
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस जी के बारे में सम्पूर्ण जानकरी के प्राप्त करे
श्री मधुकर दत्तात्रेय (बालासाहब) देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1914 का नागपुर के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। आपके पिता श्री दत्तात्रेय देवरस एक सामान्य सरकारी कर्मचारी थे तथा नागपुर के इतवारी मौहल्ले में रहते थे, बालासाहब के चार अन्य भाई तथा चार बहनें भी थीं। वैसे तो यह परिवार मूलतः आंध्र प्रदेश से आकर नागपुर में बसा था। #तृतीय सरसंघचालक
खेलकूद में बालासाहब बचपनश्री बालासाहब देवरस से ही बहुत निपुण थे कबड्डी में तो मानो उनके प्राण बसते थे, इस कारण सब उनसे मित्रता करना चाहते थे। 1927 में उन्होंने संघ शाखा पर जाना प्रारम्भ किया, उनकी प्रतिभा को देखकर डॉ० हेडगेवार ने उन्हें शाखा के ‘कुशपक्षक’ में शामिल कर दिया।तृतीय सरसंघचालक विशेष प्रतिभाशाली स्वयंसेवकों को कुशपथक में रखकर डा० जी स्वयं उन पर विशेष ध्यान दिया करते थे. धीरे-धीरे उन्हें गटनायक, गणशिक्षक, मुख्य शिक्षक आदि तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस दायित्व मिले। बालासाहब ने सब दायित्वों को कुशलतापूर्वक समाला, सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस खेलकूद के साथ-साथ पढाई में भी पर्याप्त रूचि एवं कुशाग्र बुद्धि होने के कारण उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदैव प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण की।

बालासाहब शुरू से ही बहुत कान्तिकारी तथा खुले विचारों के थे. उस समय छूआछूत, जातिभेद, खानपान में विभिन्न प्रकार के बन्धन आदि का सामान्य रूप से प्रचलन था पर बालासाहब इन कुरीतियों एवं रूढ़ियों के घोर विरोधी थे। अतः सर्वप्रथम उन्होंने अपने घर का वातावरण ठीक किया।
बी०ए० तथा फिर एल0एल0बी0 करने के तृतीय सरसंघचालकबाद उन्होंने डाक्टर जी के परामर्श पर नागपुर के “अनाथ विद्यार्थी वसतीगृह” में दो वर्ष तक अध्यापन कार्य किया. इसी समय आपको नागपुर के नगर कार्यवाही का दायित्व भी दिया गया। 1939 में आपने प्रचारक बनने का निश्चिय किया तथा डाक्टर जी ने आपको कोलकाता भेजा, परन्तु 1940 में डाक्टर जी के स्वर्गवास के कारण आपको पुनः नागपुर बुला लिया गया, तब से नागपुर ही तृतीय सरसंघचालकआपकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस
नगर कार्यवाह के नाते नागपुर के कार्य को पूरे देश में आदर्श बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व उन पर आया। संघ का केन्द्र होने के कारण बाहर से आने वाले सब लोग नागपुर से प्रेरणा लेकर जाएँ, इस कल्पना के साथ श्री बालासाहब ने काम संभाला। बिल्कुल
प्रारम्भ से ही संघ तथा डाक्टर जी से जुड़े रहने के कारण श्री बालासाहब का संघ की कार्यपद्धति तथा कार्यक्रमों के कमिक विकास में बहुत योगदान रहा है। संघ का गणवेश, शाखा तथा संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक / बौद्धिक कार्यक्रम एवं उनमें समय समय पर हुए आवश्यक परिवर्तनों के वे प्रत्यक्ष साक्षी रहे, गणगीत तथा समूहगान की पद्धति बालासाहब ने ही शुरू की।
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस
1964 में बालासाहब को सरकार्यवाहक का दायित्व मिला तथा 1973 में पू० श्री गुरूजी के स्वर्गवास के बाद वे तृतीय सरसंघचालक बने। नागपुर केन्द्र की गतिविधियों में अत्यधिक संलग्नता के कारण उनका नाम देश भर में अल्पज्ञात ही था, अतः अनेक लोग इस चिन्ता से ग्रस्त हो गये कि अब – संघ कार्य कैसे ‘चलेगा? श्री गुरूजी तोतृतीय सरसंघचालक बहुत विद्वान एवं महान आध्यात्मिक पुरुष थे परन्तु श्री बालासाहब तो साधारण कार्यकर्ता है, ये इतने बड़े संगठन को कैसे संभाल पायेंगे? परन्तु जैसे-जैसे श्री बालासाहब का सघन प्रवास शुरू हुआ, सबकी धारणाएँ बदल गयीं।
04 जुलाई, 1974 को संघ पर प्रतिबन्ध की घोषणा हो गयी, श्री बालासाहब संघ शिक्षा वर्गों के प्रवास समाप्त कर नागपुर लौटे ही थे कि उन्हें बन्दी बनाकर यरवदा (पूर्ण) कारागृह में ठूंस दिया। शेष तृतीय सरसंघचालक सभी प्रमुख कार्यकर्ता एवं प्रचारक भूमिगत हो गये तथा एक-दो अपवाद छोड़कर अन्त तक पकड़े नहीं गये।
