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हरि सिंह नलवा जी का संझिप्त परिचय
भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर स्थित सिंध और पंजाब प्रान्त को विदेशियों के आक्रमणों का सबसे अधिक सामना करना पड़ा। 1802 में शासन संभालने के तुरन्त बाद से महाराजा रणजीत सिंह को लगातार अफगानों और पठानों के आक्रमणों से जूझना पड़ा। उनके सेनापति हरि सिंह नलवा के पराक्रम ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1807 में उन्होंने कसूर के पठान शासक निजामुद्दीन तथा 1808 में झंग के पठानों को हराया।
1810 में मुल्तान के शासक मुजफ्फर खान को हराकर उससे वार्षिक कर लेना शुरु किया। इस युद्ध के बाद पेशावर से काबुल तक मुसलमानों में हरि सिंह नलवा के नाम का आतंक फैल गया। वहाँ की माताएँ अपने बच्चों को कहती थी कि “सो जा बेटा नहीं तो नलवा आ जायेगा।”
भारतीय इतिहास के विजय प्रतीक सेनापति हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 में गुजरांवाला (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार गुरुदयाल सिंह उप्पल और माता का नाम धर्मकौर था। किशोर अवस्था में ही हरि सिंह बाण चलाने, खड्ग चलाने, भाला फेंकने तथा घुड़सवारी में पारंगत हो गया था। उसमें बिजली की सी चुस्ती और फुर्ती थी।
उससे प्रभावित हो महाराजा रणजीत सिंह ने उसे अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लिया। एक दिन महाराजा सैनिकों के साथ शिकार हेतु निकले। अचानक एक बाघ ने हरि सिंह पर आक्रमण कर दिया, वह अपनी तलवार भी नहीं निकाल पाया। हरि सिंह ने बाघ के जबड़ों को दोनों हाथों से ऐसा मरोड़ा की वह भूमि पर गिरकर तड़पने लगा।
हरि सिंह ने फुर्ती से म्यान से तलवार निकाल कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। महाराजा ने उसके इस पराक्रम को देख उसे सेनापति बना दिया। महाराजा रणजीत सिंह के 40 वर्षों के शासन काल की अवधि में हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ युद्ध लड़ते । महाराजा के साम्राज्य का विस्तार कसूर, मुल्तान, कश्मीर, पेशावर और काबुल तक हो गया था। नलवे ने अफगानों और पठानों को खैबर दर्रे के उस पार खदेड़कर इतिहास की धारा ही बदल दी थी।
ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग था यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों व मुगलों के कबीले लगभग 1000 वर्षों तक इसी मार्ग से भारत में हमलावर बनकर आते रहे और इस देश की समृद्धि और संस्कृति को तहस-नहस करने का प्रयास किया। हरि सिंह नलवा ने खैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमान का अन्त किया।
इस वीर सेनापति ने कसूर, मुल्तान, शाहपुर प्रदेश के अन्तर्गत मिट्टा, टिवाणा, अटक, कश्मीर, मुंधेर, हजारा और खैबर हिल्स में जमरोद इत्यादि स्थानों पर हुई लड़ाइयों में दुश्मनों को नेस्तनाबूद करके रख दिया।
1837 में महाराजा रणजीत सिंह अपने बेटे नौनिहाल सिंह की शादी की तैयारियों में व्यस्त थे, उधर हरि सिंह नलवा एक छोटी सैनिक टुकड़ी के साथ उत्तर-पश्चिमी सीमा की रखवाली कर रहे थे। तभी अचानक एक बड़ी अफगान फौज ने जमरोद पर हमला कर दिया। महीनों तक संघर्ष चलता रहा। हालांकि नलवा बीमार थे और उन्हें समय से सेना और रसद की आपूर्ति भी न हो सकी, फिर भी वे वीरता से युद्धभूमि में डटे रहे। अफगानी सेना के पैर उखड़ने ही वाले थे कि तभी एक गोली नलवा के हृदय में आ लगी। इस स्थिति में भी वह घोड़े पर बैठा रहा। घोड़ा युद्धस्थल से जमरोद पहुँच गया। नलवा की मृत देह ही घोड़े से उतारी गई।
30 अप्रैल 1837 को हरि सिंह नलवा का उसी स्थान पर दाह-संस्कार कर उनकी समाधि बना दी गयी। मात्र 47 वर्ष की अल्पायु में भारत की विजय पताका काबुल, कंधार और पेशावर तक फहराने वाला शौर्य का यह सूर्य युद्ध भूमि में ही अस्त हो गया।
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