
श्री गुरु पूर्णिमा (संघ का उत्सव ) राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क्यों और कैसे मानता है (आषाढ़ पूर्णिमा)
गुरु पूर्णिमा शक समूह में पूर्णिमा पूर्णमासी का बोध कराता है। पूर्णमासी को हिन्दू समाज में अत्यंत पवित्र पर्व के रूप में मान्यता प्राप्त है। प्रतिमास एक पूर्णमासी होती है। इस प्रकार एक वर्ष में बारह पूर्णमासी होती हैं। इनमें आषाढ़ मास की पूर्णमासी को गुरुपूर्णिमा के रूप में जाना जाता है यह एक पर्व है, जो हम गुरुपूजा के रूप में मनाते हैं।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ इस पर्व पर गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर व्यक्ति को प्राप्त होता है। व्यक्ति ज्ञानवान बन जीवन में योग्य मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की क्षमता एवं सामर्थ्य जिसके चरणों में बैठकर प्राप्त करता है, उस श्रेष्ठ पुरुष को अपने समाज में गुरु का स्थान दिया गया है। ऐसे गुरु के इस श्रेष्ठ कार्य के कारण व्यक्ति अपनी कृतज्ञता को उसकी पूजा करते हुए प्रकट करता है। किसी भी उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हिन्दू समाज की विशेषता है। गुरु पूर्णिमा पर्व का महत्व इस दृष्टि से समझने योग्य है।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ व्यास पूर्णिमा के नाते भी गुरुपूर्णिमा की प्रसिद्धि है। यह वेदव्यास जी को स्मरण कराने वाला दिवस है। वेदव्यासजी को राष्ट्रगुरु के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। गुरु का महत्व व्यक्ति के जीवन में जितना है, उससे अधिक वेदव्यास जी का महत्व राष्ट्रजीवन में स्वीकार किया गया है। वेदव्यासजी ने भारतीय ज्ञान को सुनियोजित ढंग से सूत्रबद्ध, सुसंगठित करने का अभूतपूर्व कार्य किया है। उन्होंने अपौरुषेय वेदों का सम्यकरूपेण वर्गीकरण कर ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के रूप में लिपिबद्ध करने का महान कार्य किया है। इससे पूर्व वेद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को कण्ठस्थ करने की परम्परा द्वारा प्राप्त होते रहे थे। इसीलिये वेद श्रुति के नाते विख्यात रहे हैं। श्रुति याने सुनकर कण्ठस्थ कर आगे की पीढ़ी को सुनाकर ज्ञान की सरिता को सतत प्रवाहमान बनाए रखना।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ महाभारत, उपनिषदों, पुराणों, भागवत आदि के रचनाकार वेदव्यास जी माने जाते हैं। गीता जैसी महान महाभारत का ही अंग है। उनसे मानव जीवन के प्रधान चिंतन प्राप्त हुआ। यह ज्ञान वेदव्यासजी ने सहज ही से सभी को सुलभ कराया है। इसी कारण पूरा राष्ट्र व्यासपूर्णिमा पर उन्हें सारण करता है। गुरु के प्रति आदर, भक्ति एवं श्रद्धापूर्ण व्यवहार भारतीय समाज में कल प्रारम्भ हुआ, यह शोध का विषय है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, गुरुदेवो भव” उक्ति सर्वप्रसिद्ध है। माता-पिता के साथ ही गुरु को भी देवता माना गया है। वेदों की प्राचीनता की भांति गुरु के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति की परम्परा भी अति प्राचीन है।#श्री गुरु पूर्णिमा
गुरु शिष्य परम्परा का उल्लेख अपने शास्त्रों में हुआ है। इस संबंध में धर्मग्रंथों में प्रेरणाप्रद गाथायें पढ़ने को मिलती है। भारतीय वाङमय में देवासुर संग्राम का वर्णन है। देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा असुरों के गुरु शुक्राचार्य होने का उल्लेख है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम बाल्यकाल में वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने हेतु रहे थे। योगेश्वर श्रीकृष्ण का भी संदीपनि के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करना प्रसिद्ध है। अतः यह स्पष्ट है कि गुरु शिष्य परम्परा की प्राचीनता के साथ गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना भी अत्यंत प्राचीन परम्परा के रूप में इस देश में विद्यमान है।