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस
1974 से 1977 तक की आपातकालीन रात्रि बीतने के बाद संघ के स्वयंसेवकों द्वारा समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में चलाये जाने वाले संगठनों को जो अखिल भारतीय स्वरूप, ख्याति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उसके पीछे श्री बालासाहब का सुयोग्य मार्गदर्शन तथा योजनाबद्ध रीति से अनेक नये एवं युवा प्रचारक कार्यकर्ताओं को इन क्षेत्रों में भेजना, यही प्रमुख कारण है।
1973 से 1994 तक 21 वर्षो में सरसंघचालक के रूप में आपने संघ को अनेक नये विचार दिय, हिन्दुत्व पर आने वाली किसी भी चुनौती को उन्होंने अस्वीकार नहीं किया। 1983 में
तामिलनाडु के मपाक्षीपुर ग्राम में जब कुछ हिन्दुओं ने सामूहिक रूप से मुस्लिम पंथ स्वीकार कर लिया तो सारे देश में इसकी आलोचना हुई। पर श्री बालासाहब ने इस चुनौती को स्वीकार कर किया तथा धर्मान्तरण के इस कुचक्र को तोड़ने के लिए सार्थक पहल की। विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर व्यक्त किये गये श्री बालासाहब केतृतीय सरसंघचालक कान्तिकारी विचारों ने सदैव हिन्दू समाज को एक उचित दिशा दी है। “यदि अस्पृश्यतातृतीय सरसंघचालक पाप नहीं तो कुछ भी पाप नहीं है, जातिभेद तथा पुरानी कालबाह्य रूढ़ियों को छोड़ देना ही उचित है। समाज के निर्धन और निर्बल वर्ग के प्रति अनुराग का यह दृष्टिकोण व्यक्तिगत रूप से उनके जीवन में गहराई से स्थापित था।
परिवार में जब सम्पत्ति का बंटवारा हुआ तो तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरसबालासाहब और भाऊराव के हिस्से में चिखली (नागपुर) तथा कारंजा (म०प्र०) की कुछ खेती वाली भूमि आई। चिखली की भूमि, मकान, हल-बैल आदि तो उन्होंने उसे जोतने बोनेतृतीय सरसंघचालक वाले नौकर ‘चिन्धवाजी’ को ही नाममात्र के मूल्य पर दे दी। उसे यह भी छूट दी कि वह जब चाहे धीरे-धीरे अपनी सुविधानुसार इनका मूल्य चुका दें। जबकि कारजा की भूमि को बेचकर उसका समस्त पैसा डाक्टर हेडगेवार स्मारक समिति को दे दिया गया।
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस
बालासाहब प्रारम्भ से ही मधुमेह रोग से पीड़ित रहे, फिर भी 21 वर्ष तक वे एक मौन तपस्वी की भाँति पूरे देश में भ्रमण करके सब कार्यकर्ताओं कोतृतीय सरसंघचालक उचित मार्गदर्शन देते रहे। परन्तु जब उन्हें यह अनुभव होने लगा कि स्वास्थ्य तथा आयु सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण नियमित प्रवास करना अब कठिन है।तृतीय सरसंघचालक तो सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर नयी परम्परा स्थापित करते हुए 11 मार्च, 1994 को अ.भा. प्रतिनिध सभा के सम्मुख प्रो0 राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ को नूतन सरसंघचालक घोषित कर दिया।
तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस का दायित्व
सरसंघचालक के दायित्व से मुक्त होने के बाद भी वे सक्रिय बने रहे. यथासम्भव बैठकों, शिविरों, कार्यक्रमों आदि में जाकर वे
अपने बहूमूल्य परामर्श से सबको लाभान्वित करते रहे। बालासाहब का शरीर तो वस्तुतः रोगो का घर ही था, चिकित्सक भी यह देखकर हैरान रहते थे कि इतने रोगों के बाद भी वे चल कैसे रहे हैं? धीरे-धीरे श्री बालासाहब को लगने लगा कि अब वह शरीर लम्बे समय तक साथ देने वाला नहीं है, उन्होंने इसकी तैयारी भी शुरू कर दी।
25, 26 मई को स्वास्थ्य की अत्यधिक खराबी के कारण उन्हें पुणे के दीनदयाल चिकित्सालय और फिर अत्याधुनिक रूबी चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। पर स्वास्थ्य में कुछ सुधार नहीं हुआ, कुछ दिन तक कृत्रिम श्वांस तथा अन्य उपकरणों ने सहयोग दिया पर वे भी कब तक साथ देते? अन्तत: 17 जून, 1996 को रात्रि 8.10 पर श्री बालासाहब ने अपने सभी मित्रों. शुभचिन्तकों, सम्बन्धियों, स्वयंसेवकों तथा हिन्दुत्व प्रेमियों से विदा लेने हुए शरीर छोड़ दिया।
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