
महाराणा प्रताप जयन्ती विशेष क्यों है ?
भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम साहस, शौर्य त्याग एवं बलिदान के लिए सदैव अत्यधिक प्रेरणा देने वाला रहा है। मेवाड के सिसोदिया वंश में बाप्पा रावल, राणा हमीर, राणा सांगा जैसे महाप्रतापी शूरवीर राजा हुए वे सभी राणा के नाम से जाने जाते थे। परन्तु ‘महाराणा’ का गौरवयुक्त संबोधन केवल प्रतापसिंह कोमहाराणा प्रताप जयन्ती ही मिला था।
09 मई, 1540 को प्रताप का जन्म हुआ। मेवाड़ के राणा द्वितीय उदयसिंह की 23 सन्तानें थीं। उनमें प्रताप सबसे बड़े थे। माता रानी जयवन्ता बाई उच्च संस्कारों की धार्मिक महिला थी। वह स्वाभिमानी व सद्गुणी थीं।महाराणा प्रताप जयन्ती प्रताप के बाल्यकाल के किया-कलापों से यह स्पष्ट दिखने लगा था।
उन दिनों भारत में मुगल बादशाह अकर अत्यंत शक्तिशाली था। वह कूटनीतिज्ञ था और महधूर्त था। बड़ी चालाकी से शूर राजपूतों से मित्रता बढ़ा कर वह उन्हें अपने अधीन कर लेता था। वह हिन्दुओं के ही बल से, हिन्दू नरेशों को गुलाम बनाता। हिन्दू वीरों को पालतू बाज बना कर उन्हें पूर्णतः नियन्त्रण में कर लेता । हिन्दूओं की मूर्खता तथा उनकी आपसी फूट का अकबर ने भरपूर लाभ उठाया।
राणा प्रताप जब राजसिंहासन पर बैठे तब देश की परिस्थिति अत्यन्त प्रतिकूल थी। वे चारों ओर शत्रुओं से घिरे थे। इससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात यह थी कि उनके सगे भाई शक्ति सिंह जगमल दोनों मुगलों से जा मिले थे।
एक दिन राणा प्रताप ने अपने दरबार में विश्वासपात्र सरदारों
की सभा बुलाई। सभा में उन्होंने अपनी धीर गम्भीर एवं ओजस्वी वाणी में कहा- मेरे शूरवीर राजपूत भाइयों।महाराणा प्रताप जयन्ती यह हमारी मातृभूमि, पुण्यभूमि मेवाड़ आज भी यवनों के अधीन है। इसी मेवाड़ की रक्षा के लिए बप्पा रावल, राणा हमीर, राणा सांगा जैसे शूरवीर एवं प्रतापी पूर्वजों ने हँसते-हँसते मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्रणों का बलिदान दिया। वीर राजपूत माताओं ने अपनी मानमार्यादा की रक्षामहाराणा प्रताप जयन्ती हेतु धधकती ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति दे दी। क्या आज हम अपने बाहुबल व शौर्य से मेवाड़ को पुनः स्वतंत्र कराने में सक्षम नहीं है।?