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ इतना ही नहीं वरन् गुरु-शिष्य परम्परा की विद्यमानता चारों युगों- सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग में होने का प्रमाण है। गुरु आश्रमों में शिष्यों की शिक्षा व्यवस्था रहती आई है। गुरु अत्यंत निस्पृही एवं निःस्वार्थी जीवनयापन करते हुए शिष्यों को शिक्षा प्रदान कर उन्हें ज्ञानवान बनाने के साथ ही उनके जीवन की दिशा निर्धारित कराते रहे हैं। व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के कल्याणार्थ जीवन भर कार्यरत रहने के कारण गुरु अत्यंत श्रद्धास्पद रहे हैं। सामान्य व्यक्ति के अतिरिक्त राजाओं के भी गुरु होने का उल्लेख है। दशरथ गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन के राजकाज चलाते थे। महाभारत में कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य का वर्णन है। #श्री गुरु पूर्णिमाकलियुगमें चाणक्य, स्वामी समर्थ रामदास एवं विद्यारण्य प्रसिद्ध हैं। + समाज जीवन में गुरु के कार्यों के महत्व को विचारकों एवं विद्वानों ने अनुभव किया कि प्रसिद्ध उक्ति ‘आचार्य देवो भव’ गुरु की महिमा की समुचित ढंग से केवल व्यक्त नहीं करती, गुरु केवल देवता नहीं, वरन साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। अतः उसे उसी रूप में देखते हुए नमस्कार करना उचित रहेगा।
‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । #श्री गुरु पूर्णिमा
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ + अनुभव में आगे चलकर यह भी आया कि गुरु की कृपा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। जीवन को योग्य दिशा प्राप्त नहीं हो सकती।#श्री गुरु पूर्णिमा मानवीय जीवन के श्रेष्ठ गुणों का अंकुरण तथा पूर्ण विकसित पुष्प के रूप में प्रकटीकरण गुरु की कृपा से ही सम्भव है।#श्री गुरु पूर्णिमा गुरु की कृपा से ही ईश्वर का साक्षात्कार भी सम्भव होता है। इसीलिए यह कहा गया है- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय । #श्री गुरु पूर्णिमा
श्री गुरु पूर्णिमा
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो मिलाय ॥ + गुरु की कृपा से सामान्य व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा, अनोखी कर्मठता तथा अदम्य आत्मविश्वास एवं साहस प्रकट होता है, यह इतिहास में हुई घटनाओं से प्रमाणित है। #श्री गुरु पूर्णिमा मूलशंकर नामक बालक ने स्वामी बिरजानन्द के रूप में योग्य गुरु के चरणों में बैठकर वेदों का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त किया तथा स्वामी दयानन्द बन वेदों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने में सफल हुआ।#श्री गुरु पूर्णिमा ऐसे ही बालक नरेन्द्र रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आकर उनकी कृपा से एक दिन स्वामी विवेकानन्द के रूप में हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का डंका जगत् में बजाकर विश्व को चकित कर गया। चाणक्य, विद्यारण्य, स्वामी समर्थ रामदास आदि के नाम इसी परम्परा में विख्यात हैं।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ परिवार, कुल, पंथ, सम्प्रदाय आदि में गुरु के महत्व को स्वीकार करने की परम्परा भी हिन्दू समाज में विद्यमान है। #श्री गुरु पूर्णिमासिख तथा जैनमत में
