
स्वामी विवेकानंद का परिचय

स्वामी विवेकानंद जी का जन्म
कलकत्ता निवासी विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी की दो पुत्रियां थीं। पुत्र न होने का दत्त दम्पत्ति को बड़ा दुःख था। दोनों ने ना जाने कहां-कहां मनौतियां मांगी, प्रार्थनाए कीं और माथा रगड़ा। भुवनेश्वरी देवी की तो ईश्वर में बड़ी श्रद्धा थी, वे दिन-रात एक पुत्र की कामना से ईश्वर उपासना करती रहती थीं। वे पूरी तरह से धार्मिक विचारों की महिला थीं 1 उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था । पुत्र प्राप्ति को उन्होंने भगवान शिव द्वारा उन्हें प्रदान किये गए उपहार रूप में स्वीकार किया था। ऐसा इसलिए क्योंकि एक रात भुवनेश्वरी देवी ने ध्यानमग्न हो ईश्वर की उपासना की और फिर अपने शयन कक्ष में सो गईं। उस रात उन्होंने स्वप्न देखा कि अचानक भगवान शंकर उनके सामने आ खड़े हुए हैं और वे अपने आराध्य देव को देखकर भाव-विभोर हो उठीं। देखते-ही-देखते भोलेनाथ शिशु के रूप में बदल गए और तत्पश्चात भुवनेश्वरी देवी की गोद में आ बैठे।
स्वामी विवेकानन्द की माता भुवनेश्वरी देवी
स्वप्न में इतना देखने पर एकाएक भुवनेश्वरी देवी की आंख खुल गई। फिर वह पूरी रात सो नहीं सकी थीं। इस स्वप्न ने उनमें विचित्र व्याकुलता उत्पन्न कर दी थी। उन्हें अनुभव होने लगा था कि हो न हो शीघ्र ही उन्हें पुत्र की प्राप्ति होने वाली है। हुआ भी ऐसा ही। भुवनेश्वरी देवी का स्वप्न फलीभूत हुआ। 12 जनवरी, सन् 1863 ई० में, विद्वानों के अनुसार मकर संक्रांति संवत् 1920 में स्वामी विवेकानन्द जीवनी और व्याख्यान भुवनेश्वरी देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसे पाकर उन्हें सहर्ष ही विश्वास हो गया कि उनका पुत्र भगवान शिव की अनुकम्पा का प्रसाद है। उनकी ही कृपा से उनकी गोद पुत्र रत्न से उज्ज्वल हुई है।
भुवनेश्वरी देवी के लाल का नाम नरेन्द्र रखा गया, किन्तु भुवनेश्वरी देवी अपने प्रिय पुत्र को वीरेश्वर कहकर पुकारती थीं, शेष परिवारजन नरेन्द्र को ‘विले’ कहते थे। नरेन्द्र के बाद भुवनेश्वरी देवी ने दो पुत्र और दो पुत्रियों को भी जन्म दिया। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। वे पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे पुत्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के रंग में ढालना चाहते थे। नरेन्द्र पर माता का प्रभाव अपने पति के विपरीत भुवनेश्वरी देवी एक धर्म परायण महिला थीं। विश्वनाथ जी धार्मिक रूढ़िवादिता के बंधन से मुक्त थे। वे दोनों हाथों से घर में प्रत्येक सुख-सुविधा जुटाने के लिए खुलकर धन खर्च करते थे। मितव्यितिता करना तथा भविष्य या परलोक की उन्हें चिन्ता नहीं थी। वह उदार स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति थे। जबकि उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी पहले से चले आ रहे छुआछूत, अंधविश्वास और पवित्र अपवित्र के नियमों का उल्लंघन नहीं कर पाती थीं। वह अपने सभी बच्चों की स्नेहपूर्वक देख-भाल करती स्वामी विवेकानन्द के पिता विश्वनाथ दत्त थीं। उनकी नियमित दिनचर्या थी कि रामायण, गीता, भागवत आदि पुराणों का पाठ हो। नरेन्द्र को अपनी मां से रामायण और महाभारत की कहानियां सुनना बहुत पसन्द था। मां भी अपने लाड़ले को गोद में बैठाकर ये कहानिया बड़े चाव से सुनाया करती थीं। दत्त भवन में प्रायः प्रतिदिन दोपहर के समय धार्मिक कथाएं होती थीं। वैसे नरेन्द्र चंचल स्वभाव का बालक था, पर इस छोटी-सी महिला सभा में वह चुपचाप और शांत बैठा रहता था। इन ग्रन्थों की कहानियों का नरेन्द्र के बालमन पर गंभीर प्रभाव पड़ा। इनके पात्र उसकी कल्पना में संजीव हो उठते और वह घण्टों मंत्रमुग्ध-सा बैठा सुनता रहता था। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
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स्वामी विवेकानंद आरम्भिक शिक्षा
नरेन्द्र छः वर्ष के हुए, तो उनकी मां भुवनेश्वरी देवी को उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिन्ता सताने लगी। जल्द ही उनके पिता ने नरेन्द्र के लिए घर पर ही शिक्षा का उचित प्रबन्ध कर दिया। मगर शरारती नरेन्द्र अपनी शरारतों से तब भी बाज नहीं आए। आरम्भ में तो मास्टर जी को थोड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा, मगर फिर मास्टर जी ने काफी सोच-विचार के बाद एक उपाय निकाल लिया। उन्होंने नरेन्द्र को डांटना बंद कर दिया और प्रेम से उसे पढ़ाने लगे। वह समझ गए बालक नरेन्द्र शरारती होने के साथ-साथ स्वाभिमानी भी था। डाटना-डपटना उसे अपना अपमान लगता था। मास्टर जी के इस प्रयास का बेहतर परिणाम निकला। बालक नरेन्द्र पूरे मनोयोग से पढ़ने लगे और इस तरह उसकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक विचारों की होने के कारण भुवनेश्वरी देवी को पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक उनके घर बार-बार आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही आध्यात्म के संस्कार गहरे होते गए। उनमें बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
मेट्रोलिटन इन्स्टीट्यूट नरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद विश्वनाथ जी ने नरेन्द्र को मेट्रोलिटन इन्स्टीट्यूट में प्रवेश दिला दिया। वहां का वातावरण नरेन्द्र के लिए सर्वथा नया था, मगर वहां की बाल मण्डली को देखकर नरेन्द्र को इस नए वातावरण में घुलने-मिलने में ज्यादा समय नहीं लगा। नये बच्चों के साथ धमाचौकड़ी मचाने में उन्हें बड़ी खुशी हुई। नए-नए दोस्त नए-नए खेल, बालक नरेन्द्र की खुशी का ठिकाना न था। उसके ये नए-नए साथी दत्त भवन में आते और बहुत उधम मचाते। नरेन्द्र उस बाल टोली का नेता बन गया था। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
मगर फिर, नरेन्द्र को बड़ी कठिनाई होने लगी। शुरू में नरेन्द्र को यह सब बहुत अच्छा लगा, परन्तु जैसे ही पाठशाला का अनुशासन बढ़ने लगा, तो नरेन्द्र का मन वहां से उचटने लगा। नरेन्द्र को एक स्थान पर देर तक ठहरने का जरा भी अभ्यास न था, जबकि वहां उसे छः घंटे एक स्थान पर यानि पाठशाला की चारदीवारी में काटने पड़ते थे। उसे यह सब जंजाल लगने लगा। वह किसी भी तरह इस जंजाल से मुक्ति चाहता था। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
स्वामी विवेकानन्द वह जरा-सी देर में अपने स्थान पर बैठकर खड़ा हो जाता था और बाहर चला जाता। कभी-कभी गुस्सा आने पर किताबें फाड़ डालता। उसकी शरारतों पर मास्टर झल्ला जाते। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस प्रकार उस उद्दण्डी पर काबू पाएं। बाद में वहां के अध्यापकों ने कठोर शास के बदले प्रेमपूर्ण व्यवहार का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया, इससे बड़ा लाभ हुआ। नरेन्द्र का मन पुनः पाठशाला में लगने लगा। #स्वामी विवेकानंद का परिचय

1. स्वामी विवेकानंद की हाईस्कूल की परीक्षा कब और कैसे हुई ?
दो वर्ष बाद नरेन्द्रनाथ रायपुर से वापस लौटा। उस समय तक वह शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत बदल चुका था। पुराने मित्र नरेन्द्र को पुनः अपने बीच पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उस समय नरेन्द्र की आयु सोलह वर्ष हो चुकी थी। किन्तु देखने पर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पूर्ण युवा हो चुका हो। कलकत्ता लौटकर नरेन्द्र को व्यायाम का शौक लग गया। वह राजनैतिक चेतना का युग था सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी और आनन्द मोहन बसु ने विद्यार्थी संघ की स्थापना की थी और वे नौजवानों को शारीरिक व मानसिक रूप से सबल होने की शिक्षा देते थे। मुहल्ले में कार्नवालिस स्ट्रीट के पास एक अखाड़ा था, हिन्दु मेले के प्रवर्तक नवगोपाल मित्र ने उसकी स्थापना की थी। वह प्रतिदिन अखाड़े (व्यायाम शाला) जाने लगा। इससे उसका शरीर और भी पुष्ट व बलिष्ठ हो गया। नरेन्द्र अपने खिलाड़ी साथियों में सबसे आगे था। एक बार उसने घूंसेबाजी में चांदी की तितली का प्रथम पुरस्कार जीता। क्रिकेट खिलाड़ियों में भी नरेन्द्र का अच्छा नाम था। मगर दो वर्ष तक रायपुर में रहने के कारण पिछड़ गया था, जिस कारण स्कूल में एडमिशन लेने में उसे परेशानी हो रही थी, लेकिन शिक्षकों के प्रयास से उसे प्रवेश मिल गया। नरेन्द्र ने अपनी कठोर मेहनत के बल पर दो वर्ष की पढ़ाई को एक वर्ष में ही पूरा कर लिया और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। इस पर परिवार के सभी लोग व शिक्षक उनसे बहुत खुश हुए। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
स्वामी विवेकानंद कि वक्तृत्व शक्ति
उन दिनों नरेन्द्र के स्कूल के एक शिक्षक अवकाश ग्रहण करने वाले थे नरेन्द्र अपने सहपाठियों के सहयोग से उनका अभिनन्दन समारोह करने का निश्चय किया। स्कूल के वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह के दिन इस अभिनन्दन समारोह का आयोजन था। श्री सुरेन्द्रनाथ बन्योपाध्याय इस सभा की अध्यक्षता कर रहे थे। वे अ समय के प्रसिद्ध वक्ता थे। जिस समय शिक्षक का अभिनन्दन करने का समय आया तो छात्रों की तरफ से कोई भी सभा में बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। अन्त में निश्चय किया गया कि छात्रों की तरफ से नरेन्द्रनाथ भाषण देंगे। नरेन्द्र ने आधा घंटे तक लगातार भाषण दिया। उसने अपने इस भाषण में अपने सभी शिक्षकों के गुणों पर प्रकाश डाला और अंत में छात्रों की तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि देकर उनके बिछड़ने से उत्पन्न दुःख का वर्णन करके बैठ गया। उसकी मधुर व तर्क संगत वाणी ने समस्त श्रोताओं को अपने आकर्षण में बांध लिया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि वक्तृत्वशक्ति से सम्पूर्ण विश्व में अपनी धाक जमाने वाले स्वामी विवेकानन्द में यह गुण किशोरावस्था में ही दृष्टिगोचर होने लगा था। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
स्वामी विवेकानंद कि जनरल असेम्बली कॉलेज
मैट्रिक पास करने के बाद नरेन्द्रनाथ से जनरल असेम्बली कॉलेज में प्रवेश लेकर एम ए० की शिक्षा लेनी आरम्भ की। उस समय नरेन्द्रनाथ की आयु अट्ठारह वर्ष थी। उसक मेधावी प्रतिभा, तीव्र वृद्धि और आकर्षक व्यक्ति ओर आकर्षित किया। कुछ ही समय में उसके बहुत से विद्यार्थी मित्र बन गए। वास्तविकता यह थी कि नरेन्द्र की विलक्षणता मे सभी विद्यार्थियों को प्रभावित किया था, इसी कारण अन्य विद्यार्थी नरेन्द्र से मित्रता करके खुद पर गर्व करते थे। नरेन्द्र का एक सहपाठी प्रियनाथ सिन्हा मामक उनका मित्र था। इसी प्रियनाथ सिन्हा ने अपने संस्मरणों में लिखा है- स्वामी विवेकानंद का परिचय
“नरेन्द्रनाथ हेदो तालाब के पास जनरल असेम्बली कालेज में पढ़ते हैं। एम० ए० उन्होंने यहीं से पास किया है। उनके असंख्य गुणों के कारण बहुत से सहपाठी उनमें अत्यन्त अनुरक्त हैं…।” इन दिनों नरेन्द्र अपनी नानी के घर में रहकर अध्ययन करते थे। अपने पिता के घर नरेन्द्र केवल दो समय का भोजन करने ही जाते थे। हकीकत यह थी कि नरेन्द्र अपनी नानी के घर केवल अध्ययन करने ही जाते थे। उसे एकान्त में रहना अधिक पसंद था। स्वामी विवेकानन्द : गम्भीर चिन्तन मुद्रा में मैट्रिक पास करते-करते नरेन्द्र की बुद्धि इतनी विकसित हो गई कि कोई भी पुस्तक पढ़ने अथवा उसे समझने में ज्यादा समय नहीं लगता था। एक बार खुद विवेकानन्द ने अपने उस समय के बारे में चर्चा करते हुए अपने गुरु भाइयों को बताया था- स्वामी विवेकानंद का परिचय “उस समय कोई पुस्तक पढ़ते समय प्रत्येक पंक्ति क्रमशः पढ़कर ग्रंथकार का वक्तत्व समझने की मुझे जरूरत नहीं पड़ती थी। प्रत्येक अनुच्छेद की पहली और आखिरी पंक्ति पढ़ते ही मुझे यह पता चल जाता था कि उस अनुच्छेद में क्या कहा गया है। धीरे-धीरे मुझमें यह शक्ति परिपक्व होती चली गई। अब मुझे हर अनुच्छेद पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं थी। प्रत्येक पृष्ठ की पहली व आखिरी लाइन पढ़कर ही मैं उसका आशय समझ लेता था। फिर पुस्तक के जिस स्थान पर ग्रन्थकार द्वारा किसी विषय को तर्क युक्ति से समझाया गया, वहां यदि प्रमाण-प्रयोग की सहायता से किसी की युक्ति को समझने में मुझे चार-पांच या अधिक पृष्ठ पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। उस युक्ति का आरम्भ पढ़ने मात्र से ही मैं उन पृष्ठों की सारी बात समझ लेता था।” स्वामी विवेकानंद का परिचय
नानी का कमरा बहुत छोटा था। इसी कारण नरेन्द्र ने उस घर का नाम ‘तंग’ रख दिया था और मित्रों से कहते थे-“आओ चलो, तंग में चलें।” गम्भीर चिन्तन शक्ति, तीक्ष्ण बुद्धि के कारण नरेन्द्र सभी विषय बहुत कम समय में सीख लेता था। संगीत, स्वच्छंद भ्रमण, मित्रों के साथ खेल-कूद और हंसी मजाक के लिए उसे काफी समय मिल जाता था। उसके इस व्यवहार को देखकर लड़के समझते थे कि नरेन्द्र को पढ़ने का जरा भी शौक नहीं है। उसकी तरह दूसरे लड़के भी खेल-कूद में समय बिताते, मगर परिणाम अच्छा नहीं होता था। स्वामी विवेकानंद का परिचय
नरेन्द्र के लिए पाठ्य-पुस्तकें तो परीक्षा पास करने का साधन मात्र थी, वरना उसका स्वभाव बन चुका था कि वह साहित्य, दर्शन और इतिहास की पुस्तकें अधिक पढ़ता था। देकार्त का अहम्वाद, ह्यूम और वेन की नास्तिकता, डार्विन का विकासवाद और इसके अलावा हर्बर्ट स्पेन्सर का अज्ञेयवाद उसने एम० ए० की परीक्षा देने से पहले ही पढ़ लिया था। उसके मित्र ब्रजेन्द्र बाबू ने प्रमुख पत्रिका में अपने संस्मरण लिखे थे, जिसमें उसने नरेन्द्र की अशान्ति और ज्ञान जिज्ञासा का चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखा है- “नरेन्द्र शैली की कविताओं, हेगल के दर्शन और फ्रांसीसी क्रान्ति के इतिहास का अध्ययन भी इसी अवस्था में कर चुका था। इसके अलावा संस्कृत कविता, उपनिषद् और राजा राममोहन राय की पुस्तक भी वह बड़ी रुचि से पढ़ता था। उस समय वह शरारती व खिलाड़ी नरेन्द्र से एकदम अलग कोई दूसरा ही व्यक्ति होता था।” स्वामी विवेकानंद का परिचय
स्वामी विवेकानंद कि अध्ययन का ध्येय
ब्रजेन्द्र बाबू नामक युवक नरेन्द्र से कॉलेज में दो-तीन वर्ष आगे था। मगर फिर भी दोनों में गहरी मित्रता थी। वे दोनों दार्शनिक क्लब में जाया करते थे। इतिहासकार रोमा रोला ने लिखा है- “ब्रजेन्द्र फ्रांसीसी क्रान्ति से प्रभावित थे और अराजकतावादी थे। मगर बाद में उन्होंने एक बुद्धिवादी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की।” इसका मतलब साफ है, एक अराजकतावादी से बुद्धिवादी का रूप ग्रहण करना नरेन्द्र के सहवास का परिणाम था। यह पहले ही बताया जा चुका है कि नरेन्द्र को अध्ययन में बहुत रुचि थी, जिसका | उद्देश्य था- सत्य की खोज नरेन्द्र जिस तथ्य को सत्य मानते थे, उसकी मन-प्राण से रखा करते थे। जब वह देखते थे कि कोई व्यक्ति उस सत्य के विपरीत भाव अथवा मत व्यक्त कर रहा है, तो नरेन्द्र तुरन्त उसका खण्डन करने के लिए तैयार हो जाते और अपने सशक्त तकों और युक्तियों द्वारा उसे परास्त करके दम लेते थे। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
कई बार तो ऐसा होता कि पराजित व्यक्ति खीज उठता, और नरेन्द्र पर आरोप लगाता कि वह अहंकारी है। मगर नरेन्द्र के मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं था और न ही यह अपनी बात को ऊंचा रखने के लिए कुतर्क का ही सहारा लेते थे। उन्हें जो करना होता या स्पष्ट वाणी में कह देते थे। उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की, कि कोई उनसे द्वेष रखता है, उनकी आलोचना करता है अथवा गलत सोचता है। नरेन्द्र का हृदय शुद्ध था। जब उनका वास्तविक स्वभाव उजागर हुआ, तो विद्यार्थी उसकी बात ध्यान से सुनते ये और उनका आदर करने लगे थे। #स्वामी विवेकानंद का परिचय
नरेन्द्रनाथ की जिस अनुपात में आयु बढ़ रही वैसे ही अध्ययन की गति भी बड़ रही थी किन्तु फिर भी नरेन्द्र की जिज्ञासा शान्त नहीं हो रही थी, बल्कि यह तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी। यद्यपि उनके शिक्षक उन्हें सर्वश्रेष्ठ छात्र के रूप में देखते थे, किन्तु नरेन्द्र को अपने चित्त में एक बड़े रिक्त की अनुभूति होती थी नरेन्द्र की हार्दिक इच्छा के जानकार विलियम हेस्टी का उन्हें लेकर जो मत है, वह स्वाभाविक था। विलियम हेस्टी जनरल असेम्बली कालेज के अध्यक्ष थे, साथ ही वह बड़े विद्वान्, कवि और दार्शनिक थे। नरेन्द्र, ब्रजेन्द्र आदि कुछ प्रतिभाशाली विद्यार्थी नियमित रूप से उनके पास जाते और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया करते थे हेस्टी नरेन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा के बड़े प्रशंसक थे और इसी कारण उसे बहुत अधिक चाहते थे। एक बार नरेन्द्र ने जब कॉलेज के दार्शनिक क्लब में किसी मत विशेष का सूक्ष्म विश्लेषण किया, तो हेस्टी खुशी से झूम उठे और मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए बोले-
“यह (नरेन्द्र) दर्शनशास्त्र के अत्युत्तम छात्र है। जर्मनी और इंग्लैंड के तमाम विश्वविद्यालयों में एक भी ऐसा छात्र नहीं है, जो इनके समान मेधावी हो।” #स्वामी विवेकानंद का परिचय
स्वामी विवेकानंद का संदेह का जन्म
नरेन्द्रनाथ के मन में तरह-तरह के विचारों की आंधी उठ रही थी, जिसने कई प्रश्नों को जन्म दिया था, जैसे- मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या वास्तव में इस जड़ जगत् को चलाने वाली कोई शक्तिमान सत्ता है?” इस प्रकार के कई प्रश्न उसके मस्तिष्क में उठने लगे। पाश्चात्य विज्ञान और दर्शनशास्त्र ने उसके मन में संदेह उत्पन्न कर दिया। नरेन्द्र जब किसी धर्म प्रचारक को ईश्वर के बारे में भाषण देते सुनता, तो तुरन्त उससे पूछता “क्यों महाशय क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं उनके प्रश्न का प्रचारक सकारात्मक नकारात्मक उत्तर देने के स्थान पर अपने उपदेशों से नष्ट करने का प्रयास करता था अपना पुस्तकीय ज्ञान बारा था। जबकि नरेन्द्रप्रत्यक्षवाद की खोज में लगे थे। इन सबका परिणाम यह कह धर्म प्रचारकों की रही राई सम्प्रदायिकता से पूर्ण बातों को सुनकर सदवादी हो गए थे। #स्वामी विवेकानंद का परिचय

2.स्वामी विवेकानंद का ब्रह्मसमाज मे प्रवेश कब और कैसे हुआ ?
नरेन्द्रनाथ को आलोचना-वृति अपने पिता से विरासत में मिली थी, जिस पर पाश्चा विचारों का रंग चढ़ गया था। इसी कारण नरेन्द्र की पुस्तक-ज्ञान से सन्तुष्टि नहीं हो रही थी। वह खुली आंखों से जीते-जागति आदर्श को देखना चाहता था। इसी खोज के लिए नरेन्द्र कुछ मित्रों के साथ आदि ब्रह्मसमाज के सदस्य बन गए। ब्रह्मसमाज, जिसके लिए राजा राममोहन राय प्राचीनता और आधुनिकता में सामंजस्य और समन्वय की स्वस्थ भावना लेकर चले थे, किन्तु तत्कालीन समय में वह अपेक्षित व विकृत होती जा रही थी। धर्मांधता और रूढ़िवाद के स्थान पर भूगोल, इतिहास, साहित्य, गणित तथा विज्ञान की शिक्षा संकीर्णता तथा छिछली विद्या अभिमानों को उत्पन्न कर रही थी। चिन्तनशीलों के भय था कि कहीं पूर्व, पश्चिम से पराजित न से जाए।
ब्रह्मसमाज, जो वास्तव में इस संघर्ष का संगठित रूप था, इसी भ्रम के कारण उसके दो भाग हो गए थे-आदि ब्रह्मसमाज और अखि भारतीय ब्रह्मसमाज। इन दोनों में आपसी संघर्ष छिड़ा था, जिसका परिणाम यह था कि ब्रह्मसमाज वाले प्राचीनता के खोल में सिकुड़ते जा रहे थे और अखिल भारतीय ब्रह्मसमाज वाले परम्परा से सम्बन्ध-विच्छेद करके आधुनिकता के नशे में लड़खड़ाते पाश्चात्य की ओर झुक रहे थे। पढ़े-लिखे बंगाली युवक अपने स्वभाव और संस्कार के अनुसार इन दोनों में से किसी एक को चुनते थे। मगर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं स्वामी विवेकानन्द का ब्रह्मसमाज में प्रवेश थी, जिन्हें ब्रह्मसमाज की इन दोनों शाखाओं से कुछ लेना-देना नहीं था और यदि था तो वह भी अत्यन्त औपचारिक रूप में था। व्यक्तिगत सुख-साधन उनके जीवन का एकमात्र आधार और शिक्षा व ज्ञान चर्चा धन और यश आदि अर्जित करने का साधन मात्र थे। #स्वामी विवेकानंद
उस नरेन्द्र ने ब्रह्मसमाज में प्रवेश किया था, जिसके नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर थे और दूसरी शाखा के नेता थे केशवचन्द्र सेन ! अखिल भारतीय ब्रह्मसमाज राजा राममोहन राय के आदर्शों व परम्परा से हट चुका था। केशव और उनके अनुयायी ईसाई धर्म के रंग में इस तरह रंग गए थे कि उनका चलन सनातन हिन्दू धर्म की उच्चतम मान्यताओं से सर्वथा भिन्न हो गया था। मगर इसका मतलब यह नहीं था कि नरेन्द्रनाथ भी ऐसे ही नौजवान थे। उनकी बचपन से ही सनातन हिन्दू धर्म में भक्ति थी। हाँ यह सत्य है कि वे सवादी थे, फिर भी उनमें अन्य युवकों की भाँति अराजकता और उच्छृंखलता नहीं थी। यद्यपि नरेन्द्रनाथ ब्रह्मसमाज की रविवार को होने वाली प्रार्थनाओं में शामिल होते थे और अपने मधुर स्वर से ब्रह्म संगीत सुनाकर अन्य सदस्यों को आनन्द की अनुभूति कराते थे, मगर फिर भी उपासना के सम्बन्ध में वह दूसरे सदस्यों से सहमत नहीं थे।
नरेन्द्र के भीतर बचपन से ही धर्म भावना विद्यमान थी। युवा होने पर वे उसी की प्रेरणा से अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन, साधन-भजन और कठोर तप में मग्न रहने लगे। ध्यानमग्न रहते हुए नरेन्द्र की कितनी ही रातें बिना सोये बीत जाती थीं। धर्मलाभ की जाकांक्षा से उन्होंने ब्रह्मसमाज से नाता जोड़ा था। मगर फिर नरेन्द्र ने महसूस किया कि ब्रह्मसमाज में धार्मिकता व त्याग की कमी है नरेन्द्र स्पष्टवादी था, वह जो कुछ देखता, उसको निर्भीकता से आलोचना करता था। किन्तु उनका मन था कि कहीं भी सुख-शान्ति की अनुभूति न कर सका। नरेन्द्र एक जीते-जागते सत्य को देखना चाहते थे, मगर वह उन्हें यहां भी दिखाई न दिया। एक दिन की बात है, नरेन्द्र रविवारीय उपासना के बाद, गीत गाकर हदे ही थे कि देवेन्द्रनाथ ठाकुर उन्हें उपदेश देने लगे और फिर कहा- #स्वामी विवेकानंद
“नरेन्द्र! तुम्हारे शरीर के प्रत्येक अंग में योगियों के चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं। ध्यान
करने से ही तुम्हें शान्ति व सत्य की प्राप्ति होगी।”
नरेन्द्र ने उनका यह उपदेश आत्मसात कर लिया। लगन व परिश्रम का उनमें अभाव न था। उसी दिन से वह ध्यानानुराग में रंग गए। पेट भर भोजन करना, आरामदायक बिस्तर पर सोना और आधुनिक वस्त्र पहनना उन्होंने त्याग दिया। वह कम खाते जमीन पर चटाई पर सोते, सफेद धोती व चद्दर पहनते और नियम से शारीरिक कठोरता का पालन करते थे। उनकी नानी का घर निकट ही था, जिसका एक कमरा उन्होंने किराए पर ले लिया था। उनके इस व्यवहार से परिवार वालों ने समझा कि कदाचित घर पर पढ़ाई में असुविधा के कारण ही नरेन्द्र अलग रहने लगा है। #स्वामी विवेकानंद का परिचय

नरेन्द्र का संकल्प
विश्वनाथ बाबू ने अपने बेटे की स्वाधीनता में कभी हस्तक्षेप नहीं किया था। उन्हें अपने बेटे पर विश्वास था, अतः उन्होंने उनके अलग रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी। इधर नरेन्द्र अध्ययन, संगीत आदि की चर्चा के बाद शेष सारा समय साधना-भजन में बिताने लगे।
इस प्रकार दिन पर दिन बीतते गए, किन्तु सत्य को जानने की उनकी अभिलाषा शान्त न हुई, वरन् अधिकाधिक बढ़ने लगी। धीरे-धीरे नरेन्द्रनाथ इस बात को समझ गए कि सत्य के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के चरण कमलों में बैठकर शिक्षा-लाभ करना आवश्यक है, जिसने स्वयं उस सत्य का साक्षात्कार किया हो। उन्होंने
अपने मन-प्राण से यह संकल्प भी किया कि इसी जीवन में सत्य को प्राप्त करना अन्यथा इसी प्रयत्न में प्राण त्याग दूंगा।
3.स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट कैसा की या कैसे हुई?
शिमला मुहल्ले में रहने वाले सुरेन्द्रनाथ मित्र एक धार्मिक पुरुष थे। अपने धर्म- का पालन करने के लिए उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने गुरु के रूप में उन्हें ईश्वर मिलन का माध्यम बना लिया था। सन् 1881 ई० के नवम्बर माह मे दिन उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने घर पर आमन्त्रित किया। उन्होंने उ आगमन के उपलक्ष में एक आनन्दोत्सव का आयोजन किया। मगर इस आयोजन में 1 कमी रह गई थी और वह कमी थी, एक गायक की
सुरेन्द्रनाथ मित्र को कोई अच्छा गायक नहीं मिल पाया था। अचानक उन्हें पड़ोस में रहने वाले नरेन्द्रनाथ का ख्याल आया, तो वह तुरन्त उसे बुला लाए।
मित्र सुरेन्द्रनाथ के बुलावे पर नरेन्द्रनाथ तुरन्त आ गए। उन्हें देखते ही श्री रामकृष्ण परमहंस चौंक पड़े और
मन-ही-मन यो “अरे, यह तो सप्तऋषि मण्डल का महर्षि है।”
अपने अनीदिय दर्शन के बल से वो उस अंजान (नरेन्द्र) व्यक्ति का परिचय जान गए।
रामकृष्ण परमहंस
नरेन्द्र ऐशो-आराम में पले थे, रंग-रूप, पढ़ाई-लिखाई, गाने-बजाने में अव्वल थे, मगर दीन-दुखियों के लिए उनकी आत्मा रोती थी। वे सोचते- इस विश्व का कोई उद्याग्य है भी या नहीं? यदि है, तो कौन है? क्या उसे देखा जा सकता है? दयामय ईश्वर के राज्य में इतना दुःख, इतनी विफलता, इतना अन्याय क्यों है? संसार में इतनी विषमता, धनी और निर्धन के बीच खाई किसने बनाई है? जब सभी एक ईश्वर की सन्तान है, तो ब्राह्मण और चाण्डाल के बीच इस दुर्लन्धनीय अन्तराल का सृजन कैसे हुआ?
इस प्रकार के सैकड़ों विचार उनके करुण हृदय में उमड़ते रहते थे, जिन्हें रामकृष्ण परमहंस ने परख लिया था। उस दिन पहली बार कमल की पंखुड़ियों जैसी आंखों वाले, ज्ञानी, गुणी और
आत्मविश्वासी नरेन्द्र का मिलन निर्धन, निरक्षर, पुजारी श्री रामकृष्ण के साथ हुआ। श्री रामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर में भवतारिणी काली माता के पुजारी थे। अपने सम्पूर्ण जीवन में उन्होंने भगवान् के अलावा किसी को नहीं चाहा था। उन्होंने न कभी कोई भाषण
दिया, न प्रचार किया, न कोई पुस्तक लिखी और न ही वे हिमालय की गुफाओं में तपस्या
करने ही गए वे महानगरी कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में ही करीब तीस वर्ष तक रहे थे। विजयकृष्ण गोस्वामी, केशवचन्द्र सेन, शिवनाथ शास्त्री आदि ब्रह्मसमाज के नेतागण इसी निरक्षर, अद्भुत मनुष्य के चरणों में स्तब्ध अवस्था में घण्टों बैठे रहते थे और मन्त्रमुग्ध होकर उनके श्रीमुख से भगवत् प्रसंग सुनते रहते थे। ये सभी नेतागण उस समय उनकी समाधि देखकर हैरान हो जाते थे। रामकृष्ण देव देखने में ऐसे लगते थे, जैसे वे पागल हो उन्हें न अपने कपड़ों का होश था, न रहन-सहन का और न खाने-पीने का मगर जब वे मां के नाम का गुणगान करते थे, तो सुनने वालों के हृदय में तीर जैसे चुभ जाता था और हृदय मानो फटने लगता था। काली मां को ही उन्होंने अपना भगवान माना था, उन्हीं को ही ब्रह्म माना। वे हमेशा छोटे-छोटे बच्चों की तरह “मा-मां” कहते रहते थे। नरेन्द्र ने रामकृष्ण के सामने दिल खोलकर गाया, जिसे सुनकर श्री रामकृष्ण देव भावाविष्ट हो गए। भजनादि समाप्त होने पर श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र के निकट आकर कहा- वत्स! मेरा विनम्र आग्रह है, कि तुम एक दिन के लिए दक्षिणेश्वर अवश्य आना।” “अवश्य आऊंगा।” नरेन्द्र ने शिष्टाचारवश आने का वचन दे दिया। #स्वामी विवेकानंद
एम०ए० की परीक्षा
नरेन्द्र की व्यस्तता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, उनकी एम० ए० की परीक्षा
निकट थी। नरेन्द्र अपनी परीक्षा की तैयारी में जुट गए और दक्षिणेश्वर जाने की बात उन्हें
याद ही नहीं रही। उन दिनों नरेन्द्र की आयु अट्ठारह वर्ष थी। नवम्बर, सन् 1881 ई० में
उन्होंने एम० ए० की परीक्षा दी।
4.स्वामी विवेकानंद न विवाह प्रस्ताव का विरोध कैसे किया?
नरेन्द्र अभी परीक्षा देकर फारिग ही हुए थे कि उनके घरवालों ने उनके सिर पर एक भारी मुसीबत लाद दी। उनके पिता विश्वनाथ ने अपने एक परिचित की बेटी से नरेन्द्र के विवाह की बात-चीत चला रखी थी नरेन्द्र का भावी ससुर दहेज में दस हजार रुपए 1 नकद देने को तैयार था। मगर नरेन्द्र विवाह नहीं करना चाहता था, उसे विवाह एक झंझट लगता था।
नरेन्द्रनाथ हमेशा अपने मित्रों से कहता था-“मैं कभी विवाह नहीं करूंगा और भविष्य में तुम लोग देखोगे कि मैं क्या बनता हूं।” विश्वनाथ अपने पुत्र की विवाह न करने की इच्छा से अंजान थे, मगर वे किसी प्रकार का उस पर दबाव भी नहीं डालना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने इस मामले में नरेन्द्र की राव जान लेने का काम अपने सम्बन्धी डॉक्टर रामचन्द्र दल को सौंपा जब डॉक्टर रामचन्द्र दत्त ने नरेन्द्र से विवाह सम्बन्ध का प्रसंग छेड़ा, तो नरेन्द्र ने साफ कह दिया-
विवाह के बंधन में नहीं मैंने जीवन का जो उद्देश्य बना है उसमें विवाह बाधक बनेगा डॉक्टर रामचन्द्र दस ने नरेन्द्र का उत्तर विश्वनाथ जी तक पहुंचा दिया उन्होंने नरेन्द्र से उनके उद्देश्य के बारे में पूछा- “नरेन्द्र तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है?” उत्तर में नरेन्द्र ने कहा-“सत्य की प्राप्ति। #स्वामी विवेकानंद
इस पर रामचन्द्र ने कहा-“यदि वास्तव में तुम सत्य की प्राप्ति करना चाहते से यही मात्र तुम्हारा ध्येय है, तो तुम्हारा ब्रह्मसमाज आदि में भटकना व्यर्थ है। इससे है कि तुम दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण देव जी के पास जाओ।” उनके इतना कहते ही नरेन्द्र को सुरेन्द्रनाथ के घर पर श्री रामकृष्ण परमहंस से हुई भेंट याद आ गई। उन्होंने तत्काल तीन-चार मित्रों को बुलाया और दक्षिणेश्वर के प्रस्थान कर गए। #स्वामी विवेकानंद
5.स्वामी विवेकानंद न रामकृष्ण से पुनः भेंट कैसे की ?
नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए व उनसे चिरपरिचित की अत्यन्त सहज भाव से मिले। उन्होंने नरेन्द्र को अपने निकट चटाई पर बैठा लिया और कहा-
“तुम्हारा कण्ठ बहुत मधुर है, मुझे अपना कोई गीत सुनाओ।” रामकृष्ण के अनुरोध पर नरेन्द्र ने मनचलो निज निकेतन वाली वे ब्रह्मसमाज में गाते थे। नरेन्द्र के गीत में रामकृष्ण खो से गए थे। उनके खामोश होने ही उनकी तन्द्रा भंग हो गई। एकाएक वह उठे और नरेन्द्र का हाथ पकड़कर एक में से गए और उस कमरे के दरवाजे बन्द कर लिए। #स्वामी विवेकानंद
“फिर वे आनन्दित स्वर में बोले-“अरे, तू इतने दिन तक कहां था? तुझे मालूम है. मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। विषयी लोगों से बात कर-कर मेरी चिता जल गई है। मगर आज वर्षों बाद तेरे जैसे सच्चे त्यागी पुरुष से बात करके मुझे शान्ति प्राप्त होगी
इतना कहते ही रामकृष्ण की आंखों से आंसू वह निकले। नरेन्द्र बुद्धि-सा उनकी ओर ताकता रहा।
नरेन्द्र के देखते-ही-देखते रामकृष्ण परमहंस हाथ जोड़कर उसके सामने खड़े हो गए और सम्मानजनक स्वर में बोले-
“मैं जानता हूँ, तू सप्तऋषि-मण्डल का महर्षि है–नररूपी नारायण है। जीवों के कल्याण की कामना से तूने देह धारण की है… नरेन्द्र उनके मुंह से ऐसी बात सुनकर एकदम अवाक् रह गए और चकित होकर सोचने लगे- “यह तो निरा पागलपन है। मैं विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूं, और ये महोदय मुझे क्या कह रहे हैं?” रामकृष्ण ने उनका हाथ पकड़कर पुनः कहा- “मुझे वचन दे कि तू मुझसे मिलने फिर अकेला आएगा और शीघ्र ही आएगा नरेन्द्र घबरा उठा। वह उस विचित्र स्थिति से छुटकारा पाना चाहता था से बोला- “मैं वचन देता हूं कि में पुनः शीघ्र ही आऊंगा।” तत्पश्चात् रामकृष्ण और नरेन्द्र वापस बैठक में नोट आए। मगर नरेन्द्र बहुत हैरान था, क्योंकि कमरे में रामकृष्ण का जैसा व्यवहार था, बाहर आते ही वह बदल गया था। अब उनके मुख पर न तो व्याकुलता थी और न ही विक्षिप्तता के लक्षण ही दृष्टि हो रहे थे। रामकृष्ण ने नरेन्द्र के जन्म के विषय में अपने शिष्यों की एक अद्भुत कथा सुनाई, जो उनके ही शब्दों में इस प्रकार है-
“एक दिन समाधि में मैंने पाया कि मेरा मन प्रकाश के पथ पर ऊंचा उठ रहा है। तारा जगत् को पार करके वह शीघ्र ही विचारों के सूक्ष्मतर जगत में प्रविष्ट हुआ और उठने लगा। पथ के दोनों ओर मुझे देवी-देवताओं के सूक्ष्म शरीर दिखाई देने लगे। उस मण्डल को भी पार करके मन वहां पहुंच गया, जहां प्रकाश की एक मर्यादा-रेखा साठ्य अस्तित्व को निरपेक्ष्य से पृथक कर रही थी। उस रेखा का भी उल्लंघन कर मन वहां पहुंच गया, जहां सरूप कुछ भी दिखाई नहीं देता था। #स्वामी विवेकानंद
देवगण भी उस क्षेत्र में जाने का साहस नहीं करते थे और नीचे अपने-अपने आसन पर ही सन्तुष्ट थे। किन्तु क्षण भर बाद ही मैंने सात ऋषियों को समाधि लगाए बैठे देखा मुझे ध्यान हुआ कि इन ऋषियों ने ज्ञान और पवित्रता में, त्याग और प्रेम में न केवल मानव को, बल्कि देवों की भी पीछे छोड़ दिया होगा। में मुग्ध भाव से उनकी महत्ता का चिन्तन कर ही रहा था कि उस अरूप प्रकाश क्षेत्र से एक अंश ने घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु का रूप ग्रहण कर लिया। वह शिशु एक ऋषि के समीप आकर उनके गले से लिपटकर मधुर स्वर में पुकारता हुआ, समाधि से जगाने का प्रयत्न करने लगा। समाधि से जागकर ऋषि ने अपने अधखुले नेत्र शिशु पर स्थिर कर दिए। उनकी वात्सल्यभरी मुद्रा से स्पष्ट था कि शिशु उन्हें कितना प्रिय है। आनन्द-विभोर होकर शिशु ने कहा- “मैं नीचे जा रहा हूँ। आप भी मेरे साथ चलें।” #स्वामी विवेकानंद
ऋषि ने उत्तर नहीं दिया, मगर उनकी वत्सला दृष्टि में स्वीकार का भाव था। शिशु की ओर देखते-देखते वह पुनः समाधिस्थ हो गए। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनका एक अंश एक प्रकाश-पंज के रूप में धरती की ओर उत्तर रहा है। जब मैंने नरेन्द्र को देखा, तो देखते ही पहचान लिया कि यही ऋषि का रूप है।” #स्वामी विवेकानंद
6.स्वामी विवेकानंद नरेन्द्र की व्याकुलता के बारे मे कैसे बताया है?
नरेन्द्र ने फिर कभी दक्षिणेश्वर न जाने का निश्चय किया, किन्तु वह पुनः एक माह बाद दक्षिणेश्वर जा पहुंचे। उस समय श्री रामकृष्ण एक खटोले पर लेटे हुए थे। उनके अलावा वहां कोई नहीं था। #स्वामी विवेकानंद
नरेन्द्र को देखकर रामकृष्ण की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने आनन्द भरे स्वर में नरेन्द्र को अपने पास बुलाया और अपने निकट ही बैठा लिया। एकाएक रामकृष्ण न जाने किस भाव से तन्मय हो उठे और धीरे-धीरे नरेन्द्र की तरफ सरकने लगे। उन्हें ● अपनी ओर सरकता देखकर नरेन्द्र भयमीत हो उठे। उन्होंने सोचा- संभवतः यह पागल पहले दिन की भाँति करेगा। पुनः कोई पागलपन मगर रामकृष्ण देव ने अपने दाहिने पैर से नरेन्द्र को स्पर्श किया और क्षणभर में घर | की दीवारों के साथ सारी चीजें, सारा संसार और नरेन्द्र का व्यक्तित्व शून्य में विलीन होता जान पड़ा। #स्वामी विवेकानंद
इससे नरेन्द्र बुरी तरह घबराकर चिल्ला पड़ा-“अजी, आपने यह मेरी कैसी अवस्था कर डाली, मेरे तो मां-बाप है, उनका क्या होगा
नरेन्द्र की इस चिल्लाहट पर रामकृष्ण खिलखिलाकर हँस पड़े और नरेन्द्र का हाथ अपनी छाती पर रखकर बोले-
“ठीक है, तो अभी रहने देते हैं।”
इसके बाद रामकृष्ण परमहंस पुनः सामान्य स्थिति में आ गए। उन्होंने नरेन्द्र को पहले की भाँति प्रेमपूर्वक खिलाया पिलाया, विभिन्न विषयों पर बातचीत की, प्रेम और हास-परिहास किया और शाम को जब नरेन्द्र ने विदा चाही, तो उन्होंने अप्रसन्न होकर कहा- “पहले वादा कर कि तू शीघ्र ही फिर यहां आएगा।” नरेन्द्र को लाचार होकर पहले की तरह वचन देकर लौटना पड़ा। नरेन्द्र के विस्मय की सीमा नहीं थी। वह लौटते समय मन-ही-मन सोचने लगा कि आखिर यह क्या पहेली है? इस पहेली को तो समझना ही होगा। नरेन्द्र ने उस समय की अपनी मनोस्थिति बाद में यूं व्यक्त की थी- “मैं सोचने लगा कि इच्छा मात्र से यह पुरुष यदि मुझ जैसे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न चित्त को दृढ़ संस्कारयुक्त गठन को यूं तोड़-फोड़ कर मिट्टी के लोंदे की भांति अपने भाव में ढाल सकता है, तो भला यह व्यक्ति पागल कैसे हो सकता है? मगर पहले दर्शन के दिन मुझे एकान्त में ले जाकर इन्होंने जिस प्रकार सम्बोधित करते हुए बात की थी, उससे इन्हें पागल के अलावा और क्या मान सकता हूं? बुद्धि का उन्मेष होने के बाद खोज तथा तर्कयुक्ति की सहायता से प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्ति के सम्बन्ध में एक मतामत स्थिर किए बिना मैं कभी निश्चिन्त नहीं हो सका। इसी स्वभाव में आज एक प्रचण्ड आघात प्राप्त हुआ है। इससे संकल्प का उदय हुआ-जैसे भी हो सके, इस अद्भुत पुरुष के स्वभाव और शक्ति की बात अवश्य ही समझनी होगी।” वास्तव में रामकृष्ण परमहंस एक सच्चे मनीषी थे। वह अपने मन और भिन्न-भिन्न समाधियों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एक ही सत्ता, एक साथ एक भी है और अनेक भी है। इसके बाद उन्होंने घोषणा की थी कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई तथा वैष्णव आदि सम्प्रदायों का धर्म के नाम पर आपस में लड़ना व्यर्थ है। उन्होंने एक ही सत्ता के ईश्वर, अल्लाह तथा गाँड अलग-अलग नाम लिए हैं और अपने-अपने मार्ग से एक उसी की खोज कर रहे हैं। #स्वामी विवेकानंद
नरेन्द्र जिसे खोजते हुए दक्षिणेश्वर पहुंचे थे, दरअसल यह अद्भुत पुरुष ही वह जीता-जागता आदर्श था। लेकिन इस दृढ़ संस्कारयुक्त युवक ने इस अद्भुत पुरुष को तब तक गुरु के रूप में धारण नहीं किया, जब तक उनके स्वभाव और शक्ति को भली प्रकार समझ नहीं लिया। #स्वामी विवेकानंद
7.स्वामी विवेकानंद के द्वारारामकृष्ण का नरेन्द्र पर कैसा प्रभाव पड़ा है ?
नरेन्द्र की बुद्धि श्री रामकृष्ण जैसे महान् देवमानव के चरित्र का विश्लेषण नहीं कर पायी थी। कठिनाई में पड़कर नरेन्द्र एकाएक कोई भी विचार मन में स्थिर नहीं कर सके थे। उन्होंने मन-ही-मन निर्णय लिया- 1 “इनकी भली-भांति परीक्षा किए बिना इन्हें कभी ईश्वरदर्शी महापुरुष न मानूंगा मगर नरेन्द्र अपने भीतर एक ऐसे प्रबल आकर्षण का अनुभव करने लगे थे कि बीच-बीच में मजबूर होकर दक्षिणेश्वर उस पागल पुजारी के चरणों में उन्हें उपस्थित होना ही पड़ता था। श्री रामकृष्ण का अपूर्व त्याग, शिशु की भांति अभिमान शून्य सरल व्यवहार, विनम्र मधुर वाक्य और सबसे ज्यादा उनके गंभीर निष्काम प्रेम ने नरेन्द्रनाथ के दिल पर ही दिनों में काफी प्रभाव डाला था। कुछ नरेन्द्र ने देखा कि इस महापुरुष की दया से अनेक लोगों के जीवन धन्य और सार्थक हो गए हैं, मगर फिर भी वो इन्हें एकाएक अपने जीवन का आदर्श नहीं मान सके थे। #स्वामी विवेकानंद
नरेन्द्र को निराकार का ध्यान ही अच्छा लगता था। श्री रामकृष्ण उन्हें उसी भाव का उपदेश दिया करते थे। उन्होंने कभी उन्हें जबरन साकार में विश्वास करने के लिए बाधित नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने कभी नरेन्द्र को ब्रह्मसमाज में जाने पर भी नहीं टोका या रोका और कभी किसी की स्वतन्त्रता व धर्माचरण में भी हस्तक्षेप नहीं किया। #स्वामी विवेकानंद
8.स्वामी विवेकानंद के द्वारा रामकृष्ण का नरेन्द्र के प्रति स्नेह कैसा रहा है ?
एक बार बहुत दिनों तक नरेन्द्र श्री रामकृष्ण देव के पास जा नहीं पाए थे, जिस कारण श्री रामकृष्ण को उनसे मिलने आना पड़ा। एक दिन सवेरे रामलाल के साथ परमहंस कलकत्ता में नरेन्द्र के घर में आए। उस दिन सुबह नरेन्द्र के कमरे में दो सहपाठी, हरिदास चट्टोपाध्याय और दशरथि सान्याल बैठे थे। ये लोग कभी पढ़ते थे, तो कभी वार्तालाप करते थे। इसी समय नरेन्द्र को मुख्यद्वार पर ‘नरेन’ की पुकार सुनाई दी।
नरेन्द्र इस आवाज से बाखूबी परिचित थे, वह हड़बड़ा गए और तेजी से नीचे मुख्यद्वार की ओर लपके। उन्हें इतनी हड़बड़ाहट में नीचे जाता देखकर, उनकी मित्रमण्डली भी
समझ गई कि रामकृष्ण परमहंस पधारे हैं। मित्र भी उनके पीछे देखा बीच सीढ़ियों पर दोनों की भेंट हुई। श्री रामकृष्ण की आंखों में नरेन्द्र को देखते ही आंसू भर आए व गद्गद् स्वर मे “तू इतने दिनों से क्या कर रहा था. तू मझसे मिलने क्यों नहीं आया तू इतन क्यों नहीं आया
श्री रामकृष्ण बार-बार नरेन्द्र से यही कह रहे थे। नरेन्द्र उन्हें आदरपूर्वक अपने साथ
अवश्य कमरे में ले आए। रामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया और एक मां की तरह ममता भरे स्वर में, अपने अंगोछे में बचे संदेश देकर खाने का अनुरोध करने लगे- खा. खाते नरेन्द्र रामकृष्ण जब भी नरेन्द्र से मिलते, तो कुछ-न-कुछ उत्तम खाय वस्तु उन्हें खिलाते थे, कभी-कभी दक्षिणेश्वर से आने वालों के हाथ भी नरेन्द्र के लिए खाद्य पदार्थ
भेजते थे। जब रामकृष्ण ने उन्हें संदेश दिए, तो उन्होंने पहले वे संदेश अपने मित्रों में
बांटे और फिर स्वयं खाए। तत्पश्चात् श्री रामकृष्ण बोले-“अरे तेरा गाना तो बहुत दिनों से नहीं सुना। जरा कुष्ठ गाकर तो सुना।”
नरेन्द्र ने तत्काल तानपूरा हाथ में लेकर गाना आरम्भ कर दिया- जागो मा कुल कुण्डालिनी।”
जैसे ही नरेन्द्र ने गाना शुरू किया, वैसे ही श्री रामकृष्ण भावस्थ होने लगे। गाने के एक-एक बोल पर उनका मन ऊपर उठने लगा, आंखें भी अपलक हो गई, अंग स्पंदनहीन हो गए. मुख ने एक अलौकिक भाव धारण कर लिया और धीरे-धीरे वे पाषाण प्रतिमा की भाँति निस्पंद होकर निर्विकल्प समाधि में लीन हो गए। नरेन्द्र के मित्रों ने इससे पहले किसी मनुष्य को इस प्रकार भावस्थ नहीं देखा था। उन्हें श्री रामकृष्ण को इस अवस्था में देखकर ऐसा लगा जैसे उनके शरीर में सहसा कोई वेदना उत्पन्न हो गई हो, जिस कारण वे संज्ञाशुन्य हो गए हैं।
वे सभी अत्यन्त भयभीत हो उठे। जब नरेन्द्र ने उन्हें देखा, तो कहा-“भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे संज्ञाशून्य नहीं हुए हैं, बल्कि भावस्थ हुए हैं। फिर से
भजन सुनते-सुनते वे चेतनायुक्त हो जाएंगे।” इस बार नरेन्द्र ने श्यामा-विषय का गाना प्रारम्भ किया।
इस प्रकार के कई गीत गाए और कृष्ण सम्बन्धी भजन भी सुनाए। गाना सुनते-सुनते श्री रामकृष्ण कभी भावाविष्ट हो जाते, तो कभी सामान्य स्वस्थ अवस्था प्राप्त कर लेते।
नरेन्द्र बहुत देर तक गीत गाते रहे। अन्त में श्री रामकृष्ण ने पूछा-
“दक्षिणेश्वर चलेगा? कितने दिनों से तू वहां नहीं गया। चल न, फिर अभी लौट आना।” नरेन्द्र उसी समय तैयार हो गए और श्री रामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर प्रस्थान किया।
नरेन्द्र यदि कुछ दिन दक्षिणेश्वर नहीं जाते थे, तो रामकृष्ण बहुत व्याकुल हो उठते थे। सन् 1883 ई० की बात है, वे एक दिन बरामदे में बेचैनी से घूम रहे थे और रोते
हुए कह रहे थे-
माँ, उसे देखे बिना मुझसे रहा नहीं जाता।”
इतना कहकर उन्होंने खुद को संभाला और कमरे में अपने शिष्यों के पास जाकर बैठ गए और बोले- “मैं बहुत रोया, मगर फिर भी नरेन्द्र नहीं आया।” वे कहे जा रहे थे उसे एक बार देखने की इच्छा से मेरे हृदय में पीड़ा होती है, मानो छाती के भीतर कोई हृदय को मरोड़ रहा है, पर मेरी इस पीड़ा को वह नहीं समझता।”
उनके ऐसा कहने के अगले दिन ही नरेन्द्र उनके पास पहुंच गए थे। जब नरेन्द्र आ जाता तो पहले रामकृष्ण उससे मन भरकर गाने सुनते और फिर खूब खिलाते-पिलाते। खुद पर रामकृष्ण का इतना प्रेम व स्नेहभाव देखकर एक दिन नरेन्द्र ने उनसे मजाक में कहा- “पुराण में लिखा है, राजा भरत दिन-रात अपने पालित हिरण की बात सोचते रहते थे। हिरण के बारे में ही सोचते-सोचते वे मृत्यु को प्राप्त हुए, जिस कारण मरने के बाद उन्हें हिरण का जन्म मिला। आप मेरे से जितना प्रेम करते हैं, उसे देखकर लगता है कि आपकी भी वही दशा न हो जाए।”
नरेन्द्र की बात सुनकर, शिशु के समान सरल रामकृष्ण चिन्तित हो उठे और बोले-
“तू ठीक कहता है… तेरी बात बिल्कुल ठीक है। तो फिर अब क्या होगा? मैं वास्तव में तुझे देखे बिना नहीं रह सकता।” मन में संदेह का उदय होते ही रामकृष्ण तुरन्त काली मन्दिर में मां से प्रार्थना करने गए और कुछ क्षण बाद हँसते हुए लौट आए। मन्दिर से आकर रामकृष्ण ने हँसते हुए नरेन्द्र से कहा- “अरे मूर्ख, मैं तेरी बात नहीं मानूंगा, मां ने कहा है-“तू उसे (नरेन्द्र को साक्षात्ना रायण मानता है, इसीलिए प्रेम करता है। जिस दिन उसके भीतर नारायण नहीं देखेगा, उस दिन उसका मुंह देखने की भी तुझे इच्छा न होगी।”
8. स्वामी विवेकानंद के द्वारा नरेन्द्र की आलोचना है ?
एक दिन की बात है, केशवचन्द्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी आदि ब्रह्मसमाज के कुछ प्रसिद्ध नेता श्री रामकृष्ण के पास बैठे हुए थे। नरेन्द्रनाथ भी वहां मौजूद था। श्री रामकृष्ण भावावेश में नरेन्द्र की ओर देखते और बातें करते। मगर जब ब्रह्मसमाज के नेतागण चले गए, तो रामकृष्ण अपने अनुयायियों से बोले-
“भाव में मैंने देखा, केशव ने जिस एक शक्ति के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की है, नरेन्द्र में उस प्रकार की अट्ठारह शक्तियां हैं। केशव और विजय के मन में ज्ञानदीप जल रहा है, जबकि नरेन्द्र में ज्ञान सूर्य विद्यमान है।” इस पर नरेन्द्र ने प्रतिवाद किया- “आप यह क्या कह रहे हैं? कहां विश्वविख्यात केशवसेन और कहां स्कूल का एक नगण्य लड़का नरेन्द्र! लोग सुनेंगे, तो आपको पागल कहेंगे।” रामकृष्ण ने मृदुहास्य द्वारा सरल भाव में उत्तर देते हुए कहा-“मैं क्या कर सकता हूं, भला? मां ने जो दिखाया है, वही कहता हूं।” मां ने दिखाया है, या आपके दिमाग का एक विचार है।” नरेन्द्र बोला- यदि ऐसा होता, तो यही विश्वास कर लेता कि यह मेरे दिमाग का एक विचार है। पाश्चात्य विज्ञान और दर्शन ने इस बात को निःसन्देह प्रमाणित कर दिया है कि कान आंख आदि इन्द्रियां कई बार हमें भ्रम में डाल देती हैं। ये हमें पग-पग पर धोखा देती रहती हैं। आप मुझे प्यार करते रहते हैं और प्रत्येक विषय में मुझे बड़ा देखने की इच्छा करते हैं, इसीलिए सम्भवतः आपको ऐसे दर्शन होते रहते हैं।”
जो बात तक की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी, उस पर विश्वास कर लेना नरेन्द्र के स्वभाव के विपरीत बात थी। वह रामकृष्ण के प्रत्येक शब्द को तोलते थे और संदेह व्यक्त करने में सकुचाते नहीं थे। रामकृष्ण भी उन पर नाराज होने या उनका बुरा मानने के बजाय इन्हीं बातों पर उन्हें अधिक चाहते थे। कहा जाता है, नरेन्द्र के आने से पूर्व श्री रामकृष्ण ने माता काली से प्रार्थना की थी-
“मा, मैंने जो कुछ उपलब्धियां प्राप्त की हैं, उन पर संदेह करने वाले किसी व्यक्ति
की मेरे पास भेज दो।”
नरेन्द्र ने विज्ञान और पाश्चात्य दर्शन पढ़ा था। उसने जब दक्षिणेश्वर आना-जाना शुरू किया, तो यह अंधविश्वास और मूर्ति पूजा से सख्त घृणा करते थे। उस समय न सिर्फ भक्तगण रामकृष्ण को अवतार मानते थे, बल्कि वे खुद भी अपने को अवतार मानकर शिष्यों से कहते थे-
“जो राम था, जो कृष्ण था, वही अब रामकृष्ण है।” मगर नरेन्द्र ने इस बारे में उन्हें साफ-साफ कहा- “चाहे सारी दुनिया आपको अवतार कहे, मगर जब तक मुझे इसका प्रमाण नहीं मिलता, मैं आपको वैसा नहीं कहूंगा।” रामकृष्ण ने मुस्कराते हुए नरेन्द्र की बात का समर्थन किया और शिष्यों से कहा-
“किसी भी बात को केवल मेरे कहने मात्र से ही स्वीकार मत करो। तुम स्वयं हर
एक बात की परीक्षा करो।”
रामकृष्ण अद्वैत सिद्धान्त में जिस ब्रह्म की एकता सूचक शिक्षा देते थे, नरेन्द्र उस पर तनिक भी ध्यान नहीं देता था, बल्कि कई बार उसका मजाक उड़ाते हुए अपने मित्र से कहा करता था-
“क्या यह सम्भव है? लोटा ईश्वर है? कटोरा ईश्वर है? जो कुछ दिखाई पड़ रहा है
तथा हम सब भी ईश्वर हैं?”
नरेन्द्र की इस प्रकार की आलोचना से रामकृष्ण के भक्त और शिष्य उससे बहुत चिढ़ते थे। आरम्भ में वे नरेन्द्र को एक हठी और अहंकारी युवक समझने लगे थे। मगर नरेन्द्र का ज्ञान देखकर स्वयं रामकृष्ण का आनन्द इतना तीव्र हो उठा था कि वे बीच-बीच में भावाविष्ट हो जाते थे।
नरेन्द्र की तीव्र आलोचना और उसके तर्क उन्हें आनन्द मग्न कर देते थे। नरेन्द्र की उज्ज्वलतम तर्क बुद्धि और सत्य के अनुसंधान के लिए उनकी अथक निष्ठा के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा थी, वे उसे शैव-शक्ति का प्रकाश मानते थे और कहते थे कि यह शक्ति ही अंत में माया को पराभूत करेगी। वे कहते थे-
“देखो!देखो! कैसी अंती दृष्टि है। यह एक प्रति अग्निशिखा है, जो समस् पवित्रता को भस्म कर देगी। महामाया स्वयं भी उसके पास दस कदम के अंदर तक नहीं
पुस सकती। उसने उसे जो महिमा दी है, उसकी शक्ति ही उसे पीछे रोक सकती है।” तथापि कभी-कभी जब उसकी आलोचना दूसरों का कोई स्थान न करते हुए कर भाव से प्रयुक्त होती थी, तो उससे बुद्ध रामकृष्ण को दुःख अनुभव होता था। नरेन्द्र ने रामकृष्ण के सामने ही कहा था- आप कैसे जानते हैं कि आपकी उपलब्धियां केवल
आपके अस्वस्थ मस्तिष्क की ही उपज या केवल दृष्टिभ्रम मात्र नहीं है इस मतभेद के बावजूद अदभुत पुरुष और असाधारण युवक के आपसी सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन घनिष्ट और स्निग्ध होते जा रहे थे। नरेन्द्र दक्षिणेश्वर आने से पहले ब्रह्मसमाजका सदस्य था और उसके प्रतिज्ञा-पत्र, निराकार अद्वितीय ईश्वर रखकर केवल उसी की उपासना करूंगा अब रामकृष्ण ने उसे अष्टावक संहिता आदि ग्रंथ पढ़ने को दिए। मगर इसमें व्यक्त मान्यताएं नरेन्द्र के पूर्व संस्कारों तथा मान्यताओं के विपरीत थीं, अतः यहा उठता-
“मैं ये पुस्तकें नहीं पढ़ेगा। मनुष्य को ईश्वर कहना, इससे बड़ा पाप और क्या होगा ? थकता अपि-मुनियों का मस्तिष्क अवश्य ही विकृत हो गया था, नहीं तो ऐसी बातें वे कैसे लिख पाते?”