आज आपके सामने मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ -महाराणा प्रताप जयन्ती जब तक चितौड़ को स्वतंत्र नहीं करा लेते, मैं सोने-चांदी की थाली में भोजन नहीं करूँगा, मुलायक गद्दों पर नहीं सोऊँगा, राजभवन में वास नहीं करूंगा। राणा प्रताप के इन प्रेरक उद्गारों तथा उनकी कठोर प्रतिज्ञा के फलस्वरूप उपस्थित सभी सरदारों में उत्साह की लहर दौड़ गयी। व्यवहार कुशल महाराणा प्रताप ने सारी परिस्थिति का सम्यक अध्ययन एवं परीक्षण किया एवं गढ़ कोटों को छोड़कर गिरिकंदराओं में, संकरी घाटियों में रह कर शत्रु से लड़ने का मार्ग अपनाया।
स्वाभिमान का प्रतीक– एक बार शीतल नामक एक भाट अपनी यात्रा के दौरान महाराणा के दरबार में आ पहुँचा। महाराणा का तेजस्वी, तपस्वी रूप देखकर उसका कवि मन भावविभोर हो उठा औरमहाराणा प्रताप जयन्ती उसके मुख से यशोगान स्वरूप एक वीररसयुक्त कविता निकल पड़ी जिसमें महाराणा के प्रखर स्वाभिमान, अतुलनीय शौर्य, साहस आदि गुणों को यथोचित वर्णन था। पुरूषार्थ, पराक्रम का सन्देश देने वाली यह कविता सुनकर महारणा महाराणा प्रताप जयन्तीअत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरन्त अपनी स्वयं की पगड़ी उतारकर कवि को पहना दी यह अमूल्य उपहार
पाकर शीतल भट्ट ने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। वह आनन्द से फूला नहीं समाया।
शीतल भाट गाँव-गाँव घूमते हुए आगरा जा पहुँचा औरमहाराणा प्रताप जयन्ती वहाँ वह अकर के दरबार में प्रविष्ट हुआ। पूरा दरबार लगा हुआ था। सरदार, मंत्री आदि सभी उपस्थित थे। अकबर सिंहासन पर विराजमान था।महाराणा प्रताप जयन्ती दरबार के नियमानुसार उसे बादशाह के सामने गर्दन झुकाकर प्रणाम करने को कहा गया। शीतल ने उसी प्रकार प्रणाम तो किया, परन्तु उसके पूर्व उसने अपने सिर से पगड़ी उतारकर अपने सीने से लगा ली थी।महाराणा प्रताप जयन्ती यह देखकर अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ।महाराणा प्रताप जयन्ती उत्सुकतावश उसने शीतल से इसका कारण पूछा। शीतल भाट ने बहुत विनम्रता से, किन्तु स्वाभिमानपूर्वक उत्तर दिया ‘सरकार, यह पगड़ी मेरी नहीं, 1 वीरों के शिरोमणि, मेवाड़ सूर्य, महाराणा प्रताप की है जो उन्होंने मुझे उपहार में दी हैं। यह मेरी प्राण से भी अधिक प्रिय अमूल्य धरोहर है। मेरा शीश आपके सामने झुक सकता है। किन्तु यह पगड़ी कदापि नहीं।’
हल्दीघाटी का समर – राणा प्रताप को अपने वश में लगाने के अकबर के सारे प्रयास विफल रहे।महाराणा प्रताप जयन्ती अकबर ने राणा प्रताप से युद्ध करने की ठानी।महाराणा प्रताप जयन्ती इस उद्देश्य से अकबर ने दो लाख सैनिकों की एक प्रचण्ड सेना तैयार करवायी। और इस विशाल सेना का सेनापति बनाया मानसिक को। राणा प्रताप की सेवा में केवल 6000 सैनिक थे जबकि अकबर की विशाल सेना में दो लाख सैनिक थे।
हल्दीघाटी बड़े-बड़े पहाड़ों के मध्य में अकबर की सेना पहाड़ियों को पार कर संकरे मार्ग से हल्दीघाटी में प्रवेश करने लगी। उसी समयमहाराणा प्रताप जयन्ती एकाएक दोनों ओर से शाही सेना पर बाणों की भारी वर्षा होने लगी। बड़े- बड़े पत्थर ऊपर से गितने
महाराणा प्रताप जयन्ती
पाकर शीतल भट्ट ने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। वह आनन्द से फूला नहीं समाया।