गुरु परम्परा विद्यमान है। समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गुरुभक्ति का दृश्य देखने को मिलता है।#श्री गुरु पूर्णिमा यथा, अखाड़ों में मल्लयुद्ध (कुश्ती) सिखाने वाले पहलवान भी गुरु की संज्ञा प्राप्त कर सम्मान पाते हैं।#श्री गुरु पूर्णिमा स्व. गुरु हनुमान इस दृष्टि से पर्याप्त चर्चित हुए हैं। हिन्दू समाज में गुरु की प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा सर्वमान्य है।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूरे राष्ट्र को सतत प्रेरणा एवं मार्गदर्शन देने वाले भगवाध्वज को गुरु माना है। #श्री गुरु पूर्णिमा व्यक्ति के जीवन की अवधि राष्ट्र के संदर्भ में नगण्य है। राष्ट्र का जीवन सहस्रों वर्ष का होता है। व्यक्ति सदा राष्ट्र के सामने प्रस्तुत नहीं रह सकता। दूसरे व्यक्ति का पूरा जीवन प्रेरणास्रोत है या नहीं इसीलिए व्यक्ति को गुरु मानने की परम्परा संघ में नहीं है।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ भगवाध्वज को गुरु मानकर संघ के सभी कार्यक्रम उसकी छत्रछाया में चलते हैं।#श्री गुरु पूर्णिमा वह हमारा प्रेरणास्त्रोत तथा हमारी संस्कृति एवं धर्म का सम्वाहक है। हमारे महापुरुषों का स्मरण कराने वाला है। हमारे साधु, महात्माओं तथा संतों के परिधान के गेरुए रंग से युक्त यह भगवाध्वज त्याग एवं समर्पण की प्रेरणा भी देता है।#श्री गुरु पूर्णिमा हमारे यहाँ होने वाले यज्ञों में उठती अग्नि शिखाओं का आकार प्राप्त कर तथा अग्नि की आभा से प्रदीप्त भगवाध्वज हमारे सम्पूर्ण इतिहास का बोध कराने की क्षमता रखता है।#श्री गुरु पूर्णिमा
+ दण्ड पर आरुढ़ वस्त्रखण्ड को जड़ मानकर शंका करने वाले प्रश्न कर सकते हैं कि जो बोलने की क्षमता नहीं रखता तथा स्वयं चल-फिर नहीं सकता, वह हमारा मार्गदर्शन कैसे कर सकता है? हमारी शंकाओं का समाधान कैसे होगा?#श्री गुरु पूर्णिमा इस प्रकार का विचार भ्रामक है। हम निर्जीव पदार्थ से भी प्रेरणा, शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसा अनेक घटनाओं से सिद्ध होता है। #श्री गुरु पूर्णिमाउदाहरणतः एकलव्य में धुनर्विद्या में निष्णात होने की घटना है। द्रोणाचार्य की प्रतिमा उसके लिये यह विद्या प्राप्त करने की प्रेरणास्रोत बनी। यही सत्य भगवाध्वज के संबंध में भी समझना चाहिये। #श्री गुरु पूर्णिमा+ व्यक्ति के स्थान पर किसी प्रतीक को गुरु मानकर उसकी छत्रछाया में • कार्य करने की नई परिपाटी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने डाली है, ऐसा नहीं है।#श्री गुरु पूर्णिमा इतिहास में ऐसी घटनायें पूर्वकाल में भी हुई है। #श्री गुरु पूर्णिमाहमें स्मरण होगा कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वनगमन के बाद उनकी चरणपादुकाओं को सिंहासन पर रखकर भरत ने राजकाज चलाया था। सिख पंथ के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने जब यह अनुभव किया कि गुरु परम्परा आगे जारी रखने के लिये अपेक्षित योग्य व्यक्ति मिलना सम्भव नहीं है, तो.. • उन्होंने भी व्यक्ति के स्थान पर ग्रंथ रख उससे प्रेरणा लेने की परम्परा प्रारम्भ की। हम भी आज भगवाध्वज के रूप में अपने गुरु का पूजन कर अपने जीवन के लक्ष्य को स्मरण करने का अवसर प्राप्त कर रहे हैं।#श्री गुरु पूर्णिमा
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
(गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के स्वरूप हैं। गुरु परब्रह्म परमात्मा है। उन श्री गुरुदेव को नमस्कार है ।)
प्रतिवर्ष आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन गुरु पूजा का यह पर्व आता है। हिंदू समाज में गुरु को ‘ईश्वर से भी ऊपर’ मानकर सर्वोच्च स्थान दिया गया है। गुरु की जैसी भावना और महत्ता हमारे यहाँ मानी जाती है वैसी संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं।#श्री गुरु पूर्णिमा गुरु का एक अर्थ होता है अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला। गुरु का एक अर्थ और भी होता हैं – भारी, बड़ा अर्थात् ज्ञान में बड़ा भारी ।#श्री गुरु पूर्णिमा