रामकृष्ण मृदु मुस्कान होठों पर लाकर शान्त भाव से उत्तर देते “तू इस समय उनकी बातें न लेना चाहे तो न से, पर ऋषि-मुनियों की निंदा क्यों करता है? तू सत्य स्वरूप भगवान् को पुकारता चल, उसके बाद थे जिस रूप में तेरे सामने प्रकट होंगे, उसी पर विश्वास कर लेना।”
राखालचन्द्र घोष नामक एक युवक नरेन्द्र के साथ ही ब्रह्मसमाज का सदस्य बना था। नरेन्द्र से कुछ दिन पहले ही वह दक्षिणेश्वर आने-जाने लगा था। एक दिन नरेन्द्र ने देखा कि वह रामकृष्ण के पीछे-पीछे मन्दिर में जाकर देवमूर्तियों को प्रणाम कर रहा है। उसे देखकर नरेन्द्र को गुस्सा आ गया। उन्होंने राखाल पर प्रतिज्ञा भंग करने का दोष लगाया और उसे मिथ्याकारी कहा। इस पर राखाल ने शर्मिंदा होकर गर्दन झुका ली। उससे कहते न बन पड़ा। मगर रामकृष्ण ने उसका पक्ष लेकर कहा-
“उसको यदि अब साकार में भक्ति हो, तो वह क्या करेगा? तुम्हें अच्छा न लगे, तो तुम
मत करो। परन्तु इस प्रकार दूसरों का भाव नष्ट करने का तुम्हें क्या अधिकार है?” रामकृष्ण अपने विचार किसी पर थोपते नहीं थे और यदि कोई दूसरा किसी पर थोपता था, तो वह उसका विरोध करते थे।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा ब्रह्मसमाज की सदस्यता का त्याग कैसा हुआ
एक बार नरेन्द्र करीब दो हफ्ते से दक्षिणेश्वर नहीं आया था। रामकृष्ण उसे देखने के लिए व्याकुल हो उठे। उन्होंने कलकत्ता जाकर नरेन्द्र से मिलकर आने का फैसला किया। रविवार का दिन था। रामकृष्ण ने सोचा- “कदाचित नरेन्द्र आज घर पर न मिले। अवश्य ही वह रविवार को प्रार्थना में शामिल होने ब्रह्मसमाज में गया होगा।”
इस कारण रामकृष्ण शाम को उसे खोजने ब्रह्मसमाज के उपासना भवन में जा पहुंच जब वे वहां पहुंचे, उस समय आचार्य वेदी मंच पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे। वे अपने सीधे सरल भाव से वेदी की ओर बढ़ गए। उपस्थित सज्जनों में से कइयों ने उन्हें लिया। खुसर-पुसर शुरू हो गई। कई लोग गर्दन उठा-उठाकर उन्हें देखने लगे। सहसा, मंच के निकट पहुंचते ही रामकृष्ण मावाविष्ट हो गए। उन्हें इस अवस्था में
देखने की उत्सुकता और भी बढ़ गई। उपासनागृह में गड़बड़ी मचते देखकर संचालको
ने गैस की बत्तियां बुझा दीं। अंधेरा हो जाने के कारण जनता में मन्दिर से निकलने की
हड़बड़ी मच गई।
नरेन्द्र समझ गए कि रामकृष्ण वहां क्यों आए हैं। उन्होंने आगे बढ़कर रामकृष्ण को संभाल लिया। जब उनकी समाधि भंग हो गई, तो वह बड़ी कठिनाई से रामकृष्ण को मन्दिर के पिछले द्वार से निकाल लाए और गाड़ी में बैठाकर दक्षिणेश्वर पहुंचाया। ब्रह्मसमाज वालों ने रामकृष्ण के प्रति तनिक भी शिष्टाचार नहीं दिखाया, बल्कि
उनका आचरण अभद्रता और उपेक्षा का था। उनके इस व्यवहार से नरेन्द्र को भारी चोट लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने ब्रह्मसमाज की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा नरेन्द्र की परीक्षा कैसे हई
रामकृष्ण ने एक बार नरेन्द्र की परीक्षा लेने के लिए ऐसा भाव अपनाया कि उसके दक्षिणेश्वर आने पर वे उसकी तरफ जरा भी ध्यान नहीं देते थे। न उनके भजन सुनते और न ही उनसे बातें करते। नरेन्द्र ने भी इसकी कोई परवाह नहीं की। वह आते और रामकृष्ण के शिष्यों से हँस-बोलकर लौट जाते। प्रतापचन्द्र हाजरा नामक व्यक्ति से उसकी खासतौर पर पटती थी। वह कभी-कभी उसके साथ बातचीत और बहस में तीन-चार घंटे बिता देते। जब इस प्रकार जाते-जाते उन्हें करीब एक माह हो गया, तो एक दिन हाजरा से बात करने के बाद वह कुछ देर के लिए रामकृष्ण के पास भी जा बैठे।
जब नरेन्द्र उठकर जाने लगे, तो रामकृष्ण बोले-“जब मैं तुझसे बात नहीं करता, तो फिर किसलिए यहां आता है?” नरेन्द्र ने तुरन्त उत्तर दिया- “आपको चाहता हूं, इसलिए यहां आता हूं, आपकी बातें
सुनने के लिए नहीं।”
उनका यह उत्तर सुनकर श्री रामकृष्ण भावानन्द से गद्गद् हो उठे। नरेन्द्र भी मुस्कराते हुए लौट गए।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा रामकृष्ण का दृष्टिकोण कैसा हुआ
रामकृष्ण नरेन्द्र को बहुत प्रेम करते थे। उन्होंने सुरेन्द्रनाथ के मकान पर पहली ही नजर में नरेन्द्र को पहचान लिया था कि नरेन्द्र एक सत्यनिष्ठ और दृढ़ चरित्र युवक है और उसमें लोक नायक बनने की बहुत संभावनाएं हैं। रामकृष्ण ने अपनी अंतर्दृष्टि से भांप लिया था, सर्वभौम संदेश का प्रचार करने के लिए नरेन्द्र एक योग्य अधिकारी है।
जिस प्रकार रामकृष्ण परमहंस को देखकर नरेन्द्र की एक राय बनी थी, उसी प्रकार नरेन्द्र को देखकर परमहंस की जो राय बनी, उसके विषय में उन्होंने कहा था-
“मेरे नरेन्द्र के भीतर थोड़ी भी कृत्रिमता नहीं है। बजाकर देखो तो उन-दन शब्द होता है। दूसरे लड़कों को देखता हूँ, मानो आंख-कान दबाकर किसी तरह दो-तीन परीक्षाओं को पास कर लिया है, बस वहीं तक, उतना करते ही सारी शक्ति निकल गई है। परन्तु नरेन्द्र वैसा नहीं है। हँसते-खेलते सब काम करता है, परीक्षा पास करना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। वह ब्रह्मसमाज में भी जाता है, वहां भजन गाता है। परन्तु दूसरे ब्रह्मों की भांति नहीं, वह यथार्थ ब्रह्मज्ञानी है। ध्यान के लिए बैठते ही उसे ज्योति दर्शन होता है उसे में यूँ ही प्रेम नहीं करता।”
नरेन्द्र के इन्हीं गुणों के कारण रामकृष्ण अपने शिष्यों में उसे सबसे अधिक प्रेम करते थे और उसे अपनाकर अपने युग-कर्म के लिए तैयार करना चाहते थे मगर नरेन्द्र भी सहज में हाथ लग जाने वाला नहीं था यह भी दृढ़ संस्कारयुक्त गठन का असाधारण युवक या, जिसके बाहरी आवरण से लोग उसे उद्दण्ड, हठी, दम्भी तथा अनाचारी समझ लेते थे। उन्हें क्या मालूम कि सत्य की खोज में उसका हृदय कैसे तड़प रहा है और जीवन रहस्य को जानने के लिए सुख-भोग तो क्या वह प्राण तक होम कर सकता है।
रामकृष्ण परमहंस किसी भी व्यक्ति को जांच-परखकर अपना शिष्य बनाया करते थे। 1 नरेन्द्र की असाधारण प्रतिभा को चाहे उन्होंने परख लिया था और चाहे वे उसे तन-मन से प्रेम करते थे, उसे देखे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था, मगर शिष्य के रूप में ग्रहण करने से पूर्व उसकी भी परीक्षा लेना आवश्यक था। हो सकता है कि दृष्टि ने चोखा खाया हो।
स्वामी विवेकानंद के द्वाराअमेरिका जाने का विचार कब हुआ
25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था। वे नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द कहलाने लगे थे। उन्होंने पैदल ही घूम-घूमकर पूरे भारतवर्ष की यात्रा कर ली थी। अब वे विदेश यात्रा पर जाना चाहते थे। मुंशी जगमोहन लाल के साथ, शाम के समय खेतड़ी पहुंचे। महाराज खेतड़ी के महल में स्वामी जी का भव्य स्वागत किया गया। स्वामी जी को देखते ही महाराज ने उनके चरणों में अपना सिर रख दिया। स्वामी जी ने सहृदय उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया। तत्पश्चात खेतड़ी के महाराज ने अपने अतिथियों से स्वामी जी का परिचय कराया और पुत्र जन्म के आशीर्वाद की बात भी कही। साथ ही उन्होंने स्वामी जी के उद्देश्य के विषय में भी बताया कि स्वामी जी सनातन धर्म के प्रचार के लिए विदेश यात्रा करना चाहते हैं।
इसके बाद स्वामी जी ने खेतड़ी के नन्हें राजकुमार को आशीर्वाद दिया। कुछ दिनों तक स्वामी जी ने खेतड़ी में ही विश्राम किया। इस बीच खेतड़ी के महाराज की आज्ञा अनुसार प्राइवेट सेक्रेट्री मुंशी जगमोहन लाल ने स्वामी जी को अमेरिका भेजने का सारा प्रबन्ध कर दिया।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा बम्बई प्रस्थान कैसा रहा है ?
खेतड़ी के महाराज स्वयं स्वामी जी को जयपुर तक छोड़ने गए और मुंशी जगमोहन लाल को स्वामी जी के साथ बम्बई तक जाकर सारी व्यवस्था ठीक करने की आज्ञा दी। जगमोहन लाल, स्वामी जी के साथ बम्बई आ गए।
स्वामी जी ने अमेरिका जाने की सूचना अभी तक अपने वराहनगर मठ के गुरुभाइयों को नहीं दी थी। मगर, संयोग से अमेरिका प्रस्थान करने से एक दिन पूर्व चम्बई के निकट एक स्टेशन पर उनकी भेंट अपने गुरुभाई अभेदानंद और उनके शिष्य सूर्यानंद से हो गई। तब स्वामी जी ने अभेदानंद से कहा-
स्वामी विवेकानन्द का प्रस्थान (बम्बई में)
“मैं समस्त भारत की प्रदक्षिणा कर चुका हूं, मेरे बंधु! अपनी आंखों से मैंने जनसमुदाय की भयंकर दरिद्रता और पीड़ा वेदना को अनुभव किया है। उन्हें देखकर मैं अपने आंसू रोक नहीं पाया हूं, अब मैं दृढ़ता से कह सकता हूं कि उस जनसमुदाय का क्लेश, उसकी कठिनता दूर करने का यत्न किए बिना उसको धर्म की शिक्षा देना व्यर्थ है। इसी कारण भारत के दरिद्रजनों की मुक्ति का साधन जुटाने के उद्देश्य से मैं अब अमेरिका जा रहा हूं।”
स्वामी जी को बम्बई लाकर उनके टिकट वगैरह की व्यवस्था करने व उन्हें जहाज पर रवाना करने के लिए मुंशी जगमोहन लाल स्वामी जी के साथ ही रहे थे। उन्होंने पी० एण्ड ओ० कम्पनी के ‘पेनिनसुलर’ नामक जहाज का प्रथम श्रेणी का टिकट स्वामी जी के लिए बनवाया था।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा अमेरिका की ओर प्रस्थान कैसा हुई
पाश्चात्य देशों का भ्रमण करने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानन्द ने 31 मई, सन् 1893 ई० को बम्बई से अमेरिका की तरफ प्रस्थान किया। जिस समय स्वामी जी जहाज पर चढ़ रहे थे, वहां उन्हें विदा करते मुंशी जगमोहन लाल भी आए थे। अचानक जगमोहन लाल की आंखों में नमी उतर आई। इधर स्वामी जी की आंखें भी भीग गई थीं। अपनी मातृभूमि के बिछड़ने का उन्हें भी बहुत दुःख हो रहा था। वे अपने हृदय में उभरती एक टीस को तब तक महसूस करते रहे, जब तक कि तट उनकी आंखों से ओझल न हो गया। स्वामी जी को कष्ट भोगती, गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी भारतीय जनता के लिए बहुत चिन्ता थी ।
जब स्वामी जी भारत भ्रमण पर निकले थे, तो उनके पास एक संन्यासी होने के नाते दण्डकमण्डल तथा चन्द पुस्तकें ही रहती थीं, किन्तु इस विदेश यात्रा के दौरान उनके पास ट्रक, सूटकेस, विस्तर आदि काफी सामान था। अपने स्वभाव के अनुरूप स्वामी जी शीघ्र ही जहाज के यात्रियों से हिल-मिल गए और
उन्होंने जहाज के कप्तान से भी परिचय बढ़ा लिया। यूरोपीय आचार-व्यवहार और जहाज
पर बनने वाले कई प्रकार के भोजन के वे भी धीरे-धीरे आदी हो गए।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा बम्बई से जापान तक की यात्रा कैस हुई
स्वामी जी का जहाज जब कोलम्बो पहुंचकर रुका, तो स्वामी जी ने बौद्ध धर्म के उस देश का भ्रमण किया। कोलम्बो से जहाज मलाया प्रायद्वीप के पेनांग पहुंचा और वहां से सिंगापुर। सिंगापुर से समुद्री यात्रा करके स्वामी जी हांगकांग पहुंचे। जब उनका जहाज सिक्यांग नदी के किनारे से अस्सी मील दूर बने केन्टन शहर में रुका, तो स्वामी जी ने वहां बहुत-से बौद्ध मठों और नागासाकी, ओसाका, टोकियो और कपाते शहर का भ्रमण किया और स्थलमार्ग से याकोहामा जा पहुंचे।
इस यात्रा का स्वामी जी ने स्वयं वर्णन करते हुए लिखा-
“मैं पहले बम्बई से कोलम्बो पहुंचा। हमारा स्टीमर वहां प्रायः दिन-भर ठहरा था। इस बीच स्टीमर से उतरकर मुझे शहर देखने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ। हम सड़कों पर मोटर गाड़ी से गए, वहां की अन्य सभी वस्तुओं में बुद्धदेव के निर्वाण के समय की लेटी मूर्ति की याद मेरे मन में अभी तक ताजा है।
दूसरा स्टेशन पेनांग का, जो मलय महाद्वीप में समुद्र के किनारे एक छोटा-सा टापू है। मलय प्रायद्वीप के सभी नागरिक मुस्लिम हैं। किसी जमाने में ये लोग मशहूर समुद्री डाकू थे और जहाजों में व्यापार करने वाले इनके नाम से घबराते थे, किन्तु वर्तमान आधुनिक युद्धपोतों की चहुंमुखी मार करने वाली विशाल तोपों के भय से ये लोग डकैती
छोड़कर शान्तिप्रिय बन्धों में लग गए हैं। पेनांग से सिंगापुर जाते समय हमें उप पर्वतमालाओं से युक्त सुमात्रा दीप दिखाई दिया। जहाज के कप्तान ने संकेत से मुझे समुद्री डाकुओं के बहुत-से दिखाए। सिंगापुर स्टेट्स की राजधानी है।
यह एक सुन्दर वनस्पति उद्यान है, जिसमें ताड़ जाति के तरह-तरह के शानदार पेड़ लगाए गए हैं। यहां पंखेनुमा पत्तों वाले ताड़ के वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं, जिन्हें यात्री ताल-वृक्ष कहा जाता है और ब्रेड फूट नामक वृक्ष तो, जहाँ देखो वहां मिलता है। मदास में जिस प्रकार आम के पेड़ बहुतायत में है, जहां देखो वहां आम का पेड़ मिलता है, उसी तरह यहां मेगोस्टीन नामक फल बहुत होता है, मगर आम तो आम ही है। उसके साथ किस फल की तुलना हो सकती है भला? यद्यपि वह स्थान भूमध्य रेखा के बहुत निकट है, फिर भी जितने मद्रास के लोग काले होते हैं, यहां के लोग आधे भी उनके जितने
काले नहीं हैं। वैसे सिंगापुर में एक बहुत अच्छा अजायबघर भी है…।” इसके बाद हांगकांग है। यहां चीनी लोग इतनी अधिक संख्या में हैं कि यह भ्रम हो. जाता है कि हम चीन पहुंच गए हैं। ऐसा लगता है कि सभी श्रम, व्यापार आदि इन्हीं के हाथों में है। हांगकांग तो वास्तव में चीन ही है। जैसे ही जहाज वहां लंगर डालता कि सैकड़ों चीनी डोंगियां तट पर ले जाने के लिए घेर लेती हैं। दो-दो पतवार वाली ये डोंगियां कुछ विचित्र सी लगती हैं। माझी अपने पूरे परिवार के साथ डोंगी में ही रहता है। पतवारों का संचालन प्रायः स्त्री ही करती है। एक पतवार दोनों हाथों से चलाती है और दूसरे को एक पैर से। इस पर भी नब्बे प्रतिशत औरतों की पीठ पर उनके बच्चे इस प्रकार बंधे रहते हैं कि वे आसानी से हाथ-पैर हिला सकें।
मजे की बात यह है कि ये नन्हें-नन्हें चीनी बच्चे अपनी माताओं की पीठ पर आराम से झूलते रहते हैं और उनकी माताएं कभी अपनी सारी शक्ति लगाकर पतवार घुमाती हैं, कभी भारी बोझ धकेलती हैं, या कभी बड़ी फूर्ती से एक डोंगी से दूसरी डोंगी में कूद जाती हैं और यह सब होता है, लगातार इधर से उधर जाने वाली डोंगियों और दाप्प नौकाओं की भीड़ के बीच हर समय उन चीनी बाल गोपालों के शिखायुक्त मस्तिष्कों के चूर-चूर हो जाने का भय रहता है; किन्तु उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं होती। उन्हें इन बाहर की हलचलों से कोई सरोकार नहीं, वे तो अपनी चावल की रोटी कुतर-कुतर कर खाने में मस्त रहते हैं, जो काम के झंझटों में बौखलाई हुई मां उन्हें दे देती हैं।
चीनी बच्चों को पूरा दार्शनिक ही समझो। जिस उम्र में भारतीय बच्चे घुटनों के बल भी नहीं चल पाते, उस उम्र में वह स्थिर भाव से काम पर जाता है। आवश्यकता का दर्शन वह अच्छी तरह सीख और समझ लेता है। चीनियों और भारतीयों की नितान्त दरिद्रता ने ही उनकी सभ्यताओं को निर्जीव बना रखा है। साधारण हिन्दू या चीनी के लिए उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी भयंकर लगता है कि उसे और कुछ सोचने की फुर्सत नहीं।
हांगकांग से अस्सी मील आगे जिस छोटे-से पर हम लोग उतरे, वह चीन सरकार की ओर से विदेशियों के रहने के लिए दिया गया है। हमारे चारों और नदी के दोनों किनारों पर यह नगर (कंटन) बसा हुआ है-एक विशाल जनसमूह, जिसमें निरन्तर
कोलाहल पक्कम पक्का, चहल-पहल और परस्पर स्पर्धा का ही बोलवाला दिखाई देता है… लेकिन चीनी महिलाएं बाहर दिखाई नहीं देतीं। उनमें उत्तरी भारत की तरह पर्दा प्रया है। केवल मजदूर वर्ग की ही औरतें बाहर दिखाई देती हैं। उनमें भी एकाच स्त्री ऐसी दिखाई देगी, जिनके पांव बच्चों से भी छोटे हैं और वह लड़खड़ाती हुई चलती हैं।”
केंटन से स्वामी जी वापस हांगकांग आए और फिर जापान के पहले बंदरगाह नागासाकी पहुंचे। नागासाकी से जहाज द्वारा कोबे और कोबे से जापान का मध्य भाग देखने स्थल-मार्ग से याकोहामा गए। जापान के मध्य भाग के स्वामी जी ने तीन शहर देखे महान औद्योगिक नगर ओसामा, भूतपूर्व राजधानी क्योटी और तत्कालीन व वर्तमान राजधानी टोकियो टोकियो के विषय में स्वामी जी ने लिखा है- टोकियो कलकत्ता से प्रायः दोगुना बड़ा होगा और आबादी भी करीब दोगुनी ही
होगी।”
स्वामी विवेकानंद के द्वारा जापान के विषय में स्वामी जी के विचार कैसा है
उन दिनों जर्मन की भांति जापान भी उत्साह व शक्ति से भरपूर युवा पूंजीवादी देश था। यह पश्चिमी देशों की हर बात में होड़ कर रहा था आगामी चार वर्ष बाद जापान ने जारशाही रूस को युद्ध में हराया था। मगर इन बारह वर्ष पहले जापान की उभरती और पैर फैलाती शक्ति का स्वामी विवेकानन्द ने वर्णन करते हुए लिखा था-
“ऐसा लगता है, जापानी लोग वर्तमान आवश्यकताओं के प्रति पूरी तरह सचेत हो गए हैं। उनकी एक पूर्ण सुव्यवस्थित सेना है। जिसमें यहीं के अधिकारी द्वारा आविष्कृत तोपें काम में लायी जाती हैं और नौसेना देशों की तुलना में किसी से कम नहीं है। ये लोग अपनी नौसेना बढ़ाते जा रहे हैं। मैंने एक जापानी इंजीनियर की बनाई हुई करीब एक मील लम्बी सुरंग देखी है।
….यहां के दियासलाई के कारखाने देखते ही बनते हैं अपनी जरूरतों की सभी चीजें
अपने देश में बनाने के लिए वे लोग तुले हुए हैं। चीन और जापान के बीच चलने वाली
एक जापानी स्टीमर लाइन है, जो कुछ ही दिनों में बम्बई और याकोहामा के बीच यात्री
जहाज चलाना चाहती है।
जापानी लोग ठिगने, गोरे और विचित्र वेश-भूषा वाले हैं। उनकी चाल-ढाल, हाव-भाव, रंग-ढंग सभी सुन्दर है। जापान सौन्दर्य भूमि है। प्रायः प्रत्येक घर के पिछवाड़े जापानी ढंग का बढ़िया बगीचा रहता है। इन बगीचों में लगे छोटे-छोटे लतावृक्ष, हरे-भरे घास के मैदान, छोटे-छोटे जलाशय और नालियों पर बने हुए छोटे-छोटे पत्थर के पुल बड़े सुहाने लगते हैं।”
इधर जापान का यह वैभव और उधर जीर्ण-शीर्ण भारत और उसका आत्म-केन्द्रित स्वार्थ से अंधा शिक्षित वर्ग। अपने भारतवर्ष को याद कर स्वामी जी का कलेजा पीड़ा से भर उठा। उन्होंने अपने शिष्यों को पत्र में लिखा था-
“मेरे मन में जापानियों के विषय में जो कुछ भी है, वह सब मैं इस छोटे से पत्र में लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी मात्र यही इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ट संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन और जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और
वस्तुओं का स्वप्न राज्य है और तुम लोग क्या कर रहे हो? जीवन भर केवलकार की बातों में समय बर्बाद करते हो। देखो और उसके बाद जाकर ला से मुंहासो संगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले भला ओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? किताबें हाथ में लिए तुम सिर्फ समुद्र के किनारे घूम रहे हो, यूरोपियन के मस्तिष्क से निकली हुई, इधर-उधर की बातों को लेकर बिना समझे दोहरा रहे हो?
अपनी इस लम्बी यात्रा में स्वामी जी अपनी मातृभूमि भारत को एक पल के लिए भी नहीं भूले। स्वामी जी ने इस यात्रा में अनुभव किया कि पूर्व के देशों पर आर्य सभ्यता का काफी प्रभाव था। इसी के साथ उनकी धारणा दृढ़ होती जा रही थी कि एशिया में आध्यात्मिक एकता स्थापित की जा सकती है।
उन्हीं दिनों मुद्दीभर जापानियों ने विशाल सेना सम्पन्न चीनियों पर विजय प्राप्त को थी। स्वाधीन जापान ने कुछ वर्षों में जिस प्रकार अद्भुत प्रगति की थी, उससे स्वामी जी विशेष रूप से प्रभावित हुए। जब जापान की विजय हुई, तो स्वामी जी ने कहा था- “भले ही युद्ध में जापान ने विजय प्राप्त की है, किन्तु फिर भी चीन एक विराट शक्ति
के रूप में उभरकर एशिया का शक्तिशाली देश बनेगा।” उनको यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। उन्होंने कहा था-
“कम से कम एक हजार लोगों को भारत माता पर अपने प्राणों का बलिदान देना होगा। याद रहे, बलि पशु की नहीं, वरन मनुष्यों की चाहिए। कदाचित भारतीय लोगों की इन प्राणहीन सभ्यता को तोड़ने के लिए ही ईश्वर ने ब्रिटिश शासन को भेजा है।”
स्वामी विवेकानंद के द्वारा शिकागो आगमन कैसा हुआ
याकोहामा से स्वामी जी ने कनाडा तक समुद्री यात्रा की। 15 जुलाई, सन् 1893 ई० को स्वामी जी कनाडा से बैंकुवर बन्दरगाह पर उतरे। यहां से वे तीन दिन की रेल यात्रा करके शिकागो पहुंचे।
शिकागो शहर जैसे स्वामी जी के लिए नया था, वैसे ही स्वामी जी भी शिकागो शहर के लिए किसी अजूबे जैसे सिद्ध हुए। उसका कारण था, स्वामी जी की पोशाक! अपने गेरुए वस्त्रों के कारण वे राह चलते लोगों के लिए तमाशा बन गए। शिकागो में स्वामी जी किसी आश्चर्यचकित बालक की भांति इधर-उधर घूम रहे थे। यह देखकर लोग स्वामी जी को न सिर्फ उत्सुकता और कौतुहल से भरकर देखते थे, बल्कि उन्हें यहां-वहां घेरकर सताते भी थे। बच्चे उनकी हँसी उड़ाते और शोर मचाते हुए पीछे-पीछे चलते थे।
स्वापी जी अभी इस पहली आफत से पीछा भी न छुड़ा पाए थे कि तभी उन्हें दूसरी मुश्किलों ने आ घेरा। स्वामी जी गिरहकटी और धोखेबाजी का शिकार होने लगे। उन्हें इतना ज्ञान तो था नहीं कि वहां कितने मूल्य का क्या काम है? जो जितना मांगता, स्वामी जी उसे उतने ही रुपए थमा देते। सामान ढोने वाले मजदूर तक ने उनसे एक रुपए के काम के दो रुपए लिए। स्वामी जी जैसे-तैसे होटल पहुंचे, तो वहां भी वही परेशानी।
सन् 1890 ई० से अमेरिका पर आर्थिक संकट के बादल मंडरा रहे थे, जो आगामी तीन वर्षों में बहुत गहरा गया था। सन् 1893 ई० में पन्द्रह सौ फार्म बैंकों और छोटे कारखानों का दिवाला पिट गया था। जिस कारण हजारों मजदूर बेकार हो गए और जो काम कर रहे थे, उनको मजदूरी पढ़ा दी गई। यह कहना ठीक होगा कि स्थानी विवेकानन्द जिस अमेरिका से भारत के दरिद्रों के लिए धन जुटाने गए थे, वह पैसे के लिए हाय-तौबा मची हुई थी।
स्वामी ि
स्वामी जी का वहां एक भारतीय वरदाराव ने एक महिला से परिचय कराया था। उस महिला के पति शिकागो समाज के बड़े गणमान्य व्यक्ति थे जब स्वामी जी उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने स्वामी जी के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। इससे स्वामी जी को कुछ आज्ञा बंधी, मगर जब उस गणमान्य व्यक्ति को स्वामी जी की धन की किल्लत के बारे में पता चला, तो उनका व्यवहार बदल गया। इस विषय में स्वामी जी ने लिखा है–
उन्होंने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। परन्तु यहां के लोग विदेशियों का जो सत्कार करते हैं, वह केवल दूसरों को दिखाने के लिए ही है, जब धन द्वारा सहायता की बात आती है, तो प्रायः सभी मुंह मोड़ लेते हैं।”
स्वामी विवेकानंद के द्वारा विश्व प्रदर्शनी का अवलोकन कैसा हुआ
उन दिनों शिकागों में मिशीगन झील के किनारे जैक्सन पार्क में विश्व प्रदर्शनी हो रही थी। अमेरिका की खोज कोलम्बस ने की थी। उसी खोज की चौथी शताब्दी मनाने के लिए उस प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। इसी कारण उसे विश्व कोलम्बस प्रदर्शनी कहा जाता था। इस प्रदर्शनी के लिए चार सौ बड़ी इमारतों का निर्माण किया गया था, जो पूरे दो वर्ष में बनकर तैयार हुई थीं। मई से नवम्बर, सन् 1893 ई० तक छः महीने इस प्रदर्शनी का समय निश्चित था। उस प्रदर्शनी में विश्व के 46 देशों और
अमेरिका के तमाम राज्यों ने भाग लिया। अमेरिका की कोलम्बस द्वारा खोज से कर 1 चार सौ वर्षों तक पाश्चात्य देशों ने विज्ञान, उद्योग और कलाओं में जो उन्नति की यहां प्रदर्शित हुई थी। इसी उपलक्ष में धर्म-महासभा का भी आयोजन हो रहा था। इसके अलावा शिक्षा, दर्शन, उद्योग और समाज सम्बन्धी विषयों पर अलग-अलग सम्मेलन शुर जिनमें करीब छः हजार पत्र पढ़े गए और सात लाख श्रोता उन्हें सुनने के लिए आए।
स्वामी विवेकानन्द शिकागो में ग्यारह दिन रुके। वे प्रतिदिन प्रदर्शनी देखने जाते थे। प्रमुख यहाँ विज्ञान के नए-नए आविष्कार, कई प्रकार के छोटे-बड़े यंत्र और तरह-तरह की विचित्र वस्तुए देखकर स्वामी जी बालक की भाँति उमंग से भर उठते थे। स्वामी जी ने मेले की इमारतें भी बड़े उत्साह से देखीं, जो वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना इमारतों के बीच जो विशाल चौक था, उसमें स्वाधीनता की भव्य मूर्ति थी, एक तरह विशाल फव्वारा और दूसरी तरफ स्तम्भ पंक्ति थी। मेले की विशिष्ट वस्तु थी, फेरिस की जिसे इंजीनियर डब्ल्यू० जी० फेरिस ने विशेष रूप से इसी अवसर के लिए बनाया था। जितने दिन स्वामी जी शिकागों में रुके, उतने दिन वे नियम से प्रदर्शनी देखने जाते रहे मगर फिर भी उनका मन नहीं भरा।
विज्ञान और नवीनता के प्रति उनके मन में जो आकर्षण था, उसका प्रमाण यह है कि चार वर्ष बाद अर्थात् सन् 1897 ई० में जब स्वामी जी सेवियर दम्पत्ति के साथ इंग्लेण्ड से स्विट्जरलैण्ड गए, तो जिनेवा में एक कला-प्रदर्शनी चल रही थी। उन्होंने पूरा दिन प्रदर्शनी को पूरी रुषि के साथ देखा। अन्त में एक बैलून देखकर वे उसमें उड़ने के लिए मचल उठे। बैलून एक नया आविष्कार था और इसमें आकाश पर भ्रमण जोखिम से खाली नहीं था। इसलिए श्रीमति सेवियर ने उसमें उड़ने पर आपत्ति जताई। मगर स्वामी जी नहीं माने। वे न सिर्फ खुद उड़े, बल्कि सेवियर दम्पत्ति को भी साथ बैठाया। साफ-सुथरे आकाश में ऊपर से सूरज डूबने का मनोहारी दृश्य देखकर स्वामी जी बहुत प्रसन्न हुए। जब बैलून धरती पर उतरा तो ग्रुप फोटो भी लिया गया था।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा स्वामी जी की आर्थिक चिंता कैसे हुई
स्वामी जी को उनके मद्रासी शिष्य आलासिंगा पेरुमल ने उन्हें अमेरिका जाते समय एक सी सत्तर पौण्ड के नोट और नौ पौण्ड अलग से दिए थे। शिकागों में ग्यारह दिन के भीतर स्वामी जी का काफी धन खर्च हो गया था। इसके विषय में उन्होंने लिखा था-
अब मेरे पास मात्र एक सौ तीस पौण्ड ही रह गए हैं। मेरा औसत एक पौण्ड रोज का खर्च होता है। उस पर होटल का किराया व अन्य खर्च! यहां एक चुरूट का ही खर्च हमारे यहां के आठ आने है। अमेरिका वाले इतने धनी हैं कि वे रुपया पानी की तरह बहा देते हैं और उन्होंने कानून बनाकर सभी चीजों का दाम इतना अधिक रखा है कि और कोई जातियां किसी प्रकार पैर नहीं रख पाती। साधारण कुली भी औसतन हर रोज नौ से दस रुपए कमाता है और इतना ही खर्च कर देता है। यहां आने से पूर्व में जो सुनहरे सपने देखा करता था, वे सब टूट गए हैं। अब मुझे असंभव अवस्थाओं से लड़ना पड़ता है। सैकड़ों बार इच्छा हुई कि वापस अपने देश लौट जाऊं, मगर फिर मैंने सोचा-
मैं तो जिद्दी स्वभाव का हूं और मुझे भगवान का आदेश मिला है।” यह सच है, मेरी दृष्टि रास्ता नहीं देख पा रही है, परन्तु उनकी आंखें वो सब कुछ देख रही हैं। चाहे मरू या जीऊ, अपने उद्देश्य को नहीं अड़गा।”
9.स्वामी विवेकानंद के द्वारा शिकागो की एक घटना कब और कैसे हुई ?
स्वामी जी शिकागो की विश्व कोलम्बस प्रदर्शनी का जिन दिनों आनन्द उठा रहे थे, उन्हीं दिनों एक घटना घटी, जो अत्यन्त दिलचस्प थी। उस दिन जो हुआ, उसे तमाशा भी कहा जा सकता है। प्रदर्शनी में कपूरथला के राजा भी आए हुए थे। उनके पद और ठाट-बाट को देखकर शिकागो समाज के कुछ लोग उनकी चापलूसी में ऐसे जुटे कि राजा साहब आसमान पर चढ़ गए।
प्रदर्शनी के प्रांगण में कपूरथला महाराज पधारे, तो उनकी भेंट स्वामी विवेकानन्द से हुई। विदेशी भूमि पर स्वदेशी प्रतिष्ठित व्यक्ति को देखकर स्वामी जी बहुत खुश हुए। उन्होंने राजा साहब से वार्ता करनी चाही, मगर वह तो ठहरे बड़े व्यक्ति उनकी दृष्टि में तो स्वामी जी की हैसियत एक फकीर से ज्यादा नहीं थी। राजा साहब ने स्वामी जी से बात करनी अपनी तौहीन समझी। तभी कुछ ऐसा गड़बड़ घोटाला हुआ कि उस राजा की सारी मान-मर्यादा धूल-धुसरित हो गई और फकीर समझे जाने वाले स्वामी जी अमेरिका
के हीरो बन गए। हुआ यूं कि प्रदर्शनी में एक विक्षिप्त सा दिखने वाला महाराष्ट्रीय ब्राह्मण भी आया हुआ था। उसने धोती पहन रखी थी। वह प्रदर्शनी में कागज पर कीलों के सहारे बनी तस्वीरें बेच रहा था। उसने अमेरिका के समाचार-पत्र के सम्वाददाताओं से उस राजा के विरुद्ध ना जाने क्या-क्या कह डाला। उसने कहा- जैसे
“कपूरथला का यह भारतीय राजा बड़ी ही नीच जाति का है और ये राजा गुलाम स्वभाव और दुराचारी होते हैं। ….इत्यादि इत्यादि।”
उसकी बात सुनकर अमेरिका के सत्यवादी कहे जाने वाले सम्पादकों ने, उस ब्राह्मण की बालों को महत्व देते हुए अगले दिन अखबारों में बड़े-बड़े कॉलम भर दिए, जिसमें उन्होंने भारत से आए हुए एक ज्ञानी पुरुष का (स्वामी विवेकानन्द) वर्णन किया और उनकी प्रशंसा के पुल बांधकर ऐसी-ऐसी बातें लिख डाली, जिन्हें कदाचित स्वामी जी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। अन्त में उन्होंने, उस महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण ने जो कुछ भी कपूरथला के राजा के विषय में कहा था, वह सब स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताया गया, लिख दिया।
परिणामस्वरूप, शिकागो समाज ने तुरन्त राजा को त्याग दिया। इसके विषय में स्वामी
जी ने लिखा था- “इन सत्यवादी सम्पादकों ने मेरे द्वारा मेरे एक स्वदेशी को गहरा धक्का पहुंचाया, इससे यह भी प्रकट होता है कि इस देश में धन या खिताबों की चमक-दमक की अपेक्षा बुद्धि
की कदर ज्यादा है।”
10. स्वामी विवेकानंद के द्वारा बोस्टन प्रस्थान कैसे हुई ?
शिकागो में रहते हुए स्वामी जी को करीब बारह-तेरह दिन हुए थे कि उन्हें पता चला
कि शिकागो में धर्म-महासभा सितम्बर से पहले नहीं होगी और यह भी पता चला कि धर्म-सभा की नियमावली के अनुसार किसी सभा-सोसाइटी के परिचय-पत्र के बिना कोई भी व्यक्ति प्रतिनिधि नहीं बन सकता और प्रतिनिधि बनने के लिए जो समय निश्चित था, यह बीत गया है। मतलब यह कि हिन्दू-धर्म के प्रतिनिधि के रूप में उसमें शामिल होना असंभव दिखाई दिया।
उनके सामने आर्थिक परेशानी आ खड़ी हुई थी। उनके पास जो धन बचा था, उसमें से अधिकांश धन होटल खर्च में व्यय हो चुका था। उस पर वहां शीत ऋतु का आरम्भ होने वाला था, मगर समस्या यह थी कि स्वामी जी के पास गर्म कपड़े नहीं थे। पश्चिमी देशों में गर्म कपड़ों की ज्यादा आवश्यकता थी। उस पर धर्म महासभा होने में अभी काफी समय था। अतः उन्होंने शिकागो से बोस्टन जाने का निश्चय किया। जिस समय स्वामी विवेकानन्द रेल यात्रा कर रहे थे, उन्हें अचानक ट्रेन में एक धनी वृद्ध महिला मिली। उस वृद्ध महिला ने स्वामी जी से पूछा- “आप कौन हैं, कहां से आए हैं और अमेरिका आने का उद्देश्य क्या है?”
उत्तर में स्वामी जी बोले- “मेरा नाम विवेकानन्द है, मैं भारत से आया हूं और मैं एक
भारतीय संन्यासी हूं और अमेरिका में वेदान्त का प्रचार करने आया हूं।” “आप कहां ठहरे हैं।” वृद्धा के पूछने पर स्वामी जी ने कहा- “अभी कुछ निश्चय नहीं किया है।
“यदि आपको आपत्ति न हो, तो मैं आपके रहने की व्यवस्था कर सकती हूँ।” स्वामी जी सहर्ष तैयार हो गए। वह वृद्धा स्त्री स्वामी जी को अपने साथ करीब के एक गांव में ले गई। वहीं उसका
घर था। उसने अपने ही घर में स्वामी जी के रहने की व्यवस्था कर दी।
वहां के विषय में स्वामी जी ने लिखा था-
“मैं इस समय बोस्टन के एक गांव में एक भद्र महिला का अतिथि हूं। मेरी इनसे एकाएक रेलगाड़ी में भेंट हुई थी। ये मुझे निमंत्रित करके अपने घर ले आई हैं। यहां पर रहने से मुझे यह सुविधा है कि मेरा हर रोज एक पौण्ड के हिसाब से हो रहा खर्च बच जाता है और बदले में उनको यह लाभ है कि वे अपने मित्रों को बुलाकर उन्हें भारत से आया हुआ एक विचित्र जानवर दिखा रही हैं।
इन सब यात्राओं को तो सहन करना ही पड़ेगा। अब मुझे अनाहार, जाड़ा और मेरे अनोखे पहनावे के कारण रास्ते के मुसाफिरों की हंसी-मजाक, इन सभी से लड़ाई करके गुजारना पड़ता है…। कोई भी बड़ा काम कठिन परिश्रम और कष्ट उठाए बिना नहीं बना है।”
११. स्वामी विवेकानंद के द्वारा अमेरिका में पहला व्याख्यान क्या है ?
स्वामी जी को इस वृद्ध महिला के घर पर रहने से और भी बहुत लाभ हुआ। वह उन्हें एक महिला सभा में ले गई, जिसमें उनका पहला व्याख्यान हुआ। वहां आई महिलाओं की सलाह पर स्वामी जी ने अपनी पोशाक में परिवर्तन किया। आम प्रयोग के लिए उन्होंने एक काला लम्बा कोट बनवाया। गेरुए रंग की पगड़ी और चोंगा व्याख्यानों के समय पहनना तय हुआ।
12 .स्वामी विवेकानंद के द्वारा श्रीमती जानसन से भेंट क्या थी ?
इसी दौरान स्वामी जी की स्त्री कारागार की सुपरिट श्रीमती जानसन से भेंट हुई। उन्होंने श्रीमती जानसन के साथ जाकर कारागार देखा, जिसे ‘सुधारता कहते थे। बंदियों को समाज के उपयोगी अंग बनाने के लिए यहां उनके साथ बहुत सुन्दर किया जाता था। इस विषय में स्वामी जी ने लिखा था-
“कल स्त्री-दखाने की व्यवस्थापिका श्रीमती जानसन महोदया यहां पधारी थीं। यहां ‘कैदखाना’ नहीं कहते, बल्कि ‘सुधारशाला कहते हैं। मैंने अमेरिका में जो-जो बातें देखी हैं, उनमें से यह एक बड़ी आश्चर्यजनक वस्तु है। कैदियों से कैसा सहृदय व्यवहार किया जाता है, कैसे उनका चरित्र सुधर जाता है और ये फिर से किस तरह लौटकर समाज के आवश्यक अंग बनते हैं, ये सब बातें इतनी अदभूत और सुन्दर है कि तुम्हें बिना देखे विश्वास नहीं होगा। यह सब देखकर जब मुझे अपने देश की दशा का ख्याल आया तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठे। भारतवर्ष में हम लोग गरीबी को, साधारण लोगों को, पतितों को क्या समझा करते हैं। उनके लिए न कोई उपाय है, न बचने की राह, और न उन्नति के लिए कोई मार्ग ही भारत के दरिद्रों का, भारत के पतितों का भारत के पापियों का कोई साथी नहीं उन्हें कोई सहायता देने वाला नहीं, वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई उपाय नहीं है। वे दिन-प्रतिदिन डूबते जा रहे हैं
राक्षस जैसा नृशंस समाज उन पर जो लगातार चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे बहुत कर रहे हैं, पर वे नहीं जानते कि वे चोटें कहां से पड़ रही हैं। ये भूल गए हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका परिणाम हुआ दासत्व और पशुत्व चिन्ताशील लोग कुछ समय से समाज की यह दुर्दशा समझ गए हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश वे हिन्दूधर्म के मध्ये ये दोष मढ़ रहे हैं। वे समझते हैं कि जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के सभी प्राणी तुम्हारी ही आत्मा के विविध रूप है। समाज की इस हीनावस्था का कारण है, इस तत्व को व्यवहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव हृदय का अभाव।
भगवान् तुम्हारे पास बुद्धरूप में आए और तुम्हें गरीबों, दुःखियों और पापियों के लिए आंसू बहाना और उनसे सहानुभूति करना सिखाया, परन्तु तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारे पुरोहित ने यह भयानक किस्सा गढ़ा कि भगवान् भ्रान्तमत का प्रचार कर असुरों को मोहित करने आए थे। सच है, पर असुर वे तो हम ही है, न कि वे जिन्होंने विश्वास किया।”
स्वामी विवेकानंद के द्वारा शिकागो वापसी कैसा हुई
बोस्टन में स्वामी जी का परिचय हार्वर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी भाषा के प्रोफेसर जे. ए० राइट से हुआ। कुछ देर की बातचीत में प्रोफेसर महोदय स्वामी जी से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-
” आप शिकागो महासभा में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि रूप में अवश्य जाइए।”
उन्होंने उक्त महासभा के अध्यक्ष डॉ० बरोज, जो उनके मित्र भी थे, के नाम उसी समय एक पत्र लिखा। उस पत्र को लेकर स्वामी जी वापस शिकागों की तरफ चल दिए। स्वामी जी रेल यात्रा द्वारा पुनः शिकागो आ गए। इस यात्रा के किराए का प्रवन्ध
प्रोफेसर जे० एच० राइट ने स्वेच्छा से स्वयं किया था। शिकागो आकर स्वामी जी बहुत खुश हुए, मगर उनकी यह खुशी ज्यादा देर तक स्थिर न रह सकी। उनके पास धर्म-महासभा के दफ्तर का जो पता था, वह कहीं रास्ते में खो गया था। अन्जान देश के इतने बड़े शहर में दफ्तर का पता लगाना भूसे के ढेर में सूई खोजने के बराबर था।
स्वामी जी ने राह चलते राहगीरों से दफ्तर का पता पूछा, तो उन्होंने स्वामी जी को
नीग्रो समझकर घृणा से मुंह मोड़ लिया। रात का समय, उस पर बर्फबारी शुरू हो गई,
तीसरे, स्वामी जी के पास रात गुजारने का कोई ठिकाना नहीं था। ठण्ड बढ़ती जा रही
थी। स्वामी जी परेशान हो उठे कि क्या किया जाए? रेलवे स्टेशन के मालगोदाम के निकट खड़े स्वामी जी की नजर अचानक वहां पड़े एक खाली पैकिंग बॉक्स पर पड़ी। उसे देखकर उन्होंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया और उसी बॉक्स में बैठ गए। वह पूरी रात स्वामी जी ने उसी पकिंग बॉक्स में गुजारी। जैसे-तसे रात बीती और सुबह हुई। सुबह होते ही स्वामी जी ने पकिंग बॉक्स खाली कर दिया और सड़क पर चल दिए। एक तरफ डाक्टर बरोज का पता खो जाने की परेशानी थी और दूसरी तरफ भूखे पेट में चूहे खलबली मचा रहे थे। स्वामी जी ने सोचा पहले उदर पोषण कर लिया जाए। इसके लिए वे भिक्षा मांगने चल दिए। उन्हें नहीं मालूम था कि भारतवर्ष की भाँति अमेरिका में भिक्षावृत्ति की प्रथा नहीं है। परिणामस्वरूप वह जहां भी गए, उन्हें उसी द्वार से दुत्कार मिली। लोग उनकी बात सुनते ही घृणा से द्वार बंद कर लेते और कई लोगों ने तो उन पर बल-प्रयोग कर उनका घोर अपमान भी किया।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा कुमारी मेरी हेल से परिचय कैसा हुआ?
चारों ओर से निराश होकर स्वामी जी आखिर एक सड़क के किनारे बैठ गए। उनके ठीक सामने सड़क पार कर एक विशाल भवन बना था। उस भवन की खिड़की पर एक अपूर्व सुन्दर रमणी खड़ी थी। एकाएक उसकी दृष्टि स्वामी जी पर पड़ी। वह उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर तुरन्त भवन से बाहर निकली और स्वामी जी के निकट आकर, उनसे पूछा-
“महाशय, क्या आप धर्म महासभा के प्रतिनिधि हैं?” उत्तर में स्वामी जी ने अपनी तमाम परेशानी उस रमणी को कह सुनाई और उससे डॉक्टर बरोज के आफिस का पता पूछा-
क्या आप बता सकती हैं कि उनका दफ्तर कहां है?” जवाब में वह रमणी मुस्कराकर बोली-“अब आप निश्चिन्त हो जाइए! इस समय आपको आराम की सख्त जरूरत है, अतः आप पहले मेरे साथ मेरे घर में आइए। सुबह
में उन के बाद में स्वयं आपको वहां छोड़ आऊंगी।” उस रमणी का नाम कुमारी मेरी हेल था। बाद में, वह और उसकी मां स्वामी जी की
अनन्य भक्त बनीं और उनके लिए बड़ी सहायक सिद्ध हुई।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में कैसा है
अगले दिन भोजन और विश्राम के बाद कुमारी उन्हें धर्म-महासभा के दफ्तर में
ले गई। उन्हें वहां हिन्दू-धर्म के प्रतिनिधि के रूप में ले लिया गया और जिस मकान में प्रतिनिधियों के रहने का प्रबन्ध किया गया था, उसमें वे अतिथि के रूप में रहने लगे।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा1900 ई. बलूड़ वापसी कैसा हुई
स्वामी जी बिना किसी पूर्व सूचना के दिसम्बर, सन् 1900 ई० को बैठ पहुंचे। अचानक स्वामी जी को बेलूर मठ में देखकर मठ के वासी बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ आने के बाद स्वामी जी ने मायावती मठ में जाने का विचार किया, ताकि वे सेवियर महोदय की मृत्यु से अस्त श्रीमती सेवियर की सोचना दे सकें और मठ की कार्य-व्यवस्था कर सकें। स्वामी जी 27 दिसम्बर को वहां से प्रस्थान कर गए।
‘प्रबुद्ध भारत’ के सम्पादक स्वामी स्वरूपानंद जी मायावती मठ का प्रबंध देख रहे थे, स्वामी जी ने वहां एक अहम कार्य किया था। दरअसल मठ के कुछ संन्यासियों ने श्री रामकृष्ण परमहंस की मूर्ति पूजास्थल पर स्थापित कर उनकी विधिवत पूजा-अर्चना करनी आरम्भ कर दी थी। जब स्वामी जी ने यह सब देखा, तो उन्होंने उस प्रतिमा को पूजा स्थल से हटाते हुए उन संन्यासियों को उपदेश दिया कि पूजा-अर्चना मात्र परमात्मा की होती है, गुरु के लिए सम्मान व श्रद्धा ही पर्याप्त है।
उनके उपदेश सुनकर संन्यासी स्वामी जी का मंतव्य समझ गए और उन्होंने पूजा बंद कर दी। उन दिनों वहां भारी मात्रा में बर्फ पड़ रही थी, जिसके कारण स्वामी जी वहां भ्रमण नहीं कर सकते थे। अतः वे 24 जनवरी, सन् 1901 ई० में बेलड मठ में वापस आ गए।
स्वामी जी की माता जी की अभिलाषा थी कि वे पूर्व बंगाल में आसाम के तीर्थों की
यात्रा करें, अतः स्वामी जी अपनी माता व कुछ शिष्यों के साथ 18 मार्च को ढाका के लिए
प्रस्थान कर गए। स्वामी जी को वहां देखकर वहां की जनता प्रसन्नता से भर उठी।
25 मार्च, सन् 1901 ई० में स्वामी जी ने नारायण गंज में दो व्याख्यान दिए। तत्पश्चात् वे साधु नाग महाराज की जन्मभूमि में देवभोग के दर्शन करने गए। नाग महाशय तत्त्वज्ञानी थे और स्वामी जी के लिए पिता समान थे। उनकी दिसम्बर, सन् 1899 ई० में मृत्यु हो गई थी। वहां से पुनः ढाका आकर स्वामी जी व उनकी माता जी ने कामाख्या और चन्द्रनाथ के दर्शन किए। बीच में वे गोहाटी में भी रुके। वहां उनके तीन व्याख्यान हुए। ढाका लौटने पर एकाएक स्वामी जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। सभी उनकी दशा
देखकर बड़े परेशान हो उठे। उन सभी की प्रार्थना पर स्वामी जी को अपने उपचार के लिए शिलांग जाना पड़ा। उस समय आसाम के कमिश्नर सर हेनरी नॉटन थे, जिनकी स्वामी जी में अपार श्रद्धा थी। उन्होंने स्वामी जी का स्वागत-सत्कार किया और व्याख्यान का भी आयोजन किया। किन्तु वहां स्वामी जी के स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उनके दमे का रोग और भी ज्यादा उग्र हो उठा था। वे पुनः बेलूड़ मठ में लौट आए। 1 दमे के अलावा बहुमूत्र रोग बढ़ गया था और सूजन थी। तब आयुर्वेदिक पद्धति द्वारा
उनको चिकित्सा को जाने लगी। स्वामी जी अपनी बीमारी द्वारा बहुत व्यय हो उठे थे किन्तु उन्होंने अपनी व् को किसी पर प्रकट नहीं किया। वे नहीं चाहते थे कि कोई भी उनकी वजह से परेशान हो।
उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। वे अस्वस्थ होने पर भी सभी से भेंट करते और अध्ययन कार्य में संलग्न रहते। उन्हें आराम करना बहुत अखरता था। बढ़ते रोग के कारण उनकी भूख समाप्त हो गई थी और अनिद्रा के रोग ने घेर लिया था। जब उनकी सेहत में कुछ सुधार हुआ, तो वे प्रातः भ्रमण के लिए जाने लगे। उनकी बीमारी से उनकी दिनचर्या में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। पहले की तरह अब भी वे अपने अधिकांश काम खुद ही करते थे, जैसे फूलों के बीज बोना, और रसोईघर में अपने हाथों से व्यंजन बनाकर अपने शिष्यों को खिलाना।
सन् 1901 ई० में स्वामी जी ने मठ में विधि-विधान से दुर्गा-अर्चना का कार्यक्रम किया। मठ में दुर्गा प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई और मां के नाम से संकल्प लेकर अनुष्ठान किया गया। इस अनुष्ठान के लिए ब्रह्मचारी कृष्णलाल महाराज को पुरोहित पद के लिए नियुक्त किया गया। अनुष्ठान समाप्त होने पर स्वामी जी ने पशुबलि के स्थान पर मिठाई का भोग वाटा, ब्राह्मण भोज कराया और फिर दीन-दुखियों को भण्डारा दिया गया। तत्पश्चात् लक्ष्मी व काली पूजा का अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
यह सब देखकर स्वामी जी की माता जी को अपनी मन्नत का स्मरण हो आया। बाल्यावस्था में स्वामी जी बहुत बीमार हो गए थे, तब उनकी मां ने काली मां से मन्नत मांगी थी कि पुत्र के स्वस्थ हो जाने पर भेंट चढ़ाऊंगी और पुत्र को मन्दिर में लोट-पोट कराऊंगी। मगर बाद में वह यह बात मूल गई। अब बेटे की बीमारी व मां की पूजा की देखकर उन्हें अपनी मन्नत स्मरण हो आयी। अतः वह स्वामी जी को साथ लेकर काली घाट गई, वहां आदिगंगा में उन्हें स्नान कराकर, भीगे वस्त्रों में काली मां के चरणों में तीन
बार लोट-पोट कराया। तदुपरान्त स्वामी जी ने प्रदक्षिणा करके होम किया। स्वामी जी शास्त्र परम्पराओं का अनुमोदन व आचरण करके शास्त्र मर्यादा को पुष्टि प्रदान कर रहे थे।
अचानक अक्टूबर, सन् 1901 ई० में स्वामी का रोग बढ़ गया, तब प्रसिद्ध डॉक्टर मिस्टर सैण्डर्स ने उनका उपचार किया। डॉक्टर की सलाह पर स्वामी जी को अपने सभी काम बंद करने पड़े। उस समय उनके गुरुभाई व शिष्य पूरी तरह उनकी सेवा में जुट गए। उन्हीं दिनों कलकता में भारतीय राष्ट्रीय महासभा का आयोजन हुआ, जिसमें सम्पूर्ण
राष्ट्र के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। स्वामी जी से प्रभावित कई प्रतिनिधि उनके दर्शनों के लिए बेलुर मठ में आए। ये सभी अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति थे। स्वामी जी ने उनसे कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना करने के लिए कहा। उस विद्यालय में स्वामी जी वेद, उपनिषद्, दर्शन, धर्म तथा साहित्य की शिक्षा देकर युवकों की एक सतत् परम्परा का सृजन करना चाहते थे। आगन्तुक प्रतिनिधियों ने सहायता का आश्वासन दिया, किन्तु दुर्भाग्य से स्वामी जी की यह अन्तिम इच्छा पूर्ण न हो सकी।
उन्हीं दिनों जापान के दो विख्यात विद्वान स्वामी जी भेंट करने आए जापान में एक
धर्मसभा का आयोजन किया जा रहा था, उसी उपलक्ष में ये स्वामी जी को आमंत्रित करने
आए थे। उनके आमंत्रण को स्वीकार कर स्वामी जी ने जनवरी सन् 1902 ई० में जापान
के बौद्ध गया की यात्रा की। वहां से लौटकर उन्होंने कुछ दिन काशी में विश्राम किया। मार्च, सन् 1902 ई० में स्वामी जी बेलूड मठ लौट आए। वहां आते ही वह इतने बीमार हो गए कि उनका चारपाई से उठना भी कठिन हो गया। उसी दौरान श्री रामकृष्ण परमहंस जी का जन्मोत्सव होना था, जिस उपलक्ष में मठ
में करीब तीस हजार व्यक्ति आए। स्वामी जी के लाख चाहने पर भी बीमारी ने उन्हें
आगन्तुकों से भेंट करने अथवा वार्ता करने का अवसर नहीं दिया।
अपनी इस विकट बीमारी में स्वामी जी ने कुछ पुस्तकें लिखने की योजना बनाई, जिनके नोट्स भी उन्होंने तैयार कर लिए थे, किन्तु बीमारी के कारण उनका यह कार्य भी अधर में ही लटका रह गया। उनकी दशा इतनी खराब थी कि वे मठ और रामकृष्ण मिशन से सम्बन्धित किसी भी कार्य में अपना योगदान नहीं दे पाते थे और न ही किसी मामले में सलाह-मशवरा ही दे पाते थे।
स्वामी विवेकानंद के द्वारा महाप्रयाण किया है
उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-“एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।” उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रातः दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चंदन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अंतिम संस्कार हुआ था।
स्वामी विवेकानंद के वेद-दर्शन किया है
स्वामी विवेकानन्द ने 19 सितम्बर, 1893 ई० की शिकागो धर्म महासभा में का “प्रागैतिहासिक युग से चले जाने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान है-हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर ये सभी अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, अपनी सर्वाभिमानी दुहिता-ईसाई धर्म द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशिष्ट है, वहीं भारत में एक के बाद एक न जाने कितने समुदायों का उदय हुआ। उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला दिया, परन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्र तट के जन के समान यह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया। जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इस समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता (हिन्दू धर्म) की विराट काया ने चूस लिया, आत्मसात् कर लिया और अपने में पथा डाला।
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार, जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजन के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुपातिक अनेकानेक पौराणिक दन्तकथाओं तक और बौद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्वरवाद इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान है। तब यह प्रश्न उठता है कि वह कौन-सा एक सामान्य विन्दु है, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं से आने वाली जिन्याएँ केन्द्रस्थ होती है वह कौन-सा सामान्य आधार है, जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित है।
अब मैं इसी प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करूंगा। हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति-वेदों से प्राप्त किया। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनन्त हैं। श्रोताओं को, संभव है, यह बात हास्यप्रद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है? किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही नहीं वेदों का 1 अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का
संचित कोष जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त, मनुष्यों के पता लगने से पहले ही 1 से अपना कार्य करता चला आ रहा था और आज मनुष्य अगर उसे भूल भी जाए तो भी वह नियम अपना काम करता रहेगा, ठीक यही बात आध्यात्मिक जगत का शासन करने वाले नियमों के सम्बन्ध में भी है। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ, जो मौलिक तथा आध्यात्मिक संबंध है, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे हम अगर उन्हें मूल भी जाएं, तो भी बने रहेंगे। 1 इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ‘ऋषि’ कहलाते हैं। हम उनको पूर्णत्व
तक पहुंची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं।
श्रोताओं को यह बताते हुए मुझे हर्ष अनुभव होता है कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियां भी थीं। यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हों, मगर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए।
वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि है, न अन्त। विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया है कि समय विश्व की सारी ऊर्जा समष्टि का परिणाम सदैव एक-सा रहता है, तो फिर यदि कोई समय था, जबकि किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी? कोई कहते हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी। तब वो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त है। इससे तो वह विकासशील हो जाएगा। प्रत्येक विचार पदार्थ यौगिक होता है और प्रत्येक यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्यम्भावी है, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल है। अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी।
मैं एक उदाहरण दूँ- सृष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएं हैं, जिनका न आदि है न अंत, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता है, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड की रचना होती है, वे कुछ समय तक गतिमान रहते हैं और फिर वे पुनः विनष्ट कर दिए जाते हैं।
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम कल्पयत् अर्थात- इस सूर्य और चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया है।”
इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है। यहाँ पर में खड़ा हूँ और अपनी आँखें बंद करके यदि मैं अपने अस्तित्व- मैं, ‘मैं’, ‘में’ को समझने का प्रयास करू, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है?
इस भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के अलावा और कुछ नहीं हूँ? वेदों की घोषणा है-‘नहीं, में शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं
हूँ। शरीर मर जाएगा, लेकिन मैं नहीं मरूंगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ। आत्मा की सृष्टि नहीं हुई है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है, भिन्न-भिन्न प्रत्ययों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी है। अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए।
कुछ लोग जन्म से ही सुथी होते हैं, पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हें सुन्दर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। दूसरे कुछ लाभ जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पांव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन-केन-प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों? अगर ये सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर के उत्पन्न किए हों, तो फिर उसने एक को सुखी और दूसरे को दुःखी क्यों बनाया? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों है?
फिर ऐसा मानने से भी बात नहीं बन सकती कि जो इस वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, वे भावी जीवन में पूर्ण सुखी होंगे? न्यायी और दयालु प्रभु के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे? दूसरी बात यह है कि सृष्टि उत्पादक ईश्वर को मान्यता देने वाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान पुरुष का कठोर आदेश ही प्रकट करता है। इसीलिए इस जन्म से पहले ऐसे कारण होने चाहिए, जिसके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करता है और ये कारण हैं, उसके ही पूर्वानुष्ठित कर्म ! क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन), सत्ता की दो समानान्तर रेखाएं हैं। अगर जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ है, उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। किन्तु यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ है, और अगर कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य है, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत है और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी तरह का वांछनीय नहीं, किन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं है।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है, लेकिन ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक ही विशेष तरह से काम कर सकता है। आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है। एक विशेष प्रवृत्ति वाली जीवात्मा ‘योग्य योग्येन भुज्यते’ इस नियम के अनुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार है। यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से बनती है।
अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य से जाती हैं और चूंकि ये प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से हो आयी होंगी।
एक अन्य दृष्टिकोण है ये सभी बातें अगर स्वयंसिद्ध भी मान लें तो में अपने पूर्वजन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता? इसका समाधान सरल है में अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ। वह मेरी मातृभाषा नहीं है। वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं है, किन्तु उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मेरे मन में उमड़ आते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मानसागर की सतह मात्र है और भीतर उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभव राशि मंचित है।
सिर्फ प्रयत्न तथा उद्यम कीजिए, वे सब ऊपर उठ आएंगे और आप अपने पूर्वजन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। यह प्रत्यक्ष तथा प्रतिपाय प्रमाण है। सत्य साधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता है, और अधिगण यहां समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं। हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिसमें स्मृति सागर की गंभीरतम् गहराई • तक का मन्चन किया जा सकता है, इसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्वजन्मों की सम्पूर्ण संस्कृति प्राप्त कर लेंगे। अतएव हिन्दू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है।
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्याणे न शोषयति मारुतः ॥
अर्थात्- ‘उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं
सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
हिन्दुओं की यह धारणा है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है, और मृत्यु का अर्थ है, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना। यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं है। वह स्वरूप नित्यशुद्धबुद्धिमुक्तस्वभाव है, परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बंधी हुई पाती है और खुद को जड़ ही समझती है।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा, इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती है? स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का भ्रम कैसे हो जाता है? हमें यह बताया जाता है कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते हैं और कह देते हैं कि ऐसे प्रश्न हो ही नहीं सकते। कुछ विचारक प्रायः पूर्ण सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं। किन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं है। प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है।
पूर्ण ब्रह्म पूर्ण अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता है, शुद्ध निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कक्ष भर भी परिवर्तन कैसे कर सकता है। किन्तु हिन्दू ईमानदार है। वह
मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोषित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता है, और इस प्रश्न का उत्तर देता है- में नहीं जानता। मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को कैसे अपूर्ण समझने लगी
जड़ पदार्थों के संयोग से खुद को जड़ नियमाधीन कैसे मानने लगी। किन्तु इस सबके बावजूद तथ्य जो है, वही रहेगा। यह सभी की चेतना का एक तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता है। हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य खुद को शरीर क्यों समझता है? ‘यह ईश्वर की इच्छा है यह उत्तर कोई समाधान नहीं है। यह उत्तर हिन्दू के ‘मैं नहीं जानता’ के सिवा और कुछ नहीं है।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर है, पूर्ण और अनन्त है, और मृत्यु का अर्थ है-एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र परिवर्तन। वर्तमान अवस्था हम पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती है और भविष्य वर्तमान कर्मों द्वारा। आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में निरन्तर घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती है, कभी प्रत्यागमन करती है। किन्तु यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी-सी नौका है, जो एक पल किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है और दूसरे ही पल भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती है? वह अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दयों पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है। क्या वह कार्य-कारण की सतत प्रवाही, निर्णय, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न स्रोत है? क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आंसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हुए. अपने मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता है?
इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण कांप उठता है किन्तु यही प्रकृति का नियम है, तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं है? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है? यहीं करुण पुकार निराशा से विहल हृदय के अन्तस्तल के ऊपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुंची। यहां से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य स्वर में इस आनन्द संदेश की घोषणा की-
‘शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानितस्थुः ।’ अर्थात् ‘हे अमृत के पुत्रो ! सुनो हे दिव्यधामवासी देवगण! तुम भी सुनो ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वादतिमृत्युयेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ अर्थात् “मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान अन्य और माया से परे है। सिर्फ उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
अमृत के पुत्रो यह कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है। बन्धुओं इसी मधुर नाम-अमृत के अधिकारी से आपको सम्बोधित करू, आप इसकी आज्ञा मुझे दें। हिन्दू आपको निश्चय ही पापी कहना अस्वीकार करता है। आप तो ईश्वर को सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी है, पवित्र और पूर्ण आत्मा है। आप इस मातृभूमि पर देवता है। आप भला पापी मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है।
हे सिंहो! आप उठी जाओ और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेड़ हैं। आप हैं अमर आत्मा, मुक्त आत्मा, आनन्दमय और नित्य आप जड़ नहीं है, आप शरीर नहीं हैं। जड़ तो आपका दास है, न कि आप जड़ के दास हैं।
इसलिए वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि-व्यापार कतिपय निमंग विधानों का संघात है और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा है, वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल में, जड़तत्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओत-प्रोत वही एक विराजमान है, जिसके आदेश से वावु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नृत्य प्रस्तुत करती है। उस पुरुष का स्वरूप कैसा?
वह सर्वत्र, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है। तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा है, तू ही सभी शक्तियों का मूल है, हमें शक्ति दे तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला है, तू मुझे जीवन के इस क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे। वैदिक ऋषियों ने यही गाया है। हम उसकी पूजा किस प्रकार करें? प्रेम के द्वारा !
ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकार उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए।
वेद हमें प्रेम के सम्बन्ध में इसी तरह की शिक्षा देते हैं। अब देखें कि श्री कृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धान्त का पूर्ण
विकास किस प्रकार किया है और हमें क्या उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्म-पत्र की तरह रहना चाहिए। जैसे पानी में रहकर भी पद्म-पत्र नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना
चाहिए। उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ कर्म करने में लगे रहें।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार के प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं है, किन्तु केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सबसे अच्छा है और उसके निकट यही प्रार्थना करना उचित है-
‘न धनं न जनं न व सुन्दरी कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिर हैतुकी त्वमि
अर्थात-हे भगवान्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहिए, न सन्तति, न विद्या। अगर तेरी तो हजारों बार भक्ति करूँ, कंवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो । श्री कृष्ण के एक शिष्य युधिष्ठिर उस समय भारत के सम्राट थे। उनके उन्हें राजसिंहासन से व्युत कर दिया था और उन्हें अपनी पत्नी के साथ हिमालय के जंग
में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन पत्नी ने उनसे प्रश्न किया
“मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया–“‘महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर है। इससे प्रेम करता हूं। यह मुझे कुछ नहीं देता, पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैं भव्य औ सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार में रियर से प्रेम करता हूँ। यह अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वहीं एक ऐसा पा है, जिससे प्रेम करना चाहिए। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव है और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ। में किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो मुझे रखे में तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम के लिए हो उससे प्रेम करना चाहता हूँ। मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता।
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है, वह सिर्फ पंचभूतों के बंधनों में बंध गई है और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी। इस अवस्था का नाम मुक्ति है, जिसका अर्थ है स्वाधीनता अपूर्णता के बंधनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु मे छुटकारा और यह बन्धन ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और यह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतएव पवित्रता ही डरपोक अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया किस तरह
काम करती है? वह पवित्र हृदय में खुद को प्रकाशित करता है। पवित्र और निर्मल मनुष्य
इसी जीवन में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है।
‘भिद्यते हृदग्रन्थिद्दिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिदृष्टे परावरे ॥ अर्थात् जब उसकी सारी कुटिलता नष्ट हो जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं, तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता
यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है-यही उसका अत्यन्त मार्मिक भाव है। हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में जीना नहीं चाहता। अगर इन साधारण इन्द्रिय संबंध विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि उसमें कोई आत्मा है, जो जड़ वस्तु नहीं है, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा है, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से उसकी समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता है-
मैंने आत्मा का दर्शन किया, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है।”
और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त है। हिन्दू धर्म अलग-अलग मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं है, वरन् वह साक्षात्कार है। वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, यह होना और बनना है।
इस प्रकार हिन्दुओं की सारी साथनायुक्त प्रणाली का लक्ष्य है-
सतत् अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना और उस स्वगस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना हिन्दुओं का धर्म है।
जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है? तब तक वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता है। जिस एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुध पाना चाहिए उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर यह परम तथा असीम आनन्द का अनुभव करता है और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता है। यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं।
भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म है। किन्तु, पूर्ण निरपेक्ष होता है और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती है, तब यह ब्रह्म के साथ एक हो जाती है, और वह ईश्वर को केवल अपने ही स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में परम संतु, परम चित्, परम आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती है। इसी साक्षात्कार के विषय में हम बार-बार पढ़ते हैं कि इसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता
प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है। ‘जिन्हें चोट कभी नहीं लगी है, वे ही चोट के दाग की ओर हंसी की दृष्टि से देखते हैं।
मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। अगर इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता है, तो दो शरीरों की चेतना का आनंद अधिक होना चाहिए और उसी तरह क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ-साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए और विश्व चेतना का ज्ञान होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी।
अतः उस असीम विश्व व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारा-स्वरूप दुःखमय शुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना चाहिए। जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊंगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब में आनन्दस्वरूप हो जाऊंगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊंगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है। और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है।
विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रमः मात्र है। वास्तव में, मेरा यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़ सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है और मेरे दूसरे पक्ष-विपक्ष के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य
निष्कर्ष है। विज्ञान एकत्य की खोज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जैसे ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगा, वैसे ही उसकी प्रगति रुक जाएगी, क्योंकि तब उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है।
उदाहरणार्थ, रसायन शास्त्र यदि एक बार उस एक मूल तत्त्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जाएगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसका खो लेगा, जो इस मृत्यु के इस लोक में एकमात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार है। जो एकमात्र परमात्मा है, अन्य सब आत्माएँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तिया हैं। इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हुए उस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है। इसमें आगे धर्म नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है।
समग्र विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुंचेंगे। आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति है, सृष्टि नहीं, और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता है कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्व देता रहा है, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के न्यूनतम निष्कर्षो के अलावा प्रकाश में दी जा रही है। अब हम दर्शन की अभीप्साओं में उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं।
मैं यह शुरू में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती है।
‘गुलाब को चाहे- दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा।’
नाम की व्याख्या नहीं होती। अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नीले आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता है। उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावानुसार गिरजाघर, मस्जिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं; हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि-आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। अन्तर यह है कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने मानवबन्धुओं की भलाई करते रहें – वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती है।
मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्मजीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र हैं, लेकिन उसे
उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए। मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए। शास्त्र का वाक्य है-
“उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः । स्तुतिर्णपोऽथमो भावो बहिः पूजाऽयमाधमा ॥
अर्थात- ‘बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है, आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है, और सबसे उच्च अवस्था नो यह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।’
देखिए, वही अनुरागी साधक, जी पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है-
‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारक,
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्व, तस्य भासा सर्वभिद विभाति ॥
अर्थात्- ‘सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण की वह विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती। तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या। ये सभी उसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं।’ किन्तु वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता
है। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसे स्वीकृत करता है। चालक
ही मनुष्य का जनक है, तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का बचपन या युवावस्था को पाप या
बुरा कहना ठीक होगा ?
अगर कोई मनुष्य अपने दिव्यस्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिए मूर्ति-पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिन्दू के मतानुसार निम्नतम जड़- पूजाबाद ‘से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने-अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवता के विभिन्न प्रयत्न हैं, और यह प्रत्येक प्रयत्न उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है।
प्रत्येक जीवन उस युवा गरुड़ पक्षी के समान है, जो धीरे-धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त में उस भास्कर सूर्य तक पहुँच जाता है। अनेकता में एकता प्रकृति का विधान है और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया है। अन्य
प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिवद्ध कर दिए गये हैं और सारे समाज की उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। यह समाज के सामने केवल एक कोट रख देता है. जो जैक, जॉन व हेनरी सभी को ठीक होना चाहिए। यदि वह जान या इनरी के शरीर में ठीक नहीं आता तो उसे अपना तन ढकने के लिए बिना कोट के ही रहना पड़ा।
हिन्दुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन सिर्फ सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियां स या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, ये मानों बहुत सी खुटिया है, जिनमें धार्मिक भावनाएं लटकायी जाती हैं। ऐस नहीं है कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हरेक के लिए हो, किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं कि ये गलत हैं। हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं।
एक बात आपको बता दूं कि भारतवर्ष में मूर्तिपूजा कोई जघन्य बात नहीं है। वह व्यभिचार की जननी नहीं है, बल्कि यह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य, हिन्दुओं के अनेक दोष हैं, उनके अपने कुछ अपवाद हैं। किन्तु यह ध्यान रखिए कि उनके वे दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं। वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिन्दू भले ही धर्मान्ध चिता पर अपने आपको जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए ‘इन्क्विजिशन’ की अग्नि कभी नहीं प्रज्ज्वलित करेगा और इस बात के लिए उसके धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है। अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्म जगत् भिन्न-भिन्न रुचि वाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए, एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। प्रत्येक धर्म जड़ भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और वही ईश्वर उन सबका प्रेरक है तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं?
हिन्दुओं का कहना है कि ये विरोध सिर्फ आभासी हैं। उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना समायोजन करते समय होती है। वही ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के कांच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट होती है। समायोजन के लिए इस तरह की अल्प विविधता आवश्यक है। परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदेश दिया है, ‘प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ।’ ‘यद्याद्विभूतिमत्सत्तवं श्री मद्वर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ तवं मम तेजोदशसम्भवम् ॥’ अर्थात्-“जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनाने वाली और तेज पालन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश
से ही उत्पन्न हुआ है।
इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ है?
सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि सम्पूर्ण संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति तो दिखा दे, जिसमें यह बताया गया है कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा,
और दूसरों का नहीं। व्यास जी कहते हैं-
‘अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः
अर्थात् ‘हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुंचे हुए
मनुष्य हैं।” एक बात और है। ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करने वाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध धर्म और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता है?
वैसे बौद्ध तथा जैन धर्म ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, किन्तु उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रीय सत्य-मनुष्य में ईश्वरत्व के विकास की ओर उन्मुख है। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया।
भाइयो! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यही संक्षिप्त रूपरेखा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में सफल रहा हो, किन्तु यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होता है, तो वह किसी देश या काल की सीमा से नहीं बंधा होगा। वह उस असीम ईश्वर के सदृश्य ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा। जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा। जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लामी वरन् इन सबकी समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा, जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित् उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये। कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धानत हो जाता है और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं (भुजाओं) से आलिंगन कर सके और उनमें सबको स्थान दे सके। वह धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा, वह हर स्त्री और पुरुष में दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची, दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा।
आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए और सम्पूर्ण राष्ट्र आपका अनुयायी बन जाएगा। सम्राट अशोक की परिषद् बौद्ध परिषद् थी। अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होते हुए
भी, केवल बैठक की ही गोष्टी थी। लेकिन पृथ्वी के कोने-कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि प्रत्येक धर्म में ईश्वर है।
वह, जो हिन्दु का ब्रह्म, पारसियों का अमंद, बौद्धों का बुद्ध, यहूदियों का जिहीवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे।
नक्षत्र पूर्ण गगन में उदित हुआ और कभी धुंधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे-धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते-करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब वह फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा है। ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया (अमेरिका का दूसरा नाम कोलम्बस ने इसका
आविष्कार किया था. इसलिए इसका नाम कोलम्बिया पड़ा तू धन्य है। यह तेरा ही सीमाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं रंगे, कभी नहीं भिगोये तूने अपने पड़ोसियों का सब कुछ हरण कर सहज भाव से ही धनी और सम्पन्न होने का प्रयत्न नहीं किया।
अतएव, समन्वय की ध्वजा लहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य
तेरा ही था।”
स्वामी विवेकानंद के आत्मा का अध्ययन कैसा हुई
स्वामी जी ने अमेरिका में व्याख्यान देते हुए कहा- “अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में मात्र एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म
ब्रह्मोत्तर समस्त वस्तुएं मिथ्या हैं, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनः प्राप्ति ही हमारा उद्देश्य है। हम, हममें से प्रत्येक वही ब्रह्म है, वही परम तत्त्व है, पर माया से युक्त। यदि हम इस माया अथवा अज्ञान से मुक्त हो सकें, तो हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेंगे। इस दर्शन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्त्वों से बना है-देह, अन्तरिन्द्रिय अथवा मन, और आत्मा, जो इन सबके पीछे है।
• शरीर आत्मा का बाहरी आवरण है और मन भीतरी यह आत्मा ही वस्तुतः दृष्टा और भोक्ता है तथा यही शरीर में बैठी हुई मन के द्वारा शरीर को संचालित करती रहती है। मानव शरीर में आत्मा का ही एकमात्र अस्तित्व है और यह आत्मा चेतन है। चूँकि यह चेतन है, इसलिए यह यौगिक नहीं हो सकती। चूंकि यह यौगिक नहीं है, इसलिए इस पर कार्य-कारण का नियम नहीं लागू हो सकता। अतः यह अमर है, इसका कोई आदि नहीं हो सकता, क्योंकि जिस वस्तु का आदि होता है, उसका अन्त भी संभव है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उसका कोई रूपाकार नहीं है, कोई रूप भौतिक द्रव्यों के बिना सम्भव नहीं। जिस वस्तु का कोई रूपाकार होगा, उसका आदि और अन्त भी होता है।
हम लोगों में से किसी ने कभी ऐसी वस्तु नहीं देखी, जिसका आकार तो हो, पर आदि और अन्त न हो। रूपाकार की सृष्टि शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग से होती है। इस कुर्सी का एक विशिष्ट आकार है अर्थात् एक निश्चित परिमाण वाले भौतिक द्रव्य पर कुछ शक्तियों ने इस प्रकार काम किया कि इसका यह रूप बन गया है। आकार, शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग का परिणाम है। पर कोई भी संयोग अनन्त नहीं होता। कभी-न-कभी उसका विघटन होता ही है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि हर रूप का आदि और अन्त है। हम जानते हैं कि हमारा यह शरीर एक-न-एक दिन नष्ट होगा। इसका जन्म हुआ है, इसलिए मरण भी होगा ही, लेकिन आत्मा का कोई रूप नहीं है। इसलिए वह आदि और अन्त से परे है। इसका अस्तित्व अनादि काल से है।
जैसे काल शाश्वत है, वैसे ही मनुष्य की आत्मा भी शाश्वत है। फिर यह अवश्य ही सर्वव्यापक होगी। केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है, जिनका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं, उसके विस्तार की क्या सीमा है? इसलिए अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा, जो मुझमें, तुममें, सबमें है, सर्वव्यापक है और जब ऐसी ही बात है, तब तो सूर्य में, पृथ्वी पर, अमेरिका में, इंग्लैण्ड में हर जगह तुम सामान्य रूप से वर्तमान हो। लेकिन आत्मा, शरीर और मन के माध्यम से ही काम करती है। अतः जहाँ शरीर और मन है, वहीं उसका कार्य दृष्टिगोचर होता है। हमारा हरेक कार्य, जो हम करते हैं, हर विचार, जो हम सोचते हैं, मन पर एक छाप छोड़ जाता है, जिसे संस्कृत में ‘संस्कार कहते हैं। ये सभी संस्कार मिल-जुलकर एक ऐसी महती शक्ति का रूप लेते हैं, जिसे ‘चरित्र’ कहते हैं। उसने अपने आप के लिए जिसका निर्माण किया है, वही उस मनुष्य का चरित्र है। यह मानसिक एवं दैहिक दिशाओं का परिणाम है, जिन्हें उसने अपने जीवन में किया है। संस्कारों की समष्टि वह शक्ति है, जिससे यह निश्चित होता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस दिशा में जाएगा।
मनुष्य के मरने के बाद उसका शरीर तत्त्वों में मिल जाता है। लेकिन संस्कार मन में संलग्न रहते हैं, चूंकि मन शरीर की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म तत्त्वों से बना होता है, इसलिए विघटित नहीं होता, क्योंकि भौतिक द्रव्य जितना ही सूक्ष्मतर होता है, उतना ही दृढतर होता है। अन्ततोगत्वा मन भी विघटित होता है। हम सभी उसी विघटन की स्थिति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। इस विषय में सबसे अच्छा उदाहरण, जो मेरे मन में अभी आ रहा है, चक्रवात का है। विभिन्न वायु-तरंगें विभिन्न दिशाओं से आकर मिलती हैं और एकाकार होकर मिलन-बिन्दु में वे संघटित हो जाती हैं तथा चक्र बनाती जाती हैं। चक्राकार स्थिति में वे धूलिकण, कागज के टुकड़े आदि नाना पदार्थों का एक रूप बना लेती हैं, जिन्हें बाद में गिराकर वे पुनः किसी दूसरे स्थान पर जाकर यही क्रम पुनः रचती हैं। ठीक इसी प्रकार वे शक्तियाँ, जिन्हें संस्कृत में ‘प्राण’ कहते हैं, परस्पर मिलकर भौतिक पदार्थों के संयोग से मन तथा शरीर की रचना करती हैं।
चक्रवात की तरह ही वे कुछ समय में इन पदार्थों को गिराकर अन्यत्र यही कार्य पुनः करती आगे बढ़ती जाती हैं। लेकिन पदार्थ के बिना शक्ति की कोई गति नहीं, इसलिए जब शरीर छूट जाता है, मनस्तत्त्व रह जाता है, और इसमें संस्कारों के रूप में प्राण कार्य करते हैं। किसी दूसरे बिन्दु पर जाकर ये पुनः नये पदार्थों का चक्र खड़ा करते हैं। इस तरह ये तब तक भ्रमण करते रहते हैं, जब तक संस्कार रूपी शक्तियों का पूर्णतः क्षय नहीं हो जाता। सम्पूर्ण संस्कारों के साथ जब मन का पूर्णतः क्षय हो जाएगा, तब हम मुक्त हो जाएंगे। इससे पहले हम बन्धन में हैं। हमारी आत्मा मन के चक्रवात से ढंकी रहती है और सोचती है कि वह एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जायी जाती है।
जब चक्रवात समाप्त हो जाता है, तब वह अपने को सर्वत्र व्याप्त पानी है। उसे तब अनुभव होता है कि वह तो स्वेच्छा से कहीं भी जा सकती है। वह पूर्णतः स्वतन्त्र है और चाहे तो अनेकानेक शरीर और मन की रचना कर सकती है। किन्तु जब तक चक्रवात की समाप्ति नहीं होती, उसे उसके साथ ही चलना पड़ेगा। हम सभी इस चक्रवात से मुक्ति के लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। मान लो इस कमरे में एक गेंद है और हम सबके हाथों में एक-एक बल्ला है। सैकड़ों बार हम उसे मारते हुए इधर से उधर करते रहते हैं, जब तक कि वह कमरे से बाहर नहीं चली जाती। किस गति से एवं किस दिशा में वह बाहर जाएगी ?
यह इस बात पर निर्भर है कि जब वह कमरे में थी, तो उस पर कितनी शक्तियाँ काम कर रही थीं। उसके ऊपर जितनी शक्तियों का प्रयोग किया गया, उन सबका प्रभाव उस पर पड़ेगा। हमारी मानसिक और शारीरिक क्रियाएं ऐसे ही आघात हैं। मानव मन वह गेंद है, जिस पर प्रहार किया जाता है। यह संसार मानो एक कमरा है, जिसमें मनरूपी गेंद के ऊपर हमारे नाना प्रकार के कार्य-कलापों का प्रभाव पड़ता है एवं इसके बाहर जाने की दिशा एवं गति इन सारी शक्तियों के ऊपर निर्भर होती है। इस प्रकार इस संसार में हम जो भी कार्य करते हैं, उन्हीं के आधार पर हमारा भावी जीवन निश्चित होता है। 1 इसलिए हमारा वर्तमान जीवन हमारे विगत जीवन का परिणाम है।
एक उदाहरण लो-मान लो, मैं तुमको ऐसी श्रृंखला देता हूँ, जिसका आदि-अन्त नहीं है। उस श्रृंखला में हर सफेद कड़ी के बाद एक काली कड़ी है। और वह भी आदि अन्तहीन है। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि वह श्रृंखला किस प्रकृति की है? पहले तो, इसकी प्रकृति बताने में तुम्हें कठिनाई होगी, क्योंकि यह श्रृंखला अनन्त है। लेकिन शीघ्र ही तुम् पता चलेगा कि यह तो एक ऐसी श्रृंखला है, जिसकी रचना काली और सफेद कड़िय को पूर्वापर क्रम में जोड़ने से हुई है।
इतना ही जान लेने पर तुम्हें सम्पूर्ण श्रृंखला की प्रकृति का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि या एक पूर्ण आकृति है। बार-बार जन्म लेकर हम एक ऐसी ही अनन्त श्रृंखला की रचना कर हैं जिसमें हर जीवन एक कड़ी है और इस कड़ी का आदि है जन्म, और अन्त है मरण ।
अभी जो हम हैं, और जो हम करते हैं, थोड़े से परिवर्तन के साथ उसी की आवृ बार-बार होती रहती है। इस प्रकार यदि हम जन्म और मृत्यु-इन दो कड़ियों को सम लें, तो हम उस सम्पूर्ण मार्ग को समझ सकते हैं, जिससे होकर हमें गुजरना है। हम देख हैं कि हमारे वर्तमान जीवन को तो हमारे पूर्व जीवन के कार्य-कलापों ने ही निश्चित व दिया था। जिस प्रकार हमारे वर्तमान जीवन के कार्य-कलापों का प्रभाव आने वाले जी पर पड़ेगा, उसी प्रकार हमारे पूर्व जीवन के कर्मों का प्रभाव भी हमारे वर्तमान जीवन पड़ रहा है। हमें कौन ले आता है? हमारे प्रारब्ध कर्म। हमें कौन ले जाता है? हम क्रियाभाव कर्म ।
इस तरह हम आते और जाते हैं। जैसे लावा अपने ही भीतर पदार्थों से बने। को मुंह से निकाल निकालकर, अपने चारों तरफ कृपा बना लेता है और उसमें खुद को बांध लेता है, वैसे ही हम भी अपने ही कर्मों के जाल में स्वयं फंस जाते हैं। कार्य-कारण नियम के इस जाल में हम एक बार क्या उलझ जाते हैं कि इससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है। एक बार हमने यह चक्र चला दिया और अब इसी में पिस रहे हैं। इस यह दर्शन बताता है कि मनुष्य अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों से बंधता चला जाता है।
आत्मा न कभी आती है, न जाती है, यह न तो कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है। प्रकृति ही आत्मा के सम्मुख गतिशील है और इस गति की छाया आत्मा पर पहली रहती है। भ्रमवश आत्मा विचार करती रहती है, कि प्रकृति नहीं, बल्कि वही गतिशील है। जब तक आत्मा ऐसा सोचती रहती है, तब तक वह बंधन में रहती है, तब तक उसे जीव कहते हैं। इस तरह तुमने देखा कि समझने की सुविधा के लिए ही हम ऐसा कहते हैं कि आत्मा आती है और जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे खगोलशास्त्र में सुविधा के लिये यह कल्पना करने को कहा जाता है कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, यद्यपि वस्तुतः बात वैसी नहीं है। तो जीव अर्थात् आत्मा ऊंचे या नीचे स्तर पर आता-जाता रहता है। यही सुप्रसिद्ध पुनर्जन्मवाद का नियम है, सृष्टि इसी नियम से बंधी है।
इस देश में लोगों को यह बात अजीब लगती है कि आदमी पशु के स्तर से आया है। क्यों? अगर ऐसा न हो, तो इन करोड़ों पशुओं की क्या गति होगी? क्या उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यदि हमारे भीतर आत्मा का निवास है, तो उनके भीतर भी है और यदि उनके भीतर नहीं है, तो हमारे भीतर भी नहीं है। यह कहना कि केवल मनुष्यों में ही आत्मा होती है, पशुओं में नहीं, बिल्कुल बेतुका है। मैंने पशु से भी गये गुजरे लोगों को देखा है।
मानवात्मा ने ऊंचे-नीचे विभिन्न स्तरों पर निवास किया है। संस्कारों के चलते यह एक से दूसरा रूप बदलती रहती है, लेकिन जब यह मनुष्य के रूप में उच्चतम स्तर पर रहती है, तभी मुक्ति उसे मिल पाती है। इस तरह मनुष्यत्व का स्तर सबसे उन्नत स्तर है। देवत्व से भी उन्नत। क्योंकि मनुष्यत्व के स्तर पर ही आत्मा को मुक्ति मिल सकती है।
यह सम्पूर्ण विश्व कभी ब्रह्म में ही था ब्रह्म से मानो निकल आया है और तब से सतत् भ्रमण करता हुआ यह पुनः अपने उद्गम स्थल पर वापस जाना चाहता है। यह सारा क्रम कुछ ऐसा ही है, जैसे डाइनेमो से बिजली का निकलना और विभिन्न धाराओं से चक्कर काटकर पुनः उसी में चला जाना। आत्मा ब्रह्म से अलग होकर विभिन्न रूपों- वनस्पति तथा पशु-लोकों से होती हुई मनुष्य के रूप में आविर्भूत होती है। मनुष्य ब्रह्म के सबसे अधिक निकट है। वस्तुतः जीवन का सारा संग्राम इसलिए है कि पुनः आत्मा ब्रह्म में मिल जाए। लोग इस बात को समझते हैं या नहीं… यह उतना महत्व नहीं रखता। सम्पूर्ण विश्व में द्रव्यों, वनस्पतियों अथवा पशुओं में जो कुछ भी गति दिखाई देती है, वह
इसलिए है कि आत्मा अपने मालिक केन्द्र पर चली जाए और शान्तिताम करे। “प्रारम्भ में साम्यावस्था रही, मगर वह नष्ट हो गयी और अब सारे अणु-परमाणु इसी
प्रयास में हैं कि पुनः वह साम्यावस्था आ जाए। इस प्रयास में ये अनेक बार एक दूसरे से मिलते और नये-नये रूप धारण करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति में विभिन्न दृश्य देखने को मिलते हैं। वह वनस्पति में, पशु में, तथा सर्वत्र है। जो प्रतिद्वन्द्विता, जो संग्राम, जो सामाजिक तनाव और युद्ध होते हैं, वे सभी उसी शाश्वत संग्राम की अभिव्यक्तियाँ हैं, जो मौलिक साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए हो रही है। जन्म से मृत्यु तक की इस यात्रा को संस्कृत में संसार कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है, जन्म-मरण का चक्र। इस चक्र से गुजरती हुई सारी सृष्टि ही कभी-न-कभी मोक्ष को प्राप्त करेगी। अब प्रश्न हो सकता है कि जब सबको मोक्ष प्राप्ति होगी ही, तब प्रयास की क्या आवश्यकता है? जब सब लोग मुक्त हो ही जाएंगे, तो क्यों न हम चुपचाप बैठकर इसकी प्रतीक्षा करें? इतना तो सत्य अवश्य है कि कभी-न-कभी सभी जीव मुक्त हो जाएंगे, कोई नहीं रह जाएगा। किसी का भी विनाश नहीं होगा, सबका उद्धार हो जाएगा। अगर ऐसा हो, तो प्रयत्न से क्या लाभ? पहली बात यह है कि हम स्वयं नहीं जानते कि हम प्रयत्न क्यों करते हैं। हमें प्रयत्न करते रहना है, बस।
हजारों लोगों में कुछ ही लोग यह ज्ञान रखते हैं कि वे मुक्त हो जाएंगे संसार के असंख्य लोग अपने भौतिक कार्य-कलापों से ही सन्तुष्ट हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी अवश्य मिलेंगे, जो जाग्रत हैं और जो संसार-चक्र से ऊब गये हैं। वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में पहुँचना चाहते हैं। ऐसे विशिष्ट लोग जान-बूझकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, जबकि आम लोग अंजाने में ही उसमें लीन रहते हैं।
वेदान्त दर्शन का आदि-अन्त है-‘संसार त्याग दें’-असत्य को छोड़कर सत्य की खोज करो। जिन्हें संसार से आसक्ति हैं, वे पूछ सकते हैं… क्यों, हम संसार से विमुख होने का प्रयास करें?” क्यों हम मौलिक केन्द्र पर लौट चलने के लिए प्रयत्न करें? माना कि हम सभी ईश्वर के यहाँ से आये हैं, पर हम इस संसार को पर्याप्त आनन्दप्रद पाते हैं। हम क्यों न संसार का अधिकाधिक उपभोग करें? इससे विमुख होने के लिए प्रयास ही क्यों करें? वे कहते हैं-‘देखो, संसार में कितना विकास हो रहा है, आनन्द के कितने साधन निकाले जा रहे हैं। यह सब कुछ तो आनन्दोपभोग के लिए ही है न? हम क्यों इन सभी चीजों से मुंह मोड़कर उस वस्तु के लिए तपस्या करें, जो इन सबसे भिन्न है ?”
इन सभी बातों का उत्तर यह है कि इस संसार का निश्चय ही अन्त होगा, यह खण्ड खण्ड होकर विनष्ट हो जाएगा। इन सारे आनन्दों को हम कई जन्मों में भोग चुके हैं। जिन वस्तुओं को हम अभी देख रहे हैं, उनका आविर्भाव कई बार पूर्व में भी हो चुका है। मैं यहाँ कई बार आ चुका हूँ और कई बार पहले भी तुम सबसे बातें कर चुका हूँ।
जिन शब्दों को तुम अभी सुन रहे हो, उन्हें इससे पूर्व भी अनेक बार सुन चुके हो और अभी आगे भी कई बार सुनोगे। हमारे शरीर परिवर्तित होते रहते हैं, पर आत्माएँ तोक ही रहती हैं। दूसरी बात यह है कि जिन वस्तुओं को तुम अभी देख रहे हो, वे कालान्तर से आती ही रहती हैं। वह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा।
मान लो कि तीन-चार पासे हैं और जब तुम उन्हें फेंकते हो, तो किसी में पांच किमी में चार, किसी में तीन और किसी में दो अंक निकल आते हैं। अगर तुम उन्हें बार-बार फेंकते रहो, तो निश्चय ही ये अंक दोहराये जाएंगे। हाँ, यह नहीं कहा जा सकता कि कितनी बार फेंकने पर ऐसा होगा। यह तो संयोग पर निर्भर है। ठीक यही बात आत्माओं और उनसे संबंधित वस्तुओं के बारे में कही जा सकती है। एक बार जो रचनाएँ हुई, उन्ही की आवृत्ति बार-बार होगी। चाहे इन आवृत्तियों के बीच जितना भी समय लगे। पैदा होना खाना-पीना, और फिर मर जाना-जीवन का यह क्रम न जाने कितनी बार आता-जाता रहेगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो सांसारिक भोग से ऊपर उठ ही नहीं सकते, किन्तु वै लोग जो ऊपर उठना चाहते हैं, यह अनुभव करते हैं कि ये आनन्द पारमार्थिक नहीं है. बल्कि नगण्य हैं।
हम ऐसा कह सकते हैं कि कीट से लेकर मानव तक के जितने भी स्वरूप दिखते हैं, सभी शिकागो हिंडोले’ (झूले के डिब्बे की तरह हैं, जो हमेशा घूमता रहता है, पर उसके डिब्बों में बैठने वाले बदलते रहते हैं। कोई मनुष्य किसी डिब्बे में घुसता है, हिंडोले के साथ घूमता है और फिर बाहर निकल आता है, किन्तु हिंडोला घूमता ही रहता है। इसी तरह कोई जीव किसी शरीर में प्रवेश करता है, उसमें कुछ समय के लिए निवास करता है, फिर उसे छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है और उसे भी छोड़कर फिर अन्य शरीर में प्रवेश कर जाता है। यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक जीव इस चक्र से बाहर आकर मुक्त नहीं हो जाता।
प्रत्येक देश में हर समय मनुष्य के भूत-भविष्य को जान लेने की विस्मय-कारी शक्ति का परिचय मिलता है। लेकिन इसकी व्याख्या यह है कि जब तक आत्मा कार्य-कारण की परिधि में रहती है-यद्यपि उसकी अन्तर्निहित स्वतन्त्रता तब भी बनी रहती है, और वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग भी कर सकती है, जिसके द्वारा कुछ लोग आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते हैं तब तक इसके क्रिया-कलापों पर कार्य-कारण नियम का बहुत प्रभाव रहता है, और इसी के कार्य-कारण परम्परा को समझने वाली अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न व्यक्तियों के लिए भूत-भविष्य बता देना सम्भव हो सकता है।
जब तक मनुष्य में वासना बनी रहेगी, तब तक उसकी अपूर्णता स्वतः प्रमाणित होती रहेगी। एक पूर्ण एवं मुक्त प्राणी कभी किसी चीज की आकांक्षा नहीं करता। ईश्वर कुछ चाहता नहीं है। अगर उसके भीतर की इच्छाएँ जगें, तो वह ईश्वर नहीं रह जाएगा, वह अपूर्ण
हो जाएगा। इसलिए यह कहना कि ईश्वर यह चाहता है, वह चाहता है, वह क्रमशः कुद्ध एवं प्रसन्न होता है-महज बच्चों का तक है, जिसका कोई अर्थ नहीं। इसलिए सभी आचायों ने कहा है-“वासना को छोड़ो, कभी कोई आकांक्षा मत रखो और पूर्णतः सन्तुष्ट रहो।’
जय बच्चा संसार में आता है, तो उसके दांत नहीं होते और वह घुटनों के बल चलता है। जब वृद्ध होकर आदमी संसार से विदा लेने लगता है, तब भी उसके दांत नहीं होते और उसे भी घुटने के बल चलना पड़ता है। दोनों ही छोर एक से हैं, किन्तु एक ओर जहाँ जीवन का कोई अनुभव नहीं रहता, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति जीवन के सारे अनुभवों को देख चुका होता है। इस तरह जब ईश्वर की तरंगों के कम्पन धीमे रहते हैं, तो हम प्रकाश नहीं देखते, अंधकार रहता है। पर जब यह कम्पन तीव्र होता है, तब भी अंधकार हो जाता है। इससे यही सिद्ध होता है कि दो अतियों की स्थिति समान होती है, पर उनमें आकाश-पाताल का अन्तर रहता है। दीवार की कोई वासना नहीं होती और पूर्ण व्यक्ति की भी कोई वासना नहीं रहती। पर दीवार को किसी चीज की कामना के लिए चेतना ही नहीं है, जबकि पूर्ण व्यक्ति को किसी चीज की कामना ही शेष नहीं रह जाती। ऐसे भी मूर्ख मिलेंगे ही, जो अपनी अज्ञानता के कारण किसी तरह की आकांक्षा नहीं रखते, साथ ही पूर्णतः की स्थिति में भी कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। पर जीवन की इन दोनों स्थितियों में आकाश-पाताल का अन्तर है, जहाँ एक पशुत्व के पास है और दूसरी ब्रह्मत्व के।”
स्वामी विवेकानंद के अमरत्व कैसा और कब हुआ
अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द जी ने व्याख्यान देते हुए कहा- “जीवात्मा में अमरत्व के प्रश्न के अलावा दूसरा कौन-सा प्रश्न ज्यादातर पूछा गया है, दूसरे किस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने हेतु मनुष्य ने समस्त संसार की इतनी ज्यादा खोज की है? दूसरा कौन-सा प्रश्न मानव हृदय के इतना प्रिय और उसके इतना निकट है? कौन-सा प्रश्न हमारे अस्तित्व के साथ इतने अभेद्य भाव से सम्बन्धित है? यह कवियों की कल्पना का विषय रहा है। साधु, महात्मा, ज्ञानी सभी के गंभीर चिन्तन का विषय रहा है।
सिंहासन पर विराजमान राजाओं ने इस पर विचार किया है। रास्ते के भिखारियों ने भी इसका सपना देखा है। श्रेष्ठतम् मानवों ने इसका अन्तर पाया है, और अति निकृष्ट मनुष्यों ने भी इसकी आशा की है। इस विषय में लोगों की रुचि अभी तक बनी हुई है, और जब तक मानव प्रकृति विद्यमान है, तब तक वह बनी रहेगी।
अलग-अलग लोगों ने इसके अलग-अलग उत्तर दिये हैं और यह भी देखा जाता है कि इतिहास के हरेक युग में हजारों व्यक्तियों ने इस प्रश्न को बिल्कुल अनावश्यक कहकर त्याग दिया है, फिर भी यह प्रश्न ज्यों-का-त्यों नवीन ही बना हुआ है। जीवन-संग्राम के कोलाहल में हम अक्सर इस प्रश्न को विस्मृत-सा कर देते हैं, परन्तु जब अकस्मात् कोई मृत्यु को प्राप्त हो जाता है-एक ऐसा व्यक्ति, जिससे हम प्रेम करते हैं, जो हमारे दिल के बहुत पास और अत्यन्त प्रिय है, एकाएक हमसे छिन जाता है, तब हमारे चहुँओर का संघर्ष और कोलाहल क्षण भर के लिए मानो थम सा जाता है, सभी कुछ मानो निःस्तब्ध हो जाता है और हमारी आत्मा के गम्भीरतम् प्रदेश से वहीं प्राचीन प्रश्न उठता है कि इसके पश्चात् क्या है? मरणोपरान्त आत्मा की क्या गति होती है?
सम्पूर्ण मानव ज्ञान अनुभव से उत्पन्न होता है, अनुभव के अलावा दूसरे किसी प्रकार से हम कुछ भी नहीं जान सकते। हमारा सारा तर्क सामान्यीकृत अनुभव पर आधारित है। हमारा समस्त ज्ञान अनुभवों का समन्वय है। हम अपने चहुँओर देखते हैं सतत परिवर्तन। बीज से वृक्ष होता है और चक्र पूरा करके वह फिर बीज रूप में परिणत हो जाता है। एक जीव उत्पन्न हुआ, कुछ दिन जीवित रहा, फिर मर गया, इस प्रकार मानी एक वृत्त पूर्ण हो गया। मनुष्य के विषय में भी यही बात है। और तो और, पर्वत भी
शनैः-शनैः, लेकिन निश्चित रूप से चूर-चूर होते जाते हैं, नदियाँ और धीर पर निश्चित रूप से सूखती जाती हैं।
समुद्र से बादल उठते हैं और बारिश करके फिर से समुद्र में ही समा जाते है। सही एक-एक वृत्त पूर्ण हो रहा है-जन्म, बुद्धि और क्षय मानो गणितीय अपरिहार्यता के साय ठीक एक के बाद एक आते रहते हैं। यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। फिर भी इस सबके अन्दर क्षुदतम् परमाणु से लेकर उच्चतम् सिद्ध पुरुष तक लाखों प्रकार की, विभिन्न नाम-र-युक्त वस्तुओं के अन्तराल में हम एक अखण्ड भाव, एक एकत्व देखते हैं।
हम प्रतिदिन देखते हैं कि वह दुर्भद दीवार, जो एक वस्तु को दूसरी वस्तु से करती प्रतीत होती थी, गिरती जा रही है और आधुनिक विज्ञान समस्त भूतों को एक ही पदार्थ मानने लगा है-मानो वही एक प्राणशक्ति नाना रूपों में नाना प्रकार से प्रकाशित हो रही है, जैसे वह सबको जोड़ने वाली एक श्रृंखला के समान है, और ये सब विभिन्न रूप माना इस श्रृंखला की ही एक कड़ी हैं-अनन्त रूप से विस्तृत, किन्तु फिर भी उसी एक श्रृंखला के अंश। इसी को क्रम विकासवाद कहते हैं। यह एक अत्यन्त प्राचीन धारणा है-उतनी ही प्राचीन जितना कि मानव समाज केवल वह मानवीय ज्ञान की वृद्धि और उन्नति के साथ-साथ मानो हमारी आंखों के समक्ष अधिकाधिक उल रूप से प्रतीत होती जा रही है।
एक बात और है, जो प्राचीन लोगों ने विशेष रूप से समझी थी, लेकिन जिसे आधुनिक विचारकों ने अभी तक ठीक-ठीक नहीं समझा है, और वह है क्रम संकोच । बीज काही वृक्ष ‘होता है, बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र में परिणत होता है, मिट्टी का ढेला नहीं। अब प्रश्न यह है कि यह क्रम विकास किससे होता है? बीज पहले क्या था? वह उस वृक्ष के रूप में ही था। भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभस्त सम्भावनाएँ बीज में निहित हैं। छोटे बच्चे में भावी मनुष्य की समस्त सम्भावनाएँ निहित हैं। किसी भी प्रकार के भावी जीवन की समस्त सम्भावनाएँ बीजाणु में विद्यमान हैं। इसका तात्पर्य क्या है?
भारतवर्ष के प्राचीन दार्शनिक इसी को ‘क्रम संकोच’ कहते थे। इस तरह हम देखते हैं कि हरेक क्रम विकास के पहले क्रम संकोच का होना अनिवार्य है। किसी ऐसी वस्तु का क्रम विकास नहीं हो सकता, जो पहले से ही वर्तमान नहीं है। यहाँ पर फिर आधुनिक विज्ञान हमें सहायता देता है। गणित शास्त्र के तर्क से तुम्हें ज्ञात है कि संसार में दृश्यमान शक्ति का समष्टि-योग हमेशा समान रहता है। तुम जड़ तत्त्व का एक भी परमाणु या शक्ति की एक भी इकाई घटा या बढ़ा नहीं सकते। इसीलिए क्रम विकास कभी शून्य से नहीं होता। तब फिर वह हुआ कहाँ से? इसके पूर्व के क्रम संकोच से बालक क्रम संकुचित या अव्यक्त मनुष्य है और मनुष्य क्रम विकसित बालक है। क्रम संकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रम विकसित बीज ही वृक्ष। जीवन की संभावनाएँ उसके बीजाणु में हैं।
अब समस्या कुछ अधिक साफ हो जाती है। इसके साथ जीवन के सातत्य की प धारणा जोड़ दो। निम्नतम जीव सार से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त वस्तुतः एक ही सत्ता है- • एक ही जीवन है। जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि अवस्थाएं देखते हैं, उसी तरह जीव सार से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त एक ही अविछिन्न जीवन, एक ही श्रृंखला जीवन विद्यमान है। इसी को क्रम विकास कहते हैं, और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि हरेक क्रम विकास के पहले एक क्रम संकोच रहता है।
यह समग्र जीवन, जो क्रमशः व्यक्त होता है, अपने को जीव सार से लेकर पूर्णत मानव या धरती पर आविर्भूत ईश्वरावतार के रूप में, क्रम विकसित करता है, एक श्रृंखला या श्रेणी है, और यह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति उसी जीव सार में संकुचित रही होगी। यह सारा जीवन, मर्त्य लोक में अवतीर्ण यह ईश्वर तक उसमें निहित था। बस धीरे-धीरे बहुत धीरे, क्रमशः उस सबकी अभिव्यक्ति मात्र हुई है। जो सर्वोच्च, चरम अभिव्यक्ति है, वह भी अवश्य बीज भाव से सूक्ष्माकार में उसके भीतर विद्यमान रही होगी। इसीलिए यह शक्ति, यह सम्पूर्ण श्रृंखला उस सर्वव्यापी विश्व जीवन का क्रम संकोच है।
बुद्धि की यह एक राशि ही जीव सार से पूर्णतम् मनुष्य तक स्वयं को व्यक्त कर रही है। ऐसी बात नहीं है कि वह थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ रही हो। बढ़ने की भावना को मन से एकदम छिटक दो। वृद्धि कहने से ही मालूम होता है कि बाहर से कुछ आ रहा है. कुछ बाहर है, और इससे यह सत्य झूठा हो जाएगा कि प्रत्येक जीवन में अव्यक्त असीम किसी भी बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। इसमें वृद्धि नहीं हो सकती, उसका अस्तित्व सदैव रहता है, वह सिर्फ खुद को व्यक्त कर देता है।
कार्य-कारण का व्यक्त रूप है। कार्य और कारण में कोई मौलिक भेद नहीं होता। उदाहरण हेतु – यह एक गिलास है। यह अपने उपादानों और अपने निर्माता की इच्छा के सहयोग से बना है। ये दोनों उसके कारण हैं और उसमें वर्तमान हैं। निर्माता की इच्छा शक्ति अभी उसमें किस रूप में विद्यमान है? संहति-शक्ति के रूप में। यह शक्ति अग नहीं रहती, तो इसके परमाणु पृथक-पृथक हो जाते। तो अब कार्य क्या हुआ? यह कार के साथ अभिन्न है, केवल उसने एक अन्य रूप धारण कर लिया है। हमें यह याद रख चाहिए। इसी तत्त्व को अपनी जीवन सम्बन्धी धारणा पर प्रयुक्त करने पर हम देखते कि जीव सार से लेकर पूर्णतम् मानव पर्यन्त सम्पूर्ण श्रेणी अवश्य उस विश्वव्यापी जी के साथ अभिन्न है। पहले वह संकुचित और सूक्ष्मतर हुआ, और इस सूक्ष्मतर कारण वह खुद को विकसित और व्यक्त करता तथा स्थूलतर होता रहा है।
किन्तु अमृत्व के सम्बन्ध में जो सवाल था, वह अब भी हल नहीं हुआ। हमने देख संसार के किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता। नया कुछ भी नहीं है और होगा भी न अभिव्यक्ति की एक ही शृंखला चक्र की भाँति बारम्बार उपस्थित होती रहती है। संसार मे
जितनी गति है, वह समस्त तरंग के आकार में एक बार उठती है, फिर गिरती है। विविध ब्रह्माण्ड सूक्ष्मतर रूपों से प्रसूत हो रहे हैं–स्थूल रूप धारण कर रहे हैं। फिर तीन होकर सूक्ष्म भाव में जा रहे हैं। वह फिर से इस सूक्ष्म भाव से स्थूल भाव में आते हैं कुछ समय तक उसी अवस्था में रहते हैं और पुनः शनैः-शनैः उस कारण में चले जाते हैं।
जीवन के बारे में ऐसा ही सत्य है। जीवन को हरेक अभिव्यक्ति आती है और फिर चली जाती है, तो फिर नष्ट क्या होता है? केवल रूप-आकृति वह रूप नष्ट हो जाता है, लेकिन फिर आता है। एक अर्थ में तो सभी शरीर और सभी रूप नित्य है। कैसे मान लो, मैं पासा खेल रहा हूँ और वे 6-5-3-4 के अनुपात से एड़े। मैं और खेलने लगा. खेलते-खेलते एक वक्त ऐसा जरूर आएगा, जब वही संख्याएं फिर से पड़ेगी। और खेलो, वही संयोग दोबारा जरूर आएगा। मैं इस संसार के हरेक कण, हरेक परमाणु की एक-एक पासे से तुलना करता हूँ। उन्हीं को बार-बार फेंका जा रहा है, और वे बार-बार नाना तरह से गिरते हैं। तुम्हारे समक्ष जो समस्त पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के एक विशिष्ट प्रकार के संघात से पैदा हुए हैं। यह गिलास, यह मेज, यह सुराही, ये समस्त वस्तुएँ परमाणुओं के समवाय-विशेष हैं। क्षण भर के पश्चात् शायद ये समवाय-विशेष नष्ट हो जा सकते हैं। पर एक समय ऐसा जरूर आएगा, जब ठीक यही समवाय दोबारा उपस्थित होगा। वस्तुएं
भी ठीक अपने-अपने स्थान पर रहेंगी और ठीक इसी विषय की आलोचना होगी। अनन्त बार इस तरह हुआ है और अनन्त बार इसकी आवृत्ति होगी। तो फिर हमने स्थूल, बाह्य वस्तुओं की आलोचना से क्या तत्त्व पाया? यहीं कि इन भौतिक रूपों के विभिन्न समवायों की पुनरावृत्ति अनन्त काल तक होती रहती है।
इस परिकल्पना से जो एक अन्यतम मनोरंजक निष्कर्ष निकलता है, वह है इस तरह के तथ्यों की व्याख्या । शायद तुममें से कुछ लोगों ने ऐसा व्यक्ति देखा होगा, जो मनुष्य के अतीत एवं भविष्य की समस्त बातें बता देता है। अगर भविष्य किसी नियम के अधीन न हो तो फिर किस तरह भविष्य के सम्बन्ध में बताया जा सकता है? अतीत के कार्य भविष्य में घटित होंगे, और हम देखते हैं कि ऐसा होता है। हिंडोले का उदाहरण लो। वह लगातार घूमता रहता है। लोग आते हैं और उसके एक-एक पालने में बैठ जाते हैं। हिंडोला घूमकर फिर नीचे आता है। उतर जाते हैं, तो एक दूसरा दल आ बैठता है। क्षुद्रतम् जन्तु से लेकर उच्चतम् मानव तक प्रकृति की हरेक अभिव्यक्ति मानों ऐसा एक-एक दल है, और प्रकृति हिंडोले के चक्र सदृश है तथा हरेक शरीर या रूप इस हिंडोले के एक-एक पालने जैसा है।
नवीन आत्माओं का एक-एक दल उन पर चढ़ता है और मैने से ऊंचे जाता रहता है, जब तक उसमें से हरेक आत्मा पूर्णतः प्राप्त कर हिंडोले से बाहर नहीं आ जाती। पर हिंडोला लगातार चलता रहता है-सदैव दूसरे लोगों को ग्रहण करने के लिए तैयार है और
जब तक शरीर इस चक्र के भीतर अवस्थित है, तब तक निश्चित रूप से हिसाब से यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि अब यह किस ओर जाएगा। आत्मा के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। इसीलिए प्रकृति के भूत और भविष्य निश्चित रूप से गणित की भाँति ठीक-ठीक बता पाना असम्भव नहीं है।
इसलिए हम देखते हैं कि उन्हीं भौतिक घटनाओं की पुनरावृत्ति निश्चित समय पर होती रहती है, और वही संयोजन चिरन्तर काल से होते चले जा रहे हैं। किन्तु यहा का अमरत्व नहीं है। किसी भी शक्ति का नाश नहीं होता, कोई भी जड़ वस्तु शून्य से पर्यवसित नहीं की जा सकती। तो फिर उनका क्या होता है? उनके आगे और पीछ परिणाम होते रहते हैं, और अन्त में जहाँ से उनकी उत्पत्ति हुई थी. वहीं ये लौट जाते हैं। सीधी रेखा में कोई गति नहीं होती। हरेक वस्तु घूम-फिरकर अपने पूर्वस्थान पर लोट आनो है, क्योंकि सीधी रेखा अनन्त भाव से बढ़ा दी जाने पर वृत्त में परिणत हो जाती है।
यदि ऐसा ही हो, तो फिर अनन्त काल तक किसी भी आत्मा का अघ- पतन नहीं हो सकता–पैसा हो नहीं सकता। इस संसार में हरेक वस्तु, शीघ्र हो अथवा विलम्ब से अपनी-अपनी वर्तुलाकार गति को पूर्ण कर फिर अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाती है। तुम, में या ये सब आत्माएँ क्या हैं? पहले क्रम संकोच तथा क्रम विकास तत्त्व को आलोचना करते हुए हमने देखा है कि तुम, हम, उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य अथवा प्राण या मन के अंश विशेष हैं, जो हममें संकुचित अथवा अव्यक्त हुआ है, और हम घूमकर, क्रमविकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्वव्यापी चैतन्य में लौट जाएंगे, और यह विश्वव्यापी चैतन्य ही ईश्वर है। लोग उसी विश्वव्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं-जड़वादी उसी की शक्ति के रूप में उपलब्धि करते हैं, और अज्ञेयवादी उसी की, उस अनन्त अनिर्वचनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं और हम सब उसी के अंश हैं।
यह दूसरा तथ्य हुआ, फिर भी अनेक शंकाएं की जा सकती हैं। किसी शक्ति का नाश नहीं है, यह बात सुनने में तो बहुत उत्तम लगती है, पर हम जितनी भी शक्ति और रूप देखते हैं, सभी मिश्रण हैं। हमारे समक्ष यह रूप अनेक खण्डों का समन्वय है, इसी तरह हरेक शक्ति अनेक शक्तियों का समवाय है।
यदि तुम शक्ति के सम्बन्ध में विज्ञान का मत ग्रहण कर उसे कतिपय शक्तियों की समष्टि मात्र मानते हो, तो फिर तुम्हारे ‘मैं-पन’ व्यक्तित्व का क्या होता है? जो समवाय अथवा संघात है, वह शीघ्र या विलम्ब से अपने करणीभूत पदार्थ में लीन हो जाता है। इस विश्व में जो भी जड़ या शक्ति के समवाय से उत्पन्न है, वह अपने अंशों में पर्यवसित से जाता है। जल्दी या देर से, वह अवश्य विश्लिष्ट हो जाएगा, भग्न हो जाएगा और अपने करणीभूत अंशों में परिणत हो जाएगा।
आत्मा भौतिक शक्ति या विचार शक्ति नहीं है। यह तो विचार शक्ति की सृष्टा है, स्वयं विचार शक्ति नहीं। वह शरीर की स्थायी है, लेकिन वह शरीर नहीं है। क्यों? शरीर कभी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि यह बुद्धियुक्त नहीं है। शव या कसाई की दुकान का मांस का टुकड़ा कभी बुद्धियुक्त नहीं है। हम ‘बुद्धि शब्द से क्या समझते हैं प्रतिक्रिया शक्ति थोड़े और गम्भीर भाव से इस तत्त्व की आलोचना करो। 1
मैं अपने सामने यह सुराही देख रहा हूँ। यहाँ पर क्या हो रहा है? इस सुराही से कुछ प्रकाश-किरणें निकलकर मेरी आँख में प्रवेश करती हैं। वे मेरे नेत्रपटल पर एक चित्र अंकित करती हैं और यह चित्र जाकर मेरे मस्तिष्क में पहुंचता है। शरीरवैज्ञानिक जिसको संवेदक नाड़ी कहते हैं, उन्हीं के द्वारा यह चित्र भीतर मस्तिष्क में ले जाया जाता है। लेकिन तब भी देखने की किया पूर्ण नहीं होती, क्योंकि अभी तक भीतर की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मस्तिष्क में स्थित जो स्नायु केन्द्र है, वह इस चित्र को मन के पास ले जाएगा, और मन इस पर प्रतिक्रिया करेगा। इस प्रतिक्रिया के होते ही सुराही मेरे सम्मुख प्रकाशित हो जाएगी।
एक और अधिक सरल उदाहरण लो। मान लो तुम भली प्रकार एकाग्र होकर मेरी बात सुन रहे हो और इसी समय एक मच्छर तुम्हारी नाक पर काटता है, लेकिन तुम मेरी बातें सुनने में इतने लीन हो कि उसका काटना तुमको महसूस नहीं होता। ऐसा क्यों? मकर तुम्हारी चमड़ी को काट रहा है, उस स्थान पर कितनी ही नाड़ियाँ हैं, और वे इस संवाद को मस्तिष्क के पास पहुँचा रही हैं, इसका चित्र भी मस्तिष्क में मौजूद है, लेकिन मन दूसरी ओर लगा है, इसलिए वह प्रतिक्रिया नहीं करता, इसीलिए तुम उसके काटने का अनुभव नहीं करते।
हमारे सामने कोई नया चित्र आने पर अगर मन प्रतिक्रिया न करे, तो हम उसके सम्बन्ध में कुछ जान ही न सकेंगे। लेकिन प्रतिक्रिया होते ही उसका ज्ञान होगा और तभी हम देखने, सुनने और अनुभव आदि करने में समर्थ होंगे। इस प्रतिक्रिया के साथ ही, जैसा सांख्यवादी कहते हैं, ज्ञान का प्रकाश होता है।
इसीलिए हम देखते हैं कि शरीर कभी ज्ञान का प्रकाश नहीं कर सकता, क्योंकि जिस समय मनोयोग नहीं रहता, उस समय हम अनुभव नहीं कर पाते। ऐसी घटनाएं सुनी गयी हैं कि किसी-किसी विशेष अवस्था में एक व्यक्ति ऐसी भाषा बोलने में समर्थ हुआ है, जो उसने कभी नहीं सीखी। बाद में तलाशने पर पता चलता है कि वह व्यक्ति बचपन में ऐसी जाति में रहा है, जहाँ वह भाषा बोली जाती थी, और वही संस्कार उसके मस्तिष्क में रह गया। वह सब वहाँ पर संचित था, बाद में किसी कारण से उसके मन में प्रतिक्रिया हुई और त्योंही ज्ञान आ गया और वह व्यक्ति वह भाषा बोलने में समर्थ हुआ।
इससे पता चलता है कि सिर्फ मन ही पर्याप्त नहीं है, मन भी किसी के हाथ में यन्त्र मात्र
है, उस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके मन में वह भाषा गूढ रूप से निहित थी, लेकिन यह उससे अनभिज्ञ था, पर बाद में एक ऐसा समय आया, जब वह उसे जान सका ।
इससे यही प्रमाणित होता है कि मन के अगवा और भी कोई है उस व्यक्ति के बाल्यकाल में इस और कोई ने उस शक्ति का उपयोग नहीं किया। पहले है यह शरीर उसके पश्चात् हे मन अर्थात विचार का यन्त्र, और फिर है इस मन के पीछे विद्यमान वह आत्मा आधुनिक दार्शनिक लोग विचार को मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन के साथ अभिन्न मानते हैं, इसीलिए वे ऊपर कही हुई घटनावली की व्याख्या नहीं कर पाते, अतएव वे साधारणतः इन सभी बातों को बिल्कुल अस्वीकार कर देते हैं। जो हो, मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है और शरीर का विनाश होने पर वह नष्ट हो जाता है।
आत्मा ही एकमात्र प्रकाशक है-मन उसके हाथों में यन्त्र के समान है, और इस यन्त्र के माध्यम से आत्मा बाह्य साधन पर अधिकार जमा लेती है। इसी तरह प्रत्यक्ष बोध होता है। बाह्य आंखें आदि साधनों से विषय का संस्कार पड़ता है, और वे उसको भीतर मस्तिष्क केन्द्र में ले जाते हैं- कारण, तुमको यह स्मरण रखना चाहिए कि चक्षु आदि केवल इन संस्कारों के ग्रहण करने वाले हैं, अन्तरिष्ट्रिय अर्थात् मस्तिष्क के केन्द्र ही कार्य करते हैं।
संस्कृत भाषा में मस्तिष्क के इन सब केन्द्रों को इन्द्रिय कहते हैं-ये इन्द्रियों इन चित्रों को लेकर मन को अर्पित कर देती हैं, फिर मन इनको बुद्धि के निकट और बुद्धि उन्हें अपने सिंहासन पर विराजमान महामहिमाशाली राजराजेश्वर आत्मा को प्रदान करती है। अब आत्मा उन्हें देखकर आवश्यक आदेश देती है। फिर मन तुरन्त इन मस्तिष्क केन्द्रों अर्थात् इन्द्रियों पर कार्य करता है। और ये इन्द्रियाँ स्थूल शरीर पर मनुष्य की आत्मा ही इन सबकी वास्तविक अनुभवकर्ता, शास्ता, सृष्टा सब कुछ है।
हमने देखा कि आत्मा शरीर भी नहीं है, मन भी नहीं। आत्मा कोई यौगिक पदार्थ भी नहीं हो सकती क्यों नहीं? इसलिए कि सब कुछ यौगिक पदार्थ हमारे दर्शन या कल्पना का विषय होता है। जिस विषय का हम दर्शन अथवा कल्पना कुछ भी नहीं कर सकते, जिसे हम पकड़ नहीं सकते, जो न भूत है, न शक्ति, जो कार्य, कारण या कार्य-कारण-सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, वह यौगिक या मिश्र नहीं हो सकता यौगिक पदार्थों का क्षेत्र मनोजगत-विचार-जगत तक सीमित है। इसके परे वे सम्भव नहीं हैं। सभी यौगिक पदार्थ नियम के राज्य के अन्तर्गत हैं। नियम के परे अगर कोई वस्तु हो, तो वह कभी भी यौगिक नहीं हो सकती। इसलिए मनुष्य की आत्मा, कार्य-कारण-भाव के परे है, अतः वह यौगिक नहीं है। यह सदैव मुक्त है और नियमों
के अन्तर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करती है। उसका कभी विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि विनाश का अर्थ है किसी यौगिक पदार्थ का अपने उपादानों में परिणत हो जाना और जो कभी
यौगिक नहीं है, उसका विनाश कभी नहीं हो सकता। उसकी मृत्यु होती है या विनाश होता है, ऐसा कहना केवल कोरी मूर्खता है।
“हम अब सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर क्षेत्र में उपस्थित हुए हैं। सम्भव है, तुममें से कुछ लोग हर भी जाएँ। हमने देखा कि यह आत्मा भूत, शक्ति एवं विचार रूप क्षुद्र संसार के अतीत एक मौलिक पदार्थ है, अतः इसका विनाश असम्भव है। इसी प्रकार उसका जीवन भी असम्भव है। कारण, जिसका विनाश नहीं, उसका जीवन भी कैसे हो सकता है? मृत्यु क्या मृत्यु एक पहलू है, और जीवन उसी का दूसरा पहलू है।
मृत्यु का एक और नाम है, जीवन, तथा जीवन का और एक नाम है मृत्यु । अभिव्यक्ति के एक रूप विशेष को हम जीवन कहते हैं, और उसी के अन्य रूप विशेष को मृत्यु । जब तरंग ऊपर की ओर उठती है, तो मानो जीवन है और फिर जब वह गिर जाती है, तो मृत्यु है जो वस्तु मृत्यु के अतीत है, वह निश्चय ही जन्म के भी अतीत है। मैं तुमको फिर उस पहले सिद्धान्त का स्मरण कराता हूँ कि मानवात्मा उस सर्वव्यापी जगन्मयी शक्ति या ईश्वर का अंश मात्र है। तो हम देखते हैं कि वह जीवन और मृत्यु दोनों से परे है। तुम न कभी उत्पन्न हुए थे, न कभी मरोगे। हमारे चहुओर जो जन्म और मृत्यु दिखते हैं, वे फिर क्या हैं? ये तो सिर्फ शरीर के हैं, क्योंकि आत्मा तो सदैव सर्वा वर्तमान है। तुम कहोगे, ‘यह कैसे हम इतने लोग यहाँ पर विराजमान हैं और आप कहते हैं, आत्मा सर्वव्यापी है।
में पूछता हूँ, जो पदार्थ नियम के कार्य-कारण-सम्बन्ध के बाहर है, उसे सीमित करने की शक्ति किसमें है? यह गिलास एक सीमित पदार्थ है-यह सर्वव्यापक नहीं है, क्योंकि इसके चारों ओर की जड़राशि इसको इसी रूप में रहने को बाध्य करती है-इसे सर्वव्यापी नहीं होने देती। यह अपने आस-पास के हरेक पदार्थ के द्वारा नियन्त्रित है, इसीलिए यह सीमित है। लेकिन जो वस्तु नियम के बाहर है, जिस पर कार्य करने वाला कोई पदार्थ नहीं, यह कैसे सीमित हो सकती है? वह सर्वव्यापक होगी ही तुम सर्वत्र विद्यमान हो। फिर मैंने जन्म लिया है, मैं मरने वाला हूँ’-ये सब भाव क्या हैं? वे सब अज्ञान की बातें, मन का भ्रम है। तुम्हारा न कभी जन्म हुआ था, न तुम कभी मरोगे। तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ, न कभी पुनर्जन्म होगा।
आवागमन का क्या अर्थ है? कुछ नहीं। यह सब मूर्खता है। तुम हर जगह मौजूद हो आवागमन जिसे कहते हैं, वह इस सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन के परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुई एक मृगमरीचिका मात्र है। यह निरन्तर चल रहा है। यह गगन पर तैरते हुए बादल के एक टुकड़े के समान है। जब वह चलता रहता है, तो लगता है कि आकाश ही चल रहा है।
कभी-कभी जब चन्द्रमा के ऊपर से बादल होकर गुजरते हैं, तो भ्रम होता है कि
चन्द्रमा ही चल रहा है। जब तुम गाड़ी में बैठे रहते हो तो प्रतीत होता है कि पृथ्वी रही है, और नाव पर बैठने वाले को पानी चलता हुआ-सा महसूस देता है। वास्तव में न तुम जा रहे हो, न आ रहे हो, न तुमने जन्म लिया है, न फिर जन्म लोगे। तुम अनन्त हो, सर्वव्यापी हो-समस्त कार्य-कारण-सम्बन्ध से अतीत, नित्ययुक्त, अम और अविनाशी जन्म और मृत्यु का प्रश्न ही गलत है, महामूर्खतापूर्ण है। मृत्यु हो ही कैसे सकती है, जब जन्म ही नहीं हुआ?
