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राजा राममोहन राय जी का संझिप्त परिचय
राजा राममोहन राय आधुनिक भारतीय चिन्तक व भारतीय पुनरुत्थान के महान तपस्वी थे। देश और धर्म के उत्थान के लिए उन्होंने तन, मन, धन और बुद्धि सभी कुछ लगा दिया था। हिन्दू धर्म कुप्रथाओं तथा कुरीतियों के भार को सहन नहीं कर पा रहा था। ऐसे में इन सबसे छुटकारा दिलाने के लिये राजा राममोहन राय नामक विभूति का जन्म हुआ।
22 मई 1772 ई को बंगाल के हुगली जिले के राधानगर ग्राम के एक धार्मिक व संस्कारवान परिवार में जन्मे राजा राममोहन राय संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, अरबी, फारसी, गुरमुखी, तिब्बती, हिब्रू, लैटिन तथा यूनानी भाषा के विद्वान थे। उन्होंने वेद, शास्त्र, उपनिषद् स्मृति व पुराणों के साथ-साथ कुरान तथा बाइबिल का भी अध्ययन किया था।
उन्होंने बंगला भाषा में भूगोल, व्याकरण व ज्यामिति आदि विषयों पर पुस्तकें लिखीं। सती प्रथा, बाल-विवाह तथा नर बलि आदि के विरुद्ध उन्होंने कानून बनवाकर रोक लगवाई। उन्होंने जातिवाद के स्थान पर मानवतावाद, अंधविश्वास के स्थान पर विज्ञानवाद तथा अधिनायकवाद के स्थान पर प्रजातंत्र की नींव मजबूत की।
रुढ़ियों और अंधविश्वासों के शत्रु राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड और जातिवाद का विरोध किया। 1815 में उन्होंने आत्मीय सभा नामक एक समाज सुधारक संस्था स्थापित की। 1816 में वेदान्त सार नामक पुस्तक लिखकर उन्होंने कर्मकाण्ड और अंधविश्वासों की कटु आलोचना की।
20 अगस्त 1828 ई. को राजा राममोहन राय ने कलकत्ते में ब्रह्म समाज की स्थापना कर उसके माध्यम से अपने विचारों का प्रचार आरम्भ कर दिया। जातीय भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना के कारण हिन्दू समाज टूटने लगा था और दूसरे धर्मावलम्बी इस स्थिति का लाभ उठा रहे थे।
राजा राममोहन राय का निश्चित मत था कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा नीचा मानना पूरी तरह से अनुचित और अन्यायपूर्ण है। कोई भी व्यक्ति अपनी उपलब्धियों गुणों एवं मान्यताओं का आधार पर ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिये। उन्होंने वेदों, उपनिषदों को आधार मानकर मूर्ति पूजा का भी विरोध किया। उनके अनुसार श्रद्धा विचार के प्रति उचित है. मूर्ति के प्रति श्रद्धा से कोई लाभ नहीं है।
क्रूर और कामुक मुस्लिम शासकों का भारत में राज स्थापित होने पर यहाँ नारी की दशा हीन हो गयी तथा वह सम्पत्ति के समान छिपाकर रक्षा करने की वस्तु बनकर रह गयी। इसीलिये हिन्दू समाज में पर्दा प्रथा, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी अमानवीय परम्पराये समाज में फैल गयी। सन् 1811 में उनके बड़े भाई
की मृत्यु के पश्चात् अनिच्छा होते हुए भी बड़े भाई की पत्नी को सती होने के लिये विवश कर दिया गया। इस घटना ने राजाराम मोहन राय के हृदय पर भारी आघात पहुँचाया। उन्होंने इस कुरीति को समाप्त करने की शपथ ली। उनके प्रयासों के कारण 4 दिसम्बर 1829 को तत्कालीन सरकार ने इस प्रथा को अवैध तथा गैर कानूनी घोषित कर दिया। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का भी समर्थन किया साथ ही पति की सम्पत्ति में स्त्रियों के अधिकार का भी पूर्ण समर्थन किया।
राजा राममोहन राय विचारों की अभिव्यक्ति तथा प्रेस की स्वतंत्रता को भी पूर्ण रूप से आवश्यक मानते थे। उन्होंने प्रथम बंगला पत्र ‘संवाद कौमुदी’ का सम्पादन 1819 में किया था, सन् 1822 में उन्होंने ‘मिरात-उल अखबार’ नाम से एक फारसी पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ किया। इस प्रकार राजा राममोहन राय ने भारतीय पत्रकारिता की नींव डाली व देश के समस्त भागों में राष्ट्रीय पुर्नजागरण के संदेश को पहुँचाया।
आज से लगभग 240 वर्ष पूर्व भारत की पवित्र भूमि पर अवतरित यह महान् आत्मा जिसने कुरीतियों और अंधविश्वासों के कारण पतन की ओर जा रहे हिन्दू धर्म को पुनर्जीवन प्रदान किया, 27 दिसम्बर 1833 को परमपिता परमात्मा में विलीन हो गई, ऐसी पवित्र आत्मा की भारतीय जनता सदैव ऋणी रहेगी।
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