संघ में किसी व्यक्ति को गुरु नहीं माना है। व्यक्ति स्खलनशील है, पूर्ण नहीं है, अमर नहीं है, सदैव सब स्थानों पर उपस्थित नहीं रह सकता। गुरु ध्येय के अनुरूप होना चाहिए। अतः व्यक्ति के स्थान पर तत्त्व के प्रतीक भगवाध्वज को ही गुरु का स्थान ।#श्री गुरु पूर्णिमा
महाभारत में अर्जुन ने किरात-वेशी शिव की स्तुति करते ‘नमों बालका वर्णायं कहा है। अर्थात् शिव को उगते हुए सूर्य की उपमा दी है। भगवाध्वज उगते हुए सूर्य के रंग का है। शिवत्व को प्राप्त करने के लिए स्वयं को शिव बनना पड़ता है। ‘शिवों भूत्वा शिवं यजेत्।’ अर्थात् भगवाध्वज की पूजा करने के लिए हमें अपने गुणों और चरित्र को उसके अनुरूप बनाना होगा।#श्री गुरु पूर्णिमा
यह ध्वज भगवान सूर्य का प्रतीक है ‘समय पर’ व नित्य कार्य’ का अर्थात् दैनिक शाखा का प्रतीक है। सूर्य शाश्वत है, अतः यह हमारे समाज और हमारे कार्य की शाश्वतता का प्रतीक है। सूर्य किरणें सब ओर जाती हैं- कोई भेदभाव नहीं, ‘दसों दिशाओं में जाऐं- इस प्रकार यह सर्वस्पर्शी एवं सार्वभौम काम खड़ा करने की प्रेरणा देता है। यह हमारे उत्थान और प्रगति का प्रतीक है।#श्री गुरु पूर्णिमा
संन्यासियों के वेश के कारण यह त्याग, तपस्या व ज्ञान का अग्नि स्वरूप होने के कारण पवित्रता और तेज का, वीरों का बाना होने के कारण आत्म त्याग और बलिदान का प्रतीक यह भगवाध्वज है। इसको प्रणाम करना अर्थात् समस्त सद्गुणों को प्रणाम। णमो लोए सव्व साहूणं’ – इस लोक के समस्त साधुजनों को प्रणाम है। इसको प्रणाम करने से हममें आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्) । #श्री गुरु पूर्णिमा भगवाध्वज का अर्थ है भगवान का ध्वज। अर्थात् यह हमारे ईश्वरीय कार्य का प्रतीक है। हमारे कार्य का आधार हमारी शाखा है। ‘संघ है मंदिर, देवता भगवा, धर्म है अपना ध्येय” । परमपवित्र भगवाध्वज के दर्शन करने, भारत माता की पवित्र मिट्टी में खेलने और संघ – गंगा में अवगाहन करने से असंगठन और फूट के सब पाप नष्ट हो जाते हैं “दरसन, परसन, मज्जन पाना। हरई पाप कह वेद पुराना।” यह ध्वज हमारे संगठन का प्रतीक है। #श्री गुरु पूर्णिमा
हम शाखा के सब कार्यक्रम इस पवित्र ध्वज के सम्मुख करते हैं। इसमें हम अपनी प्यारी मात्भूमि का दर्शन करते हैं। यह हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास का स्मरण दिलाकर साहस, स्फूर्ति, त्याग • और बलिदान की दिशा में आगे बढ़ाने वाला तथा यज्ञमय अर्थात् त्यागमय जीवन की प्रेरणा देने वाला है। वेदों में अरुणाः केतवाः सन्तु का वर्णन हल्दी जैसे रंग का वर्णन। #श्री गुरु पूर्णिमाआदि काल से जनमेजय तक सभी चक्रवर्तियों, सम्राटों, महाराजाधिराजों, सेनानायकों यथा-रघु, राम, अर्जुन, चन्द्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य, स्कन्द गुप्त, यशोधर्मन, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज, महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि सबने इसी ध्वज की रक्षा के लिए संघर्ष किये, माताओं – बहनों ने जौहर किये। हमारा देश सदियों से जगदगुरु है।#श्री गुरु पूर्णिमा
“एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्व मानवाः ।।#श्री गुरु पूर्णिमा
इस देश में उत्पन्न अग्रजन्मा महापुरुषों के पास बैठकर संसार भर के मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें। खुद लार्ड मैकाले ने कहा है कि जिस समय इंग्लैंड के लोग खाल लपेटते थे और वनों में जंगलियों की तरह घूमते रहते थे उस समय भारत में महान सभ्यता थी। ठीक ही कहा है- “जब दुनिया में निखं जिनावर नांगो बूचों डोले हो, इण धरती से टाबरियो वेदाँरा मंतर बोले हो। घूम-घूम के दुनियां में फैलायो ज्ञान हो, इण पर वारा प्राण हो।” अब सब मानने लगे हैं कि जीवन के हर पहलू की शिक्षा सारे संसार ने भारतवर्ष से ग्रहण की है, अनेक प्रमाण अभी भी उपलब्ध हैं। #श्री गुरु पूर्णिमा