किन्तु निर्दोष, तर्कसंगत सिद्धान्त पर पहुँचने हेतु हमें एक कदम और बढ़ना होगा। रास्ते के बीच में रुकना नहीं है। तुम दार्शनिक हो, तुम्हारे लिए बीच में रुकना शोभा नहीं देता। हाँ, तो अगर हम नियम के बाहर हैं, तो निश्चय ही हम सर्वज्ञ है, नित्यानन्द स्वरूप हैं, निश्चय ही समस्त ज्ञान, समस्त शक्ति और सर्वविध कल्याण हमारे भीतर से है। अवश्य, तुम सभी सर्वत्र और सर्वव्यापी हो। लेकिन इस प्रकार की सत्ता अथवा पुरुष क्या एक से ज्यादा हो सकते हैं? क्या लाखों-करोड़ों पुरुष सर्वव्यापक हो सकते हैं। कभी नहीं। तब फिर हम सब का क्या होगा?
वास्तव में केवल एक ही है, एक ही आत्मा है और तुम सब वह एक आत्मा ही हो। इस तुच्छ प्रकृति के पीछे वह आत्मा ही विराजमान है। एक ही पुरुष है-वही एकमात्र रास्ता है, वह सदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, जन्मरहित और मृत्युहीन है। उसी के आदेश से आकाश फैला हुआ है, उसी की आज्ञा से वायु बह रही है, सूर्य चमक रहा है सब जीवित हैं। वहीं प्रकृति का आधार स्वरूप है, प्रकृति उस सत्य स्वरूप पर प्रतिष्ठित होने के कारण ही सत्य प्रतीत होती है। यह तुम्हारी आत्मा की भी आत्मा है। इतना ही नहीं, तुम स्वयं ही वह हो, तुम और वह एक ही हैं।”
किससे लड़ोगे जहाँ कहीं भी दो हैं, वहीं भय है, खतरा है, वहीं द्वन्द्व और संघर्ष है। जब सब एक ही हैं, तो किससे घृणा, किससे संघर्ष? जब सब कुछ वही है, तो तुम जीवन-समस्या की वास्तविक मीमांसा यही है, इसी से वस्तु के स्वरूप की व्याख्या होती है। यही सिद्धि या पूर्णत्व है और यही ईश्वर है। जब तक तुम अनेक देखते हो, तब तक तुम अज्ञान में हो। इस बहुत्वपूर्ण संसार में जो उस एक को, इस परिवर्तनशील संसार में जो उस अपरिवर्तनशील को अपने आत्मा की आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप समझता है, वही मुक्त है, वही आनन्दमय है, उसी ने लक्ष्य की प्राप्ति की है।”
इसीलिए समझ लो कि तुम्हीं वह हो, तुम्हीं संसार के ईश्वर हो-‘तत्त्वमसि’। ये धारणाएँ कि मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, रोगी हूँ, स्वस्थ हूँ, बलवान हूँ, निर्बल हूँ या यह कि मैं घृणा करता हूँ, मैं प्रेम करता हूँ, या मेरे पास इतनी ताकत है-सब भ्रम मात्र है। इनको छोड़ो। तुम्हें कौन दुर्बल बना सकता है? तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? संसार में तुम्हीं तो एकमात्र सत्ता हो। तुम्हें किसका डर है? इसीलिए उठो, मुक्त हो जाओ। समझ
लो कि जो कोई विचार अथवा शब्द तुम्हें दुर्बल बनाता है, एकमात्र वही अशुभ है। मनुष्य को दुर्बल और भयभीत बनाने वाला जगत में जो कुछ है, वह पाप है और उसी से बचना चाहिए। तुम्हें कौन डरा सकता है? अगर सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़े, सैकड़ों चन्द्र चूर-चूर हो जाएं, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जाएँ, तो भी तुम्हारे लिए क्या? पर्वत की तरह अटल रहो, तुम अविनाशी हो। तुम आत्मा हो, तुम्हीं संसार के ईश्वर हो। कहो- “शिवोऽहं शिवोऽहं में पूर्ण सच्चिदानन्द हूँ।”
पिंजड़े को तोड़ डालने वाले सिंह के समान तुम अपने बन्धन तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ। तुम्हें किसका डर है, तुम्हें कौन बांधकर रख सकता है? केवल अज्ञान और भ्रम; अन्य कुछ भी तुम्हें बाँध नहीं सकता। तुम शुद्ध स्वरूप हो, नित्यानन्दमय हो ।
यह बुद्धिहीन अर्थात् मूर्खो का उपदेश है, कि ‘तुम पापी हो, इसीलिए एक कोने में बैठकर हाय-हाय करते रहो।’ यह उपदेश देना मूर्खता ही नहीं दुष्टता भी है, कोरी बदमाशी है। तुम सभी ईश्वर हो। तुम ईश्वर को नहीं देखते और उसी को मनुष्य कहते हो। इसीलिए अगर तुममें साहस है, तो इस विश्वास पर खड़े हो जाओ और उसके अनुसार अपना जीवन बना डालो।
अगर कोई व्यक्ति तुम्हारा गला काटे तो उसे मना मत करना, क्योंकि तुम तो खुद अपना गला काट रहे हो। किसी निर्धन का अगर कुछ उपकार करो, तो उसके लिए जरा भी अपने अन्दर अहंकार मत लाना। वह तो तुम्हारे लिए उपासना मात्र है, उसमें अहंकार की कौन-सी बात? क्या तुम्हीं समस्त संसार नहीं हो? कहीं ऐसी कोई वस्तु है, जो तुम नहीं हो? तुम संसार की आत्मा हो। तुम्हीं सूर्य, चन्द्रमा और तारा हो, तुम्हीं सर्वत्र चमक रहे हो। समस्त जगत तुम्हीं हो। किससे घृणा करोगे और किससे झगड़ा करोगे?
इसीलिए समझ लो कि तुम वही हो, और इसी साँचे में अपना जीवन ढालो। जो लोग इस तत्त्व को जानकर अपना समस्त जीवन उसके अनुसार गठित करता है, वह फिर कभी अन्धकार में इधर-से-उधर भटकता नहीं फिरता ।
स्वामी विवेकानंद के ब्रह्माण्ड की सृष्टि कैसा हुई
स्वामी विवेकानन्द जी ने न्यूयार्क में 19 जनवरी, सन् 1896 ई० को अपने श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा- “सर्वत्र विद्यमान फूल सुन्दर हैं, प्रभात के सूर्य का उदय सुन्दर है, प्रकृति के विविध
रंग और वर्णावली सुन्दर है। सारा जगत् सुन्दर है, और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है, तभी से इस सौन्दर्य का उपयोग कर रहा है। पर्वतमालाएं गम्भीर भावव्यंजक एवं भव उत्पन्न करने वाली हैं। प्रबल वेग से समुद्र की और बहने वाली नदिया, पद चिन्ह रहित मरुदेश, अनन्त सागर, तारों से भरा आकाश-ये सभी उदात्त, भयोद्दीपक और सुन्दर हैं। ‘प्रकृति’ शब्द से कही जाने वाली सभी सत्ताएँ अति प्राचीन स्मृति-पथ के अतीत काल से मनुष्य के मन पर कार्य कर रही हैं, वे मनुष्य की विचारधारा पर क्रमशः प्रभाव फैला रही हैं और इस प्रभाव की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मनुष्य के हृदय में लगातार यह प्रश्न उठ रहा है कि यह सब क्या है और इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? अति प्राचीन मानव रचना वेद के प्राचीन भाग में इसी प्रश्न की जिज्ञासा हम देखते हैं।
यह सब कहाँ से आया? जिस समय सत्य-असत्य कुछ भी नहीं था, जब अन्धकार- अन्धकार से ढका हुआ था, तब किसने इस जगत् का सृजन किया? कैसे किया? कौन इस रहस्य को जानता है? आज तक यही प्रश्न चला आ रहा है। लाखों बार इसका उत्तर देने की कोशिश की गयी है, लेकिन फिर भी लाखों बार इसका फिर से उत्तर देना पड़ेगा। ऐसी बात नहीं कि ये सभी उत्तर भ्रमपूर्ण हों। प्रत्येक उत्तर में कुछ न कुछ सत्य है- कालचक्र के साथ यह सत्य भी क्रमशः बल संग्रह करता जाएगा। मैंने भारत के प्राचीन दार्शनिक से इस प्रश्न का जो उत्तर पाया है, उसको, वर्तमान मानव-ज्ञान से समन्वित करके तुम्हारे सामने रखने की चेष्टा करूँगा।
हम देखते हैं कि इस प्राचीनतम् प्रश्न के कई अंगों का उत्तर पहले से ही उपलब्ध था। पहले तो- ‘जब सत् और असत् कुछ भी नहीं था, इस प्राचीन वैदिक वाक्य से प्रमाणित होता है कि एक समय ऐसा था, जब जगत् नहीं था, जब ये ग्रह-नक्षत्र, हमारी धरती माता, सागर, महासागर, नदी, शैलमाला, नगर, ग्राम, मानवजाति, अन्य प्राणी, उद्भिद्, पक्षी, यह अनन्त प्रकार की सृष्टि, यह सब कुछ भी नहीं था यह बात पहले से
ही ज्ञात थी। क्या हम इस बारे में समझने की चेष्टा करेंगे? मनुष्य अपने चारों तरफ का देखता है। एक छोटे से उद्भिद को ही तो मनुष्य देखता है कि उद्दमिद धीर-धीरे मिट्टी को फोड़कर उड़ता है, अन्त में बढ़ते-बढ़ते एक विज्ञान वृक्ष बन जाता है, फिर वह नष्ट ये जाता है-केवल बीज छोड़ जाता है। वह मानी घूम-फिरकर एक वृत्त पूरा करता है। बीज से ही वह निकलता है, फिर वृक्ष हो जाता है और उसके बाद पुनः बीज में ही परित हो जाता है। पक्षी को देखो, वह किस प्रकार अण्डे में से निकलता है, सुन्दर पक्षी का रूप धारण करता है, कुछ दिन जीवित रहता है, अन्त में मर जाता है और छोड़ जाता है अन्य कई अण्डे अर्थात् भावी पक्षियों के बीज । तिर्यग्जातियों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही होता है और मनुष्य के सम्बन्ध में भी।
प्रत्येक पदार्थ मानो किसी बीज़ से, किसी मूल उपादान से, किसी सूक्ष्म आकार से शुरू होता है और स्थूल से स्थूलतर होता जाता है। कुछ समय तक ऐसा ही चलता है, और अन्त में फिर से उसी सूक्ष्म रूप में उसका लय हो जाता है। वृष्टि की एक बूंद, जिसमें अभी सुन्दर सूर्य किरणें खेल रही हैं, सागर से वाष्प के रूप में निकलकर ऐसे क्षेत्र में पहुंच जाती है, जहाँ पर पानी में परिणत हो जाती है और फिर वाष्प के रूप में होने के लिए समुद्र में पानी के रूप में आ गिरती है। हमारे चारों ओर स्थित प्रकृति की सारी वस्तुओं के सम्बन्ध में भी यही नियम है। हम जानते हैं कि आज बर्फ की चट्टानें पुनः परिणत और नदियाँ बड़े-बड़े पर्वतों पर कार्य कर रही हैं और उन्हें धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप में, चूर-चूर कर रही हैं, चूर-चूर कर उन्हें बालू कर रही हैं। फिर वही बालू बहकर समुद्र में जाती है-समुद्र में स्तर पर स्तर जमाती जाती है और अन्त में पहाड़ की भांति कड़ी होकर भविष्य में पर्वत बन जाती है। वह पर्वत घिसकर बालू बन जाएगा।
बस यही क्रम है। बालुका से इन पर्वतमालाओं की उत्पत्ति है और वालुका में ही इनकी परिणति है। यही मनुष्य का, प्रकृति का, जीवन का पूरा इतिहास है। अगर यह सत्य हो कि प्रकृति अपने सभी कार्यों में एकरूप है, यदि यह सत्य हो और आज तक किसी ने इसका खण्डन नहीं किया कि एक छोटा-सा बालू का कण जिस प्रणाली और नियम से सृजित होता है, प्रकाण्ड सूर्य, तारे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत्-ब्रह्माण्ड की सृष्टि में भी वही प्रणाली, वही एक नियम है। अगर यह सत्य है कि एक परमाणु जिस ढंग से बनता है, सारा जगत् भी उसी ढंग से बनता है, यदि यह सत्य हो कि एक ही नियम सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है, तो प्राचीन वैदिक भाषा में हम कह सकते हैं-“एक मिट्टी के ठेले को जान लेने पर हम जगत् ब्रह्माण्ड में जितनी मिट्टी है, उस सब को जान सकते हैं।”
“एक छोटे से उद्भिद को लेकर उसके जीवन चरित्र की आलोचना करके हम जगत्-ब्रह्माण्ड का स्वरूप ज्ञात कर सकते हैं। बालू के एक कण की गति का पर्यवेक्षण करके हम सम्पूर्ण जगत् का रहस्य जान लेंगे। अतएव जगत्-ब्रह्माण्ड पर अपनी पूर्व
आलोचना के फल का प्रयोग करने पर हम यही देखते हैं कि सभी वस्तुओं का आदि और अन्त प्रायः एक-सा होता है। पर्वत की उत्पत्ति बालुका से है और उसी लुक में उसका अन्त है, बाम से नदी बनती है और नदी फिर वाग्म हो जाती है, चीन से उद्भिद होता है और उद्भिद फिर बीज बन जाता है, मानव जीवन मनुष्य के बीजाणु से आता है और फिर से बीजाणु में ही चला जाता है।
नक्षत्रपुंज, नदी, ग्रह, उपग्रह-सब कुछ निहारिका मय अवस्था से जाते हैं और फिर से उसी अवस्था में लौट जाते हैं। इससे हम क्या सीखते हैं? यही कि व्यक्त अर्थात स्कूल अवस्था कार्य है और सूक्ष्म भाव उसका कारण है। समस्त दर्शनों के जनकस्वरूप म कपिल बहुत काल पहले प्रमाणित कर चुके हैं-
‘नाशः कारणलयः ।’
अर्थात् ‘नाश का अर्थ है, कारण में लय हो जाना। अगर इस मेज का नाश हो जाए, तो यह केवल अपने कारणरूप में लौट जाएगी फिर वह सूक्ष्म रूप भी उन परमाणुओं में बदल जाएगा, जिनके मिश्रण से यह मेज नामक पदार्थ बना था। मनुष्य जब मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो जिन पंचभूतों से उसके शरीर का निर्माण हुआ था, उन्हीं में उसका लय हो जाता है। इस पृथ्वी का जब ध्वंस हो जाएगा, तब जिन भूतों के योग से इसका निर्माण हुआ था, उन्हीं में वह पुनः परिणत हो जाएगी। इसी को नाश अर्थात् कारणलय कहते हैं। अतएव हमने सीखा कि कार्य और कारण अभिन्न हैं… भिन्न नहीं, कारण ही एक विशेष रूप धारण करने पर कार्य कहलाता है। जिन उपादानों से इस मेज की उत्पत्ति हुई, वे कारण हैं और मेज कार्य; और वे ही कारण यहाँ पर मेज के रूप में वर्तमान हैं। यह गिलास एक कार्य है, इसके कुछ कारण थे, वे ही कारण अभी इस कार्य में वर्तमान हैं।
कांच नामक कुछ पदार्थ और उसके साथ-साथ बनाने वाले के हाथों की शक्ति, इन
दो उपादान और निर्मित कारणों के मेल से गिलास नामक यह आकार बना है। इसमें
वे दोनों कारण वर्तमान हैं। जो शक्ति किसी बनाने वाले हाथ में थी, वह संयोजक शक्ति
के रूप में वर्तमान है-उसके न रहने पर गिलास के छोटे-छोटे खण्ड अलग होकर बिखर
जाएंगे। फिर यह कांच रूप उपादान भी वर्तमान है। गिलास सिर्फ इन सूक्ष्म कारणों की
एक भिन्न रूप में अभिव्यक्ति मात्र है। यहाँ गिलास यदि तोड़कर फेंक दिया जाए,
जो शक्ति संहति के रूप में इसमें वर्तमान थी, वह वापस फिर अपने उपादान में मिल
जाएगी और गिलास के छोटे-छोटे कण पुनः अपना पूर्व रूप धारण कर लेंगे और तब तक
उसी रूप में रहेंगे, जब तक वे पुनः एक नया रूप धारण नहीं कर लेते।
हमने देखा कि कार्य कभी कारण से अलग नहीं होता। वह तो उसी कारण का स्थूलतर रूप में पुनः आविर्भाव मात्र है। उसके बाद हमने सीखा कि ये सब विशेष-विशेष रूप,
जिन्हें हम उभिद् अथवा तिर्यग्जाति अथवा मानव जाति कहते हैं, अनन्त काल से उड़ते-गिरते घूमते-फिरते आ रहे हैं। बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष पुनः बीज में चला जाता है बस इसी प्रकार चल रहा है, इसका कहीं अन्त नहीं है। जल की बूंद पहाड़ पर गिरकर समुद्र में जाती है, फिर याप्प होकर उठती हैं-पहाड़ पर पहुंचती हैं और नदी में लौट आती है। बस, इस तरह उठते-गिरते हुए युग चक्र चल रहा है। सम्पूर्ण जीवन का यही नियम है- समस्त अस्तित्व जो हम देखते सोचते, सुनते और कल्पना करते हैं, जो कुछ हमारे ज्ञान की सीमा के अन्दर है, वह सब इसी तरह चल रहा है, ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास-प्रश्वास ।
अतएव समस्त सृष्टि भी इसी तरह चल रही है। एक तरंग उठती है, एक गिरती है, फिर पुनः उठकर गिरती है। प्रत्येक उठती हुई तरंग के साथ एक पतन है, प्रत्येक पतन के साथ एक उठती हुई तरंग है। समस्त ब्रह्माण्ड एकरूप होने के कारण, सर्वत्र एक ही नियम लागू होगा। अतएव हम देखते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक समय अपने कारण में लय होने को विवश है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारे, पृथ्वी, मन, शरीर जो कुछ उस ब्रह्माण्ड में है, सबका सब अपने सूक्ष्म कारण में लीन अथवा तिरोभूत हो जाएगा, आपाततः विनष्ट हो जाएगा। पर वास्तव में वे सब अपने कारण में सूक्ष्म रूप में रहेंगे। इन सूक्ष्म रूपों में से पुनः बाहर निकलेंगे और पुनः पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य यहाँ तक कि समस्त जगत् की सृष्टि होगी।
इस उत्थान और पतन के बारे में और भी एक विषय जानने का है। वृक्ष से बीज होता है किन्तु वह उसी समय फिर से वृक्ष नहीं हो जाता। उसे कुछ विश्राम अथवा अति सूक्ष्म उपयुक्त कार्य के समय की आवश्यकता होती है। बीज को कुछ दिन तक मिट्टी के नीचे रहकर कार्य करना होता है। उसे अपने आपको खण्ड-खण्ड कर देना होता है, मानो अपने को कुछ अवनत करना पड़ता है और इसी अवनति से उसे फिर उन्नति होती है। इसी प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड को भी कुछ समय तक अदृश्य, अव्यक्त भाव से सूक्ष्म रूप से कार्य करना पड़ता है, जिसे प्रलय अथवा सृष्टि के पूर्व की अवस्था कहते हैं। उसके बाद फिर से सृष्टि होती है। जगत् प्रवाह के एक बार अभिव्यक्त होने को अर्थात् उसकी सूक्ष्म रूप में परिणति, कुछ दिन तक उसी अवस्था में स्थिति और फिर से उसके आविर्भाव को-एक कल्प कहते हैं।
समस्त ब्रह्माण्ड इसी तरह कल्पों से चला आ रहा है। वृहत्तम ब्रह्माण्ड से लेकर उसके अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु तक सभी वस्तुएँ इसी प्रकार तरंगाकार में चलती रहती हैं। अब एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है। विशेषतः वर्तमान काल के लिए। हम देखते हैं कि सूक्ष्मतर रूप धीरे-धीरे व्यक्त हो रहे हैं, क्रमशः स्थूल से स्थूलतर होते जा रहे हैं। हम देख चुके हैं कि कारण और कार्य अभिन्न हैं-कार्य केवल कारण का रूपान्तर
मात्र है। अतएव यह समस्त ब्रह्माण्ड शून्य में से उत्पन्न नहीं हो सकता। बिना किसी वजह के वह नहीं आ सकता, इतना ही नहीं, कारण ही कार्य के भीतर सूक्ष्म रूप से वर्तमान है तब यह ब्रह्माण्ड किस वस्तु से उत्पन्न हुआ है? पूर्ववती सूक्ष्म ब्रह्माण्ड से मनुष्य किस वस्तु से उत्पन्न हुआ है? पूर्ववती सूक्ष्म रूप से वृक्ष कहीं से आया? बीज से समूचा वृक्ष बीज में विद्यमान था वह केवल व्यक्त हो गया है।
अतएव यह जगत् ब्रह्माण्ड अपनी ही सूक्ष्मावस्था से उत्पन्न हुआ है। अब वह व्यक्त मात्र हो गया है। वह फिर से अपने सूक्ष्म रूप में चला जाएगा, फिर से व्यक्त होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म रूप व्यक्त होकर स्थूल से स्थूलतर होता जाता है। जब तक कि वह स्थूलता की चरम सीमा तक नहीं पहुँच जाता, परम सीमा पर पहुँचकर वह पुनः उलटकर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होने लगता है, यह सूक्ष्म से आविर्भाव, क्रमशः स्थूल से स्थूलतर में परिणति-जैसे केवल उसके अंशों का अवस्था परिवर्तन है। बस इसी को आजकल ‘क्रम विकासवाद’ कहते हैं। यह बिल्कुल सत्य है-सम्पूर्ण रूप से सत्य है, हम अपने जीवन में यह देख रहे हैं। इन क्रम विकासवादियों के साथ किसी भी विचारशील व्यक्ति के विवाद की सम्भावना नहीं। पर हमें और भी एक बात जाननी होगी वह यह कि प्रत्येक क्रम विकास से पहले एक क्रम संकोच की प्रतिक्रिया विद्यमान रहती है।
बीज वृक्ष का जनक अवश्य है, किन्तु एक और वृक्ष उस बीज का जनक है। बीज ही वह सूक्ष्म रूप है, जिसमें से वृहत्तर वृक्ष निकलता है और एक दूसरा प्रकाण्ड वृक्ष था, जो इस बीज में क्रम संकुचित रूप में वर्तमान है। सम्पूर्ण वृक्ष इसी बीज में विद्यमान है। शून्य में से कोई वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता। हम देखते हैं कि वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है और विशेष प्रकार के बीज से विशेष प्रकार का ही वृक्ष उत्पन्न होता है, दूसरा वृक्ष नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि उस वृक्ष का कारण यह बीज है केवल यही बीज और इस बीज में सम्पूर्ण वृक्ष रहता है। समूचा मनुष्य इस एक बीजाणु के अन्दर है, और यह बीजाणु धीरे-धीरे अभिव्यक्त होकर मानवाकार में परिणत हो जाता है। सारा ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में रहता है। सभी कुछ अपने कारण में, अपने सूक्ष्म रूप में रहता है। अतएव क्रम विकासवाद-स्थूल से स्थूलतर रूप में क्रमाभिव्यक्ति बिल्कुल सत्य है। पर इसके साथ यह भी समझना होगा कि प्रत्येक क्रम विकास के पूर्व क्रम संकोच की एक प्रतिक्रिया रहती है, अतएव जो क्षुद्र अणु बाद में महापुरुष बना, वह वास्तव में उसी महापुरुष की क्रम संकुचित अवस्था है। वही बाद में महापुरुष रूप में क्रम विकसित हो जाता है।
अगर यह सत्य हो, तो फिर क्रम विकासवादियों के साथ हमारा कोई विवाद नहीं, क्योंकि हम क्रमशः देखेंगे कि अगर वे लोग इस क्रम संकोच की प्रक्रिया को स्वीकार कर लें, तो वे धर्म के नाशक न हो उसके प्रबल सहायक हो जाएंगे। अब तक हमने देखा कि शून्य से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती, सभी वस्तुएँ अनन्त काल से हैं
और अनन्त काल तक रहेंगी। कंवल तरंगों की भाँति ये एक बार उठती है, फिर गिरती हैं। एक बार सूक्ष्म, अव्यक्त रूप में जाना, फिर स्थूल व्यक्त रूप में आना सारी प्रकृति में यह कम संकोच और कम विकास की क्रिया चल रही है। जीवन की निम्नतम अभिव्यक्ति से लेकर पूर्णतम मनुष्य में उसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति की श्रेणी किसी अन्य वस्तु का क्रम संकोच अवश्य रही है।
अब प्रश्न यह है-यह किसका क्रम संकोच होगा? कौन-सा पदार्थ क्रम संकुचित हुआ या ईश्वर! क्रम विकासवादी लोग कहेंगे कि तुम्हारी ईश्वर सम्बन्धी धारणा भूल है। कारण, तुम लोग कहते हो कि ईश्वर बुद्धियुक्त है, पर हम तो प्रतिदिन देखते हैं कि बुद्धि बहुत बाद में आती है। मनुष्य अथवा उच्चतर जन्तुओं में ही हम वृद्धि देखते हैं, पर इस बुद्धि का जन्म होने से पहले इस जगत् में लाखों वर्ष बीत चुके हैं। जो भी हो, तुम इन क्रम विकासवादियों की बातों से मत डरो, तुमने अभी जिस नियम की खोज की है, उसका प्रयोग करके देखो, क्या सिद्धान्त निकलता है? तुमने देखा है कि बीज से ही वृक्ष का उदभव है और बीज में ही उसकी परिणति । इसलिए आरम्भ और अन्त समान हुए।
पृथ्वी की उत्पत्ति उसके कारण से है और उस कारण में ही उसका विलय है। सभी वस्तुओं के सम्बन्ध में यही बात है-हम देखते हैं कि आदि और अन्त दोनों समान हैं। इस श्रृंखला का अन्त कहाँ है? हम जानते हैं कि आरम्भ जान लेने पर हम अन्त भी जान सकते हैं। इसी प्रकार अंत जान लेने पर आदि भी जाना जा सकता है। इस समस्त ‘क्रम ‘विकासशील’ जीवन प्रवाह की श्रृंखला को, जिसका एक छोर जीव सार है और दूसरा पूर्ण मानव, एक ही वस्तु के रूप में लो। यह सम्पूर्ण श्रेणी एक ही जीवन है। इस श्रेणी के अन्त में हम पूर्ण मानव को देखते हैं, अतएव आदि में वह भी होगा ही। यह निश्चित है। अतएव यह जीवन सार अवश्य उच्चतम बुद्धि की क्रम संकुचित अवस्था है। तुम इसे स्पष्ट रूप से भले ही न देख सको, मगर वास्तव में यह क्रम संकुचित बुद्धि ही अपने को व्यक्त कर रही है और इसी तरह खुद को व्यक्त करती रहेगी, जब तक वह पूर्णतम् मानव के रूप में व्यक्त नहीं हो जाएगी। यह तत्त्व गणित के द्वारा निश्चित रूप से प्रमाणित किया जा सकता है।
यदि ऊर्जा संधारणवाद सत्य हो तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि यदि तुम किसी मशीन में पहले कुछ न डालो, तो उससे तुम कोई शक्ति प्राप्त न कर सकोगे। इंजन में पानी और कोयले के रूप में जितनी शक्ति डालोगे, ठीक उसी परिमाण में तुम्हें उसमें से शक्ति मिल सकती है। उससे थोड़ी-सी भी कम या अधिक नहीं। मैंने अपनी देह में वायु, खाद्य और अन्यान्य पदार्थों के रूप में जितनी शक्ति का प्रयोग किया है, बस उतने ही परिमाण में मैं कार्य करने में समर्थ होऊंगा। ये शक्तियाँ अपना रूप मात्र बदल लेती हैं। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में हम जड़ तत्त्व का एक परमाणु या शक्ति का एक क्षुद्र अंश भी
घटा-बढ़ा नहीं सकते। अगर ऐसा हो तो फिर यह बुद्धि हैक्याची गरज सार में वर्तमान न हो, तो यह मानना पड़ेगा कि उसकी उत्पत्ति अवश्य है तब तो साथ ही, हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि असत् (कुछ नहीं) से (कुछ) की उत्पत्ति होती है, पर यह बिल्कुल असंभव है। अतएव यह बात निसन्देह रूप से प्रमाणित होती है कि जैसा हम अन्यान्य विषयों में देखते जहाँ से आरम्भ होता है, अन्त भी वहीं होता है।
लेकिन हाँ कभी वह अव्यक्त रहता है और कभी व्यक्त बस, इसी तरह कह पूर्ण मानव, मुक्त पुरुष, देव मानव जो प्रकृति के नियमों से बाहर चला गया है, जो सबके लिए अतीत हो गया है। जिसे इस जन्म-मृत्यु के चक्र में पुनः नहीं घूमना पड़ता, जिसे ईसाई ईसा मानव, बौद्ध बुद्ध-मानव और योगी मुक्त-पुरुष कहते हैं-इस श्रृंखला का एक छोर है और यही क्रम संकुचित होकर उसके छोर में जीव सार के रूप में वर्तमान है। इस सिद्धान्त को सम्पूर्ण जगत् पर लागू करने से हम देखते हैं कि बुद्धि ही सृष्टि की प्रभु है, जगत् के विषय में मानव की चरम धारणा क्या हो सकती है?
यह है, बुद्धि बुद्धि की अभिव्यक्ति जगत के एक भाग का दूसरे भाग से समायोजन। प्राचीन सृष्टि रचनावाद इसी की अभिव्यक्ति का एक प्रयास है। हम जड़वादियों के साथ यह मानने को तैयार हैं कि बुद्धि ही जगत् की अन्तिम वस्तु है-सृष्टि क्रम में यही अन्तिम विकास है, पर साथ ही हम यह भी कह सकते हैं कि अगर यह अन्तिम विकास हो, तो आरम्भ में भी यही वर्तमान थी। जड़वादी कह सकते हैं, ‘अच्छा, ठीक है, पर मनुष्य के जन्म से पहले तो लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, उस समय तो बुद्धि का कोई अस्तित्व नहीं था।’
इस पर हमारा उत्तर है-हाँ, व्यक्त रूप से बुद्धि नहीं थी, किन्तु अव्यक्त रूप में यह अवश्य विद्यमान थी और यह तो एक मानी हुई बात है कि पूर्ण-मानव रूप में प्रकाशित बुद्धि ही सृष्टि का अन्त है। तो फिर आदि क्या होगा? आदि भी बुद्धि ही होगी। पहले वह बुद्धि क्रम संकुचित होती है, अन्त में वही फिर क्रम विकसित होती है। अतएव इस जगत् ब्रह्माण्ड में जो बुद्धि अब अभिव्यक्त हो रही है। उसकी समष्टि अवश्य उस क्रम संकुचित, सर्वव्यापी बुद्धि की ही अभिव्यक्ति है। इसी सर्वव्यापी, विश्व जनित बुद्धि का नाम है, ईश्वर!
उसे फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, इतना तो निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी बुद्धि थी। वह विश्व जनित बुद्धि क्रम संकुचित हुई थी और वही अपने को क्रमशः अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव या ईसा मानव या बुद्ध मानव में परिणत नहीं हो जाती। तब वह फिर से अपने उत्पत्ति स्थान में लीट जाएगी। इसीलिए सभी शास्त्र कहते हैं-‘हम उनमें जीवित हैं, उनमें ही रहकर चलते हैं,
उन्हीं में हमारी सत्ता है।’ इसीलिए सभी शास्त्र घोषणा करते हैं-हम ईश्वर से आये हैं, फिर उन्हीं में लौट जाएंगे।”
विभिन्न धार्मिक परिभाषाओं से मत डरो, अगर परिभाषा से ही डरने लगे, तो फिर तुम दार्शनिक न बन सकोगे। ब्रह्मवादी इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं। मुझसे कई बार पूछा गया- आप क्यों इस पुराने ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं?” तो इसका उत्तर यह है कि पूर्वोक्त विश्वव्यापी बुद्धि को समझाने के लिए यही सर्वोत्तम है। इससे शब्द में केन्द्रित हैं। अब इस शब्द को बदलना असंभव है। इस प्रकार के शब्द पहले-पहल 1 1 और कोई शब्द नहीं मिल सकता, क्योंकि मनुष्य की सारी आशाएँ और सुख इसी अच्छा बड़े-बड़े साधु-महात्माओं द्वारा कहे गये थे और वे इन शब्दों का तात्पर्य अच्छी तरह समझते थे। धीरे-धीरे जब समाज में उन शब्दों का प्रचार होने लगा, तब अन्य लोग भी उन शब्दों का प्रयोग करने लगे।’
इसका परिणाम यह हुआ कि शब्दों की महिमा घटने लगी। स्मरणातीत काल से ईश्वर शब्द का व्यवहार होता आया है। सर्वव्यापी बुद्धि का भाव तथा जा कुछ महान और पवित्र है, सब इसी शब्द में निहित है। अगर कोई मूर्ख शब्द का व्यवहार करने में आपत्ति करता हो, तो क्या इसलिए हमें इस शब्द को त्याग देना होगा?
एक दूसरा व्यक्ति भी आकर कह सकता है-‘मेरे इस शब्द को लो। फिर तीसरा भी अपना एक शब्द लेकर आएगा। अगर यही क्रम चलता रहा, तो ऐसे व्यर्थ शब्दों का कोई अन्तर नहीं होगा। इसलिए मैं कहता हूँ कि उस पुराने शब्द का ही व्यवहार करो, मन के अन्धविश्वासों को दूर कर इस महान् प्राचीन शब्द के अर्थ को ठीक ढंग से समझकर, उसका और भी उत्तम रूप से व्यवहार करो।
अगर तुम लोग समझते हो कि भाव-साहचर्य विधान किसे कहते हैं, तो तुमको पता चलेगा कि इस शब्द के साथ कितने ही महान् ओजस्वी भावों का संयोग है, लाखों मनुष्यों ने इस शब्द का व्यवहार किया है, करोड़ों आदमियों ने इस शब्द की पूजा की है और जो कुछ सर्वोच्च एवं सुन्दरतम् है, जो कुछ युक्तियुक्त, प्रेमास्पद और मानवी भावों में महान और सुन्दर है, वह समस्त इस शब्द से सम्बन्धित है। अतएव यह इन सब साहचर्य भावों का संकेत देने वाला कारण है, अतएव इसका त्याग नहीं किया जा सकता। जो भी हो, यदि मैं तुम लोगों को केवल यह कहकर समझाने की चेष्टा करता कि ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की है, तो तुम लोगों के निकट उसका कोई अर्थ न होता।
फिर भी इस सब विचार आदि के बाद हम उस प्राचीन पुरुष के पास ही पहुँचे। अतः हम देखते हैं कि जड़, शक्ति, मन, बुद्धि या अन्य दूसरे नामों से परिचित विभिन्न जागतिक शक्तियाँ उस विश्वव्यापी बुद्धि की ही अभिव्यक्ति हैं, जो कुछ तुम देखते हो, सुनते हो या अनुभव करते हो, सब उसी की सृष्टि है-ठीक कहें, तो उसी का प्रक्षेप है,
और भी ठीक कहें, तो सब कुछ स्वयं प्रभु ही है। सूर्य और चराओं के रूप में वही उज्ज्वल भाव से विराज रहा है, वही धरती माता है, वहीं सागर है। वही बादलों के रूप में बरसता है, वहीं मृदु पवन है, जिससे हम सांस लेते हैं, वही शक्ति बनकर हमारे शरीर में कार्य कर रहा है। वही भाषण है, भाषणदाता है, फिर सुनने वाला भी वही है। वही यह मंच है, जिस पर मैं खड़ा हूँ, फिर सुनने वाला भी वही है। वहीं यह आलोक है, जिससे में तुम्हें देख पा रहा हूँ, यह समस्त वही है।
वह जगत् का उपादान और निमित्त कारण है, क्रम संकुचित होकर वही अणु का रूप धारण करता है, फिर वही क्रम विकसित होकर पुनः ईश्वर बन जाता है। वही धीरे-धीरे अवनत होकर क्षुद्रतम् परमाणु हो जाता है, फिर वही धीरे-धीरे अपना स्वरूप प्रकाशित
करता हुआ अन्त में पुनः अपने साथ युक्त हो जाता है-बस यही जगत् का रहस्य है। ‘तुम्हीं पुरुष हो, तुम्हीं स्त्री हो, यौवन के गर्व से भरे हुए भ्रमणशील नवयुवक भी तुम्ही हो, फिर तुम्हीं बुढ़ापे में लाठी के सहारे लड़खड़ाते हुए मनुष्य हो, तुम्हीं समस्त वस्तुओं में हो। हे प्रभु तुम्हीं सब कुछ हो।’
जगत् प्रपंच की सिर्फ इसी व्याख्या से मानव युक्ति मानव बुद्धि परितृप्त होती है। सारांश यह है कि हम उसी से जन्म लेते हैं, उसी में जीवित रहते हैं और उसी में लौट जाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त का सिद्धान्त कैसा हुई
स्वामी विवेकानन्द जी ने 20 अक्टूबर, सन् 1896 ई० को अपने श्रोताओं को लंदन मैं सम्बोधित करते हुए कहा-
हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त का एक आधारभूत सिद्धान्त मायावाद बीज रूप से महिताओं में भी देखा जाता है, और जिन विचारों का विकास उपनिषदों में हुआ है, ये वस्तुतः किसी न किसी रूप में संहिताओं में विद्यमान है। तुममें से बहुत से लोग माया की धारणा से तो परिचित हो ही गये होंगे, साथ ही यह भी जान गये होंगे कि प्रायः लोग भ्रान्तिवश माया को भ्रम कहकर उसकी व्याख्या करते हैं। अतएव जब जगत् को माया कहते हैं, तो उसे भी भ्रम कहकर उसकी व्याख्या करनी पड़ती है। लेकिन माया को भ्रम के अर्थ में लेना उचित नहीं। माया कोई विशेष सिद्धान्त नहीं है, वह तो यह संसार जैसा है, केवल उसका तथ्यात्मक कथन है। इस माया को समझने के लिए हमें सहिताओं तक जाना होगा, और उसके मूल बीज का अर्थ समझना होगा।
हम यह देख चुके हैं कि लोगों में देवताओं का ज्ञान किस तरह आया। साथ ही हम यह भी जानते हैं कि ये देवता पहले केवल शक्तिशाली व्यक्ति मात्र थे। तुम लोगों में मैं अनेक ग्रीक, हिब्रू, पारसी अथवा अन्य जातियों के लोग प्राचीन शास्त्रों में यह पढ़कर भयभीत हो जाते हो कि देवता लोग कभी-कभी ऐसा कार्य करते थे, जो हमारी दृष्टि में अत्यन्त घृणित है, मगर हम यह भूल जाते हैं कि हम लोग उन्नीसवीं शताब्दी के हैं और देवतागण हजारों वर्ष पहले के जीव थे और हम यह भी भूल जाते हैं कि इन सब देवताओं के उपासक लोग उनके चरित्र में कुछ भी असंगत बात नहीं देख पाते थे और वे जिस ढंग से अपने उन देवताओं का वर्णन करते थे, उससे उन्हें कुछ भी भय नहीं होता था, क्योंकि वे सब देवता उन्हीं के अनुरूप थे।
हम लोगों को आजीवन यही बात सीखनी होगी कि हर व्यक्ति की परख उसके अपने आदर्शों के अनुसार करनी चाहिए। दूसरों के आदर्शों के अनुसार नहीं। ऐसा न करके हम दूसरों को अपने आदर्शों की दृष्टि से देखते हैं, यह उचित नहीं। अपने आस-पास रहने वाले लोगों के साथ हमारी जो कुछ भी अनबन हो जाती है, वह अधिकतर इसी कारण से होती है कि हम दूसरे के देवता को अपने देवता द्वारा, दूसरों के आदर्शों को अपने
आदशों द्वारा और दूसरों के उद्देश्य को अपने उद्देश्य द्वारा परखने की चेष्टा करते हैं। विशेष परिस्थितियों से विवश होकर मान तो मैंने कोई एक विशेष
कुछ किया और जब में देखता हूँ कि एक दूसरा व्यक्ति वही काम कर रहा है, तो मैं सोच लेता है, कि उसका भी वही उद्देश्य है। मेरे मन में यह बात एक बार भी नहीं उठती कि यद्यपि फल एक हो सकता है, तब भी एक फल के उत्पन्न करने वाले भिन्न-भिन्न हजार कारण हो सकते हैं। मैं जिस उद्देश्य से उस काम को करने में प्रवृत्त होता है, अन्य सब लोग उसी काम को अन्य उद्देश्यों से कर सकते हैं। अतएव इन सभी प्राचीन धर्मों पर विचार करते समय हम सामान्यतया जिस तरह दूसरों के सम्बन्ध में विचार करते हैं, देता न करके अपने को प्राचीनकाल के लोगों के जीवन और विचार की स्थिति में रखकर विचार करना चाहिए। काम
प्राचीन व्यवस्था में क्रूर और निष्ठुर जिहोवा के वर्णन से बहुत से लोग भयभीत हो उठते हैं। लेकिन क्यों? लोगों को यह कल्पना करने का क्या अधिकार है कि प्राचीन यहूदियों का जिहोवा आधुनिक रूढ़िगत कल्पना के ईश्वर के समान होगा? और साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे बाद जो लोग आएंगे, वे उसी तरह हमारे धर्म और ईश्वर को धारणा पर हँसेंगे, जिस तरह हम प्राचीन लोगों के धर्म और ईश्वर की धारणा पर हँसते हैं। यह सब होने पर भी, इन सब विभिन्न ईश्वर सम्बन्धी धारणाओं का संयोग
करने वाला एक स्वर्णसूत्र है और वेदान्त का उद्देश्य है इस सूत्र की खोज करना भगवान् कृष्ण ने कहा है-“जिस प्रकार विभिन्न मणियों एक सूत्र में पिरोयी हुई होती हैं, उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र विद्यमान है।
आजकल की धारणाओं की दृष्टि में वे सब प्राचीन धारणाएँ कितनी ही श्रीम भयानक अथवा घृणित क्यों न मालूम पड़ें, वेदान्त का कर्तव्य उन सभी प्राचीन धारणाओं एवं सभी वर्तमान धारणाओं के भीतर इस संयोग-सूत्र की प्रतिष्ठा करनी है। प्राचीनकाल की जीविका में वे धारणाएं संगत मालूम पड़ती हैं और ऐसा लगता है कि हमारी वर्तमान धारणाओं से वे अधिक वीभत्स नहीं थीं। उनकी वीभत्सता हमारे सामने तभी प्रकट होती है, जब हम उनको उनकी जीविका से अलग करके उन पर अपनी परिस्थितियाँ लागू करते हैं। जिस तरह प्राचीन यहूदी आज तीक्ष्ण बुद्धि यहूदी में परिणत हो गया है और प्राचीन आर्य आज के बुद्धिमान हिन्दू में विकसित हो गया है, उसी तरह जिहोवा के एक अन्य देवता का भी विकास हुआ है। हम यह महान् भूल करते हैं कि हम उपासक का क्रम-विकास तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उपास्य का नहीं।
हम जिस तरह उपासकों को उन्नति का श्रेय देते हैं, उसी प्रकार उपास्य को नहीं देना चाहते। तात्पर्य यह कि हम-तुम जिस तरह कुछ विशिष्ट भावों के प्रतीक होने के नाते, उन भावों के विकास के साथ-साथ विकसित हुए हैं, उसी प्रकार देवतागण भी विशेष विशेष
भावों के प्रतीक होने के कारण, उन भावों के साथ विकसित हुए हैं। तुम शायद यह आश्चर्य करो कि ईश्वर का भी कहीं विकास होता है? उनका विकास नहीं हो सकता, वह तो अपरिणामी है, इसी प्रकार यथार्थ मनुष्य का भी कभी विकास नहीं होता, किन्तु 1 की ईश्वर विषयक धारणाएँ नित्य परिवर्तित और विकसित हो रही है। मनुष्य
आगे चलकर हम देखेंगे कि हरएक मानवी अभिव्यक्ति के पीछे जो यथार्थ मनुष्य है, वह अचल अपरिणामी, शुद्ध और नित्य युक्त है और उसी प्रकार हमारी ईश्वर सम्बन्धी धारणा सिर्फ एक अभिव्यक्ति ह-हमारे मन की सृष्टि है। इन समस्त अभिव्यक्तियों के • पीछे प्रकृत ईश्वर है जो नित्य शुद्ध, अपरिणामी और अजर है, किन्तु ये सब अभिव्यक्तियाँ सर्वदा ही परिणामशील हैं-ये अपने अन्तरालस्थ सत्य को अधिकाधिक प्रकाशित करती है। वह सत्य जब अधिक परिणाम में अभिव्यक्त होता है, तब उसे उन्नति, और जब उसका अधिकांश ढका हुआ या अनभिव्यक्त रहता है, तब उसे अवनति कहते हैं।
• इस प्रकार जैसे-जैसे हमारा विकास होता है, वैसे ही बसे देवताओं का भी होता है। सीधे शब्दों में जैसे-जैसे हमारी उन्नति होती है, जैसे-जैसे हमारा स्वरूप प्रकाशित होता हैं, वैसे-वैसे देवता भी अपना स्वरूप प्रकाशित करते जाते हैं। अब हम मायावाद को समझ सकेंगे। संसार के सभी धर्मों ने इस प्रश्न को उठाया है कि संसार में यह असामंजस्य क्यों है? संसार में क्यों यह अशुभ है?
आदिम धर्मभाव के आविर्भाव के समय हम इस प्रश्न को उठते नहीं देखते, इसका कारण यह है कि आदिम मनुष्य को संसार असामंजस्यपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ। उसके लिए परिस्थितियों में कोई असामंजस्य नहीं था, किसी प्रकार का मत विरोध नहीं था, भले-बुरे की कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। उसके हृदय में केवल दो बातों का संग्राम हो रहा था। एक कहती थी- यह करो और दूसरी उसे करने से मना करती थी। आदिम मानव संवेगों का दास था। उसके मन में जो आता था, वही शरीर से करा डालता था। वह इन संवेगों के सम्बन्ध में विचार करने अथवा उनका संयम करने की जरा भी कोशिश नहीं करता था। इन सब देवताओं के सम्बन्ध में भी यही बात है, ये लोग भी अपने संवेगों के अधीन थे। इन्द्र आया और उसने दैत्य बल को छिन्न-भिन्न कर दिया।
जिहोवा किसी के प्रति संतुष्ट था, तो किसी से रुष्ट, क्यों? यह कोई भी नहीं जानता, जानना भी नहीं चाहता। इसका कारण यह है कि उस समय लोगों में अनुसन्धान की प्रवृत्ति ही नहीं जगी थी, इसलिए ये जो कुछ भी करते, वही उचित था। उस समय भले-बुरे की कोई धारणा नहीं थी। हम जिन्हें बुरा कहते हैं, ऐसे बहुत से कार्य देवता लोग करते थे। हम वेदों में देखते हैं कि इन्द्र और अन्यान्य देवताओं ने अनेक बुरे कार्य किये हैं, मगर इन्द्र के उपासकों की दृष्टि में पाप या बुरा काम कुछ भी न था अतः वे इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते थे। नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ-साथ मनुष्य के मन
में एक संग्राम प्रारम्भ हुआ। मनुष्य में मानो एक नयी इन्द्रिय का आविर्भाव हुआ। भिन्न-भिन्न भाषाओं और भिन्न-भिन्न जातियों ने इसे भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं, कोई
कहता है-यह ईश्वर की वाणी है, और कोई कहता है कि यह पहले की शिक्षा का फ है। जो भी हो, उसने मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को दमन करने वाली शक्ति के रूप में काम किया। हमारे मन का एक संवेग कहता है, करो, इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है, जो कहता है मत करो हमारे मन में धारणाओं का एक समूह है, जो सर्वदा इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता रहता है। उनके पीछे, चाहे कितना ही क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है-बाहर मत जाना।
इन दो बातों के संस्कृत नाम हैं–प्रवृत्ति और निवृत्ति । प्रवृति ही हमारे सभी कमों का मूल है। निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है। धर्म आरम्भ होता है इस ‘मत करना’ से आध्यात्मिकता भी इस मत करना’ से ही आरम्भ होती है। जहाँ यह ‘मत करना नहीं है, वहाँ समझना कि धर्म शुभ नहीं हुआ। इस मत करना’ से ही निवृत्ति का भाव आ गया और जिससे परस्पर युद्ध में रत देवतागण आराधित होने पर भी मनुष्य की धारणाएँ विकसित होने लगीं। अब मनुष्य के हृदय में कुछ प्रेम जागृत हुआ। अवश्य ही उसकी मात्रा बहुत कम थी और आज भी यह मात्रा कोई अधिक नहीं है। पहले-पहल यह प्रेम कबीले तक सीमित रहा। ये सब देवता अपने कबीले से प्रेम करते थे। प्रत्येक देवता एक-एक कबीले का देवता था और उस विशिष्ट कबीले का रक्षक मात्र था और जिस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों के विभिन्न वंशीय लोग अपने को एक पुरुष विशेष का वंशज कहते हैं, जो उस वंश का प्रतिष्ठाता होता है, उसी प्रकार कभी-कभी किसी कबीले के लोग अपने को अपने देवता का वंशज समझते थे।
प्राचीन काल में कुछ ऐसे लोग थे, और आज भी हैं, जो खुद को न केवल इस कबीला-सम्बन्धी देवताओं का वंशज होने का दावा करते, बल्कि चन्द्र या सूर्य का भी वंशज कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में तुमने बड़े-बड़े सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी वीर सम्राटों की कथाएं पढ़ी होंगी। ये लोग पहले चन्द्र या सूर्य के उपासक थे, और बाद में ये अपने को चन्द्र या सूर्य का वंशज कहने लगे। अतः जब यह कबीले का भाव आने लगा, तब किंचित प्रेम जागा, एक-दूसरे के प्रति कुछ कर्तव्य भाव आया, कुछ सामाजिक श्रृंखला की उत्पत्ति हुई और इसके साथ ही साथ यह भावना भी आने लगी कि एक-दूसरे का दोष सहन या क्षमा किये बिना हम कैसे एक साथ रह सकेंगे? एक-न-एक समय अपनी प्रवृत्तियों का संयम किए बिना मनुष्य भला किस तरह दूसरों के साथ, यहाँ तक कि एक भी व्यक्ति के साथ रह सकता है? यह असंभव है। बस इसी तरह संयम की भावना आयी।
इस संयम की भावना पर ही सम्पूर्ण सामाजिक रचना आधारित है और हम जानते हैं कि जिन नर-नारियों ने इस सहिष्णुता या क्षमा-रूपी महान् पाठ को नहीं पढ़ा है, वे
अत्यन्त कष्ट में जीवन व्यतीत करते हैं। अतएव जब इस प्रकार धर्म का भाव आया, तब मनुष्य के मन में एक अपेक्षाकृत उच्चतर एवं अधिक गतिसंगत भाव की झलक उठी। तब ये अपने उन्हीं प्राचीन देवताओं से चंचल, लड़ाकू, शराबी, गोमांसाहारी देवताओं में, जिनको जले मांस की गंध और तीव्र सुरा की आहति से ही परम आनन्द मिलता था- कुछ • असंगति देखने लगे। कभी-कभी इंद्र इतना मद्यपान कर लेता था कि वह अचेत होकर गिर पड़ता और अण्ट शण्ट बकने लगता।
इस तरह के देवताओं को अब सहन नहीं किया जा सकता। तब उद्देश्यों के सम्बन्ध में पूछताछ करने का भाव जागृत हुआ और देवताओं को कार्यों के उद्देश्य भी पूछे जाने लगे। अमुक देवता के अमुक कार्य का क्या उद्देश्य है? कोई उद्देश्य नहीं मिला। इसीलिए लोगों ने उन सब देवताओं का त्याग कर दिया, अथवा दूसरे शब्दों में वे फिर देवताओं के विषय में और भी उच्च धारणाएँ बनाने लगे। उन्होंने देवताओं के समस्त कार्यों और गुणों का मानो परीक्षण किया और जिन कार्यों को वे संगत नहीं कर सके, उन्हें त्याग दिया तथा जो अच्छे थे, जिन्हें वे समझ सकते थे, एकत्र किया और इन अच्छे-अच्छे भावों की समष्टि को उन्होंने एक नाम ‘देवदेव’ या देवताओं का देवता दे दिया। तब उनके उपास्य देवता केवल शक्ति के परिचायक मात्र नहीं रहे, शक्ति से अधिक और भी कुछ उनके लिए जरूरी हो गया। अब वे नीतिपरायण देवता हो गये। वे मनुष्यों से प्रेम करने लगे, मनुष्यों का हित करने लगे।
लेकिन देवता सम्बन्धी धारणा फिर भी अक्षुण्ण रही। उन लोगों ने देवता की नैतिक सार्थकता तथा शक्ति को केवल बढ़ा भर दिया। अब वे देवता संसार में सर्वश्रेष्ठ नीति परायण तथा एक तरह से सर्वशक्तिमान भी हो गए। किन्तु यह जोड़-गांठ कब तक चल सकती थी? जैसे-जैसे व्याख्या सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती गयी, वैसे-वैसे जगत् रहस्य के समाधान करने में कठिनाई मानो और भी बढ़ती गई। देवता अथवा ईश्वर के गुण यदि गणितीय क्रम के नियम से बढ़ने लगे, तो सन्देह और कठिनाइयाँ ज्यामितीय क्रम के नियम से बढ़ने लगीं।
निष्ठुर जिहोवा के साथ जगत् का सामंजस्य स्थापित करने में जो कठिनाई होती थी, उससे भी अधिक कठिनाई ईश्वर सम्बन्धी नवीन धारणा के साथ जगत् का सामंजस्य स्थापित करने में होने लगी और यह कठिनाई आज तक बनी है। सर्वशक्तिमान और प्रेममय ईश्वर के राज्य में ऐसी पैशाचिक घटनाएँ क्यों घटती हैं? सुख की अपेक्षा दुःख इतना अधिक क्यों है? साधु भाव जितना है, असाधु भाव उससे इतना अधिक क्यों है? संसार में कुछ भी अशुभ नहीं है, ऐसा समझकर भले ही हम आंखें बन्द करके बैठे रहें, पर यह तथ्य तो बना ही रहता है कि यह संसार एक वीभत्स संसार है।
अधिक हुआ तो यह संसार बस टैन्टालस के नरक के समान है। उससे किसी अंश
में यह अच्छा नहीं। यहाँ हम हैं प्रदत प्रवृत्तियों लिए और इन्द्रियों को परितार्थ करने को प्रवनतर वासनाएँ लिए, किन्तु उनकी पूर्ति का कोई उपाय नहीं हमारी अपनी बावजूद हममें एक तरंग उठती है, जो हमें आगे बढ़ने को विवश करती है, परन्तु जैसे ही हम एक पांच आगे बढ़ाते हैं, वैसे ही एक चक्का लगता है। हम सभी दाल की भाँति इस जगत में जीवित रहने को मानो विधि-विधान से अभिशप्त हैं। पचन्द्रिय द्वारा सीमाबद्ध जगत से अतीत के आदर्श हमारे मस्तिष्क में आते हैं, पर उन्हें हम कार्य में परिणत नहीं कर सकते। दूसरी ओर हम अपने चारों ओर की परिस्थिति के चक्र में पिसते जाते हैं। फिर अगर में आदर्श प्राप्ति की चेष्टा का परित्याग कर केवल सांसारिक भाव को लेकर रहना चाहें, तो मुझे पशु-जीवन बिताना पड़ता है और में अपने को पवित्र और गर्हित कर लेता हूँ। इसलिए किसी भी तरफ सुख नहीं।
जो लोग इस संसार में जिस अवस्था में उत्पन्न हुए हैं, उसी अवस्था में रहना चाहते हैं, उनके भाग्य में भी दुःख है और जो लोग सत्य और उच्चतर आदर्श के लिए इस पाशविक जीवन की अपेक्षा कुछ उन्नत जीवन के लिए आगे बढ़ने का साहस करते हैं, उनके लिए तो और भी हजार गुना अधिक दुःख हैं। यही वस्तुस्थिति है, किन्तु इसको कोई व्याख्या नहीं, व्याख्या हो भी नहीं सकती। पर वेदान्त इससे बाहर निकलने का मार्ग बतलाता है। ये सब भाषण देते समय शायद मुझे कुछ ऐसी बातें भी कहनी पड़ें, जिनसे तुम भयभीत हो जाओ, किन्तु जो कुछ मैं कह रहा हूँ, उसे अगर तुम याद रखो, भली-भांति आत्मसात् कर लो और उसके सम्बन्ध में दिन-रात चिन्तन करो, तो वह तुम्हारे भीतर बैठ जाएगी, तुम्हारी उन्नति करेगी और सत्य को समझने तथा सत्य में प्रतिष्ठित होने में तुमको समर्थ बनाएगी।
यह एक तथ्यात्मक वर्णन है कि यह संसार टेन्टालस का नरक है, और हम इस जगत् के बारे में कुछ भी नहीं जानते, लेकिन साथ ही हम यह भी तो नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। जब मैं सोचता हूँ कि मैं जगत श्रृंखला के बारे में नहीं जानता, तो मैं यह नहीं कह सकता कि इसका अस्तित्व है। वह मेरे मस्तिष्क का पूर्ण भ्रम हो सकता है। हो सकता है, मैं केवल स्वप्न देख रहा हूँ, मैं स्वप्न देख रहा हूँ कि मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ और तुम मेरी बात सुन रहे हो। कोई भी यह सिद्ध नहीं कर सकता कि यह स्वप्न नहीं है।
मेरा मस्तिष्क भी तो एक स्वप्न हो सकता है और वास्तव में अपना मस्तिष्क किसने देखा है? वह तो केवल हमने मान लिया है। सभी विषयों के सम्बन्ध में भी यही बात है। अपने शरीर को भी तो हम मान ही लेते हैं। फिर हम यह भी नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। ज्ञान और अज्ञान के बीच की यह अवस्था, यह रहस्यमय पहेली, यह सत्य और मिथ्या का मिश्रण-कहाँ लाकर इनका मिलन हुआ है, कौन जाने? हम स्वप्न में विचरण कर रहे हैं, अर्धनिद्रित, अर्धजागृत जीवन भर एक पहेली में आबद्ध, हममें से
प्रत्येक की बस यही दशा है। सारे इन्द्रिय-ज्ञान की यही दशा है। सारे दर्शनों की, सारे विज्ञान की, सब तरह के मानवीय ज्ञान की, जिनको लेकर हमें इतना अहंकार है, सबकी बस यही दशा यही नतीजा है। बस यही जगत है।
“चाहे जड़ पदार्थ कहो, चाहे चेतन, चाहे आत्मा किसी भी नाम से क्यों न पुकारों, बात एक ही है-हम यह नहीं कह सकते कि यह सब है और यह भी नहीं कह सकते कि यह सब नहीं है। हम इन सबको एक भी नहीं कह सकते और अनेक भी नहीं। यह प्रकाश और अंधकार का खेल यह अविविक्त, अपृथक और अविभाज्य मिश्रण, जिसमें सारी घटनाएं कभी सत्य प्रतीत होती हैं, कभी असत्य -सदा से यही हो रहा है। इसके कारण कभी लगता है कि हम जाग्रत हैं, कभी लगता है कि हम सोये हुए हैं। बस यही माया हूँ, यही वस्तुस्थिति है। इसी माया में हमारा जन्म हुआ है, इसी में हम जीवित हैं, इसी में सोच-विचार करते हैं, इसी में स्वप्न देखते हैं। इसी में हम दार्शनिक है, इसी में साधु हैं, यही नहीं, हम इसी माया में कभी दानव और कभी देवता हो जाते हैं।
विचार के रथ पर चढ़कर चाहे जितनी दूर जाओ, अपनी धारणा को ऊँचे से ऊँचा बनाओ, उसे अनन्त या जो इच्छा हो नाम दो, तो भी यह सब माया के ही भीतर है। इसके विपरीत हो ही नहीं सकता। और मनुष्य का जो कुछ ज्ञान है, वह बस इस माया का ही साधारणीकरण है। इस माया के दिखने वाले स्वरूप को ही जानने का प्रयत्न हैं। यह माया नाम रूप का कार्य है। जिस किसी वस्तु का रूप है, जो भी कुछ तुम्हारे मन में किसी प्रकार के भाव का उद्दीपन कर देता है, वह सब माया के ही अन्तर्गत है। अब हम पुनः यह विचार करें कि उस प्रारम्भिक ईश्वर-धारणा का क्या हुआ?