शीतल भाट गाँव-गाँव घूमते हुए आगरा जा पहुँचा और वहाँ वह अकर के दरबार में प्रविष्ट हुआ। पूरा दरबार लगा हुआ था। सरदार, मंत्री आदि सभी उपस्थित थे। अकबर सिंहासन पर विराजमान था।महाराणा प्रताप जयन्ती दरबार के नियमानुसार उसे बादशाह के सामने गर्दन झुकाकर प्रणाम करने को कहा गया। शीतल ने उसी प्रकार प्रणाम तो किया, परन्तु उसके पूर्व उसने अपने सिर से पगड़ी उतारकर अपने सीने से लगा ली थी। महाराणा प्रताप जयन्तीयह देखकर अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उत्सुकतावश उसने शीतल से इसका कारण पूछा। शीतल भाट ने बहुत विनम्रता से, किन्तु स्वाभिमानपूर्वक उत्तर दिया ‘सरकार, यह पगड़ी मेरी नहीं, 1 वीरों के शिरोमणि, मेवाड़ सूर्य, महाराणा प्रताप की हैमहाराणा प्रताप जयन्ती जो उन्होंने मुझे उपहार में दी हैं। यह मेरी प्राण से भी अधिक प्रिय अमूल्य धरोहर है। मेरा शीश आपके सामने झुक सकता है। किन्तु यह पगड़ी कदापि नहीं।’
हल्दीघाटी का समर – राणा प्रताप को अपने वश में लगाने के अकबर के सारे प्रयास विफल रहे।महाराणा प्रताप जयन्ती अकबर ने राणा प्रताप से युद्ध करने की ठानी। इस उद्देश्य से अकबर ने दो लाख सैनिकों की एक प्रचण्ड सेना तैयार करवायी। और इस विशाल सेना का सेनापति बनाया मानसिक को। राणा प्रताप की सेवा में केवल 6000 सैनिक थे जबकि अकबर की विशाल सेना में दो लाख सैनिक थे।
हल्दीघाटी बड़े-बड़े पहाड़ों के मध्य में अकबर की सेना पहाड़ियों को पार कर संकरे मार्ग से हल्दीघाटी में प्रवेश करने लगी। उसीमहाराणा प्रताप जयन्ती समय एकाएक दोनों ओर से शाही सेना पर बाणों की भारी वर्षा होने लगी। बड़े- बड़े पत्थर ऊपर से गितने
पाकर शीतल भट्ट ने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। वह आनन्द से फूला नहीं समाया।
शीतल भाट गाँव-गाँव घूमते हुए आगरा जा पहुँचा और वहाँ वह अकर के दरबार में प्रविष्ट हुआ। पूरा दरबार लगा हुआ था। सरदार, मंत्री आदि सभी उपस्थित थे। अकबर सिंहासन पर विराजमान था। दरबार के नियमानुसार उसे बादशाह के सामने गर्दन झुकाकर प्रणाम करने को कहा गया। शीतल ने उसी प्रकार प्रणाम तो किया, परन्तु उसके पूर्व उसने अपने सिर से पगड़ी उतारकर अपने सीने से लगा ली थी। यह देखकर अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उत्सुकतावश उसने शीतल से इसका कारण पूछा। शीतल भाट ने बहुत विनम्रता से, किन्तु स्वाभिमानपूर्वक उत्तर दिया ‘सरकार, यह पगड़ी मेरी नहीं, 1 वीरों के शिरोमणि, मेवाड़ सूर्य, महाराणा प्रताप की है जो उन्होंने मुझे उपहार में दी हैं।महाराणा प्रताप जयन्ती यह मेरी प्राण से भी अधिक प्रिय अमूल्य धरोहर है। मेरा शीश आपके सामने झुक सकता है। किन्तु यह पगड़ी कदापि नहीं।’
हल्दीघाटी का समर – राणा प्रताप को अपने वश में लगाने के अकबर के सारे प्रयास विफल रहे। अकबर ने राणा प्रताप से युद्ध करने की ठानी। इस उद्देश्य से अकबर ने दो लाख सैनिकों की एक प्रचण्ड सेना तैयार करवायी। महाराणा प्रताप जयन्तीऔर इस विशाल सेना का सेनापति बनाया मानसिक को। राणा प्रताप की सेवा में केवल 6000 सैनिक थे जबकि अकबर की विशाल सेना में दो लाख सैनिक थे।
हल्दीघाटी बड़े-बड़े पहाड़ों के मध्य में -अकबर की सेना पहाड़ियों को पार कर संकरे मार्ग से हल्दीघाटी में प्रवेश करने लगी। उसी समय एकाएक दोनों ओर से शाही सेना पर बाणों की भारी वर्षा होने लगी। बड़े- बड़े पत्थर ऊपर से गितने लगे। इसके फलस्वरूप हजारो मुगल सैनिक हताहत हुए। शेष मुगल सैनिक नाणों व पत्थरों की मार सहते हुए बड़े कष्ट से किसी प्रकार उस मार्ग को पार कर हल्दीघाटी के मैदान में पहुँच गये। महारणा अपने प्रिय प्रतापी अश्व ‘चेतक’ पर सवार होकर शत्रुओं की सेना में घुस गये और उन्हें मौत के घाट उतारने लगे।