श्री गुरुपूर्णिमा उत्सव हेतु अमृत वचन
‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने किसी भी व्यक्ति को गुरु नहीं जाना है। संघ ने प्राचीन राष्ट्र के चिरंतन, ऐतिहासिक तथा अध्यात्मिक आदर्श के प्रतीक भगवाध्वज को ही गुरु माना है। ज्ञान त्याग पावित्र्य, संयम, शौर्य, पराक्रम आदि अनेक उदात्त गुणों से जिनका व्यक्तित्व निर्माण हुआ तथा भारतीय राष्ट्र की उज्वल परम्परा को अनेकों संकटों में भी जिन्होंने अवाधित रखी, उन पुरुषों ने भी भगवाध्वज के सम्मुख नत मस्तक होने में अपने आपको धन्य माना है। दैवी गुणों का दिव्य तथा अनादि इतिहास इस ध्वज के एक-एक धागे में गुंथा हुआ है। गुरु पूर्णिमा के दिन इसी भगवाध्वज की हम अर्चना कर सर्वस्व अर्पण की प्रेरणा लेते हैं तथा तन-मन-धन से इस गुरू के गौरव के लिए उद्यमशील होने का दृढ़ संकल्प करते हैं।’
गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम विधि
अपेक्षित कार्यकर्ता
- सम्पत् हेतु
- गणगीत हेतु
- एकलगीत हेतु
- अमृत वचन हेतु
- प्रार्थना हेतु
- वक्ता/मुख्य अतिथि
- कार्यक्रम विधि बताने एवं मंचासीन बन्धुओं का परिचय कराने हेतु ।
- कार्यक्रम स्थल से बाहर की व्यवस्था (स्वागत करते हुए, जूते, चप्पल, वाहन व्यवस्थित एवं यथा स्थान खड़े करवाने तिलक लगाने, कार्यक्रम में बैठने से पूर्व ध्वज प्रणाम करना आदि सूचना देने) हेतु।
- श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम में पूजन हेतु लिफाफे देने एवं सूची बनाने हेतु अलग से कार्यकर्ता अपेक्षित हैं।
आवश्यक सामग्री
- मोसमअनुकूल उपयुक्त एवं स्वच्छ स्थान (बिछावन सहित) |
- चुना एवं रस्सी (रेखांकन हेतु)
- ध्वजदंड हेतु स्टैण्ड (यदि स्टैण्ड की व्यवस्था नहीं है तो उचित संख्या में ईंटें ) ।
- चित्र (भारतमाता, डॉक्टर जी एवं श्री गुरुजी के मालाओं सहित)
- मुख्य अतिथि/मुख्य वक्ता के लिये मंच/कुर्सियां ।
- सज्जा सामग्री (रिबिन, आलपिनें, सेफ्टी पिनें, चादरें/ चाँदनी, पर्दे, सुतली, गोंद आदि) ।
- पुष्प, थाली, धूपबत्ती, माचिस, चित्रों हेतु मेजें, चादरें।
- तिलक हेतु चन्दन अथवा रोली, अक्षत, कटोरी/थाली ।
- कार्यक्रम यदि रात्रि में है तो समुचित प्रकाश व्यवस्था ।
- ध्वनि वर्धक बैटरी सहित (यदि आवश्यक हो तो)।
विशेष –
* श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु भगवान वेदव्यास जी का माला सहित चित्र योग्य स्थान पर लगाना अपेक्षित है।
कार्यक्रम विधि :
- सम्पत्
- गणगीत
- अधिकारी आगमन
- कार्यक्रम की विधि बताना एवं सूचनायें
- ध्वजारोहण
- मंचासीन बन्धुओं का परिचय
- अमृत वचन
- एकलगीत
- वक्ता/अतिथि द्वारा उद्बोधन
- प्रार्थना
- ध्वजावतरण
- विकिर
विशेष-
- अधिकारी आगमन के समय उत्तिष्ठ की आज्ञा होगी। पश्चात् आरम् एवं दक्ष की आज्ञा पर सभी स्वयंसेवक दक्ष में खड़े होंगे और ध्वजारोहण होगा।
- श्री गुरु पूर्णिमा के उत्सव में उपस्थित वरिष्ठ अधिकारी द्वारा भगवान वेदव्यास के चित्र पर माल्यार्पण (यदि है तो) के बाद दीप प्रज्वलित कर पुष्पांजलि अर्पित करना।
- ध्वजारोहण तथा ध्वजावतरण के समय मुख्य अतिथि/वक्ता अग्रेसर (अभ्यागत) के बराबर तथा माननीय संघचालक/ कार्यवाह अपने निर्धारित स्थान पर खड़े होंगे।
- कार्यक्रम के उपरांत परिचय की दृष्टि से शाखा टोली सहित प्रमुख कार्यकर्ताओं को रोकना योग्य रहेगा।
श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु एकलगीत
यह भगवा ध्वज हमारा है स्वाभिमान अपना I
यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना II
समरस बनाएँ जीवन, हर पल हमें सिखाता I
रंग लाल पीला समरस हो भव्य रूप पाता II
समरसता मूल इसका, कहे ऐक्य भाव रखना II
यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना || 1 II
लिए उषाकाल आभा, प्रभा अग्नि ज्वाल जैसी ।