यह धारणा कि एक ईश्वर अनन्त काल से हमें प्यार कर रहा है, अनन्त सर्वशक्तिमान् और निःस्वार्थ पुरुष है और इस विश्व का शासन कर रहा है, स्पष्ट ही हमें सन्तुष्ट नहीं कर सकती। दार्शनिक साहस के साथ इस सगुण ईश्वर-धारणा के विरुद्ध खड़ा होता है। वह पूछता है तुम्हारा न्यायशील, दयालु ईश्वर कहाँ है? क्या वह अपनी मनुष्य तथा पशु रूप लाखों सन्तानों का विनाश नहीं देखता? कारण, ऐसा कौन है, जो एक क्षण भी दूसरों की हिंसा किए बिना जीवन धारण कर सकता है? क्या तुम सहस्रों जीवों का संहार किए बिना एक सांस भी ले सकते हो? लाखों जीव मर रहे हैं, इसी से तुम जीवित हो तुम्हारे जीवन का प्रत्येक क्षण, तुम्हारा प्रत्येक निःश्वास, हजारों जीवों के लिए मृत्यु है, तुम्हारी प्रत्येक हलचल लाखों का काल है। तुम्हारा प्रत्येक ग्रास लाखों की मौत है।
वे क्यों मरें? इस सम्बन्ध में एक प्राचीन कुतर्क है-‘वे तो अति निम्न जीव है: माना वे ऐसे हैं, पर यह तो एक संदिग्ध विषय है। कौन कह सकता है कि चींटी से मनुष्य श्रेष्ठ है, अथवा मनुष्य चींटी से ? कौन सिद्ध कर सकता है कि यह ठीक है या वह? यदि मान भी लिया जाए कि वे अति निम्न जीव हैं, तो वे क्यों मरें? यदि वे निम्न स्तर के
हैं, तो उनको बचे रहने का तो और भी हक है। वे क्यों न जीवित रहें उनका जीवन इन्द्रियों में ही अधिक आबद्ध है, इस कारण वे तुम्हारी हमारी अपेक्षा हजारों गुना अधिक सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। कुत्ता या भेड़िया जिस चाव के साथ भोजन करते हैं, उस तरह कीन मनुष्य कर सकता है? इसका कारण यह है कि हमारी समस्त कार्य प्रवृत्ति इन्द्रियों में नहीं है-वह बुद्धि में है, आत्मा में है। पर कुत्ते के प्राण इन्द्रियों में ही पड़े रहते हैं, वह इन्द्रिय सुख का उपभोग करता है, हम मनुष्य उस तरह नहीं कर सकते। पर उसका दुःख भी सुख की तरह ही तेज होता है। जितना सुख है, उतना ही दुःख है।
अगर पशु मनुष्य की अपेक्षा तीव्रतर होता है, अतएव मनुष्य को मरने में जो कष्ट होता है, उसकी अपेक्षा सहस्र गुना अधिक कष्ट उन पशुओं को मरने में होता है। फिर भी हम उनके कष्ट की कोई चिन्ता न करते हुए उन्हें मार डालते हैं। यही माया है। अगर हम मान लें कि मनुष्य के समान एक सगुण ईश्वर है, जिसने यह सृष्टि रची
है तो ये सब तयारचित सिद्धान्त और व्याख्याएँ जो यह सिद्ध करने की कोशिश करती हैं कि बुराई से ही भलाई होती है, पर्याप्त नहीं है। उपकार चाहे हजार हो, पर वे उपकार से प्रसूत क्यों हो? इस सिद्धान्त के अनुसार तो मैं अपनी पाँच इन्द्रियों के सुख के लिए दूसरों का गला काट सकता हूँ। अतएव यह कोई उपाय नहीं। बुराई में से भलाई क्यों निकले ? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर नहीं। यह बात भारतीय दर्शन को विवश होकर स्वीकार करनी पड़ी।
वेदान्त सभी धर्मों में सबसे अधिक साहसी था और है। सत्य का अन्वेषण करते हुए वह रुका कहीं भी नहीं। उसको अग्रसर होने में एक सुविधा भी थी। वह यह कि वेदान्त-धर्म के विकास के समय पुरोहित सम्प्रदाय ने सत्यान्वेषियों का मुंह बंद करने का प्रयत्न नहीं किया। धर्म में पूर्ण स्वाधीनता थी। उन लोगों की संकीर्णता थी, सामाजिक रीति-रिवाजों में यहाँ (इंग्लैण्ड में) समाज खूब स्वाधीन है। भारतवर्ष में सामाजिक 1 स्वाधीनता नहीं थी, थी धार्मिक स्वाधीनता । इस देश में कोई चाहे जैसी पोशाक पहने, अथवा जो अच्छा हो करे, कोई कुछ न कहेगा, मगर गिरजाघर में अगर कोई एक दिन न जाए, तो तरह-तरह की बातें उठ खड़ी होंगी।
सत्य का विचार करते समय उसे पहले सोचना पड़ता है कि समाज धर्म पर क्या कहता है। दूसरी ओर, भारतवर्ष में अगर कोई व्यक्ति दूसरी जाति के हाथ का खाना खा ले, तो समाज उसे तुरन्त जातिच्युत कर देगा। पुरखे जैसी पोशाक पहनते थे, उससे थोड़ा सा भी भिन्न रूप से पोशाक पहनते ही बस उसका सर्वनाश ही समझो। मैंने तो यहाँ तक सुना है कि एक व्यक्ति पहली बार रेलगाड़ी देखने गया, इसलिए उसे जातिच्युत कर दिया गया। माना, यह बात सत्य न भी हो, किन्तु हमारे समाज की जाति ही ऐसी है किन्तु धर्म के विषय में देखता
हूँ कि नास्तिक, बौद्धवादी, सब प्रकार के धर्म, एक प्रकार के सम्प्रदाय, अदभूत और बड़े विस्मयकारी मत-मतान्तर साथ-साथ रह रहे हैं। सभी सम्प्रदायों के प्रचारक उपदेश देते फिरते हैं और उनको अनुयायी भी मिलते जाते हैं। और तो और, देव मन्दिरों के द्वार पर ही ब्राह्मण लोग जाड़वादियों को खड़ा होने और उनके मत का प्रचार करने की अनुमति देते हैं। यह बात उनकी उदारता और महत्ता की ही परिचायक है।
भगवान् बुद्ध ने परिपक्व वृद्धावस्था में शरीर त्यागा था। मेरे एक अमेरिकन वैज्ञानिक मित्र बुद्धदेव का चरित्र बहुत रूचिपूर्वक पढ़ते हैं, लेकिन बुद्धदेव की मृत्यु उन्हें अभी नहीं लगती थी, क्योंकि उन्हें सुली पर नहीं चढ़ाया गया था। कैसी भ्रमात्मक धारणा है यह बड़ा आदमी होने की कसौटी क्या है? उसकी हत्या! भारत में इस प्रकार की धारणा कभी प्रचलित नहीं थी। बुद्धदेव ने भारतीय देवताओं तथा जगत् का शासन करने वाले ईश्वर तक की निन्दा करते हुए भारत का भ्रमण किया, और फिर भी वे वृद्धावस्था तक जीवित रहे। वे अस्सी वर्ष तक जीवित रहे और आये देश को उन्होंने अपने धर्म का अनुयायी बना डाला।
चावकों ने बड़े भयंकर मतों का प्रचार किया, जसा कि आज उन्नीसवीं शताब्दी में भी लोग इस प्रकार खुल्लमखुल्ला जड़वाद का प्रचार करने का साहस नहीं करते। इन चार्वाकों को स्वतन्त्रतापूर्वक मन्दिरों और नगरों में प्रचार करने दिया गया कि धर्म मिध्या है, वह केवल पुरोहितों की स्वार्थपूर्ति का एक उपाय है, वेद केवल पाखण्डी, घृतं निशाच की रचना है। न कोई ईश्वर है, न आत्मा। यदि आत्मा है, तो मृत्यु के बाद वह पत्नी-पुत्र आदि के प्रेम में आकृष्ट होकर लौट क्यों नहीं आती? इन लोगों की यह धारणा थी कि अगर आत्मा होती तो मृत्यु के बाद भी उसमें प्रेम आदि की भावनाएं रहती और वह अच्छा खाना और अच्छा पहनना चाहती। ऐसा होने पर भी चार्वाकों को किसी ने सताया नहीं।
भारत में धार्मिक स्वाधीनता का यह उदात्त भाव हमेशा से ही रहा है और तुम ये अवश्य स्मरण रखो कि विकास की पहली शर्त है स्वाधीनता-जिसे तुम बंधन मुक्त नहीं करोगे, वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। अपने लिए शिक्षक की स्वाधीनता रखते हुए अगर कोई सोचे कि वह दूसरों को उन्नत कर सकता है, तो उनकी उन्नति में सहायता दे सकता है और उनका पथ-प्रदर्शन कर सकता है, तो यह एक अर्थहीन विचार है, एक भयानक असत्य बात है, जिसने संसार के लाखों मनुष्यों के विकास में अड़ंगे डाले हैं। तोड़ डालो मानव के बंधन, स्वाधीनता को प्रकाश में आने दो। केवल यही विकास की एकमात्र शर्त है।
भारत में धर्म के विषय में हमने स्वाधीनता दी थी और उसके फलस्वरूप आज भी धर्मजगत् में हमें एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति मिली है। तुम लोगों ने सामाजिक स्वतन्त्रता दी थी, इसलिए तुम्हारा संगठन इतना सुन्दर है। हमें सामाजिक बातों में बिल्कुल स्वतन्त्रता नहीं दी गयी, अतः धार्मिक विश्वास दूसरों पर लादने के लिए तलवारों
और बन्दूकों का उपयोग किया। उसी का फल यह है कि आज युरोप में धर्म इतना और संकीर्ण है। भारत में समाज की बेटी को तोड़ना होगा और यूरोप में धर्म को बी को तभी मनुष्य का आश्चर्यजनक विकास और उन्नति होगी।
अगर हम लोग इस आध्यात्मिक नैतिक या सामाजिक उन्नति में निहित एक का पता लगा सकें, अगर हम जान लें कि ये सब एक ही वस्तु के विभिन्न विकास मात्र है। तो हम देखेंगे कि धर्म अपने पूर्ण अर्थ में हमारे समाज के भीतर अवश्य प्रवेश कर जायेग हमारे जीवन के प्रति मुहूर्त धर्म-भाव से परिपूर्ण से जाएगा। वेदान्त के प्रकाश में तुम समझोगे कि सारे विज्ञान धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियों है और जगत की सारी वस्तुएं भी उसी को अभिव्यक्ति है तथा हमने देखा कि स्वाधीनता से से इन सब विज्ञानों को उत्पत्ति और उन्नति हुई है और हम उनमें दो प्रकार के विचार पाते है-एक भौतिक और निन्दा करने वाला और दूसरा सकारात्मक और निर्माण करने वाला।
एक अनोखी बात यह है कि वे सभी समाजों में पाये जाते हैं। मान तो समाज में कोई दोष है, तो तुम देखोगे कि फौरन ही एक दल उठकर प्रतिहिंसात्मक रूप से गाली-गलौज करने लगता है। कभी-कभी तो ये लोग बड़े मतान्ध और कट्टर से उ हैं। सभी समाजों में तुम ऐसे मतान्ध लोग पाओगे और अधिकतर स्त्रियों ही इस आवाज में भाग लेती हैं, क्योंकि वे स्वभाव से भावुक होती है। जो भी मतान्ध होकर किसी विषय के विरुद्ध व्याख्यान कर सकता है, उसे अनुयायी मिल जाता है। किसी भी वस्तु को तोड़ना-फोड़ना आसान है, पागल आदमी जो चाहे तोड़-फोड़ सकता है, किन्तु किसी वस्तु को गढ़ना उसके लिए बड़ा कठिन है। मान लो कि कोई दोष है, तो केवल गाली-गली से तो कुछ नहीं होगा। हमें उसकी जड़ तक जाकर कार्य करना होगा।
पहले तो यह जान लो कि दोष का क्या कारण है? फिर उसे दूर करो और दोष अपने आप ही चला जाएगा। केवल चिल्लाने से कोई लाभ नहीं होता वरन् उससे हानि की ही अधिक सम्भावना रहती है।
परन्तु दूसरे दल के हृदय में सहानुभूति थी। वे समझ गये थे कि दोषों को दूर करने के लिये उन्हें उन दोषों के कारणों को खोज निकालना होगा। यह दल बड़े-बड़े साधु-महात्माओं का था। एक बात तुमको स्मरण रखनी चाहिए कि जगत् के सभी बड़े-बड़े आचार्य कह गये हैं-हम नाश करने नहीं आये, पहले जो था, उसी को पूर्ण करने आये हैं।’ बहुधा लोग इस बात को समझ नहीं पाते और उनकी इस सहिष्णुता को तत्कालीन लोकप्रिय मतों से एक अशोभन समझौता कहते हैं।
आज भी बहुत से लोग कहते हैं कि वे आचार्य गण जिस बात को सच समझते थे, उसे प्रकट रूप से कहने का साहस नहीं करते थे और वे कुछ अंश में कायर भी थे। पर बात यह नहीं थी। ये धर्मान्ध व्यक्ति उन महापुरुषों के हृदय में निःसृत प्रेम की अनन्त
शक्ति को नहीं समझ सकते।
वे महापुरुष संसार के समस्त नर-नारियों, सम्पूर्ण मानव जाति को अपनी सन्तान के समान देखते थे। वे ही यथार्थ पिता थे, वे ही प्रचार्य देवता थे, उनके हृदय में प्रत्येक के लिये अनन्त सहानुभूति और क्षमा थी ये हमेशा ही सहने और क्षमा करने को प्रस्तुत रहते थे। उन्हें ज्ञात था कि किस प्रकार मानव-समाज का विकास होना चाहिए, अंतएव वे अत्यन्त धैर्य के साथ, धीरे-धीरे, पर निश्चित रूप से अपनी संजीवनी औषधि का प्रयोग करने लगे।
उन महापुरुषों ने किसी को गाली नहीं दी. भय नहीं दिखलाया, बल्कि बड़ी कृपा के साथ वे लोगों को एक-एक सोपान ऊपर उठाते गये। और ऐसे ही महापुरुष लोग उपनिषदों के रचयिता थे। वे भली-भांति जानते थे कि ईश्वर सम्बन्धी प्राचीन धारणाएं अन्य सब उन्नत, नीति-संगत धारणाओं के साथ मेल नहीं खातीं। वे पूरी तरह जानते थे कि नास्तिक लोग जो कुछ प्रचार करते हैं, उसमें अनेक महान् सत्य निहित हैं, लेकिन साथ ही उन्हें यह भी पता था कि जो लोग पहले के विचारों से कोई सरोकार न रखकर, जिस सूत्र में माला की तरह गुंथे हुए हैं, उसी सूत्र को तोड़ देना चाहते हैं और शून्य पर एक नये समाज का गठन करना चाहते हैं, ये पूरी तरह असफल होंगे।
हम किसी भी नई वस्तु का निर्माण नहीं कर सकते। सिर्फ पुरानी वस्तुओं को ही हम नाममात्र का परिवर्तन दे सकते हैं। हमें कोई नई वस्तु उपलब्ध नहीं होती, क्योंकि हम वस्तुओं की केवल स्थिति का परिवर्तन करते हैं। बीज ही धीरे-धीरे वृक्ष के रूप में परिणत हो सकता है।
अतः हमें धैर्य के साथ, शान्तिपूर्वक सत्य की खोज में लगी हुई शक्ति को ठीक ढंग से चलाना होगा, जो सत्य पहले से ही विद्यमान है, उसी को सम्पूर्ण रूप से जानना होगा। नये सत्य के सृजन के लिए हमें प्रयत्न नहीं करना है। अतएव प्राचीन काल की इन ईश्वर सम्बन्धी धारणाओं को वर्तमान काल के लिए अनुपयुक्त कहकर एकदम उड़ाये बिना ही, वे प्राचीन महापुरुष, उनमें जो कुछ सत्य है, उसका अन्वेषण करने लगे और उसका फल है ‘वेदान्त दर्शन’। उन्हें समस्त प्राचीन देवताओं और जगत् के शासनकर्त्ता एक ईश्वर की धारणा से भी उच्चतर धारणाओं का पता मिला। इस प्रकार उन्होंने जिस उच्चतम् सत्य की खोज की, उसी को निर्गुण, पूर्ण ब्रह्म कहते हैं, और इस निर्गुण ब्रह्म की उपलब्धि में उन्हें विश्व ब्रह्माण्ड व्यापी एक अखण्ड सत्ता प्राप्त हुई।
जो इस बहुत्वपूर्ण जगत् में उस एक अखण्डस्वरूप को देखते हैं, जो इस मर्त्य जगत् में से एक अनन्त जीवन को देखते हैं, जो इस जड़ता और अज्ञान से पूर्ण जगत् में उस एक प्रकाश और ज्ञानस्वरूप को देखते हैं, उन्हीं को चिर शान्ति मिलती है, अन्य किसी को नहीं।”
स्वामी विवेकानन्द के माया बलवती क्या है
स्वामी जी ने 22 अक्टूबर, सन् 1896 ई० की लंदन में व्याख्यान देते हुए कहा- कवि कहता है-हम जगत में अपने पीछे, मानो एक हिरण्यमय जल लेकर प्रवेश करते हैं।
किन्तु सच पूछो, तो हममें से सभी इस तरह महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते, हममें से बहुत से तो अपने पीछे कोहरे की कालिमा को लेकर ही संसार में प्रवेश करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग हममें से सभी मानो युद्ध करने के लिए युद्ध-क्षेत्र में भेजे गए हैं। रोते-रोते हमें इस संसार में प्रविष्ट होना पड़ता है। यथासाच्य कोशिश करके अपना मार्ग बनाना पड़ता है-इस अनन्त जीवन-समुद्र में हम अपना मार्ग बनाते हैं। आगे हम बढ़ते जाते हैं और अगणित युग हमारे पीछे रहते हैं और असीम विस्तार हमारे परे ।
इसी प्रकार हम चलते रहते हैं और अन्त में मृत्यु आकर हमें इस क्षेत्र से उठा ले जाती है-विजयी अथवा पराजित, कुछ भी निश्चित नहीं है। और यही माया है। बालक के हृदय में आशा बड़ी बलवती होती है। बालकों के विस्फारित नयनों के सामने सम्पूर्ण जगत् मानी एक सुनहले चित्र के सदृश्य प्रतीत होता है। वह समझता है कि मेरी जो इच्छा होगी, वही होगा। लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रत्येक पद पर प्रकृति का दृढ़ प्राचीर के रूप में उसको भविष्य प्रगतिरोध करके खड़ी हो जाती है, उस प्राचीर को भंग करने के लिए वह भले ही बारम्बार वेग के साथ उस पर टक्कर मारता रहे।
सम्पूर्ण जीवन वह जैसे-जैसे अग्रसर होता जाता है, वैसे-वैसे उसका आदर्श उससे दूर होता जाता है-अन्त में मृत्यु आ जाती है और शायद इस सबसे छुटकारा मिल जाता है, और यही माया है। एक वैज्ञानिक महाज्ञान की पिपासा लिए उठता है। उसके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका वह त्याग न कर सकता हो कोई भी संघर्ष उसे निरुत्साह नहीं कर सकता। वह निरंतर आगे बढ़ता हुआ, प्रकृति के एक के बाद एक गुप्त तत्त्वों का पता लगाता जाता है-प्रकृति के अन्तस्तल में से आभ्यन्तरिक गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करता जाता है। पर इस सब का उद्देश्य क्या है? यह सब करने का ध्येय क्या है? हम इन वैज्ञानिकों को क्यों मान दें? उन्हें क्यों कीर्ति मिले। मनुष्य जितना कर सकता है,
क्या प्रकृति उससे अनन्त गुना अधिक नहीं करती? वैसे भी प्रकृति तो जड़ है, अचेतन है। तो फिर जड़ के अनुकरण में कौन-सा गौरव है?
प्रकृति कितनी भी विद्युत शक्ति सम्पन्न पक्ष को चाहे जितनी दूर फेंक सकती है। अगर कोई मनुष्य उसका शतांश भी कर दे, तो हम उसे आसमान पर चढ़ा देते हैं। यह सब क्यों? प्रकृति के अनुकरण के लिए, मनुष्य के, जड़त्व के, अचेतन के अनुकरण के लिए हम उसकी प्रशंसा क्यों करे? गुरुत्वाकर्षण शक्ति भारी से भारी पदार्थ को पल मर में टुकड़े-टुकड़े करके फेंक सकती है, फिर भी वह जड़ है। जड़ के अनुकरण से क्या फायदा? फिर भी हम सारा जीवन उसी के लिए संघर्ष करते रहते हैं और यही माया है।
इन्द्रिया मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती हैं। मनुष्य ऐसे स्थानों में सुख और आनन्द की खोज कर रहा है, जहाँ वह उन्हें कभी नहीं पा सकता। युगों से हम यह शिक्षा पाते आ रहे हैं कि यह निरर्थक और व्यर्थ है, यहाँ हमें सुख नहीं मिल सकता। किन्तु हम सीख नहीं सकते। अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नहीं सकते। हम कोशिश करते हैं और हमें एक धक्का लगता है, फिर भी क्या हम सीखते हैं? नहीं, हम फिर भी नहीं सीखते।
जिस प्रकार पतंगे दीपक की ली पर टूट पड़ते हैं, उसी तरह हम इन्द्रियों में सुख पाने की आशा से खुद को बारम्बार झोंकते रहते हैं। पुनः-पुनः लौटकर हम फिर से नये उत्साह के साथ लग जाते हैं। बस इसी तरह चलता रहता है और अन्त में लूले लंगड़े होकर, धोखा खाकर हम मर जाते हैं और यही माया है।
यही बात हमारी बुद्धि के सम्बन्ध में भी है। हम विश्व के रहस्य को हल करने की कोशिश करते हैं, हम इस जिज्ञासा, इस अनुसंधान की प्रवृत्ति को बंद नहीं रख सकते। ऐसा लगता है कि हमें सब अवश्य ही जान लेना चाहिए और हम विश्वास ही नहीं कर सकते कि ज्ञान कोई प्राप्त की जाने वाली वस्तु नहीं है। हम कुछ कदम आगे जाते हैं। कि अनादि, अनन्त काल रूपी प्राचीर बीच में अवरोध के रूप में आकर खड़ी हो जाती है, जिसके अतिक्रमण करने की हममें शक्ति नहीं और फिर यह सब कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमाबद्ध है। हम इस दीवार को नहीं लांघ सकते, तो भी हम संघर्ष करते रहते हैं। हमें संघर्ष करना ही पड़ता है, और यही माया है।
प्रत्येक सांस के साथ, हृदय की प्रत्येक धड़कन के साथ, अपनी प्रत्येक हलचल के साथ हम समझते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं और उसी क्षण हम देखते हैं कि हम स्वतन्त्र नहीं हैं। बद्धगुलाम हम प्रकृति के दास हैं। शरीर, मन, सर्वविध विचारों एवं समस्त भावों में हम प्रकृति के दास हैं। और यही माया है।
ऐसी एक भी माता नहीं है, जो अपनी सन्तान को जन्मतः एक अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष न समझती हो। वह उस बालक को लेकर पागल सी हो जाती है। उसके
प्राप्य उसी बालक में पड़े रहते हैं। बालक बड़ा होता है-शायद मोर शराबी और पशुतुल्य हो जाता है, जननी के प्रति दुष्ट व्यवहार तक करने लगता है। जितना उसका दुर बढ़ता है, उतना ही उसकी जननी का प्रेम भी बढ़ता जाता है। लोग इसे जननी का निःस्वार्थ प्रेम कहकर प्रशंसा करते हैं। उनके मन में यह प्रश्न तक नहीं उठता कि वह माता जन्मतः एक दास है-वह इस प्रकार प्रेम किए बिना नहीं रह सकती। हजारों बार उसकी इच्छा होती है, वह इस मोह का त्याग कर दे, पर वह नहीं कर पाती। अतः वह इसे पुण्य-राशि द्वारा आच्छादित कर लेती है और उसी को अद्भुत प्रेम कहती है, और यही माया है।
हम सभी का भी ऐसा ही हाल है। नारद ने एक दिन श्री कृष्ण से पूछा- ‘प्रभो! आपको माया कैसी है? में देखना चाहूंगा।
एक दिन, श्री कृष्ण नारद को लेकर एक मरुस्थल की ओर चल दिए। काफी दूर जाने के बाद श्री कृष्ण ने नारद से कहा- नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा-सा जल ला सकते हो ?” नारद ने कहा- ‘प्रभु, ठहरिए। में अभी जल लेकर आया। ऐसा कहकर नारद चले गये। कुछ दूरी पर एक गांव था। नारद वहीं जल की खोज में जा पहुँचे। उन्होंने एक घर का दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सामने आकर खड़ी हो गई। उसे देखकर नारद जी सब कुछ भूल गये। भगवान् मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे, हो सकता है कि प्यास के कारण उनके प्राण ही निकल जाएँ-नारद ये सारी बातें भूल गये।
सबकुछ भूलकर नारद उस कन्या के साथ बातचीत करने लगे। उस दिन वे अपने प्रभु के पास नहीं लौटे। दूसरे दिन वे फिर से उस लड़की के घर आ पहुंचे और उससे बातचीत करने लगे। धीरे-धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की अनुमति मांगने लगे। विवाह हो गया। नवदम्पत्ति उसी गांव में रहने लगे। धीरे-धीरे उनके सन्तानें भी हुई। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये।
इस बीच नारद जी के ससुर की मृत्यु हो गई और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बन गये। पुत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि के साथ नारद बड़े सुख-चैन से दिन व्यतीत करने लगे। कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आ गई। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे। मनुष्य और पशु पानी में डूबने लगे, नदी की धारा में सब कुछ बहने लगा। नारद जी को भी भागना पड़ा। उन्होंने एक हाथ से स्त्री को पकड़ा, दूसरे से दोनों बच्चों को एक बालक को कंधे पर बैठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयास करने लगे।
कुछ दूर ही जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा । कधि पर बैठे हुए शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके। यह गिरकर लहरों में वह गया। उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका वे हाथ पकड़े हुए थे, छूटकर डूब गया। निराशा और दुःख से नाग्द आर्तनाद करने लगे। अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के बैग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गई और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोट-पोट हो बड़े कातर स्वर में विलाप करने लगे। इसी बीच मानो उनकी पीठ पर किसी ने कोमल हाथ रखा और पूछा- “वत्स, जल कहीं है? तुम तो जल लेने गये थे न, में तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गये आधा घण्टा बीत चुका है।”
‘आधा घण्टा!” नारद चिल्ला पड़े। उनके लिए तो बारह वर्ष बीत चुके थे और आये घण्टे के भीतर हो ये सब दृश्य उनके मन में से होकर निकल गये। और यही माया है। किसी-न-किसी रूप में हम सब भी इस माया के भीतर हैं। यह बात समझना बहुत
कठिन है-विषय भी बड़ा जटिल है। इसका क्या तात्पर्य है? यही कि यह बात बड़ी भयानक है-सभी देशों में महापुरुषों ने इस तत्व का प्रचार किया है, सभी देश के लोगों ने इसकी शिक्षा प्राप्त की है, किन्तु बहुत कम लोगों ने इस पर विश्वास किया है। इसका कारण यही है, कि स्वयं बिना मांगे, स्वयं बिना ठोकर खाए हम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। सच पूछो, तो सभी वृथा है, सभी मिथ्या है। सर्वसंहारक काल आकर सबको निगल लेता है, कुछ भी नहीं छोड़ता। वह पापी को खा जाता है, सब खा जाता है, राजा, प्रजा, सुन्दर, कुत्सित-सभी को निगल जाता है, किसी को नहीं छोड़ता। सब कुछ उस चरम गति-विनाश की ओर ही अग्रसर हो रहा है।
हमारा ज्ञान, शिल्प, विज्ञान सब कुछ उसी की तरफ बढ़ा जा रहा है। कोई भी इस ज्वर की गति को नहीं रोक सकता। हम भले ही उसे भूले रहने की कोशिश करें, जैसे किसी देश में महामारी फैलने पर लोग शराब, नाच, गान आदि व्यर्थ की चेष्टाओं में लीन रहकर, सब कुछ भूलने का प्रयत्न करते हुए, पक्षाघातग्रस्त से हो जाते हैं। हम लोग भी उसी प्रकार उस मृत्यु की चिन्ता को भूलने का कठोर प्रयत्न कर रहे हैं, और यही माया है।
लोगों के सामने दो मार्ग हैं। इनमें एक तो सभी जानते हैं। वह है-संसार में दुःख है, कष्ट है-सब सत्य है, पर इस सम्बन्ध में बिल्कुल मत सोचो।’
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत|
अर्थात् दुःख है अवश्य, पर उधर नजर मत डालो। जो कुछ थोड़ा-बहुत सुख मिले, उसका भोग कर लो। इस संसार चित्र के अंधकारमय भाग को मत देखो सिर्फ प्रकाशमय और आशाप्रद पक्ष की ओर दृष्टि रखी।’
इस मत में कुछ सत्य तो अवश्य मगर साथ ही एक खतरा भी है। इसमें सत्य
इतना ही है कि यह हमें कार्य की प्रेरणा देता है। आशा एवं इसी प्रकार का एक प्रत्यक्ष आदर्श हमें कार्य में प्रवृत्त और उत्साहित करता अवश्य है, लेकिन इसमें संकट यह है कि अंत में हमें हताश होकर सब चेष्टाएँ छोड़ देनी पड़ती हैं। यही हाल होता है, उन लोगो का, जो कहते हैं-
“संसार को जैसा देखते हो, वैसा ही ग्रहण करो, जितना स्वच्छन्द रह सकते हो रह दुःख कष्ट आने पर भी सन्तुष्ट रहो, आघात होने पर भी कहो कि यह आपात नहीं पुण्यवृष्टि है, दास के समान दुत्कारे जाने पर भी कहो में मुक्त है, स्वाधीन है। दूसरों तथा अपनी आत्मा के सम्मुख दिन-रात झूठ बोलें, क्योंकि संसार में जीवित रहने का यह एकमात्र उपाय है।’
इसी को सांसारिक ज्ञान कहते हैं और इस उन्नीसवीं शताब्दी में इसका जितना प्रभाव है, उतना और कभी नहीं रहा, क्योंकि लोग इस समय जो चोटें खा रहे हैं, वैसी उन्होंने इससे पूर्व कभी नहीं खायीं। प्रतिद्वन्द्विता भी इतनी तीव्र पहले कभी नहीं थी। मनुष्य अपने भाई के प्रति जितना आज निष्ठुर है, उतना पहले कभी नहीं था और इसीलिए आजकल यह सांत्वना दी जाती है। आजकल इस उपदेश का ही जोर है, पर अब उससे कोई लाभ नहीं होता। कभी होता भी नहीं सड़े-गले मुर्दे की फूलों से ढककर नहीं रखा जा सकता यह असंभव है। ऐसा अधिक दिन तक नहीं चलता। एक दिन में सब फल सूख जाएंगे और तब वह शव पहले से भी अधिक बीभत्स दिखाई देगा। हमारा सारा जीवन भी ऐसा ही है।
हम भले ही अपने पुराने, सड़े घाव को स्वर्ण के वस्त्रों से ढककर रखने की चेष्टा करें. पर एक दिन ऐसा आएगा, जब वह स्वर्ण वस्त्र खिसक जाएगा और वह घाव अत्यन्त वीभत्स रूप में आंखों के सामने प्रकट हो जाएगा। क्या तब कोई आशा नहीं है? यह सत्य है कि हम माया के दास हैं, हम सभी माया के अन्दर ही जन्म लेते हैं और माया में ही जीवित रहते हैं। तब क्या कोई मुक्ति नहीं है? कोई आशा नहीं है? ये सब बातें तो सैकड़ों युगों से लोगों को मालूम हैं कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े हैं, यह जगत वास्तव में एक कारागार है, हमारी पूर्ण प्राप्त महिमा की छटा भी एक कारागार है, हमारी बुद्धि और सन भी एक कारागार के समान है। मनुष्य चाहे जो कुछ भी कहे, लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो किसी-न-किसी समय इस बात को हृदय से अनुभव न करता हो। वृद्ध लोग इसको और भी तीव्रता के साथ अनुभव करते हैं, क्योंकि उनकी जीवन भर की संचित अनभिज्ञता रहती है। प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हें और अधिक नहीं उग सकती।
इस बन्धन को तोड़ने का क्या उपाय है? क्या कोई उपाय नहीं है? हम देखते हैं कि इस भयंकर व्यापार के बावजूद हमारे सामने, पीछे, चारों ओर यह बन्धन रहने पर भी, इस दुःख और कष्ट के बीच इस जगत में ही, जहाँ जीवन और मृत्यु समानार्थी हैं। एक
महावाणी समस्त युगों, समस्त देशों और समस्त व्यक्तियों के हृदय में गूंज रही है-
“देवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव से प्रपयन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।’
अर्थात्-‘मेरी यह देवी, त्रिगुणमयी माया, बड़ी कठिनाई से पार की जाती है। जो मेरी
शरण में आते हैं, वे इस माया से पार हो जाते हैं।’ “हे धक-माद, मांस से तदे मनुष्यों, आओ, मैं तुम्हें आश्रय दूंगा।”
यह वाणी ही हम सबको निरंतर अग्रसर कर रही है। मनुष्य ने इस वाणी को सुना है और अनन्त युगों से सुनता आ रहा है। जब मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है, जब उसकी आशा टूटने लगती है, जब अपने बल में उसका विश्वास खत्म होने लगता है, जब सब कुछ मानो उसकी उंगलियों में से खिसककर भागने लगता है और जीवन केवल एक भग्नावशेष में परिणत हो जाता है, तब वह उस वाणी को सुन पाता है-और यही धर्म है।
इसीलिए एक और तो यह अभयवाणी है कि यह समस्त संसार कुछ नहीं, सिर्फ माया है और साथ ही यह आशाप्रद वाक्य है कि माया के बाहर जाने का मार्ग भी है और दूसरी ओर हमारे सांसारिक लोग कहते हैं- धर्म, दर्शन, ये सब व्यर्थ की वस्तुएँ लेकर दिमाग खराब मत करो। दुनिया में रहो,
माना यह दुनिया बड़ी खराब है, किन्तु जितना हो सके, इसका मजा ले लो।”
सीधे-सीधे शब्दों में इसका अर्थ यही है कि दिन-रात पाखण्डपूर्ण जीवन व्यतीत करो- अपने घाव को जब तक हो सके ढके रहो। एक के बाद दूसरी जोड़-गांठ करते जाओ, यहाँ तक कि सब कुछ नष्ट हो जाए और तुम केवल जोड़-गांठ का एक समूह मात्र रह जाओ। इसी को कहते हैं, सांसारिक जीवन जो इस जोड़-गांठ से सन्तुष्ट है, वो कभी भी धर्मलाभ नहीं कर सकता। जब अपने जीवन के प्रति भी ममता नहीं रह जाती, जब इस जोड़-गांठ पर अपार घृणा उत्पन्न हो जाती है, तभी धर्म का प्रारम्भ होता है। भगवान बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर दृढ़ स्वर में जो बात कही थी, उसे जो अपने रोम-रोम से खोल सकता है, वही वास्तविक धार्मिक होने योग्य है।
सांसारिक होने की इच्छा उनके हृदय में भी एक बार उत्पन्न हुई थी। इधर वे स्पष्ट रूप से देख रहे थे कि उनकी यह अवस्था, यह सांसारिक जीवन एकदम व्यर्थ है, पर इसके बाहर जाने का उन्हें कोई मार्ग नहीं मिल रहा था मोह एक बार उनके करीब आया और कहने लगा-
“छोड़ो भी सत्य की खोज, चलो संसार में लौट चलो और पहले जैसा पाखण्डपूर्ण जीवन बिताओं, सब वस्तुओं को उनके मिथ्या नामों से पुकारो, अपने निकट और सबके निकट दिन-रात मिथ्या बोलते रहो।’
परन्तु उस महावीर ने अपने अतुल पराक्रम से उसे उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्ह कहा- ‘अज्ञानपूर्वक केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना श्रेष्ठ है, पराजित होकर की अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मर जाना श्रेयष्कर है।’
यही धर्म की नींव है। जब मनुष्य इस नींव पर खड़ा होता है, तब समझा कि वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर, ईश्वर की प्राप्ति के पथ पर अग्रसर है। धार्मिक होने के लिए भी पहले यह दृढ प्रतिज्ञा आवश्यक है। मैं अपना रास्ता स्वयं ढूंढ लुगा सत्य को जानूंगा अथवा इस प्रयत्न में प्राण दे दूंगा। कारण, संसार की ओर से तो और कुछ पाने की आशा है ही नहीं, यह तो शून्यस्वरूप है-दिन-रात उड़ता जा रहा है। आज का सुन्दर, आशापूर्ण तरुण कल का वृद्ध है। आशा, आनन्द, सुख ये सब मुकुलों के समान कल के शिशिर-पात से नष्ट हो जाएंगे। यह हुई एक ओर की बात और दूसरी ओर है विजय का प्रलोभन जीवन के समस्त अशुभ पर विजय प्राप्ति की संभावना और तो और, स्वयं जीवन और जगत् पर भी विजय प्राप्ति की संभावना है।
इसी उपाय से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। इसलिये जो लोग इस विजय-प्राप्ति के लिए, सत्य के लिए, धर्म के लिए चेष्टा कर रहे हैं, वे ही सत्य पथ पर हैं और वेद भी यही उपदेश करते हैं-
‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्मया ।
दुर्ग पथस्तत्कपयो वदन्ति ॥’
सारे धर्मों की, चाहे वे किसी भी रूप में मनुष्य के निकट अपनी अभिव्यक्ति करते हों, यही एक सामान्य केन्द्रीय नींव है। और वह है संसार के बाहर जाने का अर्थात् मुक्ति का उपदेश । इन सब धर्मों का उद्देश्य संसार और धर्म के बीच सुलह कराना नहीं, पर धर्म को अपने आदर्श में दृढ़-प्रतिष्ठित करना है, संसार के साथ बिना समझौता किए ही उसकी जटिल समस्या का समाधान करना है। हर धर्म इसका प्रचार करता है और वेदान्त का कर्तव्य है-इन सभी महत्वाकांक्षाओं में सामंजस्य स्थापित करना, और संसार के सारे उच्चतम और निम्नतम धर्मो में विद्यमान सामान्य तत्त्व को अभिव्यक्त करना।
हम जिसको अत्यन्त भ्रान्त अन्धविश्वास कहते हैं, और जो सर्वोच्च दर्शन है, सभी की यही एक साधारण नींव है कि वे सभी इस तरह के संकट से विस्तार पाने का मार्ग दिखाते हैं, और अधिकांश में किसी प्रपंचातीत पुरुषविशेष की सहायता से अर्थात् प्राकृतिक नियमों से आबद्ध न रहने वाले नित्ययुक्त पुरुष विशेष की सहायता से इस मुक्ति की प्राप्ति करनी पड़ती हैं।
इस मुक्त पुरुष के स्वरूप के विषय में नाना प्रकार की कठिनाइयाँ और मतभेद होने पर
भी वह ब्रह्म सगुण है या निर्गुण, मनुष्य की भांति ज्ञानसम्पन्न है अथवा नहीं, वह पुरुष है,
स्त्री या निलिंग-इस प्रकार के अनन्त विचार तथा विभिन्न मतों के प्रबल विरोध होने पर भी. मूलभूत तत्व एक ही है। विविध मतवादों के इस प्रचण्ड परस्पर विरोध के बावजूद हमें उन सबमे एकत्व का एक स्वर्ण-सूत्र मिलता है और इस दर्शन में ही इस स्वर्ण-सूत्र की खोज हुर्द है, जो हमारी दृष्टि के सम्मुख थोड़ा-थोड़ा करके अभिव्यक्त हुआ है, और यह सामान्य तत्व ही इस अभिव्यक्ति का पहला सोपान है कि हम सभी मुक्ति की ही ओर अग्रसर हो रहे हैं। अपने सुख-दुःख, विपत्ति और कष्ट-सभी अवस्थाओं में हम यह आश्चर्य की बात देखने है कि हम सभी धीरे-धीरे मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
प्रश्न उठा- ‘यह जगत वास्तव में क्या है? कहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई और कहाँ इसका लाभ है? और इसका उत्तर था मुक्ति से ही इसकी उत्पत्ति है, मुक्ति में यह विश्राम करता है और अन्त में मुक्ति में ही इसका लोप हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त है, इस आश्चर्यजनक भावना के बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते, इस भाव के बिना तुम्हारे सभी कार्य, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन तक बेकार है। प्रतिक्षण प्रकृति यह सिद्ध किए दे रही है कि हम दास हैं, पर उसके साथ ही यह दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है कि हम मुक्त है। प्रतिक्षण हम माया से आहत होकर बद्ध से प्रतीत होते हैं, पर उसी क्षण, उस आघात के साथ ही हम बद्ध है इस भावना के साथ ही और भी एक भाव हममें आता है कि हम मुक्त हैं। मानो हमारे भीतर से कोई कह रहा है कि हम मुक्त हैं। इस मुक्ति की हृदय से उपलब्धि करने में, अपने मुक्तस्वभाव को प्रकट करने में जो बाधाएँ उपस्थित होती हैं, वे भी एक तरह से अनातिक्रमणीय हैं, तब भी भीतर से हमारे हृदय के अन्तस्थल से मानो कोई हमेशा कहता रहता है-‘मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ।’ और यदि तुम संसार के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करो, तो देखोंगे, उन सभी में किसी न किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है। केवल धर्म नहीं, धर्म शब्द को तुम संकीर्ण अर्थ में मत लो, बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक जीवन इसी मुक्त भाव की अभिव्यक्ति है।
सभी तरह की सामाजिक जातियाँ उसी एक मुक्त भाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। मानो सभी ने जाने-अनजाने उस स्वर को सुना है, जो दिन-रात कह रहा है-‘हे थके-मांद और बोझ से लदे मनुष्यो, मेरे पास आओ!’ मुक्ति के लिए आहान करने वाली यह वाणी भले ही एक ही प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से प्रकाशित न होती हो, पर किसी न किसी रूप में वह हमारे साथ हमेशा विद्यमान है। हमारा यहाँ जो जन्म हुआ है, वह भी इसी वाणी के कारण, हमारी प्रत्येक गति इसी के लिए है। हम जानें या न जानें, पर हम सभी मुक्ति की ओर चल रहे हैं। उसी वाणी का अनुसरण कर रहे हैं। जिस तरह गाँव के बालक उस वंशीवादक के संगीत से खिंचकर चले जाते थे, उसी प्रकार हम भी बिना जाने ही उस मधुरवाणी का अनुसरण कर रहे हैं।
हम जब उस वाणी का अनुसरण करते हैं, तभी हम नीति-परायण होते हैं। जीवात्मा नहीं, बल्कि छोटे-से-छोटे जड़ प्राणी से लेकर ऊँचे-से-ऊंचे मनुष्यों तक सभी ने यह स्वर सुना है और सब उसी की दिशा में दौड़े जा रहे हैं। इस चेष्टा में या तो हम परस्पर मिल जाते हैं या एक-दूसरे को धक्का देते रहते हैं। इसी से प्रतिदिन ह संघर्ष, जीवन, सुख और मृत्यु उत्पन्न होते हैं और उस वाणी तक पहुँचने के लिए यह जो संघर्ष चल रहा है, सम्पूर्ण विश्व उसी का परिणाम मात्र है। हम यही करते जा हैं। यही व्यक्त प्रकृति का परिचय है।
इस वाणी को सुनने से क्या होता है? इससे हमारे सामने का दृश्य बदलने लगता है। जैसे ही तुम इस वाणी को सुनते हो और समझते हो कि यह क्या है, वैसे ही तुम्हारे सामने का सारा दृश्य बदल जाता है। यही जगत जो पहले माया का वीभत्स युद्ध क्षेत्र था, अब और कुछ अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर हो जाता है। तब फिर प्रकृति को कोसने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। संसार बड़ा बीभत्स है अथवा यह सब वृथा है, वह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। रोने-चिल्लाने का प्रयोजन भी नहीं रह जाता। जैसे ही तुम इस स्वर का अर्थ समझते है, वैसे ही तुम्हारी समझ में आ जाता है कि इस सब चेष्टा इस युद्ध, इस प्रतिद्वन्द्विता इस कठिनाई, इस निष्ठुरता, इस सब छोटे-छोटे एवं आनन्द आदि का क्या प्रयोजन है? तब यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि यह सब प्रकृति के स्वभाव से ही होता है, हम सब जाने-अनजाने उसी स्वर की ओर अग्रसर हो रहे हैं, इसीलिए यह सब हो रहा है। अतएव समस्त मानव-जीवन, समस्त प्रकृति उसी मुक्तभाव को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही है, यस
सूर्य भी उसी ओर जा रहा है, पृथ्वी भी इसीलिए सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रही है, चन्द्र भी इसी कारण पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है। उस स्थान पर पहुँचने के लिए ही समस्त ग्रह-नक्षत्र दौड़ रहे हैं और वायु बह रही है। उस मुक्ति के लिए ही समस्त बिजली तीव्र घोष करती है और मृत्यु भी उसी के लिए चारों ओर घूम-फिर रही है। सब उसी दिशा में जाने की कोशिश कर रहे हैं। साधु भी उसी ओर जा रहे हैं, बिना गये वे रह ही नहीं सकते, उनके लिए यह कोई प्रशंसा की बात नहीं। पापियों की भी यही दशा है बड़ा दानी व्यक्ति भी उसी को लक्ष्य बनाकर सरल भाव से चलता जा रहा है। बिना गये वह रह ही नहीं सकता और एक भयानक कंजूस भी उसी को लक्ष्य बनाकर चल रहा है जो बहुत सत्कर्मशील हैं, उन्होंने भी उसी वाणी को सुना है, वे सत्कर्म किए बिना नहीं रह सकते और एक घोर आलसी व्यक्ति की भी यही स्थिति है। हो सकता है एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा अधिक ठोकरें खाए। जो व्यक्ति अधिक ठोकरें खाता है, उसे एम बुरा कहते हैं और जो कम, उसे सज्जन या भला कहते हैं।
भता और बुरा, ये दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं, दोनों एक ही हैं, उनके बीच का
भेद प्रकाशगत नहीं, परिमाणगत है। अब देखो, अगर मुक्त भाव रूपी शक्ति वास्तव में समस्त जगत् में कार्य कर रही है, तो अपने विशेष आलोच्य विषय धर्म में उसका प्रयोग करने पर हम देखते हैं कि सभी धर्मो में इस एक भाव को स्वीकार किया गया है। अत्यन्त निम्न कोटि के धर्म को लो, जिसमें किसी मृत पूर्वज अथवा निष्ठर देवताओं की उपासना होती है। इन उपास्य देवताओं अथवा मृत पूर्वजों के द्वारा वे बचे हुए नहीं हैं। लेकिन हौं, प्रकृति के बारे में उपासक की धारणा अवश्य बिल्कुल सामान्य है। उपासक एक मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति है, उसकी बिल्कुल स्थूल धारणा है, वह घर की दीवार को मेदकर नहीं जा सकता अथवा आकाश में विचरण नहीं कर सकता। इसलिये इन सब बाधाओं का अतिक्रमण करना बस इसके अलावा उसकी शक्ति की कोई उच्चतर धारणा है ही नहीं, अतएव वह ऐसे देवता की उपासना करता है, जो दीवार भेदकर अथवा आकाश में उड़कर आ-जा सकते हैं, अथवा जो अपना रूप परिवर्तित कर सकते हैं। दार्शनिक भाव से देखने पर इस प्रकार की देवोपासना में कौन-सा रहस्य है? यह कि यहाँ भी वह मुक्ति का भाव उपस्थित है, उसकी देवता सम्बन्धी धारणा प्रकृति सम्बन्धी अपनी धारणा से उन्नत है और जो लोग तदभेक्षा उन्नत देवों के उपासक हैं, उनकी भी उस एक ही मुक्ति की दूसरे प्रकार की धारणा है।
जैसे-जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा उन्नत होती जाती है, वैसे-वैसे प्रकृति की प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा बढ़ती जाती है, अन्त में हम एकेश्वरवाद में पहुँच जाते हैं, जो माया या प्रकृति को स्वीकार करता है, और जिसके मतानुसार मायाधीश एक ईश्वर ही है। जहाँ सर्वप्रथम इस एकेश्वरवाद-सूचक भाव का आरम्भ होता है, वहीं वेदान्त का आरम्भ हो जाता है। वेदान्त इससे भी अधिक गम्भीर अन्वेषण करना चाहता है। वह कहता है कि इस माया प्रपंच के पीछे जो एक आत्मा उपस्थित है, जो माया का स्वामी है, पर जो माया के अधीन नहीं है, वह हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहा है और हम भी धीरे-धीरे उसी की ओर जा रहे हैं यह धारणा है तो ठीक, पर अभी भी यह धारणा शायद स्पष्ट नहीं हुई है, अब भी यह दर्शन मानो अस्पष्ट और अस्फुट है। वैसे वह स्पष्ट रूप से युक्ति-विरोधी नहीं है, जिस तरह तुम्हारे यहाँ प्रार्थना में कहा जाता है- ‘मेरे ईश्वर, तेरे अति निकट,’ वेदान्ती भी ऐसी ही प्रार्थना करता है, केवल एक शब्द बदलकर ‘मेरे ईश्वर, मेरे अति निकट ।
हमारा चरम लक्ष्य बहुत दूर है, प्रकृति से अतीत प्रदेश में है। वह हमें अपनी और खींच रहा है, उसे धीरे-धीरे हमें अपने निकट लाना होगा, पर आदर्श की पवित्रता और उच्चता को अक्षुण्ण रखते हुए। मानो यह आदर्श क्रमशः हमारे निकटतर होता जाता है- अन्त में स्वर्ग का ईश्वर मानो प्रकृतिस्थ ईश्वर बन जाता है, फिर प्रकृति में और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता, वही मानो इस देह मन्दिर के अधिष्ठात् देवता के रूप में और
अन्त में इसी देह मन्दिर के रूप में जाना जाता है और वही मानो अन्त में जीवात्मा और मनुष्य के रूप में परिणत होता है। बस यही वेदान्त की शिक्षा का अन्त है।
जिसे ऋषिगण विभिन्न स्थानों में खोजते हैं, वह हमारे भीतर ही है। वेदान्त कहता है तुमने जो वाणी सुनी थी, वह ठीक सुनी थी, पर उसे सुनकर तुम उचित मार्ग पर नहीं चले। जिस मुक्ति से महान आदर्श का तुमने अनुभव किया था, वह सत्य है, पर उसे बाहर की ओर खोजकर तुमने भूल की। इसी भाव को अपने निकट और निकटतर लाते चलो, जब तक कि तुम यह न जान लो कि यह मुक्ति, यह स्वाधीनता तुम्हारे अन्दर ही है, वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति बराबर तुम्हारा स्वरूप ही थी और माया ने तुम्हें कभी भी बद्ध नहीं किया। तुम पर अपना अधिकार जमाने की सामव्य प्रकृति में कभी नहीं थी। डरे हुए बालक की तरह तुम स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हारा गला दबा रही है। इस माया से मुक्त होना ही लक्ष्य है। केवल इसे बुद्धि से जानना ही नहीं, वरन् प्रत्यक्ष करना होगा, अपरोक्ष करना होगा हम इस जगत् को जितने स्पष्ट रूप से देखते हैं, उससे भी अधिक स्पष्ट रूप से देखना होगा।
तभी हम मुक्त होंगे। तभी हमारी सारी कठिनाइयों का अन्त होगा, तभी हृदय की सारी उलझनें नष्ट होंगी, सारी वक्रताएँ सरल हो जाएंगी। तब यह विविधता और प्रकृति का भ्रम चला जाएगा। तब यह माया आज की तरह भयानक अवसाद कारक स्वप्न न होकर अति सुन्दर रूप में दिखेगी, और यह जगत्, जो इस समय कारागार के समान प्रतीत हो रहा है, क्रीड़ा क्षेत्र का रूप धारण कर लेगा। तब सारी विपत्तियाँ, ललिताएँ, और तो और, हम जो सब यन्त्रणाएँ भोग रहे हैं, वे भी ब्रह्मभाव में परिणत हो जाएंगी और हमारे सामने अपना प्रकृत स्वरूप अभिव्यक्त करेंगी। तब हम अनुभव करेंगे कि सारी वस्तुओं के पीछे, सबके सारसत्ता स्वरूप वही विद्यमान है और हम जान लेंगे कि ‘वही’ हमारा वास्तविक अन्तरात्मा स्वरूप है।”
स्वामी विवेकानन्द केधर्म का प्रादुर्भाव क्या है
लंदन में भाषण देते स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा- “मानव जाति के भाग्य निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सभी में धर्म के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं-न-कहीं यही अद्भुत शक्ति कार्य कर रही है, तथा अब तक मानवता की विविध इकाइयों को संगठित करने वाली सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुई है। हम सभी जानते हैं कि धार्मिक एकता का सम्बन्ध प्रायः जातिगत, जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों में दृढतर सिद्ध होता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजने वाले तथा एक धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति के साथ एक-दूसरे का साथ देते हैं, वह एक ही वंश के लोगों की बात ही क्या, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलता।
● धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिए अनेक कोशिशें की गई हैं। अब तक हमें जितने पाचीन धर्मों का ज्ञान है, वे सब यह दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं, जैसे उनका उद्भव मानव मस्तिष्क से नहीं, बल्कि उस स्रोत से हुआ है, जो उसके बाहर हैं। आधुनिक विद्वान दो सिद्धान्तों के बारे में कुछ अंश तक सहमत हैं। एक है धर्म का आत्ममूलक सिद्धान्त, और दूसरा, असीम की धारणा का विकास-मूलक सिद्धान्त। पहले सिद्धान्त के अनुसार पूर्वजों की पूजा से ही धार्मिक भावना का विकास हुआ, दूसरे के अनुसार, प्राकृतिक शक्तियों को वैयक्तिक स्वरूप देने से धर्म का प्रारम्भ हुआ।
मनुष्य अपने दिवंगत सम्बन्धियों की स्मृति सजीव रखना चाहता है और विचार करना है कि यद्यपि उनके शरीर नष्ट हो चुके, फिर भी वे जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिए खाद्य पदार्थ रखना तथा एक अर्थ में उनकी पूजा करना चाहता है। मनुष्य की इसी भावना से धर्म का विकास हुआ। मिस्र, बेबिलोन, चीन व अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मो के अध्ययन से ऐसे स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि पितृ-पूजा से ही धर्म का आविर्भाव हुआ है। प्राचीन मिस्रवादियों की आत्मा-सन्बन्धी धारणा द्वित्वमूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव-शरीर के मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है, किन्तु यह प्रतिरूप शरीर उस समय
तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर सुरक्षित रहता है। इसी कारण मा में मृत शरीर को सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं और इसी के लिए उन्होंने विशाल पिरामि का निर्माण किया, जिसमें मृत शरीर को सुरक्षित ढंग से रखा जा सके। उनकी धारणा श्री कि अगर इस शरीर को किसी तरह की क्षति पहुँची, तो उस प्रतिरूप शरीर को ठीक ही क्षति पहुंचेगी।
यह स्पष्टतः पितृ पूजा है। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों में भी प्रतिरूप शरीर की ऐसी ही धारणा देखने को मिलती है, यद्यपि वे कुछ अंश में इससे अलग हैं। वे मानते हैं, प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता। उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिए जीवित लोगों को आतंकित करती है। अपने बच्चों तथा पत्नी तक के लिए उसमें 1 कोई प्रेम नहीं रहता । प्राचीन हिन्दुओं में भी इस पितृ-पूजा के उदाहरण देखने को मिलते हैं। चीन वालों के सम्बन्ध में भी ऐसा कहा जा सकता है कि उनके धर्म का आधार पितृ-पूजा ही है और यह अब भी समस्त देश के कोने-कोने में परिव्याप्त है।
वस्तुतः चीन में अगर कोई धर्म प्रचलित माना जा सकता है, तो वह केवल यही है। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म को पितृ-पूजा से विकसित मानने वालों का आधार काफी सुदृढ़ है। किन्तु कुछ ऐसे विद्वान हैं, जो प्राचीन आर्य साहित्य के आधार पर सिद्ध करते हैं कि धर्म का आविर्भाव प्रकृति की पूजा से हुआ। यद्यपि भारत में पितृ-पूजा के उदाहरण सर्वत्र ही देखने को मिलते हैं, तब भी प्राचीन ग्रन्थों में इसकी किंचित चर्चा भी नहीं मिलती। आर्य जाति के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद संहिता में इसका कोई उल्लेख नहीं है। आधुनिक विद्वान् उसमें प्रकृति पूजा के ही चिन्ह पाते हैं। जो प्रस्तुत दृश्य के परे है, उसकी एक झांकी पाने के लिए मानव-मन आकुल प्रतीत होता है।
उषा, सन्ध्या, चक्रवात, प्रकृति की विशाल और विराट शक्तियाँ, उसका सौन्दर्य-इन सबने मानव-मन के ऊपर ऐसा प्रभाव डाला कि वह इन सबके परे जाने की और उनको समझ सकने की आकांक्षा करने लगा। इस आकांक्षा में मनुष्य ने इन दृश्यों में आत्मा और शरीर की प्रतिष्ठा की, उसने उनमें वैयक्तिक गुणों का आरोपण करना शुरू किया, जो कभी सुन्दर और कभी इन्द्रियातीत होते थे। उनको समझने के हर प्रयास में उन्हें वास्तविक रूप दिया गया या नहीं दिया गया? किन्तु उनका अन्त उनको अमूर्त कर देने में ही हुआ। ठीक ऐसी ही बात प्राचीन यूनानियों के सम्बन्ध में भी हुई, उनके तो सम्पूर्ण पुराणोपाख्यान अमूर्त प्रकृति पूजा ही हैं और ऐसा ही प्राचीन जर्मनी तथा स्कैन्डिनेविया के निवासियों एवं शेष सभी आर्य जातियों के बारे में भी कहा जा सकता है। इस तरह प्रकृति की शक्तियों का मानवीकरण करने में धर्म का आदि स्रोत मानने वालों का भी पक्ष काफी प्रबन हो जाता है।
यद्यपि ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते हैं, किन्तु उनका समन्वय एक तीसरे
आधार पर किया जा सकता है, जो मेरी समझ में धर्म का वास्तविक बीज है और दिन में इन्द्रियों की सीमा का अतिक्रमण करने के लिए संघर्ष मानता है। एक और मनुष्य अपने पितरों की आत्मा की खोज करता है, मृतकों को प्रेतात्माओं को टूटता है, अर्थात शरीर के जाने पर भी वह जानना चाहता है कि उसके बाद क्या होता है। दूसरी ओर मनुष्य प्रकृति की विशाल दृश्यावली के पीछे काम करने वाली शक्ति को समझना चाहता है। इन दोनों ही स्थितियों में इतना तो निश्चित है कि मनुष्य इन्द्रियों की सीमा के बाहर जाना चाहता है। वह इन्द्रियों से ही सन्तुष्ट नहीं है, वह इनसे भी पर जाना चाहता है।
इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की आवश्यकता नहीं। मुझे तो यह बिल्कुल स्वभाविक लगता है कि धर्म की पहली बाकी स्वप्न में मिली होगी। मनुष्य अमरता की कल्पना स्वप्न के आधार पर कर सकता है। कैसी अद्भुत है, स्वप्न की अवस्था। हम जानते हैं कि बच्चे तथा कोरे मस्तिष्क वाले लोग स्वप्न और जाग्रत स्थिति में कोई भेद नहीं कर पाते। उनके लिए साधारण तर्क के रूप में इससे अधिक और क्या स्वभाविक हो सकता है कि स्वप्नावस्था में भी जब शरीर प्रायः मृत-सा हो जाता है, तब भी मन के सारे जटिल किया-कलाप चलते रहते हैं। इसलिये इसमें क्या आश्चर्य, अगर मनुष्य हठात् यह निष्कर्ष निकाल लें कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर दूसरी क्रियाएं जारी रहेंगी ?
