चार भाग हैं- लीलावती, बीजगणित, गणिताध्याय, गोलाध्याय । इनमें से लीलावती गणित के क्षेत्र की एक महान कृति मानी जाती है।
इस ग्रंथ का नामकरण उन्होंने अपनी लाडली पुत्री लीलावती के नाम पर किया था। लीलावती छन्दों में लिखा गया पद्यात्मक ग्रंथ है। पद्य की विद्या में होने से इसे पढ़ने और याद करने में सुविधा होती है। इसमें गणित की विभिन्न विधियों को मनोरंजक रूप से समझाया गया है। ‘बीजगणित’, ‘गणिताध्याय’ व ‘गोलाध्याय’ नामक खण्डों में भी गणित व खगोल विज्ञान सम्बन्धी अनेक नियमों का प्रतिपादन किया गया है।
भास्कराचार्य द्वारा लिखित एक अन्य प्रमुख ग्रंथ का नाम है ‘सूर्य सिद्धांत’। इस ग्रंथ में बताया गया कि पृथ्वी का आकार गोल है और यह सूर्य के चारों और एक निश्चित कक्षा में परिक्रमा करती है। भास्कराचार्य ने बताया कि पृथ्वी अंतरिक्ष में बिना किसी आधार के टिकी हुई है। वस्तुतः सूर्य व अन्य खगोलीय पिण्ड एक दूसरे को आकर्षित करते हैं तथा इसी आकर्षण बल के सहारे सभी खगोलीय पिण्ड अंतरिक्ष में टिके हुए हैं। इसे ‘गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत’ कहा जाता है।
वर्तमान में इस सिद्धांत के प्रतिपादन का श्रेय न्यूटन (1686 ई.) को दिया जाता है जबकि वास्तविकता में भास्कराचार्य ने न्यूटन से पाँच सौ वर्ष पहले ही इस सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया था। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भास्कराचार्य का एक अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ ‘करण कौतूहल’ है। इस ग्रंथ में उन्होंने बताया कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता है।
तो सूर्य ग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है। उनके समय में दूरबीन का आविष्कार नहीं हुआ था, फिर भी आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने ग्रहों तथा नक्षत्रों की गति व स्थिति इत्यादि के विषय में सटीक व त्रुटिरहित जानकारियाँ दी। बताया जाता है कि अपने शोध कार्यों में वे इतने तल्लीन हो जाते थे
कि उन्हें भोजन करना अथवा विश्राम करना भी याद नहीं रहता था। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों का अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया जा चुका है। मुगल शासक अकबर के दरबारी लेखक फैजी द्वारा ‘लीलावती’ का अनुवाद अरबी भाषा में किया गया। कोल ब्रुक नामक एक यूरोपीयन विद्वान द्वारा लीलावती का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में किया गया। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों से आज भी देशी व विदेशी शोधकर्ता मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं।
भारत की प्राचीन व महान वैज्ञानिक परम्परा को पुनर्जाग्रत करने में भास्कराचार्य का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। जिस समय विदेशी आक्रमणों के चलते भारत की सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, कला आदि छिन्न विछिन्न होती जा रही थी। भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक एकता को नष्ट करने के कुचक्र चलाये जा रहे थे। इन विषम परिस्थितियों में भी जिस प्रकार भास्कराचार्य ने अपनी अद्भुत योग्यता के बल पर विश्व को नवीन अविष्कारों व ज्ञान से आलोकित किया, वह अद्वितीय है। उनका देहावसान सन् 1179 में 65 वर्ष की आयु में हो गया परन्तु अपने ग्रंथों एवं सिद्धांतों के रूप में वे सदैव अमर रहेंगे। भारत सरकार ने उनके सम्मान में अपने एक उपग्रह का नाम भास्कर रखा है।
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