
महर्षि वसिष्ठ के प्रति निरादर का अपराध करने के कारण आठ वसुओं को पृथ्वी पर मानव रूप में जन्म लेने का श्राप मिला। महर्षि ने कहा “आपमें से सात तो जन्म लेने के तुरंत पश्चात् लौट आयेंगे, परंतु आठवें वसु चिरकाल तक गौरव पूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे। वसुओं ने माँ गंगा से प्रार्थना की कि वही उन सबकी जननी बनकर उन्हें जन्म के तुरंत बाद मुक्त करा दें। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
भीष्म गंगा नदी के किनारे

एक दिन राजा शांतनु गंगा नदी के किनारे सैर कर रहे थे। उनकी भेंट एक अत्यंत रूपवती सुंदरी से हुई। उन्होंने अब तक ऐसी सुंदरता के बारे में न कभी सुना था, न कभी प्रत्यक्ष देखी थी। उनकी सभी इंद्रियाँ उसके रूप के जादू से उत्तेजित (बेकाबू हो गई थीं। तुरंत वह उस मानवेत्तर सुंदरता के दास हो गए। उन्होंने सच्चे मन से प्रार्थना की कि वह उनकी पत्नी बनना स्वीकार करे, उसने अपनी स्वीकृति तो दे दी परंतु एक शर्त रखी कि राजा कभी भी उसके किसी भी कार्य पर आपत्ति नहीं करेंगे और कभी यह भी नहीं पूछेंगे कि “मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ अथवा किस उद्देश्य से यहाँ आई हूँ?” प्रेम के वशीभूत होकर राजा ने जल्दबाजी में उसकी सभी शर्तें स्वीकार करके उससे विवाह कर लिया। वे प्रसन्नतापूर्वक सुखी दाम्पत्य जीवन बिताने लगे। गंगा ने क्रमशः आठ पुत्रों को जन्म दिया। सात बार, बच्चे को जन्म देते ही वह उसे नदी में बहा कर प्रसन्न चित्त से घर लौट आती। यद्यपि राजा अत्यंत भयभीत हो जाते थे, परंतु कभी अपनी प्रतिज्ञा (वचन) तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।

परंतु जब गंगा आठवें पुत्र को लेकर जाने लगी, राजा ने उसे रोक लिया। गंगा ने कहा “आपने समझौता भंग किया है, अब हमें अलग होना ही होगा। मैं इस शिशु को अपने साथ ले जाऊँगी, सका लालन-पालन करूँगी तथा इसे सब तरह के ज्ञान-विज्ञान मैं पारंगत करके इसे आपको सौंप जाऊँगी।” ऐसा कहकर वह पुत्र के साथ अदृश्य हो गई।
शांतनु के वह पुत्र देवव्रत थे। वे भीष्म के नाम से विख्यात हुए।
गंगा के जाने की दुःखदायी घटना से शांतनु का जीवन एकांगी तथा नीरस हो गया। बीतते समय के साथ देवव्रत सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, विशेष रूप से सामरिक विद्या में तज्ञ (निपुण) हो गए। सोलह वर्ष की आयु के होने पर महाराज ने उन्हें युवराज घोषित कर दिया।
एक दिन शांतनु एक दुर्लभ सुगंध से मंत्रमुग्ध से हो गए। खोज करने पर उन्हें पता चला कि मछुआरों के प्रमुख की एक कन्या इस सुगंध का कारण (माध्यम) थी। उसका नाम सत्यवती था। उसकी अनुपम सुंदरता ने उन्हें बेबस कर दिया। उस कन्या से विवाह का प्रस्ताव उन्होंने उसके पिता के पास भिजवाया। मछुआरों का मुखिया इस प्रस्ताव से अत्यंत आनंदित हुआ। परंतु उसने विवाह की एक शर्त रखी। शर्त थी कि सत्यवती का पुत्र ही उस राज्य का राजा बनेगा।
शांतनु ने यह शर्त स्वीकार नहीं की क्योंकि वह देवता के समान अपने पुत्र देवव्रत को धोखा नहीं देना चाहते थे। शांतनु असफल प्रेमी के नाते दुखी मन से घर लौटे। देवव्रत को जब पूरी घटना का पता चला, वह स्वयं सत्यवती के पिता के पास गए। सत्यवती के पिता की शर्त मानने का आश्वासन देकर सत्यवती को अपने पिता के इसी भीषण (भीष्म) प्रतिज्ञा के कारण वह भीष्म के नाम से विख्यात हो गए।
युद्ध में चित्रांगद की मृत्यु के पश्चात् विचित्रवीर्य, जो अभी किशोरावस्था के भी नहीं हुए थे, को अप्रत्यक्ष रूप से युवराज बनाकर भीष्म उनके स्थान पर राज्य कार्य संभालने लगे।
भीष्म ने सुना कि काशी नरेश की तीन कन्याओं अम्बा, अम्बिका तथा अम्बालिका के लिए स्वयंवर की व्यवस्था की जा रही है।
भीष्म विचित्रवीर्य के लिए पत्नी ढूंढ ही रहे थे। तुरंत वह काशी के लिए रवाना हुए। सभी ख्याति प्राप्त राजकुमार काशी पहुँच चुके थे क्योंकि सबने तीनों की योग्यता एवं सुंदरता की प्रशंसा सुनी थी।
भीष्म को वहाँ स्वयंवर में प्रतिस्पर्धी के रूप में समझकर वहाँ बैठे सभी राजकुमार भीष्म को कोसने लगे। भीष्म ने उन सभी को सीधे युद्ध के लिए ललकारा। अकेले महारथी भीष्म ने सबको हरा दिया तथा तीनों कन्याओं का हरण करके उन्हें हस्तिनापुर ले आये। विवाह की तैयारी आरंभ हो गई।
तीनों बहनों में सबसे बड़ी बहन अंबा सुबाला के राजा साल्व से प्रेम करती थी। स्वयंवर के समय भीष्म ने साल्व को भी पराजित किया था। अंबा ने भीष्म के पास जाकर स्वयं ही उन्हें इस तथ्य से अवगत कराया (सच्चाई की जानकारी दी)। भीष्म ने उचित सुरक्षाकर्मियों के साथ उसे साल्व के पास भिजवा दिया। विचित्रवीर्य का दोनों बहनों के साथ बड़ी धूम-धाम से विवाह हो गया।
परंतु साल्व ने अंबा को अस्वीकार कर दिया। अतः हस्तिनापुर लौटकर उसने भीष्म से विवाह के लिए प्रार्थना की। परंतु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा उसे बताकर अपनी विवशता समझाने का प्रयत्न किया। इस प्रकार अपमानित एवं निराशापूर्ण जीवन देखकर अम्बा ने भीष्म से बदला लेने की ठानी।