मेरे विचार से अलौकिकता की इससे अधिक स्वभाविक व्याख्या और कोई नहीं हो सकती, और स्वप्न पर आधारित इस धारणा को क्रमशः विकसित करता हुआ मनुष्य ऊंचे-से-ऊंचे विचारों तक पहुँच सका होगा। हाँ, यह भी सत्य अवश्य ही है कि समय पाकर अधिकांश लोगों ने यह अनुभव किया कि ये स्वप्न हमारी जाग्रतावस्था में सत्य सिद्ध नहीं होते और स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई नया अस्तित्व नहीं बन जाता, बल्कि वह जाग्रतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है। लेकिन तब तक इस दिशा में अन्वेषण आरम्भ हो गया था और अन्वेषण की धारा अन्तर्मुखी हो गयी और मनुष्य ने अपने भीतर अधिक गम्भीरता से मन की विभिन्न अवस्थाओं का अन्वेषण करते-करते जाग्रतावस्था और स्वप्नावस्था से भी परे कई उच्च अवस्थाओं का आविष्कार किया। संसार के सभी संगठित धमों में इन अवस्थाओं की चर्चा परमानन्द या अन्तःस्फुरण के रूप में मिलती है। सभी संगठित धर्मों में ऐसा माना जाता है कि उनके संस्थापक पैगम्बरों और सन्देशवाहकों ने मन की इन अवस्थाओं में प्रवेश किया था और इनमें उन्हें एक ऐसी नवीन तथ्यमाला का साक्षात्कार हुआ था, जो आध्यात्मिक जगत से सम्बद्ध है। उन अवस्थाओं में उन महापुरुषों को जो अनुभव हुए, वे हमारे जाग्रतावस्था के अनुभवों से कहीं अधिक
ठोस सिद्ध हुए। उदाहरण के लिए, तुम ब्राह्मण धर्म को लो। ऐसा कहा जाता है कि वेद ऋषियों द्वारा रचे गये हैं। ये ऋषि ऐसे सन्त थे, जिन्होंने विशिष्ट तथ्यों का अनुभव किया था। संस्कृत
शब्द ऋषि की ठीक परिभाषा है-मन्त्रों का दृष्टा ये मन्त्र वेदों की ऋचाओं के भाव है। इन ऋषियों ने यह घोषित किया है कि उन्होंने कुछ विशिष्ट तथ्यों का साक्षात्कार अनुभव किया है-अगर अनुभव शब्द को इन्द्रियातीत विषय में प्रयोग करना ठीक है तो–औरत उन्होंने अनुभवों को लिपिबद्ध किया।
हम देखते हैं कि यहूदियों और ईसाइयों में भी इसी सत्य का उद्घोष हुआ था। दक्षिण सम्प्रदाय के प्रतिनिधि बौद्धों का जहाँ तक प्रश्न है, इस सिद्धान्त को अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। यह पूछा जा सकता है कि अगर बौद्ध लोग ईश्वर या आत्मा में विश्वास नहीं करते, तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनका धर्म भी किसी अतीन्द्रिय स्तर पर आधारित है? इसका उत्तर यह है कि बौद्ध लोग भी एक शाश्वत नैतिक नियम-धर्म में विश्वास करते हैं और उस धर्म का ज्ञान सामान्य वर्षों के आधार पर नहीं हुआ था, वरन् बुद्ध ने अतीन्द्रियावस्था में इसका आविष्कार किया था। तुम लोगों में से जिन्होंने बुद्ध के जीवन-चरित्र का अध्ययन किया है, चाहे वह एशिया की ज्योति ‘द साइट ऑफ एशिया’ जैसी ललित कविता के माध्यम से संक्षिप्त रूप में ही क्यों न हो। उन्हें याद होगा कि बुद्ध को आश्वत्थ वृक्ष के तले बैठा हुआ दिखाया गया है, जहाँ उन्हें निर्वितप्तावस्था की प्राप्ति हुई है। उनके सारे उपदेश इस अवस्था में ही प्रादुर्भाव हुए न कि बौद्धिक चिन्तन से।
इस प्रकार सभी धर्मों ने यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि मनुष्य का मन कुछ खास क्षणों में इन्द्रियों की सीमाओं को ही नहीं, बुद्धि की शक्ति से भी परे पहुँच जाता है। उस अवस्था में वह उन तथ्यों का साक्षात्कार करता है, जिनका ज्ञान न कभी इन्द्रियों से हो सकता था और न चिन्तन से ही ये तथ्य ही संसार के सभी धमों के आधार हैं। निश्चय ही हमें इन तथ्यों में सन्देह करने और उन्हें बुद्धि की कसौटी पर कसने का अधिकार है। मगर संसार के सभी वर्तमान धर्मों का दावा है कि मन की ऐसी कुछ अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनसे वह इन्द्रिय तथा बौद्धिक अवस्था का अतिक्रमण कर जाता है और उसकी इस शक्ति को वे तथ्य के रूप में मानते हैं।
धर्म के इन तथ्यों से सम्बन्धित दावों की सत्यता पर विचार करने के अतिरिक्त हमें इन सभी तथ्यों में एक समानता मिलती है। ये सभी तथ्य भौतिक शास्त्र के स्थूल आविष्कारों की तुलना में अति सूक्ष्म हैं। सभी प्रतिष्ठित धर्मों में वे एक शुद्धतम् अमूर्त तत्त्व का रूप ले लेते हैं, यह रूप या तो एक सर्वव्यापी सत्ता, ईश्वर कहा जाने वाला एक अमूर्त व्यक्तित्व अथवा नैतिक विचार होता है या समस्त भूतों में अन्तव्याप्त किसी अमूर्त सार तत्त्व का रूप आधुनिक युग में भी जब मन की अतिन्द्रियावस्था की सहायता लिए बिना ही, धर्मोपदेश देने का प्रयास किया गया, तो उसमें भी पुराने धर्मों की अमूर्त भावों की ही सहायता ली गयी। भले ही उनको ‘नैतिक विधान’, ‘आदर्श एकत्व आदि नाम
दिए गये हों, जिससे सिद्ध होता है कि यह अमूर्त भाव इन्द्रियगोचर नहीं है। हममें से किसी ने कभी एक आदर्श मानव को नहीं देखा है, फिर भी हमसे करा जाता
है कि उसकी सत्ता पर विश्वास करो। हममें से किसी ने आदर्शतः पूर्ण मानव को नहीं देखा, फिर भी उस आदर्श में विश्वास किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस इन सभी धमों का निर्णय यह है कि एक आदर्श अमृत सता है, जो हमारे सम्मुख एक व्यक्त अथवा अव्यक्त सत्ता, किसी विधान या सत् या सारतत्व के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, हम सतत उस आदर्श तक खुद को उठाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रत्येक मनुष्य के समक्ष यह जो भी हो, जहाँ भी हो, एक अपरिमित शक्ति वाला आदर्श रहता है। प्रत्येक मनुष्य के सामने सुख का प्रतीक कोई आदर्श रहता है।
हमारे चारों ओर जो अनेकानेक काम हो रहे हैं, उनमें से अधिकांश अपरिमित शक्ति अथवा अपरिमित आनन्द के आदर्श के निमित्त ही किए जा रहे हैं। किन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें शीघ्र ही यह पता चल जाता है कि असीम शक्ति के लाभ के निमित्त में प्रयास तो वे कर रहे हैं, लेकिन उसको इन्द्रियों के द्वारा कोई प्राप्त नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, उन्हें इन्द्रियों की सीमाओं का ज्ञान हो जाता है। वे समझ जाते हैं कि ससीम शरीर से असीम की प्राप्ति नहीं हो सकती। माध्यम से असीम की अभिव्यक्ति असंभव है और देर-सवेर मनुष्य को इस सत्य का ज्ञान हो जाता है और तब वह अपनी सीमाओं के भीतर असीम को पाने का प्रयास त्याग देता है।
प्रयास का यह परित्याग ही नैतिकता की पृष्ठभूमि है। त्याग पर ही नैतिकता आधारित है। त्याग की आधारशिला माने बिना किसी नैतिक विधान का प्रचार कभी नहीं हो सका। नीतिशास्त्र सदा कहता है-‘मैं नहीं तू’ इसका उद्देश्य है-‘स्वयं नहीं, निःस्य’ । इसका कहना है कि असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य जिस निरर्थक व्यक्तित्व की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुम दूसरों को आगे करना होगा और स्वयं पीछे हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं कि अपने को आगे रखो। लेकिन नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान त्याग पर ही आधारित है। उसकी पहली मांग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करो, निर्माण नहीं। यह जो असीम है कि उसकी अभिव्यक्ति की प्राप्ति के लिए भौतिक स्तर को छोड़कर क्रमशः ऊपर अन्य स्तरों में जाना है। इस प्रकार विविध नैतिक नियमों की संरचना होती है, लेकिन सभी का केन्द्रीभूत आदर्श यह आत्मत्याग ही है। अहन्ता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का है।
लोग आश्चर्यचकित रह जाते. अगर उनसे अहन्ता (व्यक्तित्व) की चिन्ता न करने के लिए कहा जाता है। जिसे वे अपना व्यक्तित्व कहते हैं, उसके विनष्ट हो जाने के प्रति अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं, पर साथ ही ऐसे लोग नीतिशास्त्र के उच्चतम् आदशों के
सत्य घोषित करते हैं। वे क्षण भर के लिए भी यह नहीं सोचते कि नैतिकता सम्पूर्ण उद्देश्य और विषय व्यक्ति का उच्छेदन है, न कि उसका निर्माण उपयोगितावाद मनुष्य 1 के नैतिक सम्बन्धों की व्याख्या नहीं कर सकता, क्योंकि पहली बात तो यह है उपयोगिता के आधार पर हम किसी भी नैतिक नियम पर नहीं पहुंच सकते। कोई भी नीतिशास्त्र तब तक नहीं टिक सकता, जब तक उसके नियमों का आचार आलोकिकता न हो या जैसा में कहना अधिक उचित समझता हूँ जब तक उसके नियम अतीन्द्रिय ज्ञान पर आधारित न हो। असीम के प्रति संग्राम के बिना आदर्श नहीं हो सकता।
ऐसा कोई भी सिद्धान्त नैतिक नियमों की व्याख्या नहीं कर सकता जो मनुष्य को सामाजिक स्तर तक ही सीमित रखना चाहता हो। उपयोगितावादी हमसे असीम अतीन्द्रिय गन्तव्य स्थल के प्रति संग्राम का त्याग चाहते हैं, क्योंकि अतीन्द्रियता अव्यवहारिक है बेकार है। किन्तु साथ ही वे यह भी कहते हैं कि नैतिक नियमों का पालन करो। समाज का कल्याण करो। आखिर हम क्यों किसी का कल्याण करें? भलाई करने की बात तो गौण है, प्रधान तो है एक आदर्श नीतिशास्त्र स्वयं साध्य नहीं है, प्रत्युत साध्य को पाने का साधन है।
यदि उद्देश्य नहीं है, तो हम क्यों नैतिक बनें? हम क्यों दूसरों की भलाई करें? क्यों हम लोगों को सताएं नहीं? अगर आनन्द ही मानव जीवन का चरम उद्देश्य है, तो क्यों न में दूसरों को कष्ट पहुंचाकर भी स्वयं सुखी रहूँ? ऐसा करने से मुझे कौन रोकता है। दूसरी बात यह है कि उपयोगिता का आधार अत्यन्त संकीर्ण है। सारे प्रचलित सामाजिक नियमों की रचना, समाज की तत्कालीन स्थिति को दृष्टि में रखकर की गयी है। लेकिन उपयोगितावादियों को यह सोचने का क्या अधिकार है कि यह समाज शाश्वत है? कभी ऐसा भी समय था, जब समाज नहीं था, और ऐसा भी समय आएगा, जब यह नहीं रहेगा।
यह तो कदाचित् मनुष्य की प्रगति के क्रम में एक ऐसा स्थल है, जिससे होकर उसे विकास के उच्चतर स्तरों तक जाना है। और इस तरह कोई भी नियम जो मात्र समाज पर आधारित है, शाश्वत नहीं हो सकता, मानव आकृति को पूर्णरूपेण आच्छादित नहीं कर सकता। अधिक से अधिक यह उपयोगितावादी नियम समाज की वर्तमान स्थिति में काम कर सकता है। इसके अतिरिक्त इसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। किन्तु धर्म तथा आध्यात्मिकता पर आधारित नीतिशास्त्र का क्षेत्र असीम मनुष्य है। यह व्यक्ति को लेता है, पर उसके सम्बन्ध असीम हैं। वह समाज को भी लेता है, क्योंकि समाज व्यक्तियों के समूह का ही नाम है। इसलिए जिस प्रकार यह नियम व्यक्ति और उसके शाश्वत सम्बन्धों पर लागू होता है, ठीक उसी तरह समाज पर भी लागू होता है, समाज की स्थिति या दशा किसी समयविशेष में जो भी हो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य को हमेशा आध्यात्मिक धर्म की आवश्यकता पड़ती
कहेगी। वह उसे कितना भी आनन्ददायक क्यों न लगे ऐसा जाता है कि अधिक आध्यात्मिक होने पर सांसारिक व्यवहारों में कठिनाइयां हो सकती है। न्यू ग में कहा गया था कि पहले हम इस संसार की चिन्ता करे और जब इससे छूट मिले तो दूसरे लोकों की चर्चा करें। इस लोक की चिन्ता करना बहुत उत्तम है। लेकिन ज अधिक आध्यात्मिकता से हमारे लोकाचार में थोड़ी गड़बड़ी होती है, तो सांसारिकता पर अत्यधिक ध्यान देने से तो इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाएगे सारिकता में पूर्णतः भौतिकवाद बनाकर छोड़ेगी। मनुष्य का उद्देश्य प्रकृति नहीं है, बल्कि कुछ उससे भी ऊपर की वस्तु है।
मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता है और यह प्रकृति बाह्य और आंतरिक दोनों है। इस प्रकृति के भीतर केवल वे ही नियम नहीं है, बल्कि ऐसे सूक्ष्म नियम भी हैं, जो वस्तु प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है, किन्तु उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है आभ्यन्तर प्रकृति पर विजय पाना ग्रहों और नक्षत्रों का नियन्त्रण करने वाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है, परन्तु उससे अनन्त गुना अच्छा और व्य है उन नियमों को जानना, जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनाएं और इच्छाएं नियन्त्रित होती है। इस आन्तरिक मनुष्य पर विजय पाना, मानव-मन की जटिल सूक्ष्म क्रियाओं के रहस्य को समझना पूर्णतया धर्म के अन्तर्गत आता है।
मनुष्य का स्वभाव-साधारण मनुष्य स्वभाव है कि वह बृहत भौतिक तथ्यों का अवलोकन करना चाहता है। साधारण मनुष्य किसी सूक्ष्म वस्तु को नहीं समझ सकता। ठीक ही कहा गया है, कि संसार उस सिंह का आदर करता है, जो हजारों मैमनों का दध करता है। लोगों को यह समझने का अवकाश कहाँ है कि सिंह की इस क्षणिक विजय का अर्थ है-हजारों मेमनों की मृत्यु! इसका कारण यह है कि मनुष्य शारीरिक शक्ति की अभिव्यक्ति से खुश होता है। मानव जाति का यही सामान्य स्वभाव है। बाह्य वस्तुओं को ही लोग समझ सकते हैं, इन्हीं में उन्हें आनन्द मिलता है। पर हर समाज में कुछ ऐसे लोग मिलते ही हैं, जिन्हें इन्द्रिय विषयक वस्तुओं में कोई खुशी नहीं मिलती। वे इनसे ऊपर उठना चाहते हैं और यदा-कदा सूक्ष्मतर तत्त्वों की झांकी पाकर उन्हें ही पाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं और जब हम विश्व इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब-जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब-तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, तथा जब असीम को खोजा, उसे उपयोगितावादी कितनी ही अर्थहीन कहें- समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है।
तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता ही किसी भी राष्ट्र की शक्ति का प्रधान स्रोत है। जिस दिन से इसका हास और भौतिकता का उत्थान होने लगता है, उसी दिन से उस राष्ट्र की मृत्यु
प्रारम्भ हो जाती है। इस तरह धर्म से ठोस सत्यों तथा तथ्यों को पाने के अलावा उससे मिलने वाली सांत्वना के अलावा एक विशुद्ध विज्ञान और एक अध्ययन के रूप में वह मानव-मन के लिए सर्वोत्कृष्ट और स्वस्थतम व्यायाम है। असीम की खोज करना, असीम को पाने के लिये उद्यम करना, इन्द्रियों का मानो भौतिक द्रव्यों की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना-इन सारी वस्तुओं के लिए दिन-रात जो कोशिश की जाती है, वह अपने आप में ही मनुष्य की सभी कोशिशों में उदात्ततम और परमगौरवशाली है। कुठ ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जिन्हें भोजन में ही परम सुख मिलता है। हमें कोई अधिकार नहीं कि हम उन्हें वैसा करने से मना करें। फिर कुछ ऐसे भी व्यक्ति मिलेंगे, जिन्हें विशिष्ट वस्तुओं के स्वामित्व में खुशी मिलती है।
हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम कहें कि उन्हें वैसा नहीं करना चाहिए, मगर उन्हें मना करने का भी किसी को कोई अधिकार नहीं है। जो प्राणी जितना निम्न स्तरीय होगा। उसे इन्द्रिय जनित सुखों में उतनी ही खुशी मिलेगी। बहुत कम मनुष्य ऐसे मिलेंगे, जिन्हें भोजन करते समय वैसा ही उल्लास होता है, जैसा किसी कुत्ते या भेड़िये को, किन्तु याद रहे, कुत्ते या भेड़िये के सारे सुख इन्द्रियों तक ही सीमित हैं। निम्न कोटि के मनुष्यों को इन्द्रियजनित सुखों में ही आनन्द मिलता है किन्तु जो लोग सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित हैं. उन्हें चिन्तन, दर्शन, कला और विज्ञान में आनन्द मिलता है। आध्यात्मिकता उससे भी उच्चतर स्तर की है। विषय के असीम होने के कारण वह स्तर उच्चतम है और जो उसे हृदयंगम कर सकते हैं, उनके लिये उस स्तर का आनंद सर्वोत्तम है। इसलिए अगर शुद्ध उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भी आनन्द की प्राप्ति ही मनुष्य का उद्देश्य है, तो भी धार्मिक चिन्तन का अभ्यास करना चाहिए। क्योंकि उसी में सर्वोत्तम सुख है। इस तरह मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि एक अध्ययन के रूप में भी धर्म अत्यन्त आवश्यक है। अब हम इसके परिणामों पर विचार करेंगे।
मानव मन के लिए यह सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है। जितनी शक्ति हममें आध्यात्मिक आदर्शो पर चलने से आती है, उतनी और किसी से नहीं। जहाँ तक मानव इतिहास का प्रश्न है, हम लोगों के लिए सुस्पष्ट है कि बात ऐसी ही रही है और धर्म की शक्तियाँ मृत नहीं हैं। मैं यह नहीं कहता कि केवल उपयोगितावादी आधार पर मनुष्य नैतिक और अच्छा नहीं हो सकता। केवल उपयोगिता के स्तर पर भी पूर्णतया स्वस्थ, नैतिक और अच्छे महापुरुष इस संसार में हुए हैं, लेकिन वैसे संसार को हिला देने वाले लोग तो मानो विश्व में एक महान् चुम्बकीय आकर्षण ला देते हैं, जिनकी आत्मा सैकड़ों और हजारों में कार्यशील है, जिनका जीवन आध्यात्मिक अग्नि से दूसरों को प्रज्ज्वलित कर देता है. हमेशा आध्यात्मिक की पृष्ठभूमि से ही आविर्भूत होते हैं। उनकी प्रेरक शक्ति का मीत हमेशा ही धर्म रहा है। जो असीम शक्ति प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव तथा जन्मसिद्ध
अधिकार है, उसके साक्षात् के लिए धर्म सर्वश्रेष्ठ प्रेरक शक्ति है। चरि निर्माण, शिव और महत् की प्राप्ति, स्वयं तथा विश्व की शान्ति की प्राप्ति के
लिए ही सर्वोपरि प्रेरक शक्ति है। इसलिये उसका अध्ययन इस दृष्टि से भी होना चाहिए। धर्म का अध्ययन अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक आधार पर होना चाहिए। धर्म संबंधी सभी संकीर्ण, सीमित, विवादास्पद धारणाओं को नष्ट होना चाहिए। संप्रदाय जाति या राष्ट्र की भावना पर आधारित सारे धमों का परित्याग करना होगा, प्रत्येक जाति या राष्ट्र का अपना-अपना अलग ईश्वर मानना और दूसरों का जान्त कहना, एक अधविश्वास है, उसे अतीत की वस्तु हो जाना चाहिए। ऐसे सारे विचारों से मुक्ति पानी होगी। जैसे-जैसे मानव मन का विकास होता है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक सोपान भी विस्तृत होते जाते हैं। यह समय तो आ ही गया है, जब कोई व्यक्ति पृथ्वी के किसी कोने में कोई बात कहे और सारे विश्व में वह गूंज उठे। मात्र भौतिक साधनों से हमने सम्पूर्ण जगत् को एक बना डाला है। इसलिए सम्भवतः आने वाले धर्म को विश्वव्यापी होना पड़ेगा। भविष्य के धार्मिक आदशों को सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी सुन्दर और महत्वपूर्ण है, उन सभी को समेटकर चलना पड़ेगा और साथ ही भावविकास के लिए अनन्त क्षेत्र प्रदान करना पड़ेगा।
“अतीत में जो कुछ भी सुन्दर रहा है, उसे जीवित रखना होगा। साथ ही वर्तमान के भण्डार को और भी समृद्ध बनाने के लिए भविष्य का विकास-द्वार भी खुला रखना होगा। धर्म को ग्रहणशील होना चाहिए और ईश्वर-सम्बन्धी अपने आदर्शों से भिन्नता के कारण एक-दूसरे का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। मैंने अपने जीवन में ऐसे अनेक महापुरुषों को देखा है, जो ईश्वर में एकदम विश्वास नहीं करते थे, अर्थात् हमारे और तुम्हारे ईश्वर मैं। लेकिन वे लोग ईश्वर को हमारी अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझते थे। ईश्वर सम्बन्धी सभी सिद्धान्त-सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम अथवा आदर्श मानव-धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत आने चाहिए और जब धर्म इतने उदार बन जाएंगे, तब उनकी कल्याणकारिणी शक्ति सी गुनी अधिक हो जाएगी।
धर्मों में अद्भुत शक्ति है, पर इनकी संकीर्णताओं के कारण इनसे कल्याण की अपेक्षा
अधिक हानि ही हुई है। यहाँ तक कि आज भी हम बहुत से सम्प्रदाय और समाज देखते
हैं, जो प्रायः समान आदर्श के अनुगामी होते हुए भी परस्पर लड़ रहे हैं। इसका कारण यह है कि एक सम्प्रदाय आदर्शों को दूसरे के समान हूबहू प्रतिपादित नहीं करना चाहता। अतः धर्म के उदार होने की नितान्त आवश्यकता है। धार्मिक विचारों को विस्तृत, विश्वव्यापक और असीम होना ही पड़ेगा, और तभी हम धर्म का पूर्ण रूप प्राप्त करेंगे, क्योंकि धर्म की शक्तियों की वास्तविक अभिव्यक्ति तो बस अब शुरू हुई है। लोग कहते हैं-धर्म मर रहा है, आध्यात्मिकता का हास हो रहा है, पर मुझे तो लगता
है कि अभी-अभी से पनपने लगे हैं। एक सुसंस्कृत एवं उदार धर्म की शक्ति अमी तो सम्पूर्ण मानव जीवन में प्रवेश करने जा रही है। जब तक धर्म कुछ गिने-चुन पण्डे-पादरियों के हाथ में रहा। किन्तु जब हम यथार्थ आध्यात्मिक और विश्व व्यापक धरातल पर आ पहुँचेंगे, तब और तभी, धर्म बथार्थ हो उठेगा, सजीव हो उठेगा, हमारे जीवन का अंग बन जाएगा, हमारी हर जाति में रहेगा, समाज के रोम-रोम में समा जाएगा और तब इसकी शिवात्मक शक्ति पहले की अपेक्षा अनन्त गुनी अधिक हो जाएगी। 1
आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी तरह के धर्म परस्पर बन्धुत्व का भाव रखें, क्योंकि अगर उन्हें जीना है तो साथ-साथ, और मरना है तो साथ-साथ। बन्धुत्व की यह भावना आपसी स्नेह और आदर पर आधारित होनी चाहिए न कि संरक्षणशील प्रसाद स्वरूप किंचित् शुभेच्छा की कृपण अभिव्यक्ति पर, जिसे आज एक धर्म अनुग्रह के भाव से दूसरे पर दर्शाते हुए पाया जाता है। एक और है मानसिक व्यापारों की अध्ययन जन्य धार्मिक अभिव्यक्तियाँ, जो अभाग्यवश आज भी धर्म पर एकाधिकार का पूरा दावा रखती हैं-और दूसरी ओर हैं, धर्म की वे अभिव्यक्तियों, जिनके मस्तिष्क तो स्वर्ग के रहस्यों में अधिक व्यस्त हैं, किन्तु जिनके चरण पृथ्वी से ही चिपके हैं।
मेरा तात्पर्य है, तथाकथित भौतिक विज्ञानों से। अब इन दोनों के मध्य इस बन्धुत्व की भावना की सर्वोपरि आवश्यकता है। इस सामंजस्य को लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना पड़ेगा, त्याग करना होगा, यही नहीं, कुछ दुखद बातों को भी सहन करना होगा। किन्तु इसी त्याग के परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति और भी निखर उठेगा और सत्य के सन्धान में अपने को और भी आगे पाएगा।
अन्त में देश-काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा, जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों की पहुँच से दूर है जो निरपेक्ष है, असीम है, अद्वितीय है।”
स्वामी विवेकानन्द के एकत्व की खोज कैसे हुई
स्वामी विवेकानन्द जी ने न्यूयार्क में व्याख्यान देते हुए कहा-“हम यहाँ खड़े हैं, लेकिन हमारी दृष्टि दूर, बहुत दूर, और कभी-कभी तो कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना शुरू किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयास करता है। वह ज्ञात करना चाहता है कि इस शरीर के नष्ट होने के | बाद यह कहाँ चला जाता है। इसकी व्याख्या करने के लिए अनेक सिद्धान्तों का प्रचार हुआ, सैकड़ों मतों की स्थापना हुई। उनमें से कुछ मत खण्डित करके छोड़ भी दिए गये और कुछ अस्वीकार किए गये। जब तक मनुष्य इस जगत् में रहेगा, जब तक वह विचार करता रहेगा, तब तक ऐसा ही चलेगा।
इन सभी मतों में कुछ-न-कुछ सत्य है, और साथ ही, उनमें बहुत-सा असत्य भी है। इस सम्बन्ध में भारत में जो सब अनुसन्धान हुए हैं, उन्हीं का सार, उन्हीं का फल मैं तुम्हारे सामने रखने का प्रयत्न करूंगा। भारतीय दार्शनिकों के इन सब विभिन्न मतों का समन्वय तत्त्वचिन्तकों तथा मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्तों का समन्वय, और अगर हो सका तो, उनके साथ आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तकों के सिद्धान्तों का भी समन्वय करने का मैं प्रयत्न करूँगा।
वेदान्त दर्शन का एकमात्र विषय है-एकत्व की खोज! हिन्दू मन वस्तु विशेष के लिए परवाह भी नहीं करता, वह तो सदैव सामान्य की, यही क्यों, सार्वभौमिक की खोज करता है। वह क्या है, जिसके जान लेने से सब कुछ जाना जा सकता है? यही एक विषय वस्तु है। जिस तरह मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर मिट्टी से बनी हुई सभी वस्तुओं को जान लिया जाता है, उसी प्रकार ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर सम्पूर्ण विश्व को जाना जा सकता है? यही एक खोज है।
हिन्दू दार्शनिकों के मतानुसार, सारे विश्व का विश्लेषण करके उसे आकाश में पर्यवसित किया जा सकता है। हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं, छूते हैं, आस्थादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। ठोस, तरल और वाष्पीय सब प्रकार के पदार्थ, सब तरह के रूप, शरीर, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारे सब इसी आकाश से निर्मित हैं। किस शक्ति ने इस आकाश पर कार्य करके इसमें से जगत की रचना की?
आकाश के साथ एक सर्वव्यापी शक्ति विद्यमान है। जगत में जितनी भी भिन्न मित्र शक्तियाँ हैं–आकर्षण, विकर्षण, यहाँ तक कि विचार शक्ति भी सभी प्राण नामक ए महाशक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके उस जमद की रचना की है। कल्प के आरम्भ में यह प्राण मानो अनंत आकाश-समुद्र में प्रमुख है। प्रारम्भ में यह आकाश गतिहीन होने से अव्यवस्थित था। बाद में प्राण के प्रभाव से इस आकाश समुद्र में गति उत्पन्न होने लगती है और जैसे-जैसे इस प्राण का स्पन्दन गति होने लगती है, वैसे-वैसे इस आकाश-समुद्र में से नाना ब्रह्माण्ड, नाना जगत्, कितने ही सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, मनुष्य जन्तु उमिद और नानाविधशक्ति उत्पन्न रहती हैं। अतएव हिन्दुओं के मत से सभी प्रकार की शक्तियां प्राण की ओर सब रह के भौतिक पदार्थ आकाश की विभिन्न अभिव्यक्तियों है, कल्पान्त में सभी ठोस पदार्थ पिघल जाएंगे और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जाएगा। वह फिर रूप धारण करेगा। अन्त में सब कुछ जिस आकाश में से उत्पन्न हुआ था, उसी में वि हो जाएगा। आकर्षण-विकर्षण, गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जाएंगी।
उसके पश्चात जब तक फिर से कल्पारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निति अवस्था में रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना रूपों को प्रकाशित करेगा और कल्पान्त में फिर से सबका क्षय हो जाएगा। बस इसी प्रकार सृष्टि आती है और चली जाती है, यह मानो एक बार पीछे और एक बार आगे झूल रही है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहेंगे कि एक समय यह स्थितिशील रहती है, फिर गतिशील हो जाती है एक समय सुसुप्त रहती है और फिर क्रियाशील हो जाती है। बस इसी तरह अनन्त काल से चला आ रहा है। किन्तु यह विश्लेषण भी अधूरा है। इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी ज्ञात है। इसके परे भौतिक विज्ञान की पहुंच नहीं है। पर इस अनुसन्धान का यहीं अन्त नहीं हो जाता।
हमने अभी तक उस वस्तु को नहीं पाया है जिसे जान लेने पर सबकुछ जाना जा सके हमने सम्पूर्ण विश्व को भूत और शक्ति में अथवा प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के शब्दों में आकाश व प्राण में पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व पर्यवसित करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन, महत् अथवा समष्टि विचार-शक्ति से प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। प्राण या आकाश की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। ि ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। शुरू में यह सर्वव्यापी मन ही था स्वयं व्यक्त परिवर्तित और विकसित होकर आकाश व प्राण में दो रूप धारण किए दोनों के सम्मिश्रण से सम्पूर्ण विश्व बना।
अब हम मनोविज्ञान की चर्चा करेंगे में तुमको देख रहा है। आंखें वा संवेदनाएं मेरे पास लानी हैं और संवेदक नाहियों उन्हें मस्तिष्क में से जाती है। आँखें देखने का सपन नहीं है, वे उसका केवल बाहरी यन्त्र हैं, क्योंकि देखने का जो वास्तविक साधन है जो मस्तिष्क में संवेदनाएं ले जाता है, उसको अगर नष्ट कर दिया जाए तब बीस आँखें रहते हुए भी से तुममे से किसी को भी न देख सका। नेत्रपटल पर भले ही चित्र हो फिर भी मैं तुमको न देख सकूंगा। अतएव वास्तविक दर्शनन्द्रिय इस यन्त्र से मिस्त है। इस यन्त्र के पीछे यथार्थ चक्षुरिन्द्रिय है। सब प्रकार की विषयानुभूतियों के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए। नासिक प्राणेन्द्रिय नहीं है, वह तो यन्त्र मात्र है. प्राणेन्द्रिय उसके पीछे है।
प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में समझना चाहिए कि बाह्य यन्त्र इस स्थूल शरीर में अवस्थित है, और उनके पीछे. इस स्थूल शरीर में ही इन्द्रियों भी मौजूद हैं। किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। मान लो, में तुमसे कुछ कह रहा हूँ और तुम बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रहे हो। तभी यहाँ एक घण्टा बजता है और शायद तुम उस घण्टे की ध्वनि को सुन नहीं पाते। यह शब्द-तरंगों ने तुम्हारे कान में पहुँच कर कान के पर्दे पर आघात किया, नाड़ियों द्वारा यह संवाद मस्तिष्क में पहुँचा, पर फिर भी तुम उसे नहीं सुन सके। ऐसा क्यों? अगर मस्तिष्क में आवेग संवाहित करने से ही सुनने की सारी किया सम्पूर्ण हो जाती है। पर इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हो जाती।
बाहरी यन्त्र भले ही बाहर से संवाद ले आएं, इन्द्रियों भले ही उसे भीतर ले जाएँ और मन भी इन्द्रियों से संयुक्त रहे, पर तो भी विषयानुभूति पूर्ण न होगी। एक और वस्तु आवश्यक है। भीतर से प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से ज्ञान उत्पन्न होगा। बाहर की वस्तु ने मानो मेरे भीतर संवाद प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे ले जाकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया, बुद्धि ने पहले से बने हुए मन के संस्कारों के अनुसार उसे सजाया। फिर बाहर की ओर एक प्रतिक्रिया प्रवाह भेजा। बस इस प्रतिक्रिया के साथ ही विषयानुभूति होती है। मन की जो यह स्थिति प्रतिक्रिया भेजती है, उसे बुद्धि कहते हैं। लेकिन इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई।
मान लो, एक कैमरा है और एक पर्दा। मैं इस पर्दे पर एक चित्र डालना चाहता हूँ, तो मुझे क्या करना होगा? मुझे उस यन्त्र में से नाना प्रकार की प्रकाश किरणों को इस पर्दे पर डालने का और उन्हें एक स्थान में एकत्र करने का प्रयत्न करना होगा। इसके लिए एक अचल वस्तु की आवश्यकता है, जिस पर चित्र डाला जा सके। किसी चलनशील वस्तु पर ऐसा करना असंभव है, कोई स्थिर वस्तु चाहिए। क्योंकि मैं जो प्रकाश किरणें डालना चाहता हूँ, वे सचल हैं और इन सचल प्रकाश किरणों को किसी अचल वस्तु पर एकत्र, एकीभूत, सम्मिलित और केन्द्रित करना होगा। यही बात उन संवेदनों के बारे में भी है, जिन्हें इन्द्रियों मन के करीब और
मन वृद्धि के निकट समर्पित करता है। जब तक ऐसी कोई वस्तु नहीं मिल जाती, जिस पर यह चित्र डाला जा सके, जिस पर ये भिन्न-भिन्न भाव एकत्रीभूत होकर मिल सके, तब तक यह विषयानुभूति पूर्ण नहीं होती।
वह कौन-सी वस्तु है, जो हमारे अस्तित्व के विभिन्न परिवर्तनशील विभागों को एक का भाव प्रदान करती है? वह कौन-सी वस्तु है, जो विभिन्न गतियों के अन्दर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है? वह कौन-सी वस्तु है, जिस पर विभिन्न भाव मानो एक ही जगह गुंथे रहते हैं, जिस पर विभिन्न आकार मानो एक जगह वास करते हैं और एक अखण्ड भाव धारण करते हैं?
हमने देखा है कि इस प्रकार की कोई वस्तु अवश्य चाहिए, और उस वस्तु का, शरीर और मन की तुलना में, अचल होना आवश्यक है। जिस पर्दे पर यह कमरा चित्र डाल रहा है, वह इन प्रकाश किरणों की तुलना में अचल है। अगर ऐसा न हो, तो चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात् उस वस्तु को, उस दृष्टा को एक अखण्ड, अविभाज्य व्यक्ति होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन सब चित्रांकन करता है, जिस पर मन और बुद्धि द्वारा से जायी गईं, हमारी संवेदनाएँ स्थापित, श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं, बस उसी को मनुष्य की आत्मा कहते हैं।
तो हमने देखा कि समष्टि-मन या महत् आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है और मन के पीछे है, आत्मा ! समष्टि-मन के पीछे है। जिस तरह विश्व में समष्टि-मन आकाश और प्राण के रूप में परिणत हो गया है, उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। अब प्रश्न उठता है क्या इसी प्रकार व्यष्टि मनुष्य के सम्बन्ध में भी समझना होगा? मनुष्य का मन भी क्या उसके शरीर का सृष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की सृष्टा है? अर्थात् मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा ये क्या तीन विभिन्न वस्तुएँ हैं, अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं, अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएँ हैं?
हम क्रमशः इसी प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे। जो भी हो, हमने अब तक यही देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे हैं इन्द्रियाँ, फिर मन, इसके पश्चात बुद्धि और बुद्धि के भी पीछे आत्मा । बस यहीं से धर्मजगत् में मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है अर्थात् भोज, सुख, दुःख आदि सभी यथार्थ में आत्मा के धर्म हैं, मगर अद्वैतवादी कहते हैं कि वह निर्गुण है, उसमें यह धर्म नहीं है। हम पहले द्वैतवादियों के मत का आत्मा और उसकी गति के बारे में उनके मत का वर्णन करके, उसके बाद उस मत का वर्णन करेंगे, जो इसका पूर्णरूप खण्डन करता है, और अन्त में अद्वैतवाद के द्वारा दोनों मतों का सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करेंगे।
यह मानवात्मा शरीर और मन से अलग होने के कारण एवं आकाश और प्राण से
गठित न होने के कारण अवश्य अमर है। क्यों? मृत्यु के विनाश का क्या अर्थ है? विघटित से जाना और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोग से बनती है, वही विघटित होती है। जो अन्य पदार्थों के संयोग से उत्पन्न नहीं है, वह कभी विघटित नहीं होती, इसलिए उसका विनाश भी कभी नहीं हो सकता। वह अविनाशी है। वह अनन्त काल से है, उसको कभी नहीं हुई।
सृष्टि तो संयोग अथवा संघात मात्र है। शून्य से कभी किसी ने सृष्टि नहीं देखी। सृष्टि के सम्बन्ध में हम बस इतना ही जानते हैं कि वह पहले से वर्तमान कुछ वस्तुओं का नये-नये रूपों में एकत्र मिलन मात्र है। यदि ऐसा है, तो फिर वह मानवात्मा भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न नहीं है, अतः वह अवश्य अनन्त काल से है और अनन्तकाल तक रहेगी।
“इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी। वेदान्तवादियों के मत से, जब इस शरीर का नाश हो जाता है, तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं, मन का प्राण में लय हो जाता है, प्राण आत्मा में चला जाता है और तब वह मानव की आत्मा मानों सूक्ष्म शरीर अथवा शरीर रूपी वस्त्र धारण कर चली जाती है। इस सूक्ष्म शरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। संस्कार क्या हैं? मन मानो सरोवर के सदृश्य है और हमारा हर विचार मानो उस सरोवर की लहर के समान है। जिस तरह सरोवर में लहर उठती है, गिरती है, गिरकर अन्तर्हित हो जाती है, उसी तरह मन में ये सब विचार-तरंग लगातार उठती और अन्तर्हित होती रहती हैं, किन्तु वे एकदम अन्तर्हित नहीं हो जाती।
वे क्रमशः सूक्ष्मतर होती चली जाती हैं, पर वर्तमान रहती ही हैं। प्रयोजन होने पर फिर उठती हैं। जिन विचारों ने सूक्ष्मतर रूप धारण कर लिया है, उन्हीं में से कुछ को फिर से तरंगाकार में लाने को ही स्मृति कहते हैं। इस तरह, हमने जो कुछ सोचा है, जो कुछ किया है, सारा का सारा मन में अवस्थित है। ये सब वहाँ सूक्ष्म रूप में है और मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं-वे फिर सूक्ष्म शरीर पर काम करते रहते हैं। आत्मा, ये सब संस्कार एवं सूक्ष्म शरीर रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है। विभिन्न संस्कारों की इस विभिन्न शक्तियों का समवेत फल ही आत्मा की भविष्य गति को निर्धारित करता है। उनके मत से आत्मा की तीन प्रकार की गतियां होती हैं। जो अत्यन्त धार्मिक हैं, वे मृत्यु के बाद सूर्य रश्मियों का अनुसरण करते हैं, सूर्य रश्मियों का अनुसरण करते हुए वे सूर्य लोक में जाते हैं, वहाँ से वे चन्द्रलोक और चन्द्रलोक से। विद्युतलोक में उपस्थित होता है, यहाँ एक मुक्त आत्मा से उनका साक्षात्कार होता है, वह इन जीवात्माओं को सर्वोच्च ब्रह्मलोक में ले जाती है।
यहाँ उन्हें सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता प्राप्त होती है, उनकी शक्ति और ज्ञान प्राय ईश्वर के समान हो जाता है, और द्वैतवादियों के मत से वे अनन्त काल तक वहाँ वास
करते हैं, अथवा, अद्वैतवादियों के अनुसार कल्पान्त में ब्रह्मा के साथ एकत्व प्राप्त करने हैं। जो लोग सकाम भाव से सत्कार्य करते हैं, वे मृत्यु के पश्चात चन्द्रलोक में जाते हैं। वहाँ नाना प्रकार के स्वर्ग हैं। वे वहाँ पर सूक्ष्म शरीर (देव शरीर) प्राप्त करते हैं। वे देवता बनकर वास करते हैं और दीर्घ काल तक स्वर्ग के सुखों का उपभोग करते हैं। इस सोग का अन्त होने पर फिर उनका प्राचीन कार्य बलवान हो जाता है, अतः फिर से उनका मृत्युलोक में पतन हो जाता है। वे वायुलोक, मेघलोक आदि लोकों में से होते हुए अन्त में दृष्टिधारा के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं।
दृष्टि के साथ गिरकर वे किसी शस्त्र का आश्रय लेकर रहते हैं। इसके बाद जब कोई व्यक्ति उस शस्त्र को खाता है, तब उसके वीर्य से वे फिर से शरीर धारण करते हैं। जी लोग अत्यन्त दुष्ट हैं, वे मरने पर भूत अथवा दानव हो जाते हैं, एवं चन्द्रलोक और पृथ्वी के बीच किसी स्थान में वास करते हैं। उनमें से कुछ मनुष्यों को परेशान करते हैं और कुछ मनुष्यों से मैत्रीभाव रखते हैं। वे कुछ समय तक उस स्थान में रहकर फिर पृथ्वी पर पशु-जन्म लेते हैं। कुछ समय पशु-देह में रहकर वे पुनः मनुष्य योनि में आते हैं-वे पुनः एक बार मुक्तिलाभ करने की उपयुक्त अवस्था प्राप्त करते हैं। तो इस तरह हमने देखा कि जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गये हैं, जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है, वे ही सूर्य किरणों के सहारे ब्रह्म लोक में जाते हैं।
जो मध्यम वर्ग के लोग हैं, जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सद्कर्म करते हैं, वे चन्द्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते हैं और देव शरीर प्राप्त करते हैं, लेकिन उन्हें मुक्ति को प्राप्ति के लिए फिर से मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। और जो अत्यन्त दुष्ट है. वे भूत, दानव आदि रूपों में परिणत होते हैं, उसके बाद वे पशु होते हैं और मुक्तिलाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है। अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्यकर्म करने पर स्वर्ग में जाकर देवता हो जाता है, इस अवस्था में वह कोई नया कर्म नहीं करता वह तो बस, पृथ्वी पर किए हुए अपने सद्कर्म के फलों का ही भोग करता है। जब वे सत्कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो उसी समय जो असत् या बुरे कर्म उसने पृथ्वी पर किए थे, उन सबका संचित फल वेग के साथ उस पर आ जाता है और उसे वहाँ से फिर एक बार पृथ्वी पर घसीट लाता है। इसी प्रकार जो भूत हो जाते हैं, वे उस स्थिति में कोई नूतन कर्म न करते हुए केवल अपने पूर्वकर्मों का फल भोगते रहते हैं।
इसके पश्चात पशु जन्म ग्रहण कर वे वहाँ भी कोई नया कर्म नहीं करते, उसके बा वे भी फिर मनुष्य हो जाते हैं। शुभ और अशुभ कर्मों द्वारा जनित पुरस्कार तथा दण्ड अवस्थाओं में नये कर्मों को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती, वह केवल भोगी जा है । अत्यन्त शुभ और अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल बहुत जल्द प्राप्त होता है। मान लो
कि एक व्यक्ति ने जीवन भर अनेक बरे कर्म किए, मगर एक बहुत अच्छा काम भी किया। ऐसी दशा में उस सत्कार्य का फल उसी क्षण प्रकाशित हो जाएगा और इस सत्कर्म का फल समाप्त होते ही बुरे कार्य भी अपना फल दिखाने लगेंगे। जिन लोगो ने कुछ अच्छे-अच्छे बड़े-बड़े कार्य किए हैं, पर जिनके सारे जीवन की सामान्य गति अच्छी नहीं रही, वे सब देवता हो जाएंगे। देव-देह धारण कर देवताओं की शक्ति का कुछ काल तक भोग करके उन्हें फिर से मनुष्य होना पड़ेगा।
जब सत्कमों की शक्ति का क्षय हो जाएगा, तब फिर से उन पुराने असत्कायों का फल होने लगेगा। जो अत्यन्त बुरे कर्म करते हैं, उन्हें भूत-योनि, दानव-योनि में जाना पड़ेगा और जब उनके बुरे कर्मों का फल समाप्त हो जाएगा, तो उस समय उनका जितना भी कर्म शेष है, उसके फल से वे फिर मनुष्य हो जाएंगे। जिस मार्ग से ब्रह्मलोक में जाते हैं, जहाँ से पतन होने या लौटने की संभावना नहीं रहती, उसे देवयान कहते हैं और चन्द्रलोक के मार्ग को पितृवान कहते हैं।
इसी कारण वेदान्त दर्शन के अनुसार मनुष्य ही जगत् में सबसे श्रेष्ठ प्राणी है और कर्मभूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है, क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है। देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण होने के लिए मनुष्य जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक अद्भुत स्थिति और अद्भुत अवसर है।
अब हम दर्शन के एक अन्य पक्ष पर विचार करेंगे। बौद्ध लोग इस आत्मा का अस्तित्व एकदम अस्वीकार करते हैं। वे कहते हैं-हम विचार के प्रवाह को ही क्यों न चलने दें? शरीर और मन के पीछे उनके आधार स्वरूप आत्मा नामक कोई वस्तु मानने की क्या आवश्यकता है? इस शरीर और मन रूपी वस्तु से ही क्या यथेष्ट व्याख्या नहीं हो जाती? और एक तीसरी वस्तु से क्या लाभ? यह युक्ति है तो बड़ी प्रबल जहाँ तक बाह्य अनुसंधान की पहुँच है, वहाँ तक तो यही लाभ होता है कि यह शरीर और मन रूपी यन्त्र अपनी व्याख्या के लिए स्वयं ही पर्याप्त है, कम से कम हममें से अनेक इस तत्त्व को इसी दृष्टि से देखते हैं। तब फिर शरीर और मन से भिन्न, पर साथ ही शरीर और मन के अधिष्ठानस्वरूप आत्मा नामक एक पदार्थ के अस्तित्व की कल्पना की क्या आवश्यकता? बस शरीर और मन कहना ही तो पर्याप्त है। सतत् परिणामशील जड़-प्रवाह का नाम है मन। तब, यह तो एकत्व की प्रतीती हो रही है, वह कैसे होती है?
बौद्ध कहते हैं कि एकत्व वास्तविक नहीं है। मान लो, एक जलती मशाल को घुमाया जा रहा है तो इससे यह आग एक वृत्त-सी प्रतीत होती है वास्तव में कहीं कोई वृत्त नहीं है, पर मशाल के सतत् घूमने से आग ने यह वृत्त-रूप धारण कर लिया है। इसी तरह हमारे जीवन में भी एकत्व नहीं है, जड़ की राशि निरंतर चल रही है। अगर सम्पूर्ण जड़राशि
को एक कहकर सम्बोधित करने की इच्छा हो, तो करो, पर उसके अतिरिक्त वास्तव में कोई एकत्व नहीं है। 1
मन के सम्बन्ध में भी यही बात है, हर एक विचार दूसरे विचारों से पृथक है। यह प्रबल विचार-प्रवाह ही एक भ्रमात्मक एकत्व का भाव उत्पन्न कर देता है, अतएव फिर तीसरी वस्तु की क्या आवश्यकता? जो कुछ दिखता है, यह जड़ प्रवाह और यह विचार-प्रवाह। बस, इन्हीं का अस्तित्व है, इनके पीछे और कुछ है, यह विचार करने की क्या आवश्यकता है? बहुत से आधुनिक सम्प्रदायों ने बौद्धों के इस मत को ग्रहण कर लिया है, लेकिन वे सभी इसे नयी तथा अपनी खोज कहकर प्रतिपादित करना चाहते हैं। अधिकतर बौद्ध दर्शनों में मुख्य बात यही है कि यह परिदृश्यमान जगत पर्याप्त है, इसके पीछे और कुछ है या नहीं, यह अनुसंधान करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं।
यह इन्द्रियग्राह्य जगत ही सर्वस्व है-किसी वस्तु को इस जगत् के आश्रम के रूप में कल्पना करने की आवश्यकता ही क्या? सब कुछ गुणों का ही संघात है। ऐसे किसी आनुमानिक द्रव्य की कल्पना करने की क्या आवश्यकता, जिसमें वे सब गुण आश्रित हो? द्रव्य का ज्ञान आता है केवल गुणराशि के त्वरित स्थान परिवर्तन के कारण, इसलिए नहीं कि कोई अपरिणामी वस्तु वास्तव में उनके पीछे है।
हम देखते हैं कि ये युक्तियाँ बड़ी प्रबल हैं और मानव के सामान्य अनुभव को सत्य प्रतीत होती हैं। वास्तव में एक लाख मनुष्यों में एक व्यक्ति भी इस दृश्य जगत् से अतीत किसी वस्तु की धारणा नहीं कर सकता। अधिकांश लोगों के लिए प्रकृति सिर्फ एक परिवर्तन की राशि मात्र है। सदा परिवर्तन, परिणाम, चक्रगति सम्मिश्रण। हम में से बहुत कम लोगों ने ही अपने पीछे स्थित उस समुद्र का थोड़ा-सा आभास पाया होगा हमारे लिए तो वह समुद्र तरंगों से आलोकित रहता है और जगत् हमें तरंगों की चंचल राशि मात्र प्रतीत होता है।
इस प्रकार हम दो मत देखते हैं। प्रथम तो यह कि इस शरीर और मन के पीछे एक स्थिर और अपरिणामी सत्ता है। और दूसरा यह कि इस जगत् में स्थिरता और नित्यता जैसा कुछ भी नहीं है, सब कुछ परिवर्तन ही परिवर्तन है। इस मतवैभिन्य का समाधान हमें विचार के अगले सोपान, अद्वैत में मिलता है। अद्वैतवादी कहते हैं, द्वैतवादियों की यह बात कि जगत् का एक अपरिणामी आधार या पृष्ठभूमि है, सत्य किसी अपरिणामी वस्तु की कल्पना किए बिना हम परिणाम की कल्पना कर ही नहीं सकते। किसी अपेक्षाकृत अल्प परिणामी वस्तु की तुलना में ही किसी वस्तु के परिणाम की बात सोची जा सकती है और पूर्वोक्त अल्प परिणामी वस्तु भी अपने से कम परिणाम वाली वस्तु की तुलना में अधिक परिणामशील है और इस प्रकार का क्रम चलता ही रहेगा, जब तक हम विवश होकर एक ऐसी वस्तु को स्वीकार न कर लेते, जिसका कभी परिणाम नहीं होता।
यह समस्त व्यक्त जगत्-प्रपंच निश्चय ही एक अव्यक्त, स्थिर और शान्त अवस्था में था, जब वह विरोधी शक्तियों का सन्तुलन स्वरूप था, अर्थात् जब कोई भी शक्ति क्रियाशील नहीं थी, क्योंकि साम्यावस्था भंग होने पर ही शक्ति क्रियाशील होती है। यह ब्रह्माण्ड फिर से उसी साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए सदा व्यानमग्न है। अगर हमारा किसी विषय के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान है, तो वह यही है। दैतवादी जब कहते हैं कि कोई अपरिणामी वस्तु है, तब वे ठीक ही कहते हैं, पर उनका यह विश्लेषण कि एक अन्तनिहित वस्तु है, जो न शरीर है, न मन, घर इन दोनों से है भूत है।
बौद्ध लोग जो कहते हैं कि समस्त जगत परिणाम प्रवाह मात्र है, तो यह भी पूर्णतया सत्य है, क्योंकि जब तक में जगत से पृथक है, जब तक में अपने अतिरिक्त और कुछ देखता हूँ, तब तक एक दृष्टा है और दृश्य वस्तु है-संक्षेप में, जब तक द्वैत भाव है, यह जगत सदैव परिणामशील ही प्रतीत होगा। किन्तु वास्तविक बात यह है कि इस संसार के परिणाम भी हैं और अपरिणाम भी आत्मा, मन और शरीर ये तीनों अलग-अलग वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि वे एक ही हैं, क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक है। एक ही वस्तु कभी देह, कभी मन और कभी देह और मन से अतीत आत्मा रूप में प्रतीत होती है, लेकिन वह एक ही समय में तीनों नहीं होती।
“जो शरीर को देखते हैं, वे मन को नहीं देख पाते, जो मन को देखते हैं, वे आत्मा को नहीं देख पाते; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन दोनों न मालूम कहाँ चले जाते हैं। जो लोग सिर्फ गति देखते हैं, वे सम्पूर्ण स्थिर भाव को नहीं देख पाते, और जो इस सम्पूर्ण स्थिर भाव को देख पाते हैं, उनके लिए गति न मालूम कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है, उसके लिए रन्जु न मालूम कहाँ चली जाती है, और जब भ्रान्ति दूर होने पर वह व्यक्ति रज्जु ही देखता है तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता।
तो हमने देखा कि सर्वव्यापी वस्तु एक ही है और वह अनेक रूपों में प्रतीत होती है। इससे चाहे आत्मा कहो या अन्य कोई द्रव्य कहो, जगत् में एकमात्र इसी का अस्तित्व है। अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरंगों की तरफ देखो, एक ही तरंग समुद्र से अलग नहीं है। फिर भी तरंग अलग क्यों महसूस देती है? नाम और रूप के कारण तरंग की आकृति और उसे हमने जो ‘तरंग’ नाम दिया है, बस इन दोनों ने उसे समुद्र से अलग किया है।
नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र थी, समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के मध्य भला कौन भेद कर सकता है? इसीलिए यह सारा संसार एक स्वरूप है। जो भी पार्थक्य दिखता है, वह सब नाम-रूप के ही कारण है। जिस तरह सूर्य लाखों जलकणों पर प्रतिबिम्बित होकर हरेक जलकण में अपनी एक सम्पूर्ण प्रतिकृति सृष्ट कर देता है,
उसी प्रकार वही एकाएक सत्ता विभिन्न वस्तुओं में प्रतिविम्बित करना
रूपों में दिखाई पड़ती है। लेकिन असल में वह एक ही है। वास्तव में में’ या तुम नहीं है-सब एक ही हैं। चाहे कह लो ‘सभी में है या कह लो ‘सभी तुम हो। यह देत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और समस्त संसार इसी त ज्ञान का फल है। विवेक का उदय होने पर मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएं नहीं है, एक वस्तु उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं अनन्त ब्रह्माण्डस्वरूप है। में ही यह परिवर्तन
संसार हूँ, और में ही अपरिणामी निर्गुण, नित्यपूर्ण, नित्यानन्दमव हूँ।
इसीलिए नित्यशुद्ध, नित्यपूर्ण, अपरिणामी, अपरिवर्तनीय एक आत्मा है, उसका क परिणाम नहीं होता, और ये सब विभिन्न परिणाम उस एक आत्मा में प्रतीत मात्र होते हैं।
नाम-रूप ने उस पर ये सब विभिन्न स्वप्न-चित्र अंकित कर दिये हैं। रूप ने ही तरंग को समुद्र से अलग किया है। मान लो कि तरंग विलीन हो गयी, तो क्या यह रूप रहेगा? नहीं, वह बिल्कुल चला जाएगा। तरंग का अस्तित्व पूर्ण रूप से समुद्र के अस्तित्व पर निर्भर है, पर समुद्र का अस्तित्व तरंग के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। जब तक तरंग रहती है, तब तक रूप भी रहता है, किन्तु तरंग के विलीन हो जाने पर वह रूप फिर नहीं गए सकता। इस नाम रूप को ही माया कहते हैं।
यह माया ही भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का सृजन करके उनमें परस्पर में पार्थक्य का बोद करा रही है। पर असल में इसका अस्तित्व नहीं है। माया का अस्तित्व है, यह नहीं कहा जा सकता। रूप या आकृति का अस्तित्व है, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह तो दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर रहती है, और उसका अस्तित्व नहीं है, यह भी नहीं कहा ज सकता, क्योंकि उसी ने तो यह सारा भेद पैदा किया है।
अद्वैतवादियों के मतानुसार इस माया अथवा अज्ञान या नाम रूप अथवा यूरोपीय लोगों की भाषा में इस देश-काल-निमित्त के कारण यह एक अनन्त सत्ता इस वैचित्र्यमय जगत के रूप में दिखाई पड़ती है। परमार्थतः यह संसार एक अखण्डस्वरूप है, जब तक कोई दो परमार्थतः सत्य वस्तुओं की कल्पना करता है, तब तक वह भ्रम में है। जब वह ज्ञात कर लेता है कि सत्ता केवल एक है, तभी वह यथार्थ में जानता है। जितना ही काल बीतता जाता है, उतना ही हमारे निकट भौतिक स्तर पर, मानसिक स्तर पर और आध्यात्मिक स्तर पर भी यह सत्य प्रमाणित होता जाता है।
अब प्रमाणित हो गया है कि तुम, मैं, सूर्य, चन्द्रमा, तारे-सभी एक ही जड़ समुद्र के
भिन्न-भिन्न अंशों के नाम मात्र हैं और यह जड़राशि सतत् परिवर्तित होती रहती है। शक्ति
का जो कण कुछ मास पूर्व सूर्य में था, हो सकता है, आज वह मनुष्य के भीतर आ गया हो, कल
शायद वह पशु के भीतर और परसों शायद किसी उद्भिद के भीतर प्रवेश कर जाएगा
आवागमन लगातार हो रहा है। यह सब एक अखण्ड जड़राशि है-भेद है केवल नाम और रूप
में। इसके एक बिन्दु का नाम है सूर्य, एक का चन्द्रमा, एक का तारा, एक का मनुष्य, एक का पशु, एक का उद्भिद आदि-आदि। और ये सारे नाम भ्रमात्मक हैं, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। क्योंकि इस जड़राशि का लगातार परिवर्तन हो रहा है।
इस संसार को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखने पर यह एक विशाल विचार समुद्र के समान नजर आयेगा। जिसका एक-एक बिन्दु एक-एक विशेष मन है-तुम एक मन हो, में एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक-एक मन है। फिर इसी संसार को जब ज्ञान की दृष्टि से देखा जाता है, अर्थात् जब आंखों पर से मोह का पर्दा हट जाता है, अखण्ड पूर्ण स्वरूप पुरुष के रूप में प्रतीत होता है।
“तब फिर द्वैतवादियों के परलोकवाद का मनुष्य मृत्योपरान्त स्वर्ग जाता है अथवा अमुक लोक में जाता है और बुरा आदमी भूत हो जाता है, उसके पश्चात् पशु होता है, आदि बातों का क्या होता है? अद्वैतवादी कहते हैं-न कोई आता है, न कोई जाता है- तुम्हारे लिए आना-जाना किस प्रकार सम्भव है? तुम तो अनन्त स्वरूप हो; तुम्हें जाने के लिए स्थान कहाँ” किसी स्कूल में छोटे बच्चों की परीक्षा हो रही थी। परीक्षक उन छोटे-छोटे बच्चों से कठिन प्रश्न कर रहे थे। उन प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी था, “पृथ्वी गिरती क्यों नहीं?”
उन्हें आशा थी कि बच्चों से उत्तर में गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त तथा अन्य कोई जटिल वैज्ञानिक सत्य मिले। अनेक बालक इस प्रश्न को समझ न सके और अपनी-अपनी समझ से उल्टे-सीधे उत्तर देने लगे। पर एक बुद्धिमती बालिका ने एक दूसरा प्रश्न करते हुए उसका उत्तर दिया, “पृथ्वी गिरती कहाँ ?”