तप, त्याग, शील शिक्षा, जन मन जगाये ज्योति ।।
भरे राष्ट्रभक्ति उर में, कहे सत्यकर्म करना 1
यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना ||2||
जब वीर इसको लेकर, रणक्षेत्र में है जाता I
वीरों के उर में साहस, बलिदानी भाव भरता ।।
नवचेतना का वाहक, मां भारती का गहना I
यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना ।।3।।
भगवा ये ध्वज हमारा, गुरुवंद्य हैं हमारे ।
यह तत्वरूप धर मन के, गुण सभी निखारे ।।
हिन्दुत्व का ये वाहक, ये है मनुजता की गरिमा ।।
यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना।।4।।
गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु बौद्धिक
अपने राष्ट्र और समाज जीवन में गुरुपूर्णिमा आषाढ़ पूर्णिमा अत्यंत महत्वपूर्ण उत्सव है। व्यास महर्षि आदिगुरु हैं। उन्होंने मानव जीवन को गुणों पर निर्धारित करते हुए उन महान आदर्शों को व्यवस्थित रूप में समाज के सामने रखा। विचार तथा आचार का समन्वय करते हुए, भारतवर्ष के साथ उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। इसलिए भगवान वेदव्यास जगत् गुरु है। इसीलिए कहा है ‘व्यासो नारायणम् स्वयं’ इस दृष्टि से गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है।
गुरु की कल्पना
‘अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदं दर्शितंयेन तस्मै श्री गुरुवे नमः’ यह सृष्टि अखण्ड मंडलाकार है। बिन्दु से लेकर सारी सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति का, जो परमेश्वर तत्व है, वहां तक सहज सम्बन्ध है, यानी वह जो मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर शक्ति के बीच में जो सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को जिनके चरणों में बैठकर समझने की अनुभूति पाने का प्रयास करते हैं, वही गुरु है। सम्पूर्ण सृष्टि चैतन्ययुक्त है। चर, अचर में एक ही ईश्वर तत्व है। इनको समझकर, सृष्टि के सन्तुलन की रक्षा करते हुए, सृष्टि के साथ समन्वय करते हुए जीना ही मानव का कर्तव्य है। सृष्टि को जीतने की भावना विकृति है-सहजीवन ही संस्कृति है। सृष्टि का परम सत्य-सारी सृष्टि परस्पर पूरक है। सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। देना ही संस्कार है, त्याग ही भारतीय संस्कृति है। त्याग, समर्पण, समन्वय -यही हिन्दू संस्कृति है, मानव जीवन में, सृष्टि में शांतियुक्त, सुखमय, आनन्दमय जीवन का आधार है।
नित्य अनुभव
वृक्ष निरन्तर कार्बन डाइ ऑक्साइड को लेते हुए आक्सीजन बाहर छोड़ते हुए सूर्य की सहायता से अपना आहार तैयार कर लेते हैं। उनके आक्सीजन यानी प्राणवायु छोड़ने के कारण मानव जी सकता है। मानव का जीवन वृक्षों पर आधारित है अन्यथा सृष्टि नष्ट हो जाएगी। आजकल वातावरण प्रदूषण से विश्व चिंतित है, मानव जीवन खतरे में है।इसलिए सृष्टि के संरक्षण के लिए मानव को योग्य मानव, मानवतायुक्त मानव बनना है, तो गुरुपूजा महत्वपूर्ण है। सृष्टि में सभी जीवराशि, प्रकृति अपना व्यवहार ठीक रखते हैं। मानव में विशेष बुद्धि होने के कारण बुद्धि में विकृति होने से प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने का काम भी मानव ही करता है।बुद्धि के अहंकार के कारण मानव ही गड़बड़ करता है। इसलिए ‘गुरुपूजा’ के द्वारा मानव जीवन में त्याग, समर्पण भाव निर्माण होता है।
गुरु व्यक्ति नहीं, तत्व है
