
श्री गुरु दक्षिणा पूजन कार्यक्रम कैसे मानना है क्यों मनाते है समस्त जानकरी
श्री गुरु दक्षिणा हेतु विचारणीय बिन्दु (श्रीगुरु दक्षिणा कार्यक्रम क्यों मनाते है ? )
- हमारे जीवन विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक
- यह एक दिन का नहीं वरन् 365 दिन का समर्पण है #श्री गुरु दक्षिणा
- वर्तमान समय में कार्य की पूर्ति हेतु धन की आवश्यकता। अतः स्वयंसेवक का समर्पण भाव पुष्ट करने हेतु वर्ष में एक बार श्री गुरुदक्षिणा कार्यक्रम। #श्री गुरु दक्षिणा
- हमें सब कुछ समाज से, राष्ट्र से प्राप्त होता है, अतः उसी की सेवा में ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ की भावना से समर्पण। #श्री गुरु दक्षिणा
- यज्ञ की भावना से यथाशक्ति नहीं, वरन् संगठन की अपेक्षा-आवश्यकतानुरूप । #श्री गुरु दक्षिणा
- दान सहायता या चंदा नहीं वरन् समाज एवं राष्ट्र से उऋण होने का विनम्र प्रयास। #श्री गुरु दक्षिणा
- संघ की इस विशिष्ट पद्धति से स्वयंसेवक का समर्पण भाव बढ़ता है एवं इसी से अपना संगठन आत्मनिर्भर बनता है। #श्री गुरु दक्षिणा
- गुरु द्वारा किये गये अमूल्य उपकार की अनुभूति व्यक्ति को कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण की स्वाभाविक प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कारों में कृतज्ञता ज्ञापन स्वाभाविक है। गुरु के प्रति इसी कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक श्री गुरुदक्षिणा है। गुरुकुलों में शिष्य शिक्षा समाप्ति के बाद अपने गुरु को दक्षिणा देकर यह कृतज्ञता प्रकट करते रहे हैं। शिष्य अपनी क्षमता अथवा अपने गुरुजी की इच्छानुसार यह दक्षिणा देते थे। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार दक्षिणा की प्रक्रिया और स्वरूप भिन्न रहे होंगे। परन्तु दक्षिणा का विधान भारतीय समाज में अविरल दीर्घकाल से मान्य रहा है। #श्री गुरु दक्षिणा
- दक्षिणा पद्धति का प्रारम्भ होने की कोई निश्चित तिथि या काल तय करना कठिन है। परन्तु यह सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलयुग सभी युगों में विद्यमान रही है। सतयुग में सत्यवादी राजा की गाथा है। विश्वामित्र की इच्छानुसार दक्षिणा चुकाने स्वयं को डोम के यहाँ तथा अपनी पत्नी तथा बालक रोहिताश्व को दक्षिणा के बचे हुए धन की पूर्ति हेतु बेचा। द्वापर में एकलव्य ने अपने दायें हाथ का अंगूठा काटकर गुरु की इच्छानुसार दक्षिणा दी। महाराज रघु ने एक असमर्थ बटुक कौत्स को उसके गुरु की इच्छानुसार धन के रूप में दक्षिणा देने में सहायता करने के लिये पर आक्रमण करने की तैयारी की थी। उस आक्रमण से पूर्व ही ने अयोध्या में स्वर्णमुद्राओं की वर्षा कर दी थी। कलियुग में मूलशंकर (महर्षि दयानन्द) ने अपने गुरु बिरजानन्द की इच्छानुसार अपना सारा जीवन वेदों को पुनः महिमामण्डित करने में लगा दिया। गुरु यही दक्षिणा रूप में चाह रहे थे। अतः स्पष्ट है कि भारतीय समाज में अत्यंत प्राचीन काल से आज तक दक्षिणा देने की परम्परा विद्यमान है। #श्री गुरु दक्षिणा