उन्हें अकस्मात राष्ट्रद्रोही मानसिंह का स्मरण हो गया। महाराणा प्रताप जयन्तीउन्होंने तुरन्त अपना घोडा मानसिक की ओर दौड़ाया। मानसिंह हाथी पर सवार था। उस हाथी के निकट पहुँचते ही महाराणा ने निशाना साधकर अपना भाला मानसिंह की ओर फेंका। किन्तु दुर्भाग्यश लक्ष्य-वेध चूक गया, बार खाली गया। किन्तु भाले से बुरी तरह आहत अपने हाथी पर सवार होकर मानसिंह युद्धभूमि से भाग निकला।
अब तक प्रताप काफी घायल हो चुके थे। यह बात झाला के राणा मानसिंह के ध्यान में आयी।महाराणा प्रताप जयन्ती उन्होंने राणा को बचाने का निश्चय किया । तुरन्त आगे बढ़कर उन्होंने प्रताप का छत्र और उनका किरीट (मुकुट) स्वयं धारण किया। तत्पश्चात् उन्होंने प्रताप से कहा- ‘महाराणा जी, आप थक गये हैं। काफी घायल हो चुके है। दुर्भाग्यवश यदि आप वीरगति को प्राप्त हुए तो मेवाड़ को मुक्त कराना अन्य किसी के बस की बात नहीं है।
मानसिंह झाला की यह बात प्रताप ने मान ली और अविलम्ब अपने घोड़े ‘चेतक’ को अन्यत्र दौड़ाया। शत्रुओं ने महाराणा के मुकुट को पहचाना और ऐसा समझ कर कि वही प्रताप है, झाला पर आक्रमण कर दिया। मानसिंह झाला सजग थे ही। उन्होंने दृढता और बहादुरी से शत्रुओं का मुकाबला किया व कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। वे अपने आखिर दम तक शत्रु से लड़ते रहे। अंत में क्षत्रिय धर्म का समुचित पालन करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए।
इतिहास में राणा प्रताप के समान उनके प्रतापी, स्वाभिमानी व संस्कारी अश्व चेतक की स्मृति भी अमर हो गई। इस घमासान युद्ध में वह भी बहुत घायल हो चुका था। फिर भी उसने अपने स्वामी की जान बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा कर एक बड़े नाले को एक ही छलाँग में पार किया था। नाले के पार पहुँचते ही वह गिर पड़ा। इस प्रकार उसने अपने प्राणा देकर अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा की।हल्दीघाटी का युद्ध अपेक्षानुसार निर्णयात्मक नहीं हुआ अकबर ने गोगुंड पहुँचकर अपना डेरा जमाया। महाराणा अपने सैनिकों के साथ पहाडियों घाटियों में छिपकर वहाँ से छापामार युद्ध करने लगे। महाराणा को पकड़ने के लिए अकबर ने अपनी सेना को चारों ओर रवाना किया। शत्रुओं से घिर जाने पर भी महाराणा विचलित नहीं हुए। उन्होंने गोगुड पर अचानक हमला कर गोगुड तथा उदयपुर के दुर्ग जीत लिये।
दुर्गम गुफाओं में निवास करते समय राणा प्रताप के परिवार को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जंगल में खाद्यान्न का भारी अभाव था। उनकी पत्नी व बच्चे भूख से तड़पने लगे। बिना निद्रा आहार के उन्हें पहाड़ो और जंगलों में भटकना पड़ता था। एक बार महारानी ने जंगली घास के बीजों के आटे से कुछ रोटियों बनायी। महारानी ने अपनी बेटी से कहा- ‘अभी पूरी रोटी मत खाओ। आधी ही खाकर शेष कल के लिए छोड़ दो। तभी कहीं से एक जंगली बिलाव आया और उसने झपटा मारकर लड़की के हाथ से रोटी छीन ली। महाराणा ने जब यह दृश्य देखा तो उनका वज्र-हृदय भी पिघल गया। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उस एक क्षण में उनका मन कुछ विचलित हुआ। ऐसी विवश मानसिक अवस्था में महाप्रतापी महाराणा
प्रताप ने अकबर को पत्र लिखकर सूचित किया कि मैं आपसे संधि करने को तैयार हूँ।