अपने समाज में हजारों सालों से, व्यास भगवान से लेकर आज तक, श्रेष्ठ गुरु परम्परा चलती आयी है। व्यक्तिगत रीति से करोड़ों लोग अपने-अपने गुरु को चुनते हैं, श्रद्धा से, भक्ति से वंदना करते हैं, अनेक अच्छे संस्कारों को पाते है। इसी कारण अनेक आक्रमणों के बाद भी अपना समाज, देश, राष्ट्र आज भी जीवित है। समाज जीवन में एकात्मता की, एक रस जीवन की कमी है। राष्ट्रीय भावना की कमी, त्याग भावना की कमी के कारण भ्रष्टाचार, विषमय संकुचित भावनाओं से, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, शोक रहित (चारित्र्य दोष) आदि है।सलिए राष्ट्रीय स्वयं संघ ने अपने गुरु को स्थापित किया है। भगवान त्याग का है। स्वयं हुए विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण ज के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधुसंता वस्त्र ही पहनते हैं, इसलिए भगवा, केसरिया त्याग का प्रतीक है। अपने राष्ट्र जीवन के मानव जीवन के इतिहास का साक्षी यह ध्वज है। यह शाश्वत है, अनंत है, चिरंतन है।
व्यक्ति पूजा नहीं, तत्व पूजा
संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं। व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई है, आज भी अनेक विद्यमान है। उन सारी महान विभूतियों के चरणों में शत-शत् प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, सम्पूर्ण समाज को, सम्पूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।
तत्वपूजा- तेज, ज्ञान, त्याग का प्रतीक
हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में ‘यज्ञ’ का बड़ा महत्व रहा है। ‘यज्ञ’ शब्द के अनेक अर्थ है। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टिजीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है। यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है अपना परम पवि उपासक है अन्धविश्वास के नहीं। हम के उपाय अज्ञान के नहीं। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में जानकी प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है।
सच्ची पूजा
‘तेल जले, बाती जले लोग कहें दीप जले जब दीप जलता है हम कहते है या देखते हैं कि दीप जल रहा है, लेकिन सही अर्थ में तेल जलता है, बाती जलती है, वे अपने आपको समर्पित करते हैं तेल के लिए। कारगिल युद्ध में मेजर पद्मपाणी आचार्य, गनर रविप्रसाद जैसे असंख्य वीर पुत्रों ने भारत माता के लिए अपने आपको समर्पित किया। मंगलयान में अनेक वैज्ञानिकों ने अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक सुख की तिलाञ्जलि देकर अपनी सारी शक्ति समर्पित की।
प्राचीन काल में महर्षि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए. संरक्षण के लिए अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया था। समर्पण अपने राष्ट्र की, समाज की परम्परा है। समर्पण भगवान की आराधना है। गर्भवती माता अपनी संतान के सुख के लिए अनेक नियमों का पालन करती है, अपने परिवार में माता, पिता, परिवार के विकास के लिए अपने जीवन को समर्पित करती है। खेती करने वाले किसान और श्रमिक के समर्पण के कारण ही सबको अन्न मिलता है। करोड़ों श्रमिकों के समर्पण के कारण ही सड़क मार्ग, रेल मार्ग तैयार होते हैं।
शिक्षक- आचार्यों के समर्पण के कारण ही करोड़ों लोगों का ज्ञानवर्धन होता है। डाक्टरों के समर्पण सेवा के कारण ही रोगियों को चिकित्सा मिलती है। इस नाते सभी काम अपने समान में आराधना भावना से, समर्पण भावना से होते थे। ऐसा केवल जीने के लिए लिया जाता था। सभी काम आराधना भावना से, समर्पण भावना से ही होते थे। परंतु आज आचरण में हाय दिखता है।
राष्ट्राय स्वाहा इदं न मम
इसलिए प.पू. डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की। व्यक्ति के पास प्रयासपूर्वक लगाई गई शारीरिक शक्ति, बुद्धिशक्ति, धनशक्ति होती है, पर उसका मालिक व्यक्ति नहीं, समाज रूपी परमेश्वर है। अपने लिए जितना आवश्यक है उतना ही लेना। अपने परिवार के लिए उपयोग करते हुए शेष पूरी शक्ति- धन, समय, ज्ञान-समाज के लिए समर्पित करना ही सच्ची पूजा है। मुझे जो भी मिलता है, वह समाज से मिलता है। सब कुछ समाज का है, परमेश्वर का है, जैसे- सूर्य को अर्घ्य देते समय, नदी से पानी लेकर फिर से नदी में डलते हैं। मैं, मेरा के अहंकार भाव के लिए कोई स्थान नहीं । परंतु आज चारों ओर व्यक्ति के अहंकार को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस लिए सारी राक्षसी प्रवृत्तियां- अहंकार, ईर्ष्या, पदलोलुपता, स्वार्थ बढ़ गया है, बढ़ रहा है। इन सब आसुरी प्रवृत्तित्यों को नष्ट करते हुए त्याग, तपस्या, प्रेम, निरहंकार से युक्त गुणों को अपने जीवन में लाने की साधना ही गुरु पूजा है।