यह प्रश्न तो निरर्थक है। विश्व में ऊँचा-नीचा कुछ भी नहीं है। ऊँचा-नीचा तो सापेक्ष ज्ञान मात्र है। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। इसके सम्बन्ध में जन्म-मृत्यु का प्रश्न ही निरी मूर्खता है। कौन जाता है, कौन आता है? तुम कहाँ नहीं हो? वह स्वर्ग कहाँ है, जहाँ तुम पहले से ही नहीं हो? मनुष्य की आत्मा सर्वव्यापी है। तुम कहाँ जाओगे? कहाँ नहीं जाओगे। आत्मा तो सभी जगह है।
इसीलिए यह जन्म-मृत्यु, स्वर्ग-नरक आदि-रूप बच्चों जैसा स्वप्न, बच्चों जैसे क्रम-सब कुछ पूर्ण जीवन मुक्त व्यक्ति हेतु एकदम गायब ‘जाता है। जिनके भीतर कुछ अज्ञान अवशिष्ट है, उनको वह ब्रह्मलोक पर्यन्त अनेक प्रकार के दृश्य दिखाकर फिर अन्तर्हित होता है। और जो अज्ञानी हैं, उनके लिए वह रह जाता
पैदा होंगे मरेंगे, स्वर्ग जाएँगे इन सब बातों पर सम्पूर्ण जगत् विश्वास क्यों करता है? मैं एक पुस्तक पढ़ रहा हूँ, उनके पृष्ठ-पर-पृष्ठ पढ़े जा रहा हूँ और उन्हें उलटता जा रहा हूँ। और एक पृष्ठ आया, वह भी उलट दिया गया। परिवर्तन किसमें हो रहा है? कौन आ-जा रहा है? मैं नहीं, इस पुस्तक के पन्ने ही उलटे जा रहे हैं। समस्त प्रकृति आत्मा
के सम्मुख रखी एक पुस्तक के समान है। उसका एक के बाद दूसरा अध्याय पद्मजा रहा है। फिर एक नया दृश्य सामने आता है। पढ़ने के बाद उसे भी उलट दिया जाता है। फिर एक नया अध्याय सामने आता है, पर आत्मा जैसी थी, वैसी ही रहती है-वही अनन्तस्वरूप परिणाम प्रकृति का हो रहा है, आत्मा का नहीं। आत्मा का कभी भी परिणाम नहीं होता।
जन्म-मृत्यु प्रकृति में हैं, तुममें नहीं। फिर भी अज्ञ लोग भ्रान्त होकर सोचते हैं कि हम मर रहे हैं, हम जी रहे हैं, प्रकृति नहीं। यह बात ठीक वैसी ही है, जैसे हम समझते हैं कि सूर्य चल रहा है, पृथ्वी नहीं। अतः यह समस्त भ्रान्ति ही है। जिस प्रकार रेलगाड़ी के बदले हम खेत आदि को चलायमान मानते हैं, जन्म और मृत्यु की यह भ्रान्ति भी ठीक उसी प्रकार ही है। जब मनुष्य किसी विशेष भाव में रहता है, तब वह इसी सा को पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, तारा आदि के रूप में देखता है और जो लोग इसी मनोभाव से युक्त हैं, वे भी ठीक ऐसा ही देखते हैं। भ्रान्तिवश
मेरे और तुम्हारे बीच अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर लाखों जीव हो सकते हैं। वे हमें कभी न देख पाएंगे और हम भी उन्हें कभी नहीं। हम सिर्फ अपने ही प्रकार के चित्तवृत्ति सम्पन्न और अपने ही स्तर के प्राणियों को देख सकते हैं। जिन वाद्ययन्त्रों में एक ही प्रकार का कम्पन्न है, उनमें से एक के बजने पर शेष सभी बज उठेंगे। मान लो, हम अभी जिस कम्पन्न से युक्त हैं, उसे हम ‘मानव-कम्पन्न’ नाम दे देते हैं। अब अगर यह कम्पन्न बदल जाएं, तो फिर मनुष्य दिखाई नहीं देंगे। सम्पूर्ण मानव जगत अदृश्य हो जाएगा और उसके बदले अन्य दृश्य हमारे सामने आ जाएगा। हो सकता है, देव-जगत और देवता आदि आ जाएं या दुष्ट मनुष्यों के लिए दानव और दानव-जगत आ जाएं। पर ये सभी एक ही जगत के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। यह जगत मानव-दृष्टि से पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, तारा आदि रूपों में दिखता है, फिर यही दानवों की दृष्टि से देखने पर नरक या दण्डालय के रूप में प्रतीत होता है। और जो स्वर्ग जाना चाहते हैं, वे इसी जगत को स्वर्ग के रूप में देखते हैं। जो व्यक्ति आजीवन यह सोचता रहा है कि स्वर्ग में सिंहासन पर बैठे हुए ईश्वर के निकट जाकर सारा जीवन उनकी उपासना करेगा, वह मृत्यु के बाद अपने उसी मनोभाव के अनुरूप देखेगा।
यह जगत ही उसके लिए एक वृहत् स्वर्ग में परिणत हो जाएगा। वह देखेगा कि अनेक प्रकार की अप्सराएँ, किन्नर आदि उड़ते फिर रहे हैं और देवतागण सिंहासनों पर बैठे हैं। स्वर्ग आदि सब कुछ मनुष्य के गढ़े हुए हैं।
इसीलिए अद्वैतवादी कहते हैं-द्वतवादियों की बात सत्य तो है, पर यह सब उनका अपना ही बनाया हुआ है। ये सब लोक, ये देव, दानव, जन्म, पुनर्जन्म आदि सभी काल्पनिक हैं, और मानव जीवन भी ऐसा ही है। ये सब तो काल्पनिक हो और
मानवजीवन सत्य हो, ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसी जीवन मात्र को सत्य समझकर एक महान मूल करता है। अन्यान्य वस्तुओं को तो जैसे स्वर्ग, नरक आदि को काल्पनिक कहने से यह उचित समझ लेता है, पर अपने अस्तित्व को वह कभी काल्पनिक स्वीकार करना नहीं चाहता।
यह सारा दृश्यमान जगत् कल्पना मात्र है और सबसे बड़ा मिथ्या ज्ञान तो यह है कि. हम शरीर हैं। हम कभी भी शरीर नहीं थे, और न कभी हो सकते हैं। हम सिर्फ मनुष्य है, यह कहना एक भयानक असत्य है। हम तो संसार के ईश्वर हैं। ईश्वर की उपासना करके हमने सदैव अपनी अव्यक्त आत्मा की ही उपासना की है। अपने को जन्म से ही दुष्ट और पापी सोचना यही सबसे बड़ी मिथ्या बात है, पापी तो वह है, जो दूसरों को पापी देखता है। मान लो, यहाँ एक बच्चा है और सोने की मोहरों से भरी एक थैली तुम यहां मेज पर रख देते हो। मान लो, एक चोर आया और थैली ले गया। बच्चे की दृष्टि में थैली का रखा जाना और चोरी हो जाना दोनों समान हैं। उसके भीतर चोर नहीं है, इसलिए वह बाहर भी चोर नहीं देखता ।
पापी और दुष्ट मनुष्य को ही बाहर में पाप दिखता है, साधु पुरुष को नहीं। अत्यन्त असाधु व्यक्ति इस जगत को नरक के रूप में देखते हैं; मध्यम श्रेणी के लोग इसे स्वर्ग के रूप में देखते हैं; और जो पूर्ण सिद्ध पुरुष हैं; वे इसे साक्षात् ईश्वर के रूप में देखते हैं। बस तभी आंखों पर से पर्दा हट जाता है, और पवित्र एवं शुद्ध हुआ वह व्यक्ति देखता है कि उसकी दृष्टि एकदम बदल गयी है जो दुःस्वप्न उसे लाखों वर्षों से पीड़ित कर रहे थे, वे सब बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं और जो अपने को इतने दिन मनुष्य, देवता, दानव आदि समझ रहा था, जो अपने को कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी पृथ्वी पर, कभी स्वर्ग में, तो कभी और किसी स्थान में स्थित समझता था, वह देखता है कि वह वास्तव में सर्वव्यापी है। वह काल के अधीन नहीं है। काल ही उसके अधीन है, सारे स्वर्ग उसके भीतर हैं, वह खुद किसी स्वर्ग में अवस्थित नहीं है-और मनुष्य ने आज तक जितने देवताओं की उपासना की है, वे सब के सब उसके भीतर ही अवस्थित हैं; वह खुद किसी देवता में अवस्थित नहीं है।
वह देव, असुर, मानव, पशु, उद्भिद्, प्रस्तर आदि सभी का सृष्टिकर्ता है। और उस समय मनुष्य का असल स्वरूप उसके निकट इस जगत से श्रेष्ठतर, स्वर्ग से भी श्रेष्ठतर, अनन्त काल से भी अधिक अनन्त और सर्वव्यापी आकाश से भी अधिक सर्वव्यापी रूप में प्रकाशित होता है। तभी मनुष्य निर्भय हो जाता है, तभी वह मुक्त हो जाता है। तब सारी भ्रान्ति दूर हो जाती है, सभी दुःख दूर हो जाते हैं, साग भय एकदम चिरकाल के लिये समाप्त हो जाता है। तब जन्म न जाने कहाँ चला जाता है और उसके साथ सुख की पृथ्वी उड़ जाती है और उसके साथ-साथ स्वर्ग भी उड़ जाता है; शरीर चला जाता है और उसके साथ मन भी। उस भ्रान्ति की
दृष्टि में यह सम्पूर्ण विश्व मानों अन्तर्हित हो जाता है। यह जो शक्तियों का निरन्तर संग्राम, निरन्तर संघर्ष है, यह सब एकदम समाप्त हो
जाता है, और जो स्वयं प्रकृति के रूप में, स्वर्ग, पृथ्वी, उद्भिद्, पशु, मनुष्य, देवता आदि के रूप में प्रकट हो रहा था, वह समस्त एक अनन्त, अच्छेय, अपरिणामी सत्ता के रूप में परिणत हो जाता है; और ज्ञानी पुरुष देख पाते हैं कि वे उस सत्ता से अभिन्न हैं। जिस प्रकार आकाश में नाना वर्ण के मेघ आकर, कुछ देर खेलकर फिर अन्तर्हित हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार इस आत्मा के सम्मुख पृथ्वी, स्वर्ग, चन्द्रलोक, देवता, सुख-दुःख आदि आते हैं, पर वे उसी अनन्त, अपरिणामी, नील आकाश को हमारे सम्मुख छोड़कर अन्तर्हित हो जाते हैं।
आकाश में कभी परिवर्तन नहीं होता, परिवर्तन केवल मेघ में होता है। भ्रम के वशीभूत हो हम सोचते हैं कि हम अपवित्र हैं, हम सन्त हैं, हम अलग हैं। पर वास्तव में यथार्थ मनुष्य एक अखण्ड सत्ता स्वरूप है।
यहाँ पर दो प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है? अब तक तो सिद्धान्त और दर्शन की बात हुई, पर क्या उसकी अपरोक्षानुभूति सम्भव है?’ हाँ, बिल्कुल सम्भव है। ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस वक्त भी जीवित हैं जिनका अज्ञान हमेशा के लिए चला गया है। तो क्या सत्य की उपलब्धि के पश्चात् उनकी तत्काल मृत्यु हो जाती है? उतनी जल्दी नहीं जितनी जल्दी हम समझते हैं। मान लो. एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ-साथ चल रहे हैं। अब अगर में एक पहिये को पकड़कर बीच की लकड़ी को काट दूं, तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है, वह तो रुक जाएगा, लेकिन दूसरा पहिया जिसमें पहले का वेग अभी नष्ट नहीं हुआ है, कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा।
पूर्ण शुद्ध स्वरूप आत्मा मानो एक पहिया है, और शरीर-मनरूप क्रान्ति दूसरा पहिया । ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है, जो जोड़ने वाली इस लकड़ी को काट देता है। जब आत्मारूपी पहिया रुक जाता है, तब आत्मा यह सोचना छोड़ देती है कि वह आ रही है, जा रही है, या उसका जन्म होता है, मृत्यु होती है, तब वह इस तरह के समस्त अज्ञानात्मक भावों का त्याग कर देती है। और तब उसका यह भाव कि वह प्रकृति के साथ संयुक्त है, उसके अभाव और वासनाएं हैं, बिल्कुल चला जाता है। तब वह देखती है, कि वह पूर्ण है, वासनारहित है। पर शरीर, मनरूपी पहिये में पूर्व कमों का वेग शेष रहता है।
अतः जब तक पूर्व कर्मों का यह वेग पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है। और तब आत्मा मुक्त हो जाती है। तब फिर स्वर्गलोक जाना या स्वर्ग से पृथ्वी पर लौटना यहाँ तक कि ब्रह्मलोक जाना भी समाप्त हो जाता है, क्योंकि आत्मा भला कहाँ से आएगी
और कहाँ जाएगी? जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है जिन्हें कम-से-कम एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है, उन्हें जीवन मुक्ति कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का लक्ष्य है।
पश्चिमी भारत में में एक बार सागर के तटवती मरुस्थल में भ्रमण कर रहा था। काफी दिनों तक लगातार पैदल घूमता रहा था। लेकिन प्रतिदिन यह देखकर मुझे बड़ा ही आश्चर्य होता था कि चहुओर सुन्दर-सुन्दर झीलें हैं, वे चारों ओर वृक्षों से घिरी हैं और वृक्षों की परछाई जल में पड़ रही है। मैं अपने मन में कहने लगा- कैसा अद्भुत दृश्य है ये! और लोग इसे रेगिस्तान कहते हैं।
एक माह तक में वहां घूमता रहा और प्रतिदिन मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहे। एक दिन मुझे बड़ी प्यास लगी। मैंने सोचा कि चलें, वहाँ एक झील पर जाकर अपनी प्यास बुझा लू। इसीलिए में इन सुन्दर निर्मल झीलों में से एक की ओर बढ़ गया। जैसे ही मैं आगे बढ़ा कि वह सब दृश्य न मालूम कहाँ खो गये। और तब मेरे मन में एकदम यह ज्ञान हुआ कि जीवन भर जिस मरीचिका की बात पुस्तकों में पढ़ता रहा हूँ, यह तो वही मरीचिका है और उसके साथ-साथ यह ज्ञान भी हुआ कि इस पिछले माह प्रतिदिन मैं मरीचिका ही देखता रहा, लेकिन कभी समझ न पाया कि यह मरीचिका है।
अगले दिन मैंने दोबारा चलना शुरू किया। फिर से वही सुन्दर दृश्य दिखाई देने लगे, पर अब साथ-साथ यह ज्ञान भी रहने लगा कि यह सचमुच की झील नहीं है, यह मरीचिका है। बस! इस जगह के विषय में भी ठीक यही बात है। हम हरेक दिन, हरेक माह, हरेक वर्ष, इस जगह रूपी मरुस्थल में भ्रमण कर रहे हैं, पर मरीचिका को मरीचिका नहीं समझा पा रहे हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी। शरीर को पूर्वकर्मों के अधीन रहना पड़ता है, अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी।
जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं, तब तक सागर हमारे सामने आएगा ही। नर नारी, पशु, उद्भिद्, आसक्ति, कर्तव्य-सभी कुछ आएगा, लेकिन वे पूर्व की भांति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कार्य की शक्ति का नाश हो जाएगा। उसके विष के दाँत टूट जाएंगे, संसार हमारे लिए एकदम बदल जाएगा, क्योंकि जैसे ही संसार दिखाई देगा, वैसे ही उसके साथ उसका स्वरूप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे समक्ष प्रकाशित हो जाएगा।
तब यह संसार पूर्व की भांति नहीं रह जाएगा। लेकिन इसमें एक भय की आशंका है। हम देखते हैं कि हरेक देश में व्यक्ति इस वेदान्त मत को अपना कर कहते हैं-“में धर्माधर्म से अतीत हूँ, मैं नैतिकता के किसी नियम से नहीं बंधा हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी, वही करूँगा।”
इस देश में आजकल देखने अनेक बुद्धिन अर्थात् मुखं कहते रहते हैं, में कु नहीं हूँ, में खुद भगवान हूँ, मेरी जो इच्छा होगी, वही करूँगा।” यह ठीक नहीं है। यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक, मानसिक और नैतिक सभी
प्रकार के नियमों के परे है। नियम के अन्दर बन्धन है और नियम के बाहर मुक्ति। यह भी सत्य है कि मुक्ति आत्मा का जन्मगत स्वभाव है, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और आत्मा का यह वास्तविक मुक्त स्वभाव भौतिक आवरण के अन्दर से मनुष्य की आपात प्रतीपमान स्वतन्त्रता के रूप में प्रतीत होता है। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण हम अपने को मुक्त अनुभव करते हैं । हम अपने को मुक्त अनुभव किये बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते, बोल नहीं सकते और श्वास-प्रश्वास भी नहीं ले सकते। लेकिन फिर कुछ विचार करने पर यह भी प्रमाणित हो जाता है कि हम एक यन्त्र के समान हैं, मुक्त नहीं। तब कौन-सी बात सत्य मानी जाए? हम मुक्त है यह धारणा की कृपा भ्रमात्मक है? एक पक्ष कहता है ‘म मुक्त हूँ यह धारणा भ्रमात्मक है, और दूसरा पक्ष कहता है कि ‘मैं बद्ध हूँ’- यह धारणा भ्रमात्मक है। यह कैसे ? वास्तव में, मनुष्य मुक्त है, मनुष्य परमार्थतः जो हो, वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता, किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है, ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है, और वह बद्ध हो जाता है।
‘स्वाधीन इच्छा’ कहना ही भूल है इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती, होगी जो यथार्थ मनुष्य है, वह जब बद्ध हो जाता है तभी इसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है, उससे पूर्व नहीं मनुष्य की इच्छा का है, लेकिन जो इसका आधार है वह तो सदा ही मुक्त है। इसलिए बंधन की दशा में भी चाहे मनुष्य जीवन हो, चाहे पृथ्वी पर हो, चाहे स्वर्ग में-हममें इस स्वतन्त्रता या मुक्ति की स्मृति रहती ही है जो कि हमारा विधि प्रदत्त अधिकार है और जाने हो या अनजाने, हम सब इस मुक्ति की ही ओर अग्रसर हो रहे हैं। मनुष्य जब मुक्त हो जाता है, तब वह किस प्रकार नियम में बद्ध रह सकता है? तब विश्व का कोई भी नियम उसे बाँध नहीं सकता, क्योंकि वह विश्व ब्रह्माण्ड ही उसका हो जाता है।
वह विश्व प्रयाण्ड स्वरूप है। या ये कह लो कि वही विश्व-ब्रह्माण्ड है या फिर कह लो कि उसके लिए विश्व-ब्रह्माण्ड है या फिर कह लो कि उसके लिए विश्व-ब्रह्माण्ड का अस्तित्व ही नहीं है। तब कैसे कहेगा-मैं पुरुष है, में स्त्री हूँ अथवा में बालक हूँ? ‘क्या यह सब मिथ्या बातें नहीं हैं?” उसने जान लिया है कि यह सब मिथ्या है, तब वह भता किस तरह कहेगा- ये पुरुष के अधिकार हैं और ये स्त्री के?” किसी का कुछ अधिकार नहीं है, किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष भी नहीं है और स्त्री भी नहीं आत्मा तो लिंगहीन है, वह नित्यशुद्ध है, में पुरुष या स्त्री हूँ मैं अमुक देशवासी हूँ-यह सब कहना मिथ्या है। सभी देश मेरे हैं, सारा विश्व मेरा है क्योंकि मैंने अपने को मानो सारे विश्व
से ढक लिया है, सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है। लेकिन हम देखते हैं फि से लोग विचार करते समय ये सब बातें मुख से कहने पर भी आवरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते हैं, और अगर उनसे पूछ ‘तुम ऐसा क्यों कर रहे हो तो बहुत वे उत्तर देंगे, यह तुम्हारी समझ की मूल है। हमसे कोई अन्याय होना सम्भव है। इन सब लोगों को किस कसौटी पर कसे? कसोटी यह है वैसे शुभ और अशुभ दोनों एक ही आत्मा के आशिक प्रकाश मात्र हैं, फिर भी ‘अशुभ’ के वास्तविक स्वरूप का उसकी आत्मा का बाह्यतम आवरण है। और ‘शुभ’ अपेक्षाकृत निकटतर आवरण है। जब तक मनुष्य अशुभ के स्तर को तोड़ नहीं लेता, तब तक वह शुभ के स्तर पर नहीं पहुँच सकता और जब तक वह शुभ और अशुभ दोनों के स्तरों को पार नहीं कर लेता, तब तक वह आत्मा तक नहीं पहुँच सकता। आत्मा की प्राप्ति होने पर उसके लिए फिर क्या रह जाता हैं? अत्यन्त अल्प कर्म, अतीत जीवन के कर्मों का अति अल्प वेग । पर यह वेग भी शुभ कर्मों का ही वेग होता है।
“जब तक अशुभ वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिल्कुल दग्ध नहीं हो जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी प्राप्ति नहीं कर सकता। अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ संस्कार शुभवेग ही बचा रहता है। शरीर में रहते हुए भी और अवरित कर्म करते हुए भी ये केवल सत्कर्म ही करते हैं। उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका हव्य केवल सच्चिन्तन ही कर सकता है। उनकी उपस्थिति हो, चाहे वे कहीं भी रहें, सर्वत्र मानवजाति के लिए महान आशीर्वाद होती है। वे स्वयं सजीव आशीर्वाद स्वरूप हो जाते हैं। अगर वे कुछ भी न बोलें, तो भी उनका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीषस्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी सन्त बना देता है। इस
तरह के व्यक्ति के द्वारा क्या बुरा कार्य संभव है? याद रखो; ‘प्रत्यक्षानुभूति’ और तरह मुख से कहने में आकाश-पाताल का अन्तर है। अज्ञानी व्यक्ति भी नाना प्रकार के ज्ञान की बातें कहता है। तोता भी इस तरह बक लेता है। मुँह से कहना एक बात है और अनुभव करना दूसरी बात दर्शन, मतामत, विचार, शास्त्र, मन्दिर, सम्प्रदाय आदि अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं। पर प्रत्यक्षानुभूति होने पर ये सब पीछे छूट जाते हैं। जैसे नक्शा अच्छी चीज है, पर नक्शे में अंकित देश को स्वयं देखकर आने के बाद अगर उसी नक्शे को फिर से देखो, तो कितना अन्तर दिखाई पड़ेगा? अतएव जिन्होंने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है, उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय युक्ति, तर्क-वितर्क आदि-आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती।
उनके लिए तो सत्य जीवन का जीवन प्रत्यक्ष से भी प्रत्यक्ष हो जाता है। वदान्तियों की भाषा में वह मानो उनके लिए कशमलकवत् हो गया है। प्रत्यक्ष उपलब्धि करने वाले लोग निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, ‘यही आत्मा है!’ तुम उनके साथ कितना ही तक क्यों न करो, ये तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे, वे उसे बच्चे की अण्ट-सएट बकवास ही समझेंगे, और उन्हें बकने देंगे। उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया और पूर्ण हो गये। मान लो, तुम एक देश देखकर आये और कोई तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगा कि उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे, पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि यह पागलखाने में भेज देने योग्य है।
इसी प्रकार, जो धर्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि कर चुके हैं, वे कहते हैं, ‘जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाती हैं, वे सब केवल बच्चों की सारी बातें हैं। प्रत्यक्षानुभूति ही धर्म का सार है।’ धर्म की उपलब्धि की जा सकती है प्रश्न यह है कि क्या तुम उसके अधिकारी हो चुके हो? क्या तुम्हें धर्म की सचमुच में आवश्यकता है? अगर तुम ठीक-ठीक प्रयत्न करो, तभी तुम्हें प्रत्यक्ष उपलब्धि होगी, और तभी तुम वास्तव में धार्मिक होगे। जब तक यह उपलब्धि तुम्हें नहीं होती, तब तक तुममें और नास्तिक में कोई भेद नहीं। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते हैं; लेकिन जो कहता है कि ‘मैं धर्म में विश्वास करता हूँ, पर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है।
दूसरा प्रश्न यह है कि उपलब्धि के बाद क्या होता है? मान लो कि हमने जगत का यह अखण्ड भाव-यह भाव कि हमीं एकमात्र अत्यन्त पुरुष हैं-उपलब्ध कर लिया; मान लो, हमने जान लिया कि एकमात्र आत्मा ही विद्यमान है और यही विभिन्न रूपों से प्रकाशित हो रही है। तो अब प्रश्न यह है कि इस प्रकार जान लेने में हमारा क्या हुआ? तब क्या हम निश्चेष्ट हो एक कोने में बैठकर मर जाएँ? इससे जगत का क्या उपकार होगा? वही प्रश्न फिर से घूम-फिरकर आता है। पहले तो, इसमें जगत का उपकार क्यों हो? मैं इसका कारण जानना चाहता हूँ। लोगों को यह प्रश्न करने का अधिकार ही क्या है कि इससे जगत् का क्या लाभ होगा? ऐसा पूछने का अर्थ क्या? छोटे-छोटे बच्चे मिठाई पसंद करते हैं।
मान लो, तुम विद्युत के बारे में कुछ खोज कर रहे हो और बच्चा तुमसे पूछता है, ‘इससे क्या मिठाई मिलेगी?’ तुम कहते हो, ‘नहीं’। तो वह कह उठता है, तो फिर इससे क्या फायदा? किसी को तत्वज्ञान के अनुसन्धान में रत देखकर लोग ठीक इसी प्रकार पूछते हैं इससे जगत् का क्या उपकार होगा? क्या इससे हमें रुपया मिलेगा नहीं। तो फिर इससे क्या फायदा?” लोग उपकार का अर्थ बस इतना ही समझते हैं तो भी, धर्म की इस प्रत्यक्ष अनुभूति से जगत का पूरा उपकार होता है। लोगों को भय होता है कि जब वे यह अवस्था प्राप्त कर लेंगे, जब उन्हें ज्ञान हो जाएगा कि सभी एक हैं, तब उनके
प्रेम का स्रोत सूख जाएगा, जीवन में जो मूल्यवान है, वह सब चला जाएगा। इस जीवन में और पर जीवन में जो कुछ उन्हें प्रिय था, उसमें से कुछ भी न बचा रहेगा। किन्तु लोग यह बात नहीं सोच सकते कि जो व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता की ओर से उदासीन हो गये हैं, वे ही जगत् में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हुए
मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई। सुद्र मत्यं जीव नहीं है। मनुष्य भी वास्तविक प्रेम कर सकता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र एक मिट्टी का ढेला नहीं अपितु स्वयं भगवान् है। पत्नी पति से अधिक प्रेम करेगी, अगर वह समझेगी कि पति साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। पति भी पत्नी से अधिक प्रेम करेगा, यदि वह जानेगा कि पत्नी स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे माताएँ सन्तान से अधिक स्नेह कर सकेंगी, जो सन्तान को ब्रह्मस्वरूप देखेंगी। वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति प्रेम भाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं। वे ही लोग पवित्र व्यक्तियों से प्रेम करेंगे, जो समझेंगे कि पवित्र व्यक्ति साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं।
वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से प्रेम करेंगे, जो यह जान लेंगे कि इन महादुष्टों के पीछे वे ही प्रभु विराजमान हैं जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे ही लोग जगत् को अपने इशारे पर चला सकते हैं। उनके लिए सारा जगत दूसरा ही रूप धारण कर लेता है। दुःखकर अथवा क्लेशकर जो कुछ भी है, वह सब उनकी दृष्टि से लुप्त हो जाता है, सभी प्रकार के इन्द्र और संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। तब यह जगत्, जहाँ हम प्रतिदिन एक टुकड़ा रोटी के लिए संघर्ष और मारपीट करते हैं, उनके लिए कारागार होने के बदले एक क्रीड़ा क्षेत्र बन जाता है। तब जगत् बड़ा सुन्दर रूप धारण कर लेता है। ऐसे ही व्यक्ति को यह कहने का अधिकार है कि ‘यह जगत कितना सुन्दर है।’
उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि सब मंगलस्वरूप है। इस तरह की प्रत्यक्ष उपलब्धि से जगत का यह महान् हित होगा, कि ये अविराम विवाद, द्वन्द्व आदि सब दूर होकर जगत् शान्ति का राज्य हो जाएगा। अगर जगत् के सभी मनुष्य आज इस महान् सत्य के एक भी बिन्दु की उपलब्धि कर सकें, तो उनके लिए यह सारा जगत् एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा समाप्त हो शान्ति का राज्य आ जाएगा। यह घिनौना उतावलापन, यह स्पर्धा, जो हमें, अन्य सभी को ढकेलकर आगे बढ़ निकलने के लिए विवश करती है, इस संसार से उठ जाएगी।
इसके साथ-साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा, ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ हमेशा के लिए चला जाएगा। जब देवता, देवता से खेलेगा, देवता, देवता से मिलकर कार्य करेगा देवता देवता, देवता से प्रेम करेगा; तब क्या अशुभ ठहर सकता है? ईश्वर की प्रत्यक्ष उपलब्धि की यही एक बड़ी उपयोगिता है। समाज में तुम चाहे कुछ भी देख रहे हो, वह
सभी उस समय परिवर्तित होकर एक दिव्यरूप धारण कर लेगा। तब तुम किसी को बुरा नहीं समझोगे। यही पहला महालाम है। उस समय तुम लोग किसी अन्याय करने याने नर-नारी की और घृणापूर्ण दृष्टि से नहीं देखोगे।
हे स्त्रियो। फिर तुम रात भर रास्ते में भटकती फिरने वाली दुखिया स्त्री की और घृणा से नहीं देखोगी, क्योंकि तुम वहाँ भी साक्षात ईश्वर को देखोगी तब तुममें ईप्यां अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा, वह सब चला जाएगा। तब प्रेम इतना प्र हो जाएगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिए फिर चाबुक की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। अगर संसार के नर-नारियों का दशलक्षांश भी बिल्कुल चुप रहकर एक पल के लिए कहे- ‘तुम सभी ईश्वर हो, हे मानवों, हे पशुओं से सब प्रकार के जीवित प्राणियों तुम सभी एक जीवन्त ईश्वर के प्रकाश हो।’ तो आधे घण्टे के भीतर ही सारे जगत का परिवर्तन हो जाए।
उस समय चारों ओर घृणा के बीज न बोकर, ईयों और असत् चिन्ता का प्रवाह न फैलाकर सभी देशों के लोग सोचेंगे कि सभी वह है, जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो, वह सब वही है। तुम्हारे अन्दर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे? तुम्हारे अन्दर अगर चोर न हो तो तुम किस प्रकार चोर देखोगे? तुम स्वयं अगर खूनी नहीं हो, तो किस प्रकार खूनी देखोगे तुम साथ हो जाओ, तो असाधु भाव तुम्हारे भीतर से एकदम चला जाएगा।
इस प्रकार सारे संसार का परिवर्तन हो जाएगा। यही समाज का सबसे बड़ा लाभ है। मनुष्य के लिए यही महान लाभ है। ये सब भाव जगत में प्राचीन काल में अनेक महात्माओं द्वारा आविष्कृत और कार्यरूप में परिणत हुए थे पर आचायों की संकीर्णता और देश की पराधीनता आदि अनेकाविध कारणों से ये सब भाव चारों ओर फैल न सके। फिर भी ये सब महान सत्य हैं। जहाँ इन विचारों का असर पड़ा है, वहीं मनुष्य ने देवत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसे ही एक देवस्वभाव मनुष्य के स्पर्श द्वारा मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है। इनके सम्बन्ध में आगामी रविवार को में तुमसे कहूँगा। आज इन सब भावों का प्रचार करने का समय आ गया है। अब मुझे भी चारदीवारी में आवद्ध न रहकर, केवल पण्डितों के पढ़ने की दार्शनिक पुस्तकों में आबद्ध न रहकर, केवल कुछ सम्प्रदायों के अथवा कुछ पण्डितों के एकाधिकार में न रहकर, इन भावों का समस्त जगत् में प्रचार होगा, जिससे ये साधु, पापी, अवलापन, वनिता, शिक्षित, अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो जाए। तब ये सब भाव इस जगत के वातावरण को ओत-प्रोत कर देंगे और हम श्वास-प्रश्वास द्वारा जो वायु ले रहे हैं, वह अपने प्रत्येक स्पन्दन के साथ कहने लगी- ‘तत्त्वमसि!’ असंख्य चक्र-सूर्यपूर्ण यह समग्र ब्रह्माण्ड वाक् शक्ति युद्ध प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर में कह उठेगा- ‘तत्त्वमसि’!”
स्वामी विवेकानन्द के जीवन संग्राम की भीषणता कैसे हुई
विश्व धर्म का आदर्श’ शीर्षक पर व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा- “हमारी इन्द्रियाँ चाहे किसी वस्तु को क्यों न ग्रहण करें, हमारा मन चाहे किसी विषय की कल्पना क्यों न करे, सभी जगह हम दो शक्तियों की क्रिया-प्रतिक्रिया देखते हैं कि वे एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करती हैं, और हमारे चारों ओर बाह्य जगत में होने वाली तथा जिनका अनुभव हम अपने मन में करते हैं, उन जटिल घटनाओं की लगातार कीड़ा के कारण है। ये ही दो विपरीत शक्तियों बाह्य जगत् में आकर्षण-विकर्षण अथवा केन्द्रगामी, केन्द्रापसारी शक्तियों के रूप में, और अन्तर्जगत में राग-द्वेष या शुभाशुभ के रूप में प्रकाशित होती हैं। हम कितनी ही चीजों को अपने सामने से हटा देते हैं और कितनी ही अपने सामने खींच लाते हैं, किसी की ओर आकृष्ट होते हैं और किसी से दूर रहना चाहते हैं।
हमारे जीवन में ऐसा अनेक बार होता है कि हमारा मन किसी की ओर हमें बलात् आकृष्ट करता है, किन्तु इस आकर्षण का कारण हमें ज्ञात नहीं होता और किसी-किसी समय किसी आदमी को देखते ही बिना किसी कारण मन भागने की इच्छा करता है। इस बात का अनुभव सभी को है। और इस शक्ति का कार्यक्षेत्र जितना ऊँचा होगा, इन दो विपरीत शक्तियों का प्रभाव उतना ही तीव्र और परिस्फुट होगा। धर्म मनुष्य के चिन्तन और जीवन का सबसे उच्च स्तर है और हम देखते हैं कि धर्म-जगत् में ही इन दो शक्तियों की क्रिया सबसे अधिक परिस्फुट हुई है। मानवता को जिस तीव्रतम प्रेम का ज्ञान है, वह धर्म से ही प्राप्त हुआ है और वह घोरतम पैशाचिक घृणा भी, जिसे मानवता ने कभी अनुभव किया, वह भी धर्म से ही प्राप्त हुई है। संसार ने कभी भी महत्तम शान्ति की जो वाणी सुनी है, वह धर्म-राज्य के लोगों के मुख से ही निकली हुई है और जगत् ने कभी भी जो तीव्रतम भर्त्सना सुनी है, वह भी धर्म-राज्य के मनुष्य के मुख से उच्चारित हुई है।
किसी धर्म का उद्देश्य जितना ही ऊंचा होता है उसका संगठन उतना ही है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है। धर्म-प्रेरणा से मनुष्य ने संसार में जो खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्य के हृदय की ओर किसी ने वैसा नहीं किया और सूक्ष्म होता धर्म-प्रेरणा से मनुष्य ने जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र आदि बनाये, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं मनुष्य हृदय की और कोई वृति उसे सारी मानव जाति की ही नहीं निकृष्ट प्राणियों तक की सेवा करने को प्रवृत नहीं करनीधर्मानुष् निन्दर हो जाता है, झाना और किसी प्रेरणा से नहीं। उसी प्रकार धर्म प्रेरणा से मनुष्य जितना कोमल हो जाता है, उतना और किसी प्रवृत्ति से नहीं
अतीत में ऐसा ही हुआ है और सम्भवतः भविष्य में भी ऐसा ही होगा। फिर भी धर्मों और सम्प्रदायों के कलह और कोलाहल और संघर्ष, अविश्वास और ईर्ष्यादिप में भी समय-समय पर इस तरह की गम्भीर वाणियों निकली हैं, जिन्होंने इस कोलाहल को दबाकर संसार में शान्ति और मेल की तीव्र घोषणा कर दी थी। एक द से दूसरे ध्रुव तक अपने यज्ञ गम्भीर आहान को सुनने के लिए मानव जाति को मजबूर किया था। क्या संसार में किसी समय इस शान्ति समन्वय का राज्य स्थापित ग
प्रबल धार्मिक संघर्ष इस भूमिका में क्या कभी सामंजस्य का अविच्छिन्न राज्य होना सम्भव है। वर्तमान शताब्दी के अन्त में इस समन्वय को लेकर संसार में एक विवाद चल रहा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए समाज में विविध योजनाएं प्रस्तावित की जा रही हैं और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए अनेक प्रयास हो रहे हैं। यह सभी लोग जानते हैं कि यह कितना कठिन है। सभी लोग जानते हैं कि जीवन-संग्राम की भीषणता को, मनुष्य के मन की प्रबल स्नायविक उत्तेजनाओं को कम करना एक प्रकार से असम्भव है। जीवन का जो स्थूल एवं बाह्यांश मात्र है, उसे बाह्य जगत में साम्य और शान्ति स्थापित करना अगर इतना कठिन है, तो मनुष्य के अन्तर्जगत् में शान्ति और साम्य स्थापित करना उससे हजार गुना कठिन है। तुम लोगों को कुछ देर के लिए शब्द जाल से बाहर आना पड़ेगा। हम सभी लोग बाल्यकाल से ही प्रेम, शान्ति, मैत्री, साम्य भ्रात-भाव प्रमृति अनेक बातें सुनते आ रहे हैं।
लेकिन इन सभी बातों में से हमारे निकट कितनी ही निरर्थक हो जाती हैं। हम लोग उन्हें तोते की तरह रट लेते हैं और वे मानो हम लोगों के स्वभाव हो गये हैं। हम ऐसा किये बिना रह नहीं सकते। जिन महापुरुषों ने पहले अपने हृदय में इस महान तत्व की उपलब्धि की थी, उन्होंने इन वाक्यों की रचना की है। उस समय बहुत से लोग इसका अर्थ समझते थे, आगे चलकर मूर्ख लोगों ने इन बातों को लेकर उनसे खिलवाड़ आरम्भ कर दिया, और धर्म को केवल शब्दों का खेल बना दिया, उसे जीवन में परिणत करने की वस्तु ही नहीं रखा। धर्म अब ‘पैत्रिक धर्म’, ‘राष्ट्रीय धर्म’, ‘देशी धर्म’ इत्यादि के रूप में परिणत हो गया है। अन्त में किसी धर्म में विश्वास करना देशभक्ति का एक अंग हो जाता है। और देशभक्ति सदा पक्षपाती होती है। विभिन्न धर्मों में सामंजस्य-विधान करना बहुत ही कठिन काम है। फिर भी हम इस धर्म-समन्वय-समस्या पर विचार करेंगे। हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म के तीन भाग हैं-मैं अवश्य ही प्रसिद्ध और प्रचलित धर्मो
की बात कहता है पहला है, दार्शनिक भाग। इसमें उस धर्म का सास विषयप्रयतमूल उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के साधन निहित होते हैं। दूसरा है, पौराणिक भाग। यह स्थूल उदाहरणों के द्वारा दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है। इसमें मनुष्य एवं अधिक पुरुषों के जीवन के उपाख्यान आदि होते हैं। इसमें सूक्ष्म दार्शनिक मनुष्यों या अति प्राकृतिक पुरुषों के थोड़े-बहुत काल्पनिक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाये जाते हैं। तीसरा है, आनुष्ठानिक भाग यह धर्म का स्थूल भाग है। इसमें पूजा-पद्धति, आचार, अनुष्ठान, विविध शारीरिक अंग-विन्यास, पुण्य, धूप, धूनी प्रभूति अनेक प्रकार की इन्द्रियग्राह्य वस्तुएं हैं। इन सबको मिलाकर आनुष्ठानिक धर्म का संगठन होता है। तुम देख सकते हो कि सारे प्रसिद्ध धर्मों के ये तीन विभाग हैं। कोई धर्म दार्शनिक भाग पर अधिक जोर देता है, कोई अन्य दूसरे भागों पर।
पहले दार्शनिक भाग की बातें लेनी चाहिए। प्रश्न उठता है, कोई सार्वभौमिक दर्शन हूँ या नहीं। अब तक तो नहीं। प्रत्येक धर्म वाले अपने मतों की व्याख्या करके उसी को एकमात्र सत्य कहकर उसमें विश्वास करने के लिए आग्रह करते हैं। वे केवल इतना ही करके शांत नहीं होते, वरनू समझते हैं कि जो उनके मत में विश्वास नहीं करते, वे किसी भयानक स्थान में अवश्य जाएंगे। कोई-कोई तो दूसरों को अपने मत में लाने के लिए तलवार तक काम में लाते हैं। वे ऐसा दुष्टता से करते हों, सो नहीं। मानव मस्तिष्क प्रसूत धर्मान्धता नामक व्याधि विशेष की प्रेरणा से वे ऐसा करते हैं। ये धर्मान्ध सर्वथा निष्कपट होते हैं, मनुष्य में सबसे अधिक निष्कपट। लेकिन संसार के दूसरे पागलों की भाँति उनमें उत्तरदायित्व नहीं होता। यह धर्मान्धता एक भयानक बीमारी है। मनुष्यों में जितनी दुष्ट बुद्धि है, वह सभी धर्मान्धता द्वारा जगायी गयी है। उसके द्वारा क्रोध उत्पन्न होता है, स्नायु समूह अतिशय तन जाता है, और मनुष्य शेर जैसा हो जाता है।
• विभिन्न धर्मो के पुराणों में क्या कोई सादृश्य-सा ऐक्य है? क्या ऐसा कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्व है, जिसे सभी धर्म वाले ग्रहण कर सकें? निश्चय ही नहीं है। सभी धर्मो का अपना-अपना पुराण-साहित्य है, किन्तु सभी कहते हैं-‘केवल हमारी पुराणोक्त कथाएँ उपकथा मात्र नहीं हैं।’ इस बात को में उदाहरण द्वारा समझाने की चेष्टा करता हूँ। मेरा उद्देश्य अपनी कही बातों को उदाहरण द्वारा समझाना मात्र है-किसी धर्म की समालोचना करना नहीं। ईसाई विश्वास करते हैं कि ईश्वर पण्डुक (एक प्रकार का कबूतर) का रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था। उनके निकट यह एक ऐतिहासिक सत्य है- पौराणिक कहानी नहीं। हिन्दू लोग गाय को भगवती के आविर्भाव के रूप में मानते हैं। ईसाई कहता है कि इस प्रकार का विश्वास इतिहास नहीं है-यह केवल पौराणिक कहानी और अंधविश्वास मात्र है।
यहूदी समझते हैं, अगर प्रतीक एक मंजूषा या संदूक के रूप में बनायी जाए, जिसके
दो पल्लों में दो देवदूतों की मूर्तियाँ हों, तो उसे मन्दिर के सबसे पवित्र स्थान में स्थापित किया जा सकता है; वह जिहोवा की दृष्टि से परम पवित्र होगा, लेकिन अगर किसी सुन्दर स्त्री या पुरुष की मूर्ति हो, तो वे कहते हैं, ‘यह एक बीभत्स प्रतिमा है-इसे तोड़ डालो। हमारा पौराणिक सामंजस्य नहीं है। अगर कोई खड़ा होकर कहे, ‘हमारे अवतारों ने इस आश्चर्यजनक काम को किया’, तो दूसरे लोग कहेंगे, ‘यह केवल अंधविश्वास मात्र है। लेकिन उसी समय वे लोग कहेंगे कि हमारे अवतारों ने उसकी अपेक्षा और भी अधिक आश्चर्यजनक कार्य किये थे और वे उन्हें ऐतिहासिक सत्य समझने का दावा करते हैं। मैंने जहाँ तक देखा है, इस पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं है, जो इन मनुष्यों के मस्तिष्क में रहने वाले इतिहास और पुराण के सूक्ष्म पार्थक्य को पकड़ सके। इस प्रकार की कहानियाँ वे चाहें किसी भी धर्म की क्यों न हों-सर्वथा पौराणिक ही हैं, पर कभी-कभी उनमें भी ऐतिहासिक सत्य का लेश हो सकता है।
इसके बाद आनुष्ठानिक भाग आता है। एक सम्प्रदाय की एक विशेष प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति होती है और उस सम्प्रदाय के अनुवायी उसी को धर्मसंगत समझकर विश्वास करते हैं तथा दूसरे सम्प्रदायों की अनुष्ठान पद्धति को घोर अंधविश्वास समझते हैं। अगर एक सम्प्रदाय किसी विशेष प्रतीक की उपासना करता है, तो दूसरे सम्प्रदाय वाले कह बैठते हैं, ‘आह, कैसा वीभत्स है!’ एक साधारण प्रतीक की ही बात लो। लिंग-प्रतीक निश्चय ही यौन प्रतीक है, किन्तु उसका यह पक्ष क्रमशः विस्मृत हो गया है। और इस समय उसको ईश्वर से सृष्टाभाव के प्रतीक रूप में ग्रहण करते हैं। जिन जातियों ने उसका प्रतीक के रूप में ग्रहण किया है, वे कभी भी उसे लिंग नहीं समझते, वह भी एक प्रतीक है बस इतना ही।
लेकिन दूसरी जाति या सम्प्रदाय का व्यक्ति उसे लिंग के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता और इसलिए वह उसकी निन्दा करने लगता है। किन्तु यह भी सम्भव है कि स्वयं वह कुछ ऐसा करता है, जो लिंगोपासना करने वालों को अत्यन्त वीभत्स लगे। उदाहरण के लिए, लिंग प्रतीक और सैक्रेमेन्ट नामक ईसाई धर्म के अनुष्ठान विशेष की बात कही जा सकती है। ईसाइयों के लिए लिंगोपासना में व्यवहृत मूर्ति अति कुत्सित है और हिन्दुओं के लिए ईसाईयों का सैक्रेमेन्ट वीभत्स है। हिन्दू कहते हैं कि किसी मनुष्य की सद्गुणावली पाने के अभिप्राय से उसकी हत्या करके उसके मांस को खाना और खून को पीना नरभक्षण है। कुछ जंगली जातियाँ भी ऐसा ही करती हैं। अगर कोई आदमी बहुत साहसी होता है, तो वे लोग उसकी हत्या करके उसके हृदय को खाते हैं। कारण, वे समझते हैं, उसके द्वारा उन्हें उस व्यक्ति का साहस और वीरत्व आदि गुण प्राप्त होंगे।
सर जॉन लूबक की तरह वे भक्त ईसाई भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जंगली जातियों के रिवाज के आधार पर ईसाइयों के अनुष्ठान की रचना हुई है। दूसरे ईसाई
अवश्य ही अनुष्ठान के उद्भव के सम्बन्ध में इस मत को स्वीकार नहीं करते और उसके द्वारा इस प्रकार के भाव का आभास मिलता है, यह भी उनकी समझ में नहीं आता। एक पवित्र वस्तु का प्रतिनिधि है, इतना ही वे जानना चाहते हैं। इसलिए आनुष्ठानिक में भी कोई सार्वभौमिक प्रतीक नहीं है, जिसे सब धर्म वाले स्वीकार और ग्रहण कर सके। तब किसी भी प्रकार का सार्वभौमिकत्व कहाँ है? सार्वभौमिक धर्म किस प्रकार भाग सम्भव है? सच है, लेकिन वह पहले से ही विद्यमान है। अब देखें, यह कैसे
हम सभी लोग विश्वबंधुत्व की बात सुनते हैं और विविध समाज के उसके प्रचार के लिए कितना उत्साह है, यह भी जानते हैं। मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। भारतवर्ष में शराबखोरी बहुत ही नीच समझी जाती है। दो भाई थे, उन दोनों ने मिलकर रात्रि के समय छिपकर शराब पीने का विचार किया। बगल के कमरे में उनके चाचा सांधे थे, जो बहुत निष्ठावान व्यक्ति थे। इसलिए शराब पीने से पहले वे लोग सलाह करने लगे, हम लोगों को चुपचाप पाना होगा, नहीं तो चाचा जाग जाएंगे। वे लोग शराब पीते समय बार-बार चुप, चुप, जाग जाएगा की आवाज करके एक-दूसरे को चुप कराते रहे। इस में चाचा की नींद खुल गई। उन्होंने कमरे में घुसकर सब कुछ देख लिया। हम लोग भी ठीक इन मतवालों की तरह शोर करते हैं, विश्व
“हम सभी लोग समान हैं, इसलिए हम लोग एक दल का संगठन करें। लेकिन ध्यान रहे. ज्योंही तुमने किसी दल का संगठन किया, त्योंही तुम समता के विरुद्ध हो गये, और तब समता नामक कोई चीज तुम्हारे पास नहीं रह जाएगी। मुसलमान विश्वबन्धुत्व का शोर मचाते हैं। लेकिन वस्तुतः वे भ्रातभाव से कितनी दूर हैं। जी मुसलमान नहीं हैं, वे भात-संघ में शामिल नहीं किये जाएँगे। उनके गले काटे जाने की अधिक सम्भावना है। ईसाई भी विश्वबन्धुत्व की बातें करते हैं, लेकिन जो ईसाई नहीं है, वह अवश्य ही ऐसे एक स्थान में जाएगा, जहाँ अनन्त काल तक वह आग से झुलसाया जाए।
इस प्रकार हम लोग विश्वबन्धुत्व और साम्य के अनुसंधान में सारी पृथ्वी पर घूमते-फिरते हैं। तुम लोग कहीं पर भी इसकी बातें सुनो, मेरा अनुरोध है, तुम थोड़ा धैर्य रखो और सतर्क हो जाओ। कारण, इन सब बातों के भीतर प्रायः घोर स्वार्थपरता छिपी रहती है। जाड़ों में कभी-कभी बादल आता है, बड़ा गर्जन-तर्जन करता है, लेकिन बरसता नहीं। लेकिन वर्षा ऋतु में बादल गरजता नहीं, वह संसार को जल से प्लावित कर देता है। इसी प्रकार जो लोग यथार्थ कर्मी हैं और अपने हृदय से विश्वबन्धुत्व का अनुभव करते हैं, वे लम्बी-चौड़ी बातें नहीं करते, न उस निमित्त सम्प्रदायों की रचना करते हैं। लेकिन उनके क्रिया-कलाप, गतिविधि और सारे जीवन के ऊपर ध्यान देने से यह स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि उनके हृदय सचमुच ही मानव जाति के प्रति बंधुता से परिपूर्ण हैं। वे सबसे प्रेम और सहानुभूति करते हैं। वे सिर्फ बातें न बनाकर काम कर दिखाते हैं-
आदर्श के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। सारी दुनिया लम्बी-घोड़ी बातों से परिपूर्ण है। हम चाहते हैं कि बातें बनाना कम हो, यथार्थ काम कुछ अधिक हो।
अभी तक हम लोगों ने देखा कि धर्म के बारे में कोई सार्वभौमिक लक्षण निकालना जरा टेढ़ी खीर है। फिर भी हम जानते हैं कि ऐसा भाव वर्तमान है। हम सभी लोग मनुष्य तो अवश्य है, लेकिन क्या सभी समान हैं? निश्चय ही नहीं। कोन करता है, हम सब समान हैं? केवल पागल क्या हम बल, बुद्धि शरीर में समान हैं? एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा बलवान् है, एक मनुष्य की बुद्धि दूसरे की अपेक्षा अत्यधिक है। यदि हम सब लोग समान ही होते तो यह असमानता कैसी? किसने यह असमानता उपस्थित की। हमने हम लोगों की क्षमता, विद्या-बुद्धि और शारीरिक बल में अन्तर होने के कारण निश्चय ही पार्थक्य है। फिर भी हम लोग जानते हैं कि समता का यह सिद्धान्त हमारे हृदय को स्पर्श करता है। हम सब लोग मनुष्य अवश्य है किन्तु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियों है, कोई काले हैं और कोई गोरे, किन्तु सभी मनुष्य हैं, सभी एक मनुष्णा जाति के अन्तर्गत हैं।
हम लोगों का चेहरा भी भिन्न प्रकार का है। दो मनुष्यों का मुँह ठीक एक तरह का हम नहीं देख सकते, फिर भी हम सब लोग मनुष्य हैं। मनुष्यत्वरूपी सामान्य तत्त्व कहाँ है? मैंने जिस काले या गोरे स्त्री या पुरुष को देखा, उन सबके मुंह पर सामान्य रूप से मनुष्यत्व का एक अमूर्त भाव है मैं उसे पकड़ या इन्द्रियगोचर भले ही न कर सकूँ, फिर भी में निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि वह है। अगर किसी वस्तु का असंदिग्ध अस्तित्व है, तो इसी मानवीयता का जो हम सबमें व्याप्त है। इस सामान्यीकृत उपादान के द्वारा ही तुम लोगों को स्त्री और पुरुष के रूप में जान पाता हूँ। विश्व धर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, जो ईश्वर रूप से पृथ्वी के सभी धर्मों में विद्यमान है, यह अनन्त काल से विद्यमान है और अनन्त काल तक रहेगा ‘मयि सर्वमिद प्रांत सूत्रे मणिगणा इव-इस जगत में मणियों के भीतर सूत्र की भाँति वर्तमान हूँ इस एक मणि को एक विशेष धर्म, मत या सम्प्रदाय कहा जा सकता है। पृथक्-पृथक् मणियाँ एक धर्म हैं और प्रभु ही सूत्ररूप में उन सबमें वर्तमान है। तिस पर भी अधिकांश लोग इस सम्बन्ध में सर्वथा अज्ञ हैं।
बंधुत्व में एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी आपस में पृथक् हैं। मनुष्य जाति के एक अंश के रूप में मैं और तुम एक हैं, किन्तु अमुक के रूप में मैं तुमसे पृथक हूँ। पुरुष होने से तुम स्त्री से भिन्न हो, लेकिन मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं। मनुष्य होने से तुम जीव-जन्तु से पृथक् हो, किन्तु प्राणी होने के नाते, तुम्हारा विशद् विश्व के साथ एकत्व है। ईश्वर है वह विराट् सत्ता- इस वैचित्र्यमय जगत् प्रपंच का चरम एकत्व है। उस ईश्वर में हम सभी एक हैं, लेकिन व्यक्त प्रपंच में यह भेद अवश्य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा। हमारे प्रत्येक बाहरी कार्य और चेष्टा में यह भेद सदा
ही विद्यमान रहेगा। इसलिए विश्व धर्म का अगर यह अर्थ हो कि एक प्रकार के विशेष मत में संसार के सभी लोग विश्वास करें, तो यह सर्वथा असम्भव है।
यह कभी हो नहीं सकता। ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जब सब लोगों का मुंह एक रंग का हो जाए और अगर हम आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक त में विश्वास करेगा, तो यह भी असम्भव है। कभी नहीं हो सकता। फिर, समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति प्रचलित हो नहीं सकती। ऐसा किसी समय हो नहीं सकता, यदि कभी हो भी जाए, तो सृष्टि लुप्त हो जाएगी। कारण, वैचित्र्य ही जीवन की मूल भित्ति है। हमें आकार युक्त किसने बनाया है? वैषम्य ने सम्पूर्ण साम्य भाव होने से ही हमारा विनाश अवश्यम्भावी है। समान परिणाम और सम्पूर्ण भाव होना ही ताप का धर्म है। मान लो, इस घर का सारा ताप उस तरह विकीर्ण हो जाए, तो ऐसा होने पर वस्तुतः ताप जैसी कोई चीज बाकी न रहेगी। इस संसार की गति किसके लिए असम्भव होती है?-खोये हुए संतुलन के लिए।
जिस समय इस संसार का नाश होगा, उसी समय चरम साम्य आ सकेगा, अन्यथा ऐसा होना असम्भव है। सिर्फ इतना ही नहीं, ऐसा होना विस्मयजनक भी है। हम सभी लोग एक प्रकार का विचार करें, ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। ऐसा होने से विचार करने की कोई चीज न रह जाएगी। अजायबघर में रखी हुई मिस्र देश की ममियों की तरह हम सभी लोग एक प्रकार के हो जाएँगे और एक-दूसरे को देखते रहेंगे, हमारे मन में कोई भाव नहीं उठेगा। यही भिन्नता, यही वैशम्य, संतुलन का यह भंग होना ही हमारी उन्नति का प्राण, हमारे समस्त चिंतन का सृष्टा है। यह वैचित्र्य सदा ही रहेगा।
विश्व धर्म का अर्थ फिर मैं क्या समझता हूँ? कोई सार्वभौमिक दार्शनिक तत्व, कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्व या सार्वभौमिक अनुष्ठान-पद्धति, जिसको मानकर सबको चलना पड़ेगा-मेरा अभिप्राय यही है। कारण, मैं जानता हूँ कि तरह-तरह के चक्रसमवायों से गठित, बड़ा ही जटिल और आश्चर्यजनक इस विश्व का जो दुर्बोध और विशाल यन्त्र है, वह सदा ही चलता रहेगा। फिर हम लोग क्या कर सकते हैं-हम इस यंत्र को अच्छी तरह चला सकते हैं, इसका घर्षणवेग कम कर सकते हैं इसके चक्कों को चमकीला रख सकते हैं, उसमें तेल देते रह सकते हैं। वह कैसे? वैषम्य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्वीकार करके ।
जैसे हम सबने स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार किया है, उसी प्रकार हमको वैयम्य भी स्वीकार करना पड़ेगा। हमको यह शिक्षा लेनी होगी कि एक ही सत्य का प्रकाश लाखों प्रकार से होता है और प्रत्येक भाव ही अपनी निर्दिष्ट सीमा के अन्दर प्रकृत सत्य है-हमको यह सीखना होगा कि किसी भी विषय को सैकड़ों प्रकार की विभिन्न दृष्टि से देखने पर एक ही वस्तु रखी है। उदाहरणार्थ, सूर्य को लो। मान लो, कोई मनुष्य भूतल
पर से सूर्योदय देख रहा है, उसको पहले एक गोलाकार वस्तु दृष्टिगोचरीन लो. उसने एक कैमरा लेकर सूर्य की और बाबा की और जब तक सूर्य के निकट नप मालूम तब तक बार-बार सूर्य की प्रतिछवि लेने लगा। एक स्थान से लिया हुआ सूर्य का चित्र दूसरे स्थानों से लिए हुए सूर्य के चित्र से भिन्न है-यह जब लौट जाएगा, उसे होगा कि मानो वे सब भिन्न-भिन्न सूर्योों के चित्र हैं। लेकिन हम जानते हैं कि वह अपने गंतव्य पथ के भिन्न-भिन्न स्थानों से एक ही सूर्य के अनेक चित्र लेकर लौटा है। ईश्वर के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही होता है।
उच्च अथवा निकृष्ट दर्शन से ही हो, सूक्ष्म अथवा स्थल पौराणिक कथाओं के अनुसार ही हो, या सुसंस्कृत क्रियाकाण्ड अथवा भूतोपासना द्वारा हो, प्रत्येक सम्प्रदाय, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक जाति, जाने या अनजाने में अग्रसर होने की चेष्टा करते हुए ईश्वर की ओर बढ़ रही है। मनुष्य चाहे जितने प्रकार के सत्य की उपलब्धि करें, उसका प्रत्येक सत्य भगवान के दर्शन के सिवा और कुछ नहीं है। मान लो हम जलपात्र लेकर जलाशय से जल भरने आये। कोई कटोरी लाया, कोई बड़ा लाया, कोई बाल्टी लाया इत्यादि । जब हमने जल भर लिया, तो क्या देखते हैं कि प्रत्येक पात्र के जल ने स्वभावतः अपने-अपने पात्र का आकार धारण किया है। लेकिन प्रत्येक पात्र में वही एक जल जो सबके पास है।
धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है-हमारे मन भी ठीक पूर्वोक्त पाय के समान हैं। हम सब ईश्वर प्राप्ति की चेष्टा कर रहे हैं। पात्रों में जो जल मरा हुआ है, ईश्वर उसी जल के समान है-प्रत्येक पात्र में भगवदर्शन उस पात्र के आकार के अनुसार है, फिर भी वे सर्वत्र एक ही है-ये घट-घट में विराजमान हैं। सार्वभौमिक भाव का भी हम यही एकमात्र परिचय पा सकते हैं।
सैद्धान्तिक दृष्टि से यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन धर्म के समन्वय-विधान को कार्यरूप से परिणत करने का भी क्या उपाय है। हम देखते हैं-सब धर्ममत सत्य है, यह बात प्राचीन काल से ही मनुष्य स्वीकार करता आया है। भारतवर्ष, अलेकजेन्द्रिया, यूरोप, चीन, जापान, तिब्बत और अंततः अमेरिका में भी एक समन्वित धर्म को सूत्रबद्ध करने सब धर्मों को एक ही प्रेम-सूत्र में गृहीत करने की सैकड़ों चेष्टाएँ हो चुकी हैं लेकिन सब व्यर्थ हुई। कारण, उन्होंने किसी व्यावहारिक प्रणाली का आलम्बन नहीं किया। संसार के सभी धर्म सत्य हैं, यह अनेकों ने स्वीकार किया है-परन्तु उन सबको एकत्र करने का उन्होंने कोई उपाय नहीं दिखाया, जिससे वे इस समन्वय के भीतर रहते हुए भी अपनी विशिष्टता को सुरक्षित रख सके।
वही उपाय यथार्थ में कार्यकारी हो सकता है जो किसी धर्मावलम्बी व्यक्ति को विशिष्टता को नष्ट न करते हुए, उसको औरों के साथ सम्मिलित होने का पथ बता दे।
लेकिन अब तक धर्मा के समन्वय के जितने प्रयास हुए हैं, उनमें धर्म सम्बन्धी सभी दृष्टिकोणों को समाहित कर लेने के संकल्प के बावजूद कार्यरूप में उन्होंने सभी धर्मों के कुछ मतवादों को जकड़ देने की चेष्टा की। फलस्वरूप उनसे परस्पर कलह, संघर्ष और प्रतियोगिता करने वाले अनेक नये संप्रदायों की ही सृष्टि हुई है।
मेरी भी एक छोटी-सी योजना है। में नहीं जानता कि वह कार्यकारी होगी या नहीं, परन्तु में उसको विचारार्थ तुम्हारे सामने रखता हूँ। मेरी योजना क्या है? सर्वप्रथम में मनुष्य जाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि कुछ विनाश न करो। मूर्ति-मंजनकारी सुधारक लोग संसार का उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओं, वरन् उसका गठन करो। लेकिन हो सके, तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको, तो अनिष्ट मत करो। जब तक मनुष्य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्वास के विरुद्ध एक भी शब्द न कहो। दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको यहीं से ऊपर उठाने की चेष्टा करो।
● अगर यह सत्य है कि ईश्वर सब केन्द्रों का स्वरूप है और हममें से प्रत्येक एक-एक व्यासार्थ से उसकी ओर अग्रसर हो रहा है, तो हम सब निश्चय ही उस केन्द्र पर पहुं और व्यापारों के मिलन-स्थान में हमारे सब वैषम्य दूर हो जाएंगे। परन्तु जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते, तब तक वैषम्य कदापि दूर नहीं हो सकता। सब व्यासार्थ एक ही केन्द्र में सम्मिलित होते हैं। कोई अपने स्वभावानुसार एक व्यासार्थ से अग्रसर होता है और कोई किसी दूसरे व्यासार्थ से इसी तरह हम सब अपने-अपने व्यासार्थ द्वारा आगे बढ़ें, तब अवश्य ही हम एक ही केन्द्र में पहुँचेंगे। कहावत भी ऐसी है कि सब रास्ते रोम में पहुँचते हैं। प्रत्येक अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ रहा है और पुष्ट हो रहा है-प्रत्येक व्यक्ति उचित समय पर चरम सत्य की उपलब्धि करेगा। कारण, अन्त में देखा जाता है कि मनुष्यः स्वयं ही अपना शिक्षक है। तुम क्या कर सकते हो और मैं भी क्या कर सकता हूँ? क्या तुम यह समझते हो कि तुम एक शिशु को भी कुछ सिखा सकते हो? नहीं, तुम नहीं सिखा सकते। शिशु स्वयं ही शिक्षालाभ करता है-तुम्हारा कर्त्तव्य है सुयोग देना और बाधा दूर करना।
एक वृक्ष बढ़ रहा है। क्या तुम उस वृक्ष को बढ़ा रहे हो? तुम्हारा कर्तव्य है, उस वृक्ष के चारों ओर घेरा बना देना, जिससे चौपाये उस वृक्ष को ही न चर डालें। बस, वहीं तुम्हारे कर्तव्य का अन्त हो गया – वृक्ष स्वयं ही बढ़ता है। मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का रूप भी ठीक ऐसा ही है। न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको खुद ही शिक्षा लेनी होगी-तुम्हारी उन्नति तुम्हारे ही भीतर ही होगी। वाह्य शिक्षा देने वाले क्या कर सकते हैं? वे ज्ञानलाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर
सकते हैं और वहीं उनका कर्तव्य समाप्त हो जाता है। इसलिए अगर हो सके, तो सहायता करो, लेकिन विनाश मत करो। तुम इस धारणा को त्याग दो कि ‘तुम’ किसी को आध्यात्मिक बना सकते हो। यह असम्भव है। तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है। यह स्वीकार करो। फिर देखो क्या फल मिलता है। समाज में हम भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को देखते हैं। संसार में सहस्रों प्रकार के मन और संस्कार के लोग वर्तमान हैं उन सबका सम्पूर्ण सामान्यीकरण असम्भव है। परन्तु हमारे व्यावहारिक प्रयोजन के लिए चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
प्रथम, कर्मठ व्यक्ति, जो कर्मेच्छुक हैं। उनके नाड़ीतंत्र और मांसपेशियों में विपुल शक्ति है। उनका उद्देश्य है कर्म करना, अस्पताल तैयार करना, सत्कार्य करना, रास्ता बनाना, योजना स्थिर करके संघबद्ध होना। द्वितीय, भावुक, जो उदात्त और सुन्दर को सर्वान्तःकरण से प्रेम करते हैं, प्रेममय भगवान की पूजा करने के लिए। वे विश्व के तमाम महापुरुषों और भगवान् के अवतारों पर विश्वास करते हुए सबको सर्वान्तिःकरण से पूजा करते हैं, प्रेम करते हैं। ईसा और बुद्ध यथार्थ थे या नहीं, इसके लिए प्रमाणों की वे परवाह ही नहीं करते। ईसा का दिया हुआ ‘शैलोपदेश’ कब प्रचारित हुआ था? अथवा श्री कृष्ण ने कौन-सी तारीख को जन्म ग्रहण किया था? इसकी उन्हें चिन्ता नहीं।
उनके निकट तो उनका व्यक्तित्व, उनकी मनोहर मूर्तियाँ ही सबसे बड़े आकर्षण हैं। यही प्रेमिका या भादुकों का आदर्श है, यही उनका स्वभाव है। तृतीय, योगमार्गी व्यक्ति जो अपने मन का विश्लेषण करना और मनुष्य के मन की क्रियाओं को ज्ञात करना चाहते हैं, मन में कौन-कौन शक्ति काम कर रही है और उन शक्तियों को पहचानने या उनको परिचालित करने का अथवा उनको वशीभूत करने का क्या उपाय है-यही सब जानने को वे ‘उत्सुक रहते हैं। चतुर्थ, दार्शनिक, जो प्रत्येक विषय की परीक्षा लेना चाहते हैं-और अपनी बुद्धि के द्वारा मानवीय दर्शन से जहाँ तक जाना संभव है, उसके भी परे जाने की इच्छा रखते हैं।
अब बात यह है कि अगर किसी धर्म को जो अधिकांश लोगों के लिए उपयोगी होता है तो उसमें इन सब भिन्न-भिन्न वर्गों के लिए उपयुक्त सामग्री जुटाने की क्षमता होनी चाहिए, और जहाँ इस क्षमता का अभाव है, वहाँ सभी संप्रदाय एकदेशीय हो जाते हैं। मान लो, तुम किसी भक्त संप्रदाय के पास गये, वे गाते हैं, रोते हैं, और प्रेम का प्रचार करते हैं, लेकिन यदि तुमने उनसे कहा, ‘मित्र, यह सब ठीक ही है, परन्तु मैं इससे अधिक शक्तिप्रद कुछ चाहता हूँ, में कुछ युक्ति तर्क, कुछ दर्शन और बुद्धिपूर्वक इन क्रियाओं को थोड़ा समझना चाहता हूँ,’ तो वो फौरन तुमको बाहर निकाल देंगे। और सिर्फ इतना ही नहीं कि तुमको चले जाने को ही कहें, बल्कि हो सका तो एकदम तुमको भवसागर के पार ही भेज देंगे। अब इससे यह फल निकलता है कि वह सम्प्रदाय केवल भावना
प्रधान लोगों की ही सहायता कर सकता है। दूसरों की सहायता तो वे करते ही नहीं, उनकी करने की चेष्टा करते हैं, और सबसे दुष्ट बात तो यह है कि सहायता की तो बात दूर रही दूसरों की ईमानदारी पर भी विश्वास नहीं करते। फिर दार्शनिक हैं, जो भारत पाय ज्ञान की बातें करते हैं और खूब लम्बे-चौड़े मनोवैज्ञानिक प्रवास अक्षर के बे शब्दों का व्यवहार करते हैं।
लेकिन यदि मेरे जैसा कोई साधारण आदमी उनके पास जाकर कहे, ‘आप मुझे कुछ आध्यात्मिक उपदेश दे सकते हैं?” तो वह जरा मुस्कराकर यही कहेंगे, ‘अजी, तुम बुद्धि में अभी हमसे बहुत नीचे हो तुम आध्यात्मिकता को क्या समझोगे ये बड़े ऊंचे दर्जे के दार्शनिक हैं, वे तुमको केवल धर्म का द्वार दिखा सकते हैं। एक और दल है-योगी। वे जीवन की विभिन्न भूमिकाओं, मन के भिन्न-भिन्न स्तरों, मानसिक शक्ति की क्षमता इत्यादि के विषय में देर-सी बातें तुमसे कहेंगे, और यदि तुम साधारण आदमी की तरह उनसे कहो, ‘मुझको कुछ अच्छी बातें बतलाइए, जो में कार्यरूप में परिणत कर सकूँ, में उतना कल्पनाप्रिय नहीं है, क्या आप कुछ ऐसा मुझे दे सकते हैं, जो मेरे लिए उपयोगी हो?” तो वे हँसकर कहेंगे, ‘सुनते हो, क्या कह रहा है यह निर्बोध! कुछ भी समझ नहीं है-अहमक का जीवन ही व्यर्थ है।’ संसार में सर्वत्र यही हाल है। मैं इन सब भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के चुने-चुने धर्म ध्वजियों को एकत्र कर एक कमरे में बंद करके उनके सुन्दर विद्रूपव्यंजक हास्य का फोटोग्राफ लेना चाहता हूँ।
यही धर्म की वर्तमान अवस्था है, और यही वस्तुस्थिति है। मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो, इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव रहेंगे। अगर कॉलेज से वैज्ञानिक और भौतिक शास्त्री अध्यापक आयें, तो वे युक्ति तर्क पसंद करेंगे। उनको जहाँ तक सम्भव हो, युक्ति तर्क करने दो, अन्त में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुँचेंगे, जहाँ से युक्ति तर्क की धारा अविच्छिन्न रखकर वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते यह वे समझ लेंगे। वे कह उठेंगे, ‘ईश्वर, मुक्ति इत्यादि धारणाएँ अंधविश्वास हैं उन सबको छोड़ दो। मैं कहता हूँ, ‘हे दार्शनिकवर, तुम्हारी यह पंचभौतिक देह तो उससे बड़ा अंधविश्वास है, इसका परित्याग करो।
आहार करने के लिए घर में या अध्यापन के लिए दर्शन कक्षा में अब तुम मत जाओ। शरीर छोड़ दो और अगर न हो सके, तो चुपचाप बैठकर जोर-जोर से रोओ।’ क्योंकि धर्म को जगत के एकत्व और एक ही सत्य के अस्तित्व की सम्यक् उपलब्धि करने का उपाय अवश्य बताना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि कोई योगप्रिय व्यक्ति आये, तो हम उनकी आदर के साथ अभ्यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मनस्तन्य-विश्लेषण कर देने और उनकी आँखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्तुत रहेंगे। यदि भक्त लोग आएँ, तो हम उनके साथ एकत्र बेटकर भगवान् के नाम पर हँसेंगे और रोएँगे, प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त
हो जाएंगे। यदि एक पुरुषार्थी कमी आए, तो उसके साथ यथासाध्य काम करेंगे। भक्ति योग, ज्ञान और कर्म का इस प्रकार का समन्वय विश्व धर्म का अत्यन्त निकटतम होगा। भगवान् की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे म मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा।
जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं, में उनको एक पक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जान हैं! इसके सिवाय अन्य जो कुछ है, वह सब उनके निकट विपत्ति-कर और भयंकर है, इस तरह चारों और समभाव से विकास का लाभ करना ही ‘मेरे’ कहे हुए धर्म का आदर्श है, और भारतवर्ष में हम जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा इस आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मी के लिए यह मनुष्य के साथ मनुष्यजाति का योग हैं, योगी के लिए जीवात्मा और परमात्मा का योग, भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्वानुभूतिरूप योग है ‘योग’ शब्द से अर्थ निकलता है। यह एक संस्कृत शब्द है और चार प्रकार के इस योग के संस्कृत में अलग-अलग नाम हैं। जो इस प्रकार का योग साधन करना चाहते हैं, वे ही योगी हैं। जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन करते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। जो रहस्यवाद के द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें राजयोगी कहते हैं, जो भगवान् के भीतर से इस योग का साधन करते हैं, उन्हें भक्तियोगी कहते हैं और जो ज्ञान-विचार के बीच इस योग का साधन करते हैं, उन्हें ज्ञानयोगी कहते हैं। अतएव योगी कहने से इन सभी का अर्थ निकलता है।