- हिन्दू परिवारों में मांगलिक कार्य हों अथवा कोई अशुभ अवसर हों, दक्षिणा देने की परम्परा है। शुभ अवसर जैसे कथा आदि पर आमंत्रित ब्राह्मणों को भोजनोपरान्त दक्षिणा दी जाती है। इसी प्रकार अशुभ अवसरों जैसे मृत्यु आदि पर भी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देने के दृश्य दिखाई देते हैं। वर्ष में एक समय ऐसा भी आता है जब हमें अपने आत्मीय दिवंगतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। “संघ के प्रारम्भकाल में स्वयंसेवकों ने श्राद्धों में भोजन के बाद मिली दक्षिणा का धन एकत्रित कर घोष खड़ा किया था, यह उल्लेख मिलता है।” #श्री गुरु दक्षिणा
- संघ ने समाज में प्रचलित इस दक्षिणा परम्परा को एक नया रूप दिया है। व्यक्तिगत उपयोग के स्थान पर राष्ट्रकार्य के लिये आवश्यक धन की व्यवस्था दक्षिणा के धन से करने की परम्परा डाली है। अपने गुरु भगवाध्वज के सामने धन अथवा सम्पूर्ण जीवन दक्षिणा रूप में अर्पित करना स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझता है। पुष्पार्चन से भी भगवाध्वज का पूजन किया जा सकता है। स्वयंसेवक स्वयं उपस्थित होकर दक्षिणा करे, यही विधान है। #श्री गुरु दक्षिणा
- दक्षिणा का सही स्वरूप भी समझना अत्यावश्यक है। दक्षिणा दान नहीं है, दान में अहं भाव रहता है। अपना स्वयं का नाम प्रमुखता से सबके सामने आये, यह इच्छा रहती है। दक्षिणा चन्दा भी नहीं है। चंदा देकर अपने प्रभाव से अपने स्वार्थ की पूर्ति बड़े-बड़े धनवान राजनीतिक दलों से करते हैं, यह सभी को पता है। दक्षिणा संघ का सदस्यता शुल्क भी नहीं है। सदस्यता के लिये शाखा आना मात्र पर्याप्त है। जितना धन सुविधा से अपने पास देने हेतु है, वही भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर दिया तो दक्षिणा के सही भाव को नहीं समझा है, यही माना जायेगा। #श्री गुरु दक्षिणा
- दक्षिणा करने में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रतिदिन अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर वर्ष के अंत में इस संग्रहीत धन को दक्षिणा में देना अभीष्ट है। अपने जीवन में प्रतिदिन समर्पण एवं त्याग की वृत्ति व्यावहारिक रूप में प्रकट करने में स्वयंसेवक समर्थ हो, यह अपेक्षा है। दक्षिणा करने पर जीवन में कुछ कष्ट हो, अपनी स्वयं की सुविधायें जुटाने के लिये आवश्यक धन प्राप्त करने में कुछ विलम्ब होता हो तो दक्षिणा की योग्य भावना प्रकट होगी, ऐसा मानना चाहिये। संघ के प्रारम्भ में स्वयंसेवकों ने अपने जेब खर्च से बचाकर तथा स्टेशन पर कुलीगिरी आदि से धन अर्जित कर वर्ष के अंत में संचित धन दक्षिणा रूप में भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किये हैं। उस समय स्वयंसेवक स्वयं धन अर्जन करने की अवस्था में नहीं थे। आज स्थिति बदली है, अतः उसका ध्यान रखकर इस संबंध में विचार करना वांछित है। #श्री गुरु दक्षिणा
- दक्षिणा का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि संघ कार्य आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी रहे। इस संबंध में किसी भी प्रकार के दबाव में रहकर कार्य करने की स्थिति न बने, यह स्वयंसेवकों का दृष्टिकोण है। संघ कार्य हेतु आवश्यक धन की व्यवस्था स्वयंसेवक स्वयं ही करते हैं। वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के मंगलपर्व पर भगवाध्वज का पवित्र भाव से पूजन में दक्षिणा अर्पित कर राष्ट्र हेतु तन, मन, धन से समर्पण एवं त्यागवृत्ति के संस्कारों को वर्षानुवर्ष पुष्ट करते जाते हैं। #श्री गुरु दक्षिणा