भगवान सुब्रमण्यम को प्रसन्न करने के लिए उसने घोर तपस्या की। सुब्रमण्यम उसकी साधना से प्रसन्न होकर उसके सम्मुख प्रकट हुए। उन्होंने उसे कमल की एक ऐसी माला दी, जिसके फूल सदा ही ताजे रहेंगे, मुरझाएँगे नहीं। उन्होंने कहा “इस माला को पहनकर भीष्म से युद्ध करने वाला अवश्य विजयी होगा। अतः माला को लेकर वह समकालीन सभी वीर योद्धाओं एवं राजाओं के पास गई, परंतु भीष्म से लोहा लेने की हिम्मत किसी में नहीं थी। अतः उसने वह माला राजा द्रुपद के राज्य के प्रवेश द्वार पर लगा दी। तब उसने महादेव शिव की उपासना करनी आरंभ की। संतुष्ट होकर शिव ने प्रकट होकर उसे शुभाशीष दिया कि अगले जन्म में वह भीष्म से बदला ले सकेगी। स्वाभाविक मृत्यु तक धैर्य न रख पाने के कारण अंबा ने आत्मदाह कर लिया। बाद में राजा द्रुपद के यहाँ शिखंडी के रूप में उसका पुनर्जन्म हुआ। यही शिखंडी महान धनुर्धारी के रूप में विख्यात होने लगा। एक दिन शिखंडी ने प्रवेश द्वार पर ताजे कमल फूलों की माला देखी। उसने वह माला वहाँ से उतारकर पहन ली।
कौरव-पाण्डवों (महाभारत) के युद्ध में भीष्म कौरवों के सेनापति थे। उन्होंने प्रथम दस दिन में पाण्डव सेना को अत्यधिक क्षति (हानि) पहुँचाई। दसवें दिन ही अर्जुन ने शिखंडी के पीछे खड़े होकर भीष्म पर आक्रमण किया। भीष्म को ज्ञात था कि अंबा ने ही शिखंडी के रूप में पुनर्जन्म लिया है। अतः अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार नारी पर आक्रमण नहीं किया। (बाण नहीं चलाये)। अत: उनके शरीर पर अर्जुन तथा शिखंडी के बाणों की वर्षा होती रही और अंत में वे भूमि पर शर-शैय्या पर गिर गए। सभी ने उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त किया। भीष्म कौरवों तथा पाण्डवों को समान रूप से प्यार करते थे। उन्होंने युद्ध टालने के भरसक प्रयत्न भी किये।
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