
भगवा ध्वज
संघ ने सबसे बड़ा गुरु का जो दर्जा या जिसको संघ का मालिक बनाया है वो है भगवा ध्वज ये ही संघ की यही बात सभी संगठन से अलग बनाती है
किसी भी जीवित व्यक्ति को गुरु न मानते हुए अपने परम पवित्र भगवाध्वज को ही अपना गुरु मानता है। व्यक्ति चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, यह सदा अविचल अडिग उसी स्थिति में रहेगा- इसकी कोई गारंटी नहीं। श्रेष्ठ व्यक्ति में भी कोई न कोई अपूर्णता या कमी रह सकती है। सिद्धांत ही नित्य अडिग बना रह सकता है। भगवाध्वज ही संघ के सैद्धांतिक विचारों का प्रतीक है। इस ध्वज की ओर देखते ही अपने राष्ट्र का उज्वल इतिहास, अपनी श्रेष्ठ संस्कृति और दिव्य दर्शन हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। जिस ध्वज की ओर देखते ही अंतःकरण में स्फूर्ति का संचार होने लगता है वही भगवा ध्वज अपने संघ कार्य के सिद्धांत का प्रतीक है, इसलिये वह हमारा गुरु है। भगवाध्वज हमारी तेजस्वी संस्कृति का प्रतीक, हमारा मानबिन्दु, वेदसाहित्य से लेकर आज तक जो हमारा प्ररणास्थान रहा है, चिरपुरातन होती हुए भी नित्यपूजन हमारी संस्कृति का परिचायक । #भगवाध्वज
ध्वज का शाब्दिक अर्थ ‘ध्वजति, गच्छति, उच्छ्रिता भवति अर्थात् जो ऊपर जाता है, उर्धगामी है, ऊँचा फहराता है वह ध्वज, ऐसा व्युत्पत्ति के अनुसार ध्वज शब्द का अर्थ सिद्ध होता है। अक्रा, केतु, पताका आदि ध्वज शब्द के संस्कृत प्रयायवाची शब्द है। ध्वज यह चिह्न है सम्मान का, यश का तथा आदर्श का। संदेशवाहन का एक साधन मानकर भी वह उपयुक्त माना जाता है। भारत में ध्वज का प्रयोग सबसे पहले ऋग्वेद संहिता में प्राप्त होता है। ऋग्वेद प्राचीनतम साहित्य माना गया है। #भगवाध्वज
वैश्विक साहित्य में ऋग्वेद का स्थान अनन्य साधारण है। ऋग्वेद के आधार पर ध्वज और वह भी भगवा (केसरिया) रंग का, ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व प्रचलित है। ‘केतुम् अरुषं यजध्यै’ (६- ४२-२) (अरुष भगवा, केसरिया) केसरिया ध्वज का यजध्यै- पूजन करना चाहिये। #भगवाध्वज
भगवाध्वज
पताका, यह ध्वज का प्रारम्भिक रूप माना जाता है। दण्ड के ऊपरी छोर में बंधी हुई प्रतिमा के नीचे जो भी वस्त्र या लहरिया बांधते थे उसको पताका माना जाता था। यही कल्पना आगे चलकर तिकोनी या चतुष्कोनी ध्वज में परिवर्तित हुई। आठ प्रकार की पताकायें प्रचलित थीं १. जया, २. विजया, ३ . भीमा, ४. चपला, ५. दीर्घा, ६. विशाला, ७. लवला, ८. वैजयन्तिका ।
संग्राम में शत्रु के ध्वज को लक्ष्य बनाकर, उसे ध्वस्त करना अतीव महत्त्वपूर्ण था। क्योंकि वह पराजय का प्रतीक माना जाता था। अतः ध्वज सदैव ही सेना का मानचिह्न तथा स्फूर्तिस्थान रहा है और इसी कारण से सेना को ‘ध्वजिनी’ यह पूर्णत: यथार्थ संज्ञा प्राप्त हुई है। हमारे देवताओं के भी भिन्न-भिन्न ध्वज थे। ऐसा संदर्भ प्राप्त होते हैं। शिव का वृषभध्वज, विष्णु का गरुडध्वज, दुर्गा का सिंहध्वज, गणेश जी का कुम्भ या मूषकध्वज, कामदेव का मकरध्वज। कालांतर में सभी योद्धा ने अपने-अपने ध्वज प्रयोग किये। महाभारतकाल में अर्जुन का कपिध्वज, कृपाचार्य का वृषभध्वज, जयद्रथ का वराहध्वज, दुर्योधन का गजध्वज, भीष्माचार्य का तालध्वज, भीम का सिंहध्वज इस बात को सिद्ध करते हैं।