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलगामी कार्य मनुष्य निर्माण का है। प्रत्येक स्वयंसेवक में राष्ट्र के लिये सर्वस्व त्याग करने का भाव निर्माण हो । राष्ट्र कार्य को अपने अन्य कार्यों के ऊपर वरीयता देने का मन बने। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता है। लगातार मन पर संस्कार करने से यह सम्भव होता है। दक्षिणा कार्यक्रम भी इसी प्रकार के संस्कार देने के क्रम में एक पग है। #श्री गुरु दक्षिणा
श्री गुरुपूजन (दक्षिणा) हेतु अमृत वचन
पं. दीनदयाल उपाध्याय जी कहते हैं कि अग्नि की ज्वालाओं का प्रतीक है। अग्नि की विशेषता यही है कि वह स्वयं ही पवित्र नहीं है, वरन जो भी उसके सम्पर्क में आया उसे भी अग्नि ने पवित्रता प्रदान की। इतनी दाहकता और पवित्रता का जीवन जीने की शिक्षा इस ध्वज से मिलती है। हिन्दू संस्कृति की तो सदा से यह विशेषता रही है कि जो भी उसके समीप आया उसने उसे अपना बना लिया। यह आत्मसात करने की प्रवृत्ति आर्य संस्कृति की विशेषता है। इस विशेषता को बताने वाला यह ध्वज है। #श्री गुरु दक्षिणा
गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम विधि
अपेक्षित कार्यकर्ता
- सम्पत् हेतु
- गणगीत हेतु
- एकलगीत हेतु
- अमृत वचन हेतु
- प्रार्थना हेतु
- वक्ता/मुख्य अतिथि
- कार्यक्रम विधि बताने एवं मंचासीन बन्धुओं का परिचय कराने हेतु । #श्री गुरु दक्षिणा
- कार्यक्रम स्थल से बाहर की व्यवस्था (स्वागत करते हुए, जूते, चप्पल, वाहन व्यवस्थित एवं यथा स्थान खड़े करवाने तिलक लगाने, कार्यक्रम में बैठने से पूर्व ध्वज प्रणाम करना आदि सूचना देने) हेतु। #श्री गुरु दक्षिणा
- श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम में पूजन हेतु लिफाफे देने एवं सूची बनाने हेतु अलग से कार्यकर्ता अपेक्षित हैं। #श्री गुरु दक्षिणा
आवश्यक सामग्री

- मोसमअनुकूल उपयुक्त एवं स्वच्छ स्थान (बिछावन सहित) |
- चुना एवं रस्सी (रेखांकन हेतु)
- ध्वजदंड हेतु स्टैण्ड (यदि स्टैण्ड की व्यवस्था नहीं है तो उचित संख्या में ईंटें ) ।
- चित्र (भारतमाता, डॉक्टर जी एवं श्री गुरुजी के मालाओं सहित)
- मुख्य अतिथि/मुख्य वक्ता के लिये मंच/कुर्सियां ।
- सज्जा सामग्री (रिबिन, आलपिनें, सेफ्टी पिनें, चादरें/ चाँदनी, पर्दे, सुतली, गोंद आदि) ।
- पुष्प, थाली, धूपबत्ती, माचिस, चित्रों हेतु मेजें, चादरें।
- तिलक हेतु चन्दन अथवा रोली, अक्षत, कटोरी/थाली ।
- कार्यक्रम यदि रात्रि में है तो समुचित प्रकाश व्यवस्था ।
- ध्वनि वर्धक बैटरी सहित (यदि आवश्यक हो तो)। #श्री गुरु दक्षिणा
विशेष –
* श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु भगवान वेदव्यास जी का माला सहित चित्र योग्य स्थान पर लगाना अपेक्षित है।
* श्री गुरु दक्षिणा कार्यक्रम हेतु लिफाफे, कागज, कार्बन (सूची बनाने हेतु) एवं पूजन के समय गीत के लिये टेपरिकार्डर एवं अच्छे गीतों की ध्वनिमुद्रिकायें (पैन ड्राइव)।
* रक्षाबन्धन कार्यक्रम हेतु सभी स्वयंसेवक रक्षासूत्र लेकर आयेंगे। #श्री गुरु दक्षिणा
कार्यक्रम विधि :
- सम्पत्
- गणगीत
- अधिकारी आगमन