शिवोभूत्वा शिवंयजेत
शिव की पूजा करना यानी स्वयं शिव बनना, यानी शिव को गुणों को आत्मसात् करना, जीवन में उतारना है। भगवाध्वज की पूजा यानी गुरुपूजा यानी – त्याग, समर्पण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारते हुए समाज की सेवा करना है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं अपने जीवन को अपने समाज की सेवा में अर्पित किया था, ध्येय के अनुरूप अपने जीवन को ढाला था। इसलिए कहा गया कि प.पू. डाक्टरजी के जीवन यानी देह आयी ध्येय लेकर।
वैसे प.पू. गुरुजी, रामकृष्ण मिशन में दीक्षा लेने के बाद भी हिमालय में जाकर तपस्या करने की दृष्टि होने के बाद भी ‘राष्ट्राय स्वाहा, इदं न मम’, मै नहीं तू ही जीवन का ध्येय लेकर सम्पूर्ण शक्ति को, तपस्या को, अपनी विद्वता को समाज सेवा में समर्पित किया। लाखों लोग अत्यंत सामान्य जीवन जीने वाले किसान, श्रमिक से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक, वनवासी गिरिवासी से लेकर शिक्षित, आचार्य, डाक्टर तक, ग्रामवासी, नगरवासी भी आज समाज जीवन में अपना समय, धन, शक्ति समर्पण करके कश्मीर से कन्याकुमारी तक काम करते दिखते है। भारत के अनेक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों में भी ऐसे समर्पण भाव से काम करने वाले कार्यकर्ती मिलते हैं।
गुरुपूजा
हर वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा को व्यक्तिशः संघ की शाखाओं में गुरुपूजा यानी भगवाध्वज की पूजा स्वयंसेवक करते है। अपने तन-मन-धन का धर्म मार्ग से विकास करते हुए, विकसित व्यक्तित्व को समाज सेवा में समर्पित करने का संकल्प लेते हुए, संकल्प को आगे बढ़ाते हुए, जीवन भर व्रतधारी होकर जीने के लिए हर वर्ष भगवाध्वज की पूजा करते हैं।
यह दान नहीं, उपकार नहीं, यह अपना परम कर्तव्य है। समर्पण में ही अपने जीवन की सार्थकता है, यही भावना है। परिवार के लिए काम करना गलत नहीं है, परंतु केवल परिवार के लिए ही काम करना गलत है। यह अपनी संस्कृति नहीं है। परिवार के लिए जितनी श्रद्धा से कठोर परिश्रम करते है, उसी श्रद्धा से, वैसी कर्तव्य भावना से समाज के लिए काम करना ही समर्पण है। इस भावना का सारे समाज में निर्माण करना है। इस भावना का निर्माण होने से ही भ्रष्टाचार, हिंसा प्रवृत्ति, ईष्या आदि दोष दूर हो जाएंगे।
समर्पण भाव से ही सारे समाज में एकात्म भाव भी बढ़ जाएगा। इस भावना से ही लाखों स्वयंसेवक अपने समाज के विकास के लिए, हजारों सेवा प्रकल्प चलाते हैं। समाज में भी अनेक धार्मिक, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थानों के कार्यकती अच्छी मात्रा में समाज सेवा करते हैं। आज सभी समर्पण भाव को हृदय में जगाकर काम करने वालों को एकत्र आना है, एक हृदय से मिलकर, परस्पर सहयोग से समन्वय करते हुए, समाज सेवा में अग्रसर होना है। व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देते हुए भौतिकवाद, भोगवाद, के वातावरण के दुष्प्रभाव से अपने आपको बचाना भी महान तपस्या है। जड़वाद, भोगवाद, समर्पण, त्याग, सेवा, निरहंकारिता, सहकारिता, सहयोग, समन्वय के बीच संघर्ष है। त्याग, समर्पण, सहयोग, समन्वय की साधना एकाग्रचित होकर, एक सूत्रता में करना ही मार्ग है। मानव जीवन की सार्थकता और विश्व का कल्याण इसी से संभव है।
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