इस प्रकार हमारी प्राचीन ध्वज परम्परा में ध्वज का आकार या पताका पर अंकित चिह्न भले ही विभिन्न रहे हों, किन्तु ध्वज का रंग प्रारम्भ से ही भगवा या केसरिया रहा।
यह भारत की प्रकृति के साथ मेल खाता है। व्युत्पत्ति के अनुसार भा अर्थात् तेज और रत अर्थात् रममाण देश। तेज ज्ञान का प्रतीक, इस देश में आदिकाल से ही ज्ञान अर्थात् तेज की पूजा अखण्डित रूप से होती रही है। उदीयमान सूर्य का तथा अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाओं का भगवा रंग ही हमारे भारतीय मन का मोह लेता है।
भगवाध्वज
ऋग्वेद में उल्लिखित हैं-
अदृश्रम् अस्य केतवो वि रश्मयो जना अनु भ्राजन्तो अग्नयो यथा । ऋ १-५०-३
अर्थात् उदीयमान सूर्य की किरणें तेजस्वी की ज्वालासमान तथा फहराते ध्वज के समान दिख रही हैं। ऋग्वेद की भांति ही अथर्ववेद में भी अरुण केतु का वर्णन मिलता है।
श्री रामचन्द्र जी ने रावण वध करने के उपरान्त लंका पर अपना भगवाध्वज फहराया यह सर्वविदित है। महाभारत में भी श्रीकृष्णार्जुन का ध्वज भगवा ही था। यवनों का पराजित करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य, शकों का नामोनिशान मिटाने वाले सप्तवाहन नृपति, हुणों को भगाने वाले गुप्त सम्राट आदियों ने भगवाध्वज को साक्षी रखकर ही अतुलनीय पराक्रम किया यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है।
वर्तमान कालखण्ड में ईसा की छठी शताब्दी में बंगाल के राजा पाल का ध्वज केसरी था। राजस्थान के राजपूत राजा भगवान एकलिंग जी के प्रसाद के रूप में भगवाध्वज स्वीकार करते थे। हिन्दूपदपादशाही की स्थापना करने वाला शिवाजी महाराज का ध्वज भी भगवा ही था।
ध्वज एक राष्ट्र मानबिन्दु है। उसका ध्वजदण्ड दृढ़ होना चाहिये। यह हमारी वर्तमान भावना वेदकाल से लेकर रामायण
महाभारत काल में तथा इतिहासकाल से आधुनिक काल तक सदैव एक जैसा एक ही रीति से चली आ रही है। हजारों वर्षों के इतिहास में ध्वज के प्रति पूज्यभाव अक्षुण्ण रहा है क्योंकि उसका मूलाधार ऋषि-मुनियों तपःपूत चिंतन और विचार- मंथन है। पाश्चात्य लोगों के समान तात्कालिक घटना तथा तदुतत्पन्न भावना कभी भी भारतीयों की ध्वजकल्पना का उगम स्थान नहीं था।
भगवाध्वज शब्द की व्युत्पत्ति भगवान का ध्वज ऐसी भी है। भग शब्द से ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ये छ: बातें प्रतीत होती हैं। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा॥
हिन्दुओं का भगवा रंग से बहुत ही निकट का नाता रहा है। इस रंग की विभिन्न छटाएं उनके जीवन में अत्र-तत्र बिखरी हुई ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हैं। ललाट पर केसरी तिलक, पूजन आदि में भगवान को अर्पण करने के लिये अष्टगंध भी केसरी ही है। बसंत पंचमी के दिन सिख जिस रंग से रंगते हैं, वह रंग भी केसरी ही है। यहाँ रणभूमि पर पहना जाने वाला वेष भी केसरी। हुतात्मा के रक्त का रंग भी केसरी। जौहर की चिता से साकार दिव्यत्व भी केसरी । केसरी रंग अर्थात् लाल और पीले रंग का घोल । पालाशो हरितो हरितः। पलाशवर्ण यह तेजतत्व की विशेष अवस्था हैं। अग्नि की निःसंगता, मांगल्य, पवित्रता आदि सद्गुण इसमें समाहित । स्वाभाविकत: इस रंग को हिन्दू सर्वश्रेष्ठ मानता है।
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