- कार्यक्रम की विधि बताना एवं सूचनायें
- ध्वजारोहण
- मंचासीन बन्धुओं का परिचय
- अमृत वचन
- एकलगीत
- वक्ता/अतिथि द्वारा उद्बोधन
- प्रार्थना
- ध्वजावतरण
- विकिर
विशेष-
- अधिकारी आगमन के समय उत्तिष्ठ की आज्ञा होगी। पश्चात् आरम् एवं दक्ष की आज्ञा पर सभी स्वयंसेवक दक्ष में खड़े होंगे और ध्वजारोहण होगा।
- श्री गुरु पूर्णिमा के उत्सव में उपस्थित वरिष्ठ अधिकारी द्वारा भगवान वेदव्यास के चित्र पर माल्यार्पण (यदि है तो) के बाद दीप प्रज्वलित कर पुष्पांजलि अर्पित करना।
- ध्वजारोहण तथा ध्वजावतरण के समय मुख्य अतिथि/वक्ता अग्रेसर (अभ्यागत) के बराबर तथा माननीय संघचालक/ कार्यवाह अपने निर्धारित स्थान पर खड़े होंगे।
- कार्यक्रम के उपरांत परिचय की दृष्टि से शाखा टोली सहित प्रमुख कार्यकर्ताओं को रोकना योग्य रहेगा। #श्री गुरु दक्षिणा
श्री गुरू दक्षिणा उत्सव हेतु बौद्धिक

संघ के सभी उत्सव विभिन्न प्रकार के संस्कार देने के लिए हैं, यह हम सब जानते हैं। विजयादशमी का उत्सव विजय की भावना हममें उत्पन्न करने के लिए है। मकर संक्रांति का उत्सव, अपने जीवन में संक्रांति ला सके हैं इसके लिए है। इस प्रकार गुरु पूजन का उत्सव समर्पण भाव संदेश के लिए है। गुरू पूजा का उत्सव किस प्रकार संघ में विकसित हुआ उसके बारे में आप लोगों के सामने रखना मेरा कर्तव्य है। ऐसा मैं मानता हूँ। #श्री गुरु दक्षिणा
जीवन में गुरू का महत्व
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीयता एवं हिन्दुत्व के आधार पर कार्य करने वाला एक संगठन है। हिन्दुत्व के नाते जब हम अपने जीवन के बारे में सोचते हैं। तो अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दुत्व से ही प्रभावित है। अब हिन्दू-जीवन में गुरू का महत्व बहुत अधिक है। हम अपनी माँ और पिताजी को देव-समान मानते है। उसके बाद हमें समाज में जो स्थान देते हैं, वह अपना गुरू है। इसलिए प्राथमिक प्रकाश जब माता-पिता देते हैं उसके बाद ज्ञान का प्रकाश दुनिया की जानकारी देने वाले व्यक्ति को हम गुरू कहते हैं। इसलिए माता भी देव समान हैं। गुरू भी देव समान है। इसलिए अपने उपनिषदों में सर्वप्रथम कहा- मातृ देवो भव, माता देव के समान हो, इसके बाद पित्- देवो भव पिता भी ईश्वर के समान उसके बाद तीसरा शब्द है आचार्यः देवो भव गुरू भी देव के समान है। इसलिए जो हमें पाशविक जीवन से मानवीय जीवन की ओर ले जाते हैं सभी हमारे देव हैं। इसलिए माता-पिता गुरू तीनों देव समान हैं। #श्री गुरु दक्षिणा
जीवन में गुरू की आवश्यकता
जब गुरू का महत्व देव समान है तो अपनी संस्कृति ने दूसरा भी एक पाठ सिखाया। आदमी कितना भी बड़ा हो गुरू के बिना उसकी शिक्षा सम्पूर्ण नहीं हो पाती। इसलिए हम देखते हैं, साक्षात् श्रीकृष्ण परमात्मा,अधिष्ठाता थे तो भी उनको एक गुरू के यहां जाकर गुरू के चरणों में वे बैठकर अपनी शिक्षा प्रारम्भ करनी पड़ी और पूर्ण करनी पड़ी। वे स्वयं ज्ञानी थे तो भी संदीपनी महर्षि के आश्रम में जाकर उनको अपना गुरु के नाते उन्होंने स्वीकारा। प्रभु रामचन्द्र जी वह भी त्रिकाल ज्ञानी थे तो भी वशिष्ठ को गुरू के नाते उन्होंने अपनाया। आदमी अत्यन्त महान हो, तो भी गुरू के नाते और एक व्यक्ति के चरणों के पास जाकर विनम्रता से बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरू के बिना ज्ञान सम्पूर्ण नहीं हो जाता यह अपनी संस्कृति की शिक्षा है। इसलिए परम पूज्यनीय डॉ० साहब ने भी जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू किया तो स्वावलम्बन के आधार पर शुरू किया। संघ का एक प्रसिद्ध वाक्य है। स्वयंमेव मृगेन्द्रता। हम दूसरों की वैशाखी पर चलना नहीं चाहते है स्वावलम्बी जीवन। इस प्रकार संगठन चलाना चाहते हैं यह डॉ० जी का विचार था तो भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व का आधार का बंगठन होने के कारण संघ के सामने एक गुरू चाहिये। #श्री गुरु दक्षिणा
ज्ञान का व्यक्ति नहीं आदर्श गुरू
संघ के सामने गुरू कौन चाहिये? डॉक्टर जी का चिन्तन यन्त गहरा था। एक-एक बिन्दु के बारे में बार-बार गहराई से वह चा करते थे इसलिए डॉ० जी ने सोचा संघ का गुरू कौन हो सकता उन्होंने सोचा स्वयंसेवकों के सामने एक आदर्श ही गुरू होना ये। लक्ष्य ही गुरू होना चाहिये। साथ ही साथ डॉ० जी ने और बात सोची। व्यक्ति तो अच्छे हो सकते है परन्तु व्यक्तियों में है। व्यक्ति नश्वर है। आज उसका जन्म है कल उसकी मृत्यु । व्यक्ति द्वारा हो सकती है। यह दूसरा विचार और तीसरा व्यक्ति र तक, अन्त तक एक पथ पर चलेगा उसका भरोसा क्या है। व्यक्ति परिवर्तनीय है इसलिए एक व्यक्ति को जब हमने गुरू के नाते रखा तब शायद जिन्होंने उनको गुरु माना उनका मन इधर- उधर जा सकता है। #श्री गुरु दक्षिणा
अपना आदर्श -अब कौन सा आदर्श अपना आदर्श है। यह भारतवर्ष हिन्दू राष्ट्र है। इसका प्राण हिन्दुत्व है और हिन्दुत्व के आधार पर ही अपने भविष्य के जीवन की रचना करनी चाहिये। इस प्रकार उन्होंने सोचा और संघ का आदर्श ही संघ का गुरू है। इसके बारे में. डॉ० जी ने सोचा। #श्री गुरु दक्षिणा
अपना गुरू भगवा ही क्यों?
हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भगवाध्वज को गुरू मानते हैं। सम्पूर्ण इतिहास का प्रतिनिधि है। सम्पूर्ण महात्माओं की मालिका का निचोड़ है इसीलिए भगवाध्वज की आराधना करते समय हम सभी महात्माओं की साधना-आराधना करते हैं उनकी पूजा करते हैं उनके आदर्श को स्वीकारते हैं। इसीलिए परमपूजनीय डॉ० जी ने यह निराकार आदर्श को साकार करके अपने सामने भगवाध्वज को गुरू के नाते रखा। अब ये भगवाध्वज अपने पूर्वजों ने क्यों स्वीकार किया। केवल रंग के कारण किया क्या? रंग में बहुत अधिक आकर्षण है इसीलिए स्वीकार किया क्या? उसके अच्छे- अच्छे उद्देश्य है। अपने समाज का प्रतीक है। समाज का स्वभाव क्या है ? समाज की पहचान क्या है समाज की प्रकृति क्या है? उसी प्रकार का होना चाहिये अपना प्रतीक । अब राष्ट्र की प्रकृति क्या है? भारत राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र इसको हम कहते हैं, मानते हैं। वो अनादि है इसीलिए अनादि राष्ट्र का प्रतीक भी अनादि जिसका प्रारम्भ नहीं, आदि नहीं अनादि चाहिये। भारत राष्ट्र का कब जन्म हुआ? उसको कोई नहीं जानता। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि बहुत बड़ा इतिहासकार भी अगर खोज करता है तो भी भारत का उदय कब हुआ यह नहीं जान सकता इसीलिए भारत राष्ट्र को उन्होंने कहा अनादि। अब इस अनादि राष्ट्र का प्रतीक भी अनादि होना चाहिये और भगवा ध्वज का प्रारम्भ कब हुआ हम जानते हैं क्या वो अनादि है जैसा राष्ट्र अनादि उसी प्रकार ध्वज भी अनादि। भारत राष्ट्र किस पुरुष के द्वारा स्थापित हुआ हम जानते हैं इसीलिए भारत राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र अपौरूषेय है। किस पुरुष ने भारत राष्ट्र की संस्थापना की कोई भी इतिहासकार नहीं बता सकता है। भारत राष्ट्र अपौरूषेय है। उसका प्रतीक भगवाध्वज भी अपौरूषेय है। भारत राष्ट्र का लक्ष्य चिरन्तन है और राष्ट्र के प्रतीक यानि भगवा ध्वज का लक्ष्य भी चिरन्तन है। #श्री गुरु दक्षिणा
संघ में गुरूदक्षिणा उत्सव क्यों
डॉ० जी ने इसके बारे में भी सोचा था। संघ के प्रारम्भिक दिनों में परमपूजनीय डॉ० जी को 2-3 सालों में संघ चलाने के लिए पैसों की आवश्यकता थी इसीलिए वो स्वयं लोगों के पास जाकर जिनसे बहुत अच्छा परिचय था उनका उनसे वो पैसा लेते थे परन्तु वो जानते थे ये एक अस्थायी व्यवस्था है ये आखिर तक नहीं चलनी चाहिये क्योंकि एक संगठन का प्राण उसी के अन्दर रहना चाहिये। कार्यकर्ता संघ के अन्दर के परन्तु कार्यकर्ता के लिए कार्य बढ़ाने के लिए जो धन चाहिये उसका स्रोत संघ के बाहर यह भविष्य में कमजोरी ला सकती है। इसीलिए धन का केन्द्र भी संगठन के अन्दर ही होना चाहिये। हम संगठन में काम करने वाले भी संगठन अन्दर ही होने चाहिये जैसा मैंने शुरू में कहा- दूसरों की वैशाखी पर चलना एक सक्षम संगठन को शोभा नहीं देता और सक्षम संगठन को भविष्य में कमजोर होने की संभावना है। इसीलिए डॉ० जी ने दो बातें अपने सामने रखी। एक संगठन अत्यन्त व्यापक बनाने के लिए अत्यन्त प्रभावी ताकत वाला बनाने हेतु और भविष्य में भी यह संगठन चलाने की क्षमता संगठन के अन्दर ही रहनी चाहिये। हम कहते हैं कि स्वयं चालक शक्ति संगठन के अन्दर ही होनी चाहिये। #श्री गुरु दक्षिणा
प्रतिबद्धित जन-धन शक्ति
इसीलिए उन्होंने दो बातों पर जोर दिया एक है Committed SOSORSOROR Man Power प्रतिबद्धित जनशक्ति चाहिये। संगठन के लिए काम करने वाले एक ही धुन इस प्रकार सोचने वाले लोग अपने को आजकल अंग्रेजी में और एक शब्द है वो क्या Armchair Politician, Armchair Official कुर्सी पर बैठकर काम करने वाली Armchair इस प्रकार आराम कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले लोग है। उस प्रकार के लोगों के द्वारा संगठन खड़ा कर सकते हैं क्या? संगठन उस प्रकार के लोगों द्वारा संभव नहीं इसलिए Committed Man प्रतिबद्धित जन शक्ति चाहिये। जो संगठन के लिए ही जियेंगे। संगठन के लिए ही सोयेंगे। सोने में, संगठन, जागरण में संगठन। संगठन, संगठन एक ही धुन। इस प्रकार के प्रतिबद्धित लोगों की शक्ति चाहिये न. 1, उन्होंने कहा Committed Man Power चाहिये साथ ही साथ Committed Man Power को Committed काम करने को Committed Money Power चाहिये। इसीलिए प्रतिबद्धित जन शक्ति को काम करने को प्रतिबद्धित धन शक्ति चाहिये। उसका केन्द्र भी संगठन के अन्दर ही होना चाहिये। #श्री गुरु दक्षिणा
दक्षिणा और अन्य पद्धति में अन्तर-