अकबर के हिन्दू सामन्तों में केवल राजकवि पृथ्वीराज ही ऐसा था जो सदा महाराणा प्रताप की प्रशंसा व गुणगान किया करता था। इसलिए अकबर ने पृथ्वीराज को महाराणा प्रताप का पत्र पढ़ने के लिए दिया। पत्र पढ़ते ही पृथ्वीराज के मुख्य से उद्गार निकले… यह पत्र महाराणा प्रताप का कदापि नहीं हो सकता । उनकी उज्जवल (धवल) कीर्ति को कलंकित करने तथा आपके खुश करने के उद्देश्य से ही किसी धूर्त, कपटी व्यक्ति ने यह पत्र लिखा है। आप यदि अनुमति दें तो मैं राणा प्रताप को पत्र लिखकर इसकी सच्चाई का पता लगाऊँगा। अकबर ने सहर्ष सम्मति दी।
राजस्थान के बाजार में प्रताप के अतिरिक्त अन्य सभी को अकबर ने खरीद लिया है। केवल प्रताप को खरीदने का दुस्साहस उसमें नहीं है। अब सभी राजपूतों के लिए आपसे प्रार्थना करने का समय आ गया है कि राजस्थान के क्षात्रतेज एवं धर्म को आप बचाइए। महाराणा प्रताप ने अपना सब कुछ खोकर भी स्वदेश, स्वधर्म, शौर्य एवं स्वाभिमान की रक्षा की है। आपके इस अतुलनीय साहस, पराक्रम को सारी दुनिया सराह रही है। अकबर चिरंजीवी नहीं राजपूतों के वंश-वृक्ष तथा गौरव गरिमा को पुनर्स्थापित करने का समय अवश्य आयेगा।
पृथ्वीराज कवि के इस पत्र ने राणा प्रताप को पूर्ण रूप से झकझोर दिया। उनका मन, जो अस्थिर था, पुनः स्थिर हो गया। राणा प्रताप ने पुनः अपने सरदारों को एकत्रित किया और उनसे दृढतापूर्वक कहा “हम कभी भी अकबर का स्वामित्व स्वीकार नहीं करेंगे। जब तक मन में प्राण है, तब तक हम मेवाड़ के सम्मान हेतु सतत संघर्ष करते रहेंगे।
मुगल सेनापति शाहबाजखान ने हलबीर नामक स्थान पर अपना डेरा लगाया था। अकस्मात एक रात्रि में घने अंधकार का लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने उसके डेरे पर आक्रमण कर उन्हें मार भगा दिया। इसी प्रकार के झंझावाती आक्रमण कर महाराणा में देवियर, अमायति तथा कमलमेर के किले अपने अधन कर लिए। बाद में उदयपुर भी प्रताप के कब्जे में आ गया। इस प्रकार महाराणा एक के बाद एक किलों को जीतते गये। महाराणा प्रतान ने पुनः जागृत होकर अपने दल बल की सिद्धतर की मेवाड प्रान्त को अपने वश में कर लिया है. यह जानकर भी अकबर बादशाह शान्त रह गया। पुनः उसने संघर्ष का साहस नहीं किया।
19 जनवरी 1517 का दिन महाराणा प्रताप का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता गया। उस दिन राणा की अवस्था काफी बिगड गयी थी। पुत्र अमर सिंह को राणा ने अपने पास बुलाया और कहा ‘अमरसिंह, अब मेरे महाप्रयाण का समय निकट आ रहा है। ऐसा मत कहिये पिताजी, आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेंगें, अमरसिंह ने दिलासा देने का प्रयास किया।
बेटे, मैने अपना सारा जीवन युद्धों में, संघर्षो में बिताया है। परमपिता भगवान एकलिंग जी की असीम कृपा से अब मेवाड़ का अधिकांश भाग स्वतंत्र हो गया है। परन्तु चितौड़, मंगलगढ़ के दुर्ग अभी भी मुगलों के अधीन है। तुम मुझे वचन दो कि मेरे उपरान्त इन दुर्गों को भी तुम स्वतंत्र करके ही रहोगे। अमर सिंह ने सभी एकत्रित परिवार के लोग प्रमुख सरदार तथा पंडितजन के समक्ष महाराणा को उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया।
इस आश्वासन को सुनकर महाराणा के तेजस्वी मुख पर शान्तिभाव प्रकट हुआ। भारतमाता के इस शूरवीर पुत्र के प्राण पंच तत्व में विलीन हो गये।
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