उसमें से निकला यह गुरू दक्षिणा का भाव। यह दक्षिणा उसका भाषान्तर अंग्रेजी भाषा में नहीं पैसा कमाने का प्रयोग जिसे हम कहते हैं। तरह-तरह के कितने हैं। एक है Donation जो चन्दा देते हैं लोग। दूसरा है Subscription और तीसरा है दान। दान देते है। चन्दा देते है, ग्राहक संख्या देते है। इसमें डॉ० साहब ने कमियां देखी। संघ में जो आना चाहता है आइये। संघ का सदस्य बनने के लिए संघ में आना चाहिये और Committed होना चाहिये। इसलिए यहां ग्राहक संख्या नहीं और दान भी क्या होता है कभी-कभी टालने के लिए वह देते हैं। केरल में Donation के लिए शब्द क्या है। हिन्दी में जो संभावना Possibility के लिए कहते हैं। दान अच्छा है परन्तु दान देते समय व्यक्ति का पुण्य भाव अपने अन्दर होता है जब दान देता है इसका पुण्य मुझे मिलना चाहिये। संघ का कार्यकर्ता ही संघ का उपकर्ता और संघ का उपकर्ता ही संघ का कार्यकर्ता। दोनों का संगम होना चाहिये। वो दान से नहीं होता तब दान भी संघ के दृष्टिकोण में अपर्याप्त सब हम किस प्रकार यह Committed Money Power प्रतिबद्धित धनशक्ति खड़ा करेंगे- डॉ० जी ने सोचा। तब डॉ० जी के मन में आया अपनी प्राचीन संस्कृति में उसके लिए भी एक उत्तर है दक्षिणा। दक्षिणा भगवान के सामने चढ़ाते समय वो दान है क्या। भगवान को हम दान देते हैं? क्या उसको इस प्रकार हम कहेंगे क्या ? भगवान को Donation दे सकते हैं क्या? भगवान का भक्त बनाने के लिए Subscription चन्दा यह भी कह सकते हैं क्या? परन्तु भगवान के सामने हम दक्षिणा चढ़ाते हैं। #श्री गुरु दक्षिणा

दक्षिणा का महत्व
– इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह सम्पूर्ण गुरू पूजा का विकास इस प्रकार हुआ। स्वयंसेवक को सोचना चाहिये और इसकी श्रेष्ठता कैसी है? कभी-कभी यह सिखाने के लिए भगवान हमारे सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के अवसर रख देते हैं। संघ के गुरू जीवन में द्वितीय प्रतिबन्ध अत्यन्त कठोर था। पहला प्रतिबन्ध तो था ही कठोर परन्तु उससे भी कठोरतरम था द्वितीय प्रतिबन्ध। संघ में दक्षिणा तो छोटी है लगता है आना है प्रणाम करना और देना परन्तु कितना Committed है हम यह देखते है। आज हममें से बहुत स्वयंसेवक गुरूदक्षिणा करते है। उस समय मेरी नजर में एक पुराना स्वयंसेवक ठीक प्रकार देख नहीं सकता परन्तु और एक स्वयंसेवक का सहारा लेकर धीरे-धीरे मंद गति से आगे बढ़ते-बढ़ते शायद ध्वज को उन्होंने नहीं देखा परन्तु ध्वज कहां है वह जानता था। प्रणाम किया, गुरूदक्षिणा किया। इसको कहते है Committed Man Power प्रतिबद्धित जन शक्ति। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बहुत बड़ी धन, सम्पत्ति है। यह है अब Committed Man Power का मणि कंचन योग उसको हम कहते हैं गुरू दक्षिणा, जिसके द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वावलम्बी स्वयंचालन कर सकता है। इसीलिए आज गुरू दक्षिणा का महत्व क्या है? गुरू पूजा का महत्व क्या है? गुरू का महत्व क्या है? जो विचार मेरे मन में आ गये आप लोगों के सामने मैंने रख दिये हैं। आप सब पुराने स्वयंसेवक है नयी बात नहीं कहनी आपके सामने। इसलिए जितना सारा आप जानते हैं उसकी पुनरावृत्ति मैंने की और इतना ही कहकर मैं अपना विचार यहां समाप्त कर रहा हूं। सब लोगों को मेरा एक बार फिर विनम्र नमस्कार । #श्री गुरु दक्षिणा
श्री गुरु दक्षिणा

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