पहले राजयोग की ही बात लो इस राजयोग इस मन:संयोग का क्या अर्थ है? (इंग्लैण्ड में) तुम लोगों ने योग शब्द के साथ भूत-प्रेत इत्यादि तरह-तरह की अजीब धारणाएं कर रखी हैं। अतएव में पहले ही तुम लोगों से कह देना चाहता हूं कि योग के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है कोई भी योग, युक्ति-तकों का परित्याग कर, आँखों पर कपड़ा बाँधकर ढूंढते फिरना या अपने युक्ति तर्कों को कुछ ऐरे गैरे पुरोहितों के हाथ समर्पित करने को नहीं कहता। उनमें से कोई भी नहीं कहता कि तुमको किसी मनुष्य के प्रति श्रद्धा-भक्ति अर्पित करनी होगी। हर एक ही यह कहता है कि तुम अपनी बुद्धि शक्ति को दृढ़ आलिंगन कर उसी में लगे रहो। प्राणियों में ज्ञान-लाभ के हम तीन उपाय देखते हैं। पहला तो जन्मजात प्रवृत्ति है, जो जीव-जन्तुओं में अत्यधिक परिस्फुटित देखी जाती है। यह ज्ञानलाभ का सबसे निम्न साधन है। दूसरा साधन क्या है? तर्क या बुद्धि।
मनुष्यों में ही इसका सर्वाधिक विकास दृष्टिगोचर है। पहला तो जन्मजात प्रवृत्ति है, वह एक अपर्याप्त साधन है। जीव-जन्तु का कार्यक्षेत्र बहुत ही संकीर्ण होता है और इस
संकीर्ण क्षेत्र में ही वह काम आता है। मनुष्य में यही जन्मजात प्रवृत्ति विशेष परिस्फुटित होकर तर्क या बुद्धि-शक्ति में परिणत हुई है। साथ ही कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया है, फिर भी यह बुद्धि-शक्ति बहुत अपर्याप्त है। यह कुछ दूर अग्रसर होकर ही रह जाती है, फिर आगे नहीं बढ़ सकती और अगर उसको और आगे ले जाने की चेष्टा करो तो फलस्वरूप भयानक परिभ्रांति उपस्थित हो जाएगी। तक अपने आप वितर्क में परिणत हो जाएगा। न्याय की भाषा में यह अन्योन्याश्रय से दूषित हो जाएगा। जैसे हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के मूलभूत कारण जड़ और शक्ति की बात तो जड़ क्या है?-जिस पर शक्ति कार्य करती है। और शक्ति क्या है?-जो जड़ पर कार्य करती है।।
तुम लोग अवश्य समझ गये होगे कि जटिलता क्या है नयाचिक इसको अन्योन्याश्रय दोष कहते हैं–पहले का भाव दूसरे पर निर्भर हो रहा है-और दूसरे का भाव पहले पर निर्भर हो रहा है। इसलिए तुम्हारे तर्क के पथ में एक बड़ी भारी बाबा दिखाई पड़ रही है, जिसको लांघकर बुद्धि अग्रसर हो नहीं सकती। तथापि इसके परे जो अनन्त राज्य विद्यमान है, वहाँ पहुँचने के लिए बुद्धि सदा व्यस्त रहती है। पंचेन्द्रियगम्य और मानसिक विचारगम्य यह जगत्-यह विश्व उस अनन्त का मानो एक अणु मात्र है, जो चेतन भूमि पर प्रक्षिप्त हुआ है, और चेतन रूप-जाल से घिरे हुए, उसी संकीर्ण भूमि के भीतर हमारी बुद्धि शक्ति काम करती है उसके परे नहीं जा सकती। इस कारण इसके परे जाने के लिए और किसी साधन का प्रायोजन है। अतिन्द्रियबोध वह साधन है, अतएव जन्मजात-प्रकृति, बुद्धि शक्ति और अतिन्द्रियबोध, ये तीनों ही ज्ञानलाभ के साधन हैं। पशुओं में जन्मजात-प्रवृत्ति, मनुष्य में बुद्धि-शक्ति और देवमानव में अतिन्द्रियबोध दिखाई पड़ता है।
लेकिन सब मनुष्यों में ही ज्ञान के इन तीनों साधनों का बीज थोड़ा-बहुत परिस्फुटित दिखाई पड़ता है। इन सब मानसिक साधनों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्यक है और यह भी स्मरण रखना कर्त्तव्य है कि एक साधन दूसरे साधन की विकसित अवस्था ही है, इसलिए वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। बुद्धि-शक्ति ही परिस्फुटित होकर अतिन्द्रियबोध में परिणत हो जाती है, इसलिए अतिन्द्रियबोच बुद्धि-शक्ति का परिपंथी नहीं है, लेकिन उसका पूरक है। जो-जो विषय बुद्धि-शक्ति के द्वारा समझ में नहीं आते, उन सबको अतिन्द्रियबोध द्वारा समझना होता है और वह बुद्धि-शक्ति का विरोधी नहीं है।
वृद्ध बालक का विरोधी नहीं है, बल्कि उसी की पूर्व परिणति है। अतएव तुमको हमेशा स्मरण रखना होगा कि निम्न श्रेणियों के साधन को उच्च श्रेणी का साधन कहकर भूल की गई है। उससे भयानक विपद की सम्भावना है। कई बार जात प्रवृति को अतिन्द्रियबोध कह दिया जाता है और साथ ही भविष्यवक्ता बनने का झूठा दावा भी किया जाता है। एक निर्वाध या अर्धोन्मत्त आदमी समझता है कि उसके दिमाग में जो पागलपन
है, वह अतिन्द्रिय ज्ञान है और वह चाहता है कि लोक उसका अनुसरण करें। संसार में जो परस्पर विरोधी असम्बद्ध प्रलाप प्रचारित हुए हैं। वे केवल विकृतमस्तिष्क, उन्मान से में के सहज ज्ञानलब्ध प्रलाप को अतिन्द्रियबोध की भाषा में प्रकट करने की चेष्टा मात्र है।
सच्ची शिक्षा का पहला लक्षण यह होना चाहिए कि वह कभी युक्ति तक की विरोधी न हो। तुमको इससे ज्ञात हो जाएगा कि ऊपर लिखे हुए सब लोग इसी मिति पर प्रतिष्ठित हैं। पहले राजयोग की बात तो राजयोग मनस्तत्व विषय का योग है-मनस्तद के विश्लेषण से ही एकत्व को प्राप्त किया जा सकता है। विषय खूब बड़ा है, इसलिए मैं अभी इस योग के आ भ्यन्तरीण मूल भाव को तुम लोगों के सामने व्यक्त करता है। हम लोगों के लिए ज्ञानलाभ का सिर्फ एक ही उपाय है। निम्नतम मनुष्य से लेकर सर्वोच्च योगी तक को उसी उपाय का अवलम्बन करना पड़ता है, वह उपाय हे एकाग्रता।
रसायनविद् जब अपनी प्रयोगशाला में कार्य करते हैं, तब वे अपने मन की सारी शक्ति को एकम कर लेते हैं-केन्द्रीभूत कर लेते हैं और उसक पदार्थों के ऊपर प्रयोग करते ही, वे सब विश्लेषित हो जाते हैं और इस प्रकार ये उनका ज्ञानलाभ करने में समर्थ होते हैं। ज्योतिर्विद भी अपनी समस्त मनःशक्ति को एकीभूत कर केन्द्रीभूत कर, दूरवीक्षण यंत्र के माध्यम से वस्तु के ऊपर प्रयोग करते हैं, जिससे घूमने बाले गरे और ग्रहमण्डल उनके निकट अपने रहस्य उद्घाटित करते हैं। चाहे विद्वान अध्यापक हो, चाहे मेधावी छात्र हो, चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी विषय को जानने की चेष्टा कर रहा है तो उसको उपर्युक्त प्रथा से ही काम लेना पड़ेगा। तुम सब मेरी बातों को सुन रहे हो, अगर मेरी बातें तुमको अच्छी लगीं, ती तुम्हारा मन मेरी बातों के प्रति एकसा हो जाएगा। फिर यदि तुम्हारे कान के पास कोई घंटा भी बजाए, तो तुमको सुनाई नहीं देगा। कारण, तुम्हारा मन उस समय किसी अन्य विषय में एकाग्र हुआ रहेगा।
तुम अपने मन को जितना अधिक एकाग्र करने में समर्थ होगे, उतना ही अधिक तुम मेरी बातों को समझ सकोगे और मैं अपने प्रेम और शक्ति समूह को जितना ही अधिक एकाग्र कर सकूंगा, उतना ही अधिक अच्छी तरह से मैं तुमको अपनी बात समझा गया। यह एकाग्रता जितनी अधिक होगी, उतना ही मनुष्य अधिक ज्ञानलाभ करेंगे, कारण यही ज्ञानला का एकमात्र उपाय है- नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय मोची यदि जरा अधिक मन लगाकर कार्य करे, तो वह जूतों को अधिक अच्छी तरह पालिश कर सकेगा। रसोइया एकाग्र होने से भोजन को अच्छी तरह पका सकेगा। अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद्ाधना हो जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह काम उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा। द्वार के निकट जाकर बुलाने से या खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुलकर विश्व में प्रकाशधारा प्रवाहित होती है। राजयोग में केवल इसी विषय की चर्चा है।
अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था में हम बड़े ही अन्यमनस्क हो रहे हैं। हमारा मन इस समय सैकड़ों और दौड़कर अपनी शक्ति क्षय कर रहा है। जब कभी में बेकार की सब चिन्ताओं को छोड़कर ज्ञानलाभ के उद्देश्य से मन को स्थिर करने का प्रयत्न करता हूँ न जाने कहाँ से मस्तिष्क में हजारों बाधाएं आ जाती हैं, हजारों चिन्ताएँ मन में एक संग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सबको नियंत्रण कर मन को वशीभूत किया जाए? यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है।
अब कर्मयोग अर्थात् कर्म द्वारा ईश्वर-लाभ की बात लो। संसार में ऐसे लोग बहुत देखे जाते हैं, जिन्होंने मानो किसी न किसी प्रकार का काम करने के लिए ही जन्म ग्रहण किया है। उनका मन केवल चिन्तन-राज्य में ही एकाग्र होकर नहीं रह सकता। जिसे आंखों से देखा जा सकता है और हाथों से किया जा सकता है-ऐसे मूर्त कार्य में ही उनका मन एकाग्र होता है। इस तरह के लोगों के लिए एक विज्ञान की आवश्यकता है। हममें से प्रत्येक ही किसी न किसी प्रकार के काम में लिप्त है, लेकिन हम लोगों में अधिकतर लोग अपनी अधिकांश शक्ति का अपव्यय करते हैं, कारण यह है कि हमें कर्म का रहस्य नहीं है। कर्मयोग इस रहस्य की व्याख्या करता है और कहाँ किस भाव से कार्य 1 करना होगा, प्रस्तुत कर्म में किस भाव से हमारी समस्त शक्ति का प्रयोग करने से सर्वापेक्षा अधिक लाभ होगा, इसकी शिक्षा देता है।
हाँ, कर्म के विरुद्ध, यह कहकर जो प्रबल आपत्ति उठाई जाती है, वह दुःखजनक है। इसका भी विचार करना होगा। सब दुःख और कष्ट आते हैं आसक्ति से में काम करना चाहता हूँ। मैं किसी मनुष्य का उपकार करना चाहता हूँ। और नब्बे में एक यही देखा जाता है कि मैंने जिसकी सहायता की है, वह व्यक्ति सारे उपकारों को भूलकर मुझसे शत्रुता करता है-परिणाम यह होता है कि मुझे कष्ट मिलता है। इस तरह की घटनाएँ ही मनुष्य को कर्म से विरत कर देती हैं और इन दुःखों और कष्टों का भय ही मनुष्य के कर्म और उद्यम को नष्ट कर देता है। किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, इत्यादि विषयों पर ध्यान न रखते हुए अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए-कर्मयोग यही शिक्षा देता है। कर्मयोगी कर्म करते हैं, कारण ये उनका स्वभाव है। वे अनुभव करते हैं कि ऐसा करना ही उनके लिए कल्याणप्रद है-इसको छोड़ उनका कोई और उद्देश्य नहीं रहता। वे संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करते हैं। वे कभी किसी वस्तु की प्रत्याशा नहीं रखते। वे जान-बूझकर दान कर जाते हैं, लेकिन प्रतिदान स्वरूप वे कुछ नहीं चाहते, इसी कारण वे दुःखों से मुक्ति पाते हैं। जब दुःख हमको ग्रसित करता है, तब यहीं समझना होगा कि यह केवल ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया है।
अब इसके बाद, भावुक और प्रेमी लोगों के लिए भक्तियोग है। भक्त चाहते हैं,
भगवान से प्रेम करना। वे धर्म के अंग स्वरूप क्रिया-कलापों की सहायता लेते हैं और पुष्प, गन्ध, सुरम्य मन्दिर, मूर्ति इत्यादि अनेक प्रकार के द्रव्यों से सम्बन्ध रखते हैं लोग क्या यह कहना चाहते हो कि भूल करते हैं में तुमसे एक सच्ची बात चाहता हूँ वह तुम लोगों को, विशेषकर इस देश में स्मरण रखना उचित है। जो सब धर्म सम्प्रदाय और पौराणिक तत्व सम्प्रद से समृद्ध है, विश्व के श्रेष्ठ आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न महापुरुषों ने उन्हीं सम्प्रदायों में जन्म ग्रहण किया है। और जो सम्प्रदाय, किसी प्रतीक या अनुष्ठान विशेष की सहायता बिना ही भगवान की चेष्टा करते हैं, जो धर्म की सारी सुन्दरता, महानता तथा सब कुछ निर्मम भाव से पददलित करते हैं, अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर भी उनका धर्म केवल करता है. शुष्क है। जगत का इतिहास इसका व्यन्त साक्षी है। इसलिए इन सब अनुष्ठानों तथा पुराणों आदि को गाली मत दो।
जो लोग इन्हें लेकर रहना चाहते हैं, उन्हें रहने दो। तुम व्यर्थ ही व्यंग्यात्मक सी हँसकर यह मत कहो कि वे मूर्ख हैं, उन्हें उसी को लेकर रहने दो। मैंने जीवन में जिन सब आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न श्रेष्ठ महापुरुषों के दर्शन किये हैं, ये सब इन्ही अनुष्ठानादि नियमों के माध्यम से हुए हैं। मैं अपने को उनके पैरों तले बैठने योग्य भी नहीं समझता और उस पर भला में उनकी समालोचना करूं? ये सब भाव मानव मन में किस तरह काम करते हैं और उनमें से कौन-सा हमारे लिए साहस है तथा कौन-सा त्यान्य है, इसे मैं कैसे समझे? हम उचित-अनुचित न समझते हुए भी संसार की सारी वस्तुओं की समालोचना करते रहते हैं। लोगों को जितनी इच्छा हो, उन्हें इन सब सुन्दर प्रेरणादायक पुराणादि को ग्रहण करने दो, कारण, तुमको यह सर्वदा याद रखना उचित है कि भावुक लोग सत्य की कुछ नीरस परिभाषा की जरा भी चिन्ता नहीं करते।
ईश्वर उनके निकट मूर्त वस्तु है, यही एकमात्र सत्य स्थिति है। उसे वे अनुभव करते हैं, उससे वे बात सुनते हैं, उसे वे देखते हैं, उससे वे प्रेम करते हैं। वे अपने ईश्वर को ही लेकर रहें। तुम्हारा युक्तिवाद, भक्त के निकट उस मूर्ख के सदृश है, जो एक सुन्दर मूर्ति को देखते ही उसे चूर्ण कर यह देखना चाहे कि वह किस उपकरण से निर्मित है। भक्तियोग उनको निःस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता हो, किसी भी सुदूर स्वार्थभाव से, लोकंषणा, पुत्रैषणा, वित्तेषणा से नितांत रहित होकर केवल ईश्वर से अथवा जो कुछ मंगलमय है, सिर्फ उसी से कर्त्तव्य समझकर प्रेम करो प्रेम ही प्रेम का श्रेष्ठ प्रतिदान है, और ईश्वर ही प्रेमस्वरूप है। ईश्वर सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शास्ता और पिता-माता है, यह कहकर उसके प्रति हृदय ही सारी भक्ति और श्रद्धा अर्पित करने की ही शिक्षा भक्तियोग देता है।
भाषा उसका जो सबसे अधिक प्रकाश कर सकती है, अथवा मनुष्य उसके सम्बन्ध में जो सर्वोच्च धारणा कर सकता है, वह यह है कि वह प्रेममय है। जहां कहीं प्रेम हो, वहाँ वह है।
जहाँ कहीं किसी प्रकार का प्रेम है, वह यह है, वहां प्रभु विद्यमान है। पति को करता है, उस चुम्बन में भी वह विद्यमान है। माता जब शिशु का चुम्बन करती है तो उसमें भी वह विद्यमान है। मित्रों के करमर्दन में भी प्रभु विद्यमान है। जब कोईमानद अति के प्रेम के वशीभूत हो, उनका कल्याण करने की इच्छा करते हैं, तब म ही अपने मानव-प्रेम भण्डार से मुक्तहस्त हो प्रेम वितरण करता है। जहीं हृदय का विकास है उसका प्रकाश है। भक्तियोग से इन्हीं सब बातों की शिक्षा मिलती है।
अब अन्त में में ज्ञानयोगी दार्शनिक पर विचार करूँगा। वे दार्शनिक और चिक हैं जो इस दृश्य जगत् के परे जाना चाहते हैं-वे संसार की तुच्छ वस्तुओं को लेकर सन्तुष्ट नहीं रह सकते। वे प्रतिदिन के आहारादि नित्य कर्म के परे चले जाना चाहते हैं-हजारों पुस्तक पढ़ने पर भी उनकी शान्ति नहीं होती, यहां तक कि समग्र भौतिक विज्ञान भी उनको परिष्कृत नहीं कर सकता। कारण, वे बहुत प्रयत्न करने पर इस क्षुद पृथ्वी को तो ज्ञानगोचर कर सकते हैं। ऐसी कौन सी वस्तु है, जो उनको सन्तुष्ट कर सकेर कोटि-कोटि सर जगत् भी उनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते; अपनी दृष्टि में वे ‘सत्’ सिन्धु के केवल एक बिन्दु हैं। उनकी आत्मा इन सबके पार सब अस्तित्वों का जो सार है, उसी में डूब जाना चाहती है-सत्य-स्वरूप को प्रत्यक्ष करना चाहती है।
“वे इसकी उपलब्धि करना चाहते हैं, उसके साथ तादाम्य लाभ करना चाहते हैं. इस विराट सत्ता के साथ एक हो जाना चाहते हैं। वे ही ज्ञानी हैं। भगवान जगत् के पिता-माता, सृष्टिकर्त्ता पालक, पथदर्शक इत्यादि वाक्यों द्वारा भगवान् की महिमा प्रकाश करने में वे असमर्थ हैं। वे विचार करते हैं, भगवान उनके प्राणों के प्राण, आत्मा की आत्मा है, भगवान उनकी ही आत्मा है। भगवान् को छोड़कर और कोई भी वस्तु नहीं है। उनका समुदाय नश्वर अंश विचारों के प्रबल आघात से चूर्ण-विचूर्ण होकर उड़ जाता है। अन्त में जो सचमुच ही विद्यमान रहता है, वही स्वयं भगवान् है।
एक ही वृक्ष पर दो पक्षी हैं, एक ऊपर एक नीचे ऊपर का पक्षी स्थिर, निर्वाक और महान है और अपनी ही महिमा में किशोर है, नीचे की डाल पर जो पक्षी है, वह कभी मिष्ट और कभी तिक्त फल खा रहा है, एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक रहा है और पर्यावक्रम से अपने को कभी खुशी और कभी दुःखी समझता है। कुछ क्षण बाद नीचे के पक्षी ने एक बहुत ही कडुवा फल खाया और साथ ही अपने को धिक्कारते हुए ऊपर की और दृष्टिपात किया और दूसरे पक्षी को देखा वह अपूर्व सुनहरे पर काला पक्षी न तो मीठे फल खाता है और न कडुवे अपने को न तो दुःखी समझता है और न सुखी, लेकिन शान्त भाव से अपने में ही विभोर है, उसे अपनी आत्मा को छोड़ और कुछ भी दिखाई नहीं देता। नीचे का पक्षी इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए व्यग्र हुआ, लेकिन शीघ्र ही भूल गया और फिर फल खाने लगा।
कुछ देर बाद फिर उसने एक बड़ा ही काफल खाया, जिससे उसके मन में दुःख हुआ और फिर उसने ऊपर की ओर दृष्टि डाली और ऊपर वाले पक्षी के निकट जाने की चेष्टा की, लेकिन फिर मूल गया और कुछ क्षण बाद फिर ऊपर देखा। कई बार ऐसा ही करते हुए वह ऊपर के पक्षी के बिल्कुल निकट पहुँच गया और देखा कि उसके परी से ज्योति का प्रकाश फूटकर उसकी देह के चतुर्दिक विकीर्ण हो रहा है। उसने एक परिवर्तन का अनुभव किया मानो वह मिलने जा रहा है, वह और भी पास गया, देखा, उसके चारों तरफ जो कुछ था, सब गला जा रहा है-अन्तर्हित हो रहा है। अन्त में उसने इस अद्भुत परिवर्तन का अर्थ समझा। नीचे का पक्षी मानो ऊपर वाले पक्षी की एक घनीभूत छाया मात्र था, केवल प्रतिविम्व था। वह स्वयं बराबर स्वरूपतः ऊपर वाला पक्षी ही था। नीचे वाले पक्षी का मीठा और कड़वा फल खाना और एक के बाद एक सुख और दुःख का बोध करना सब मिथ्या, सब स्वप्न मात्र है, वह प्रशान्त, निर्वाक, महिमामय शोक, दुखातीत ऊपर वाला पक्षी ही सदैव विद्यमान था।
ऊपर वाला पक्षी ईश्वर परमात्मा, जगत्-प्रभु है और नीचे वाला पक्षी, जीवात्मा। इस जगत के सुख-दुःखरूपी मीठे कडुवे फलों का भोक्ता है। बीच-बीच में जीवात्मा के ऊपर प्रबल आबात आ पड़ता है, वह कुछ दिन के लिए फलभोग बन्द कर उस अज्ञात ईश्वर की ओर अग्रसर होता है। उसके हृदय में सहसा ज्ञान ज्योति का प्रकाश होता है। तब वह समझता है यह संसार केवल झूठा दृश्यजाल है, लेकिन फिर इन्द्रियों उसे बहि में उतार लाती हैं और पूर्व की भाँति फिर वह जगत के अच्छे-बुरे फलभोगों में लग जाता है। पुनः एक अत्यन्त कठोर आघात पाता है और फिर उसका हृदय द्वार दिव्य प्रकाश के लिए उन्मुक्त हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे वह भगवान् की ओर अग्रसर होता है। और जितना ही यह अधिकतर निकटवर्ती होने लगता है, उतना ही वह देखता है कि उसके अहंकारी ‘मैं’ का अपने आप ही लय होता जा रहा है।
जब वह खूब निकट आ जाता है, तब देख पाता है कि वह खुद ही भगवान् है और बोल उठता है, जिसको मैंने तुम्हारे निकट जगत् का जीवन और अणु-परमाणु तथा चन्द्र-सूर्य तक में विद्यमान रहने वाला कहकर वर्णन किया है, वही हमारे इस जीवन का आधार है, हमारी आत्माओं की आत्मा है। सिर्फ यही नहीं, तुम भी वही हो-‘तत्वमसि’। “ज्ञान योग यही शिक्षा देता है। वह मनुष्य से कहता है, तुम्हीं स्वरूपतः भगवान हो। यह मानव-जाति को प्राणिजगत के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है-हममें से प्रत्येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत् में प्रकाशित हो रहा है। अत्यन्त सामान्य पददलित कीट से लेकर उन श्रेष्ठ जीवों तक, जिसकी हम सविस्मय हृदय की श्रद्धा-भक्ति अर्पित करते हैं, सभी
उस एकमात्र भगवान की अभिव्यक्तियों हैं। आखरी बात यह है इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा,
सिर्फ उनके सम्बन्ध में जल्पना कल्पना करने से कुछ न होगा। ‘श्रोतव्यों मन्तव्यों निदिध्यासितव्यः।’ पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा-फिर श्रुत विषयों पर चिन्ता करनी होगी। हमें उन सबको अच्छी तरह विचारपूर्वक समझना होगा, जिससे हमारे मन में उनकी एक छाप पड़ जाए। इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी। जब तक हमारा समस्त जीवन तद्भाव भावित न हो उठे, तब तक धर्म हमारे लिए सिर्फ कतिपय धारणाओं एवम् मतवादों की पोटली अथवा बौद्धिक कल्पना भी नहीं रहेगा। यह हमारा आत्मस्वरूप हो जाएगा।
भ्रमात्मक बुद्धि से आज हम अनेक मूर्खताओं को सच समझकर ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तन कर सकते हैं, लेकिन यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। धर्म अनुभूति की वस्तु है-वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है चाहे वह जितना ही सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्वप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है-वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ हो जाना-यही धर्म है।”
स्वामी विवेकानन्द के राजभोग के ध्येय क्या है
राजभोग के ध्येय पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा- “हमारे समस्त ज्ञान अनुभव पर आधारित हैं, जिसे हम आनुमानिक कहते हैं और जिसमें हम सामान्य से अधिक सामान्य या सामान्य से विशेष तक पहुँच जाते हैं। उसकी आधार-भूमि अनुभव ही है। जिनका निश्चित विज्ञान है। वे विज्ञान, जिनके तत्त्व इतनी दूर तक सत्य निर्णीत हुए हैं कि गणना के बल पर उनके द्वारा भविष्य निश्चयपूर्वक बताया जा सकता है, जैसे—गणित, गणित ज्योतिष इत्यादि । कहते हैं उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे हरएक मनुष्य के विशेष अनुभवों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं।
वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को नहीं कहेंगे। उन्होंने खुद कुछ तथ्यों को प्रत्यक्ष अनुभव किया है, जिससे वे कुछ निष्कर्षो पर पहुंचे हैं और उन अनुभवों पर तर्क देते समय जब वे अपने उन निष्कर्षो पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं, तब चे मनुष्य जाति के कुछ सार्वभौम अनुभव की ओर हमारी दृष्टि आकृष्ट करते हैं। प्रत्येक “निश्चित विज्ञान की एक आधार भूमि है, जो सम्पूर्ण मनुष्य जाति में सामान्य है और उससे जो निष्कर्ष उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर भी कोई उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है। अब प्रश्न यह है-धर्म की ऐसी आधारभूमि कोई है भी या नहीं?
इस प्रश्न का मुझे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूप से उत्तर देना होगा। संसार में धर्म के सम्बन्ध में सभी जगह ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास पर स्थापित है और अधिकांश स्थलों में तो वह अलग-अलग मतों का स्वरूप मात्र है। इसी कारण हम देखते हैं कि सभी धर्म आपस में लड़ रहे हैं। ये मत विश्वास पर स्थापित हैं। कोई मनुष्य कहते हैं कि वादलों के ऊपर एक महान पुरुष बैठा है, वही सम्पूर्ण विश्व पर शासन करता है। मेरे भी ऐसे अनेक विचार हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ और अगर वे कोई तर्क चाहें तो मैं उन्हें कुछ नहीं दे सकता। इसलिए आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है।
प्रत्येक शिक्षित मनुष्य का मानो यही मनोभाव है- ‘ओह, ये धर्म कुछ मतों के गड्ढे भर हैं। उनके सत्यासत्य निर्णय का कोई मापदण्ड नहीं है, जो जी में आया वही बक गया।’
इन सबके बाद भी सभी धर्मों में सार्वभौमिक विश्वास की एक आधार भूमि है, जो विभिन्न देशों के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत्तवादों और सब तरह की विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है उन सबके मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे मी सार्वजनिक अनुभव पर आधारित हैं। पहली बात तो यह है कि अगर तुम पृथ्वी के भिन्न-भिन्न धर्मो का जरा विश्लेषण करो, तो तुम्हें ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं, कुछ की शास्त्र-मित्ति है और कुछ का शास्त्र-मित्ति नहीं है। जो शास्त्र-मिति पर स्थापित हैं, वे सुदृढ़ हैं। उन धर्मों के अनुयायियों की संख्या भी अधिक है। जिनकी शास्त्र-मित्ति नहीं है, वे धर्म लगभग लुप्त हो गये हैं। कुछ नये उठे अवश्य हैं, पर उनके बहुत कम अनुयायी हैं।
फिर भी उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दिखाई पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के अनुभवों का परिणाम है। ईसाई, तुमसे अपने धर्म पर, ईसा पर, ईसा के अवतार के रूप पर, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की उन्नत भविष्य स्थिति पर विश्वास करने को कहते हैं। अगर मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछे तो वह कहता है-‘यह मेरा विश्वास है।’
लेकिन यदि तुम ईसाई धर्म के मूल स्रोत में जाओ, तो देखोगे कि वह भी अनुभव पर आधारित है। ईसा ने कहा है-
मैंने ईश्वर के दर्शन किए हैं। उनके शिष्यों ने भी कहा है-‘हमने ईश्वर का अनुभव किया है।’
ऐसा ही बौद्ध धर्म के बारे में भी है। बुद्ध के अनुभव पर यह धर्म आधारित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था, उनको देखा था, उनके संस्पर्श में आये थे, और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। उनके शास्त्रों में ऋषि नाम से सम्बोधित किये जाने वाले ग्रंथकर्ता घोषणा करते हैं कि उन्होंने कुछ सत्यों को अनुभव किया है और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गये हैं। अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित हैं, जो हमारे सम्पूर्ण ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ आधारशिला है।
सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर के दर्शन किए थे, उन सभी ने अपनी आत्मा का दर्शन किया था, अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था, सबने अपनी भविष्य-अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये। अन्तर इतना ही है कि इनमें से ज्यादातर धर्मों में, विशेषतः आजकल, एक अद्भुत दावा हमारे समक्ष उपस्थित होता है और वह यह कि इस समय ये अनुभव असंभव हैं। जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव संभव हुआ था। ‘अब ऐसे अनुभव के लिए
कोई मार्ग नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा, यह बात में पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ। अगर विश्व में किसी तरह के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुं सकता है कि पहले भी कई बार उसकी उपलब्धि की संभावना थी और भविष्य में भी अनन्तकाल तक उसकी उपलब्धि की संभावना बनी रहेगी।
एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर से घटित हो सकता है। इसलिए योग विद्या के आचार्य कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, पर इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता। जिस विद्या द्वारा इन अनुभवों की प्राप्ति होती है, उसे योग कहते हैं। भगवान के नाम पर इतनी लड़ाई, विरोध और झगड़ा क्यों? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है, उतना और किसी कारण से नहीं। ऐसा क्यों? इसीलिए कि कोई भी व्यक्ति मूल तक नहीं गया। सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही सन्तुष्ट थे। वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें। जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वर साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है?
अगर ईश्वर हो, तो उसका साक्षात्कार करना पड़ेगा। यदि आत्मा नाम की कोई चीज हो, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी अन्यथा विश्वास न करना ही भला ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। एक तरफ, आजकल के विद्वान कहलाने वाले मनुष्यों के मन का भाव यह है कि धर्म, दर्शन और एक परम पुरुष का अनुसन्धान, यह सब निष्फल है, और दूसरी तरफ, जो अर्धशिक्षित हैं, उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म, दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं, उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगल-साधन की बलवान प्रेरक शक्तियाँ हैं।
अगर लोगों का ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा, तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसलिए अच्छे नागरिक बनेंगे। जिनके मन का भाव ऐसा है, इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे धर्म के सम्बन्ध में जो शिक्षा पाते हैं, वह सिर्फ सार शून्य, अर्थहीन अनन्त शब्द समष्टि पर विश्वास मात्र है। उन लोगों के शब्दों पर जीवित रहने के लिए कहा जाता है, क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है? अगर मनुष्य द्वारा यह संभव होता, तो मानव-प्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती।
मनुष्य चाहता है, सत्य! वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है और जब वह सत्य को धारण कर लेता है, तब वह सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, हृदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है। वेद कहते हैं-
‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
अर्थात् सिर्फ तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा तमा जान दिन्न-भिन्न जाता है और सारी चक्रता सीधी हो जाती है।’
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥ अर्थात हे अमृत के पुत्रों, यह कि हे दिव्यधामनिवासियो सुनो- ‘वेदाहमेत’ पुरुष महानतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युयेति नान्यः पन्थान्याय अर्थात् ‘मैंने अज्ञान के अन्धकार से प्रकाश के जाने का मार्ग पा लिया है। जी
तम के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है, मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इस सत्य को पाने के लिए, राजयोग-विद्या मानव के समक्ष यथार्थ व्यावहारिक और • साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव रखती है। पहले तो प्रत्येक विद्या के अनुसन्धान और साधन की प्रणाली पृथक्-पृथक् है। अगर तुम ज्योतिषी होने की इच्छा करो और बैठे-बैठे केवल ज्योतिष ज्योतिष कहकर चिल्लाते रहो, तो कभी तुम ज्योतिष शास्त्र के अधिकारी नहीं बन सकोगे। रसायनशास्त्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा। प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे, उनको एकत्र करना होगा, उन्हें उचित अनुपात में मिश्रित करना होगा। फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी ● होगी, और तभी इससे रसायनशास्त्र का ज्ञान प्राप्त होगा।
अगर तुम ज्योतिषी बनना चाहते हो, तो तुम्हें वेधशाला में जाकर दूरबीन की सहायता से ताराओं और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में अध्ययन करना होगा, तभी तुम ज्योतिषी बन सकोगे। प्रत्येक विद्या की अभी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सेकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, लेकिन यदि तुम साधना न करो तो तुम कभी धार्मिक नहीं बन सकते। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्ध स्वभाव साधु-महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा कि इन्द्रियों हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करवा सकती हैं, हमने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं।
वे कहते हैं कि हम एक निर्दिष्ट साधन प्रणाली लेकर ईमानदारी से साधना करते रहें और यदि यह उच्चतम सत्य प्राप्त न हो, तो फिर भले ही कह सकते हैं कि इस उच्चतर सत्य के सम्बन्ध की बातें सिर्फ कपोल कल्पित हैं। लेकिन हाँ, इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिल्कुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है। अतएव निर्दिष्ट साधन प्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक है, और तब प्रकाश अवश्य आएगा।
कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं और
साधारणीकरण घटनाओं के पर्यवेक्षण पर आधारित है। हम पहले घटनावली का पर्यवेक्षण करते हैं, फिर उनका साधारणीकरण करते हैं, तब उनसे अपने सिद्धान्त या निष्कर्ष निकालते हैं। हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं, तब तक हम अपने मन के सम्बन्ध में, मनुष्य की आभ्यन्तरिक प्रकृति के सम्बन्ध में, मनुष्य के विचार के बारे में कुछ भी नहीं जान सकते। बाहरी संसार के व्यापारियों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं, लेकिन अन्तर्जगत् के व्यापार को समझने में सहायता करने वाला कोई भी यन्त्र नहीं है, मगर फिर भी हम यह पक्का जानते हैं कि किसी विषय के सत्य ज्ञान प्राप्ति करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है।
उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर सिर्फ मित्तिहीन अनुमान में परिणत हो जाता है। इसी कारण उन थोड़े से मनस्तवान्वेषियों को छोड़कर, जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिए हैं, शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं। राजयोग-विद्या पहले मनुष्यों को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस तरह उपाय दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है। मनोयोग की शक्ति का सही-सही नियमन कर, जब उसे अन्तर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है. तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश से हम यह सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या हो रहा है। मन की शक्तियों इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं। ज्ञान का हमारा यही एकमात्र उपाय है।
बाहरी जगत् में हो या अन्तर्जगत् में, लोग इसी को व्यवहार में ले रहे हैं। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्मपर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिजगत में करता है, मनस्तत्वान्वेशी उसी का मन पर करते हैं। इसके लिए बहुत अभ्यास की जरूरत है। बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अन्तर्जगत् में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसी कारण हम में से अधिकांश आभ्यान्तरिक क्रिया-विध की निरीक्षण शक्ति को खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना, जिससे वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आपको विश्लेषण करके देख सके एक अत्यन्त कठिन कार्य है।
किन्तु इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है। इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है, दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और निव्यशुद्ध है, तब उसको
फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विवाद न जाने कही अदृश्य हो जाता है। भय और अतृप्त वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर मृत्यु-मय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय समझ जाता का आभास हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता।
उसकी जगह इसी शरीर में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है, एकाग्रता रसायनविद् अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करके जिन वस्तुओं का विश्लेषण करते हैं, उन पर प्रयोग करते हैं, और इस तरह वह उसके रहस्य जान लेता है। ज्योतिषी अपने मन की समूची शक्तियों को इकट्ठा करक दूरबीन के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है, और स त्यों ही सूर्य, चन्द्र और ताराऐं अपने-अपने रहस्य उसके निकट खोल देती हैं। मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ, उस विषय में में जितना मनोनिवेश कर सकूंगा, उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूंगा। तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो और तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे, उतना ही मेरी बात को स्पष्ट रूप से धारण कर सकोगे।
मन की शक्तियों के एकाग्र करने के लिए अथवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुआ है? प्रकृति के द्वार पर कैसे खटखटाना चाहिए उस पर कैसे आघात देना चाहिए, सिर्फ यह ज्ञात हो गया, तो बस, प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्तियाँ और तीव्रता, एकाग्रता से ही आती हैं। मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं।
वह जितना भी एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही रहस्य हैं। मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है। मन स्वभावतः बहिर्मुखी है। किन्तु धर्म, मनोविज्ञान तथा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है। यह तो ज्ञाता और ज्ञेय (विषयी और विषय एक है। यह प्रमेय (विषय) एक अन्दर की वस्तु है- मन ही स्वयं यह प्रमेय है। मन का अध्ययन करना ही यह प्रयोजन है और मन ही मन में अध्ययन करना है।
हमें ज्ञात है कि मन ही एक ऐसी ताकत है जिससे वह अपने भीतर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है-उसको अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति कह सकते हैं। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ, फिर एक साथ ही में मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और कुछ कह रहा हूँ, वह जान-सुन रहा है। तुम एक ही समय काम और चिन्तन, दोनों कर रहे हो, लेकिन तुम्हारे मन का एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर तुम जो ‘कुछ चिन्तन कर रहे हो, उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका
प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा। तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुंचे। तभी हमको सही धर्म-प्राप्ति होगी। तभी आत्मा है या नहीं, जीवन केवल पांच मिनट का है अथवा अन्त काल व्यापी है और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं, यह सब हम स्वयं देख सकेंगे।
सब कुछ हम स्वयं देख सकेंगे। सबकुछ हमारे ज्ञान चक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा राजयोग हमें यही शिक्षा देना चाहता है। इसमें जितने उपदेश हैं, उन सबका उद्देश्य प्रथमतः मन की एकाग्रता का साधन है। इसके पश्चात है-उसके गम्भीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न-भिन्न कार्य हो रहे हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना और उनसे साधारण सत्यों को निकालकर, उनसे अपने एक सिद्धान्त पर उपनीत होना। इसलिए राजयोग की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है। तत्पश्चात्
तुम्हारा धर्म चाहे जो हो, तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बा ईसाई इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं तुम मनुष्य हो, बस यही पर्याप्त है। प्रत्ये मनुष्य में धर्म तत्व का अनुसन्धान करने की शक्ति है। इस पर अधिकार है प्रत्येक का किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है, और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उठे प्रश्नों के उत्तर पा सके। किन्तु हो, उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा। अब तक हमने देखा, इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की जरूरत नहीं है।
जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास मत करो – राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं। क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है? नहीं, कभी नहीं। इस राजयोग की साधना में दीर्घकाल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीर-संयम विषयक है, परन्तु इसका प्रमुख अंश मनःसंयमात्मक है। हम क्रमशः समझेंगे मन और शरीर में किस प्रकार का संबंध है।
अगर हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्था विशेष पर शरीर पर कार्य करता है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है। शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसका मन अस्थिर हो जाता है। मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है। अधिकांश लोगों का मन शरीर के सम्पूर्ण अधीन रहता है। वास्तव में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। अधिकांश मनुष्य पशु से कुछ ही
उन्नत है, क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम शक्ति पशु-पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं।
हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत कम है। मन पर यह अधिकार पाने के लिए शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है। शरीर जब पूरी तरह अधिकार में जा जाएगा, तब मन को हिलाने बुलाने का समय आएगा। इस तरह मन जब बहुत कुछ यश में जा जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे। उसकी वृतियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे। राजयोगी के मतानुसार यह सम्पूर्ण बहिर्जगत् अन्तर्जगत या सूक्ष्म जगत का स्थूल विकास मात्र है। सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्कूल को कार्य समझना होगा। इस नियम से, बहिर्जगत् कार्य है और अन्तर्जगत कारण।
इसी प्रकार स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियों ने आभ्यन्तरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार पाना-इस कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं। ये एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं, जहाँ हम जिन्हें ‘प्रकृति का नियम कहते हैं, वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते। जिस अवस्था में वे उन सबको पार कर जाते हैं, तब वे आभ्यान्तरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं।
मनुष्य जगत की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है। इस प्रकृति को वशीभूत करने के लिए भिन्न-भिन्न जातियों भिन्न-भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती हैं। जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही भिन्न-भिन्न जातियों में कोई-कोई जातियों का प्रकृति को तो कोई-कोई अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं। किसी के मत से, अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वशीभूत हो जाता है, फिर दूसरों के मत से बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ यश में आ जाता है। इन दो सिद्धान्तों के धरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धान्त सही हैं, क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यन्तर जैसा कोई भेद नहीं है। यह सिर्फ एक काल्पनिक विभाग है। ऐसे विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं और यह कभी का भी नहीं।
बहिबांदी और अर्न्तवादी जब अपने-अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे तब दोनो अवश्य ही एक ही स्थान पर पहुँच जाएंगे जैसे भौतिक विज्ञानी अब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएंगे, तो अन्त में उन्हें दार्शनिक होना होगा, उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे, वह वास्तव में कल्पना
मात्र है, वह एक दिन बिल्कुल विलीन हो जाएगी। जिस एक से यह बहु उत्पन्न हुआ है, जो एक वह रूपों में प्रकाशित हुआ है, उस एक तत्त्व को प्राप्त करना ही समस्त विज्ञान का उद्देश्य और लक्ष्य है। राजयोगी कहते हैं, हम पहले अन्तर्जगत् का ज्ञान प्राप्त करें, फिर उसी के द्वारा बाह्य और अन्तर, उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे।
प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं। भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है, लेकिन दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किए हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य अथवा गुप्त विद्या मानते थे। जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे, उन पर अघोरी, डायन, इन्द्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया या मार दिया जाता था। भारत में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे लोगों के हाथ पड़ी, जिन्होंने इसका नब्बे प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की कोशिश की।
वर्तमान काल में पाश्चात्य देशों में भारतवर्ष के गुरुओं के स्थान पर निकृष्टतर अनेक गुरु नामधारी लोग दिखते हैं। भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते हैं, लेकिन ये आधुनिक व्याख्याकार कुछ भी नहीं जानते। इन सभी योग-प्रणालियों में जो गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ना होगा। जिससे शक्ति मिलती है, उसी का अनुसरण करना होगा। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसा ही है। जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याग योग्य है। रहस्य-स्पृहा मानव मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट-सा हो गया है। लेकिन वास्तव में यह एक महाविज्ञान है। चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कार हुआ था। तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है। यह एक विस्मयजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है, उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है और लेखक जितना प्राचीन है, उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है।
आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं, जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत बातें कहा करते हैं। इस तरह जिनके हाथ यह शास्त्र लगा, उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में कर रखने की इच्छा से इसको महा गोपनीय बना दिया और युक्ति रूप प्रभाकर का पूर्ण प्रकाश इस पर पड़ने नहीं दिया। मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ, उसमें गुह्य नाम की कोई चीज नहीं है। मैं जो कुछ थोड़ा-सा जानता हूँ, वही तुमसे कहूँगा। जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है, वहाँ तक समझाने • का प्रयत्न करूँगा। मगर मैं जो नहीं समझ सकता, उसके बारे में कह दूंगा कि यह शास्त्र का कथन है।
अन्धविश्वास करना उचित नहीं है। अपनी विचार-शक्ति और युक्ति काम में लानी होगी। यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है, यह सत्य है या नहीं।
भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी प्रणाली से यह धर्मविज्ञान भी सोखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं, किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं इसमें जहा तक सत्य है, उसका सबके सामने राजपथ पर, स्पष्ट देवलोक में प्रचार करना “आवश्यक है। यह सब किसी प्रकार छिपा रखने की चेष्टा करने से अनेक प्रकार की महा विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। कुछ और कहने से पहले में सांख्य दर्शन के सम्बन्ध में 1 कुछ कहूंगा। इस सांख्य दर्शन पर राजयोग आधारित है। सांख्य दर्शन के मात्र से किसी विषय के ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है-प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य कारणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि बाहरी कारण फिर उसे मस्तिष्क स्थित अपने-अपने केन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के पास भेजते हैं। इन्द्रियों मन के निकट और मन उसे श्वात्मिका के पास ले जाता है तथा पुरुष या आत्मा उसको ग्रहण करती है। फिर जिस सोपान क्रम में से होता हुआ वह विषय अन्दर आया था, उसी में से होते हुए लोट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ है। लेकिन आँख आदि बाहरी कारणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत से निर्मित है। मन उपादान से निर्मित है, उसी से तन्माज्ञा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है। यही सांख्य का मनोविज्ञान है। अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अन्तर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष ही चेतना है, मन तो मानों आत्मा के हाथों का एक यन्त्र है। उसके द्वारा आत्मा जहरी विषयों को ग्रहण करती है। मन सतत् परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है। कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी एक से और कभी किसी भी इन्द्रिय से संलग्न नहीं रहता।
मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिक-टिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आंखें खुली रहने पर भी मैं कुछ नहीं देख पाऊंगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेन्द्रिय से लगा था तो दर्शनेन्द्रिय से उसका संयोग न था, लेकिन पूर्णता प्राप्त मन सभी इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। उसी मन में अन्तर्दृष्टि की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नजर डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि का विकास साधन ही योगी का उद्देश्य है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है?
इसमें सिर्फ विश्वास की कोई बात नहीं, यह तो दार्शनिक के मनस्तत्व विश्लेषण का फल मात्र है। आधुनिक शरीर विज्ञानविद का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं, वह इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायु-केन्द्र में अवस्थित हैं और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदाथ से निर्मित हैं, ये केन्द्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं। सांख्य भी ऐसा ही कहता
है। अंतर यह है कि सांख्य का सिद्धान्त मनोविज्ञान पर आधारित है और वैज्ञा भौतिकता पर फिर भी दोनों एक ही बात है। हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों से परे है। योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने आपको ऐसा सूक्ष्म अनुभूति सम्पन्न कर विभिन्न मानसिक अवस्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें।
समस्त मानसिक प्रतिक्रियाओं का पृथक् पृथक् रूप से मानस-प्रत्यक्ष करना आवश्यक है। इन्द्रियगोलकों पर विषयों का आयात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएं उस करण की सहायता से किस तरह स्नायु में से होती हुई जाती है, मन किस प्रकार उनको ग्रहण करता है, किस प्रकार फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती है, तत्पश्चात् ि प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है-इन समस्त व्यापकों को अलग-अलग रूप में देखना होगा। प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। कोई भी विज्ञा क्यों न सीखे, पहले अपने-आपको उसके लिए तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है।
भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं। जिससे मन खूब पवित्र रहे, ऐसा भोजन करना चाहिए। तुम अगर किसी अजायबघर में जाओ, तो भोजन के साथ जीव का क्या सम्बन्ध है, यह भली-भाँति समझ में आ जाएगा। हाथी बड़ा भारी प्राणी है, लेकिन उसकी बड़ी शान्त है। और यदि तुम सिंह या बाघ के पिंजड़े की ओर जाओ, तो चंचल हैं। इससे समझ में आ जाता है फिका तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है। हमारे शरीर के भीतर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं, वे
आहार से पैदा हुई हैं।
यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं कि अगर तुम उपवास करना आरम्भ कर दो, तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा, दैहिक शक्तियों का हास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियों भी क्षीण होने लगेंगी। पहले स्मृति शक्ति जाती रहेगी, फिर ऐसा एक आएगा, जब विचार के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगी किसी विषय पर गंभीर रूप
यार करना तो दूर की बात रही।
खानाको में भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा, फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा। जब तक पौधा बड़ा होता रहता है, तब तक उसे घेरकर रखते हैं, नहीं जानवर खा जाएं। उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है। तब उसमें सारे आधात झेलने के लिए पर्याप्त शक्ति है।
नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
वात् जाग्रतो नय चार्जुन
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावयस्य योगो भवति दुःखहा
अर्थात् योगी को अधिक विलास और कठोरता, दोनों को ही त्याग देना चाहिए। उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं। गीता कहती उपवासशील, अधिक जागरणशील, अधिक निद्राल, अत्यन्त कमी अथवा बिल्कुल आलसी- है, जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं, ये कभी योगी नहीं हो सकते। अति भोजनकारी, इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता।”
स्वामी विवेकानन्द जी कि आध्यात्मिक ज्ञानका महत्त्व किया है
‘कर्म का रहस्य’ नामक शीर्षक पर स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने वक्तव्य द्वारा बताया-
“अन्यों की शारीरिक जरूरतों का निदान करके उनकी भौतिक सहायता करना महान कर्म जरूर है। परन्तु अभाव की मात्रा जितनी ज्यादा रहती है तथा मदद जितना ज्यादा दूर तक अपना असर कर सकती है, उसी मात्रा में वह सर्वाधिक होती है। यदि एक मनुष्य के अभाव एक घण्टे के लिए हटाये जा सकें, तो यह इसकी मदद जरूर है, और अगर एक वर्ष के लिए हटाये जा सकें, तो यह उससे भी अधिक मदद है। पर अगर उसके अभाव हमेशा के लिए दूर कर दिये जाएं, तो वास्तव में वह उसके लिए सर्वाधिक मदद होगी।
मात्र आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है, जो हमारे दुःखों को हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है, दूसरे किसी प्रकार के ज्ञान से आवश्यकताओं की पूर्ति केवल कम समय हेतु ही होती है। मात्र आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा ही हमारे दैन्य-क्लेशों का हमेशा के लिए अन्त हो सकता है।
इसीलिए किसी मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता करना ही उसकी सबसे बड़ी सहायता करना है। जो मनुष्य को पारमार्थिक ज्ञान प्रदान कर सकता है, वही मानव समाज का सबसे बड़ा हितैषी है। हम देखते भी हैं कि जिन लोगों ने मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता की है, वे ही वास्तव में सबसे ज्यादा शक्ति सम्पन्न थे। कारण यह है कि आध्यात्मिकता ही हमारे जीवन के सभी कृत्यों का सत्य आधार है। आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न पुरुष अगर चाहे तो, प्रत्येक विषय में सक्षम हो सकता है और जब तक मनुष्य में आध्यात्मिक बल नहीं आता, तब तक उसकी भौतिक आवश्यकताएँ भी अच्छी तरह तृप्त नहीं हो सकतीं।
आध्यात्मिक सहायता से नीचे है- बौद्धिक सहायता। यह ज्ञान-दान भोजन और वस्त्रों के दान से कहीं श्रेष्ठ है। इतना ही नहीं, बल्कि प्राण दान से भी उच्च है, क्योंकि ज्ञान ही मनुष्य का प्रकृत जीवन है। अज्ञान ही मृत्यु है, और ज्ञान जीवन। यदि जीवन अन्धकारमय है और अज्ञान तथा क्लेश में व्यतीत होता है, तो ऐसे जीवन का मूल्य बहुत
जो सस्कार प्रायः मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। यदि मन को तालाब मान लिया जाए तो उसको उड़ने वाली हरेक सहर, हरेक तरंग जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में यह बिल्कुल खत्म नहीं हो जाती. दर चित्त में एक प्रकार का चिन्ह छोड़ जाती है और ऐसी सम्भावना का निर्माण कर जाती है, जिससे वह फिर उठ सके। इस चिन्ह तथा इस लहर के पुनः उठने की सम्भावना को मिलाकर हम संस्कार कह सकते हैं।
हमारा हरेक कार्य, हमारा हरेक अंग संचालन, हमारा हरेक विचार हमारे चित्त पर इसी तरह का एक संस्कार छोड़ जाता है, और यद्यपि ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट नहीं फिर भी ये अवचेतन रूप से भीतर-ही-भीतर कार्य करने में पर्याप्त समर्थ होते हैं। हम प्रतिक्षण जो कुछ होते हैं, वह इन संस्कारों के समुदाय द्वारा ही नियमित होता है। मैं इस क्षण जो कुछ हूँ, वह मेरे अतीत जीवन के सभी संस्कारों का प्रभाव है। यथार्थतः इसे ही चरित्र कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। अगर शुभ संस्कारों का प्राबल्य रहे, तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है, अगर अशुभ संस्कारों का तो बुरा
यदि एक मनुष्य लगातार बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचार सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन भी बुरे संस्कारों से पूर्ण हो जाएगा और बिना उसके जाने ही वे संस्कार उसके सभी विचारों और कार्यों पर अपना असर डालते रहेंगे। वास्तव में ये बुरे संस्कार लगातार अपना कार्य करते रहते हैं। इसीलिए बुरे संस्कार सम्पन्न होने के कारण से उस व्यक्ति के कार्य भी बुरे होंगे वह एक बुरा आदमी बन जाएगा इससे वह कोई बचाव नहीं कर सकता। इस संस्कारों की समष्टि उसमें दुष्कर्म करने की प्रबल प्रवृत्ति पैदा कर देगी। वह इन संस्कारों के हाथ एक मशीन-सा होकर रह जाएगा, वे उसे अपनी शक्ति द्वारा दुष्कर्म करने हेतु बाध्य करेंगे।
इसी तरह यदि हम अनुपम एवं अच्छे विचार रखें और सत्कार्य करें, तो उसके इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा और उसकी इच्छा न होते हुए भी वे उसे सत्कार्य करने हेतु प्रेरित करेंगे। जब मनुष्य इतने सत्कार्य एवं सचिन्तन कर चुकता है कि उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक आवश्यक प्रवृत्ति पैदा हो जाती है, तब फिर अगर वह दुष्कर्म करना भी चाहे, तो इन सब संस्कारों की समष्टि रूप से उसका मन उसे ऐसा करने से तत्काल रोक देगा। इतना ही नहीं, बल्कि उसके ये संस्कार उसे दुष्कर्मों से विरत कर देंगे। तब वह निजी सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली की भाँति बन जाएगा। जब ऐसी दशा हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र स्थिर कहलाता है।
जिस प्रकार कछुआ अपने सिर और पैरों को खोलकर भीतर की ओर समेट लेता है, और तब उसे हम चाहें मार ही क्यों न डालें, उसके टुकड़े-टुकड़े ही क्यों न कर डालें, परन्तु वह बाहर नहीं निकलता, इसी तरह जिस मनुष्य ने अपने मन एवं इन्द्रियों को वश में
कर लिया है, उसका चरित्र भी सदा स्थिर रहता है। वह निजी आभ्यन्तरिक शक्तियों को वश में रखता है और उसको इच्छा के विरुद्ध संसार की कोई भी वस्तु उन्हें खो के लिए मजबूर नहीं कर सकती। मन के ऊपर इस तरह सद्विचारों एवं सुसंस्कारों का लगातार प्रभाव पड़ते रहने से सत्कार्य करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है और इसके फलस्वरूप हम इन्द्रियों को वशीभूत करने में समर्थ होते हैं। तभी हमारा चरित्र स्थिर होता है। तभी हम सत्यलाभ के अधिकारी बन सकते हैं। ऐसा ही व्यक्ति हमेशा सुरक्षित रहता है, उससे किसी भी तरह की बुराई नहीं हो सकती। उसको आप कैसे भी व्यक्तियों के साथ छोड़ दो, उसके लिए किसी तरह का कोई खतरा नहीं रहता।
इन शुभ संस्कारों के सम्पन्न होने की अपेक्षा एक और भी ज्यादा उच्चतर अवस्था है और • वह है-मुक्तिलाम की इच्छा आपको यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त योगों का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति है, और हरेक योग समान रूप से उसी उद्देश्य की तरफ से जाता है।
बुद्ध ने ध्यान से और ईसा ने प्रार्थना द्वारा जिस अवस्था की प्राप्ति की थी, व्यक्ति केवल कर्म द्वारा भी उस अवस्था को हासिल कर सकता है। बुद्ध ज्ञानी थे और ईसा भक्त, परन्तु ये दोनों एक ही लक्ष्य पर पहुँचे थे। यहाँ कठिनाई है। मुक्ति का अर्थ है, सम्पूर्ण स्वाधीनता – शुभ और अशुभ, दोनों तरह के बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करना ।
इसे समझना थोड़ा कठिन है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है, और इसी तरह सोने की जंजीर भी एक जंजीर ही है। यदि हमारी अंगुली में एक कांटा चुभ जाये, तो उसे निकालने हेतु हमें एक दूसरे कांटे का सहारा लेना पड़ता है, पर जब वह निकल जाता है, तो हम दोनों को ही फेंक देते हैं। हमें फिर दूसरे काटे को रखने की कोई जरूरत महसूस नहीं देती, क्योंकि दोनों आखिरकार कांटे ही तो हैं। इसी तरह कुसंस्कारों का नाश शुभ संस्कारों द्वारा करना चाहिए और मन के अशुभ विचारों को शुभ विचारों द्वारा दूर करते रहना चाहिए, जब तक कि सभी अशुभ विचार लगभग समाप्त न हो जाएं, या पराजित न हो जाएं अथवा वशीभूत होकर मन के कहीं एक कोने में न पड़े रह जाएं।
लेकिन उसके पश्चात् शुभ संस्कारों पर भी विजय हासिल करना जरूरी है। तभी जो ‘आसक्त’ था, वह ‘अनासक्त’ हो जाता है। कर्म करो, जरूर करो, पर उस कर्म या विचार को अपने मन के ऊपर कोई गहरा असर मत पड़ने दो लहरें आयें और जायें, मांसपेशियों और मस्तिष्क से बड़े-बड़े कार्य होते रहें, परन्तु वे आत्मा पर किसी तरह का गहरा असर न डालने पाएँ।
अब प्रश्न यह है कि यह कैसे हो सकता है? हम देखते हैं कि हम जिस किसी कर्म में लिप्त हो जाते हैं, उसका संस्कार हमारे मन में रह जाता है। पूरे दिन में सैकड़ों लोगों से मिला, और उन्हीं में एक ऐसे व्यक्ति से भी मिला, जिससे मुझे प्रेम है। तब अगर रात्रि को सोते वक्त में उन सभी लोगों को याद करने की कोशिश करूँ, तो देखूंगा कि
मेरे समक्ष केवल उसी व्यक्ति का चेहरा आता है, जिसे मैं प्रेम करता है, भले ही उसे केवल एक ही मिनट के लिए देखा हो। उसके अलावा दूसरे सभी व्यक्ति अन्तर्हित जाते हैं। ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए कि इस व्यक्ति के प्रति मेरी विशेष आसक्ति ने मेरे मन पर अन्य सभी की अपेक्षा ज्यादा गहरा प्रभाव डाल दिया था। शरीर विज्ञान की दृष्टि से तो समन व्यक्तियों का प्रभाव एक-सा ही हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा नेत्रपट पर उतर आया था और दिमाग में उसके चित्र भी बन गये थे। परन्तु फिर भी मन पर इन सबका असर एक समान नहीं पड़ा। सम्भवतः ज्यादातर लोगों के चेहरे एकदम नये थे, जिनके विषय में मैंने पहले कभी विचार भी नहीं किया होगा, लेकिन वह एक चेहरा, जिसकी मुझे केवल एक झलक ही मिली थी, अन्दर तक समा गया।
कदाचित् इस चेहरे का चित्र मेरे मन में वर्षों से रहा हो और में उसके विषय में सैकड़ों बातें जानता हूँ, अतः उसकी इस एक झलक ने ही मेरे मन में उन सैकड़ों सोती हुई स्मृतियों को जाग्रत कर दिया और इसीलिए बाकी दूसरे चेहरों को देखने के समवेत फलस्वरूप मन में जितना संस्कार पड़ा, उसकी अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक इस संस्कार की आवृति होते रहने के कारण मन पर उसका इतना प्रबल प्रभाव पड़ा।
अतएव अनासक्त बनो, कार्य होते रहने दो-मस्तिष्क के केन्द्र अपना-अपना कार्य करते रहें, लगातार कार्य करते रहो, परन्तु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो। संसार में इस तरह कर्म करो मानो तुम एक विदेशी पथिक हो, पर्यटक हो। कर्म तो लगातार करते रहो, परन्तु स्वयं की बन्धन में मत डालो, बन्धन भीषण है। जगत हमारी निवास भूमि नहीं है, यह तो उन सोपानों में से एक है, जिनमें से होकर हम जा रहे हैं। सांख्य दर्शन के उस महाकाव्य को मत भूलो, ‘समस्त प्रकृति आत्मा के लिए है, आत्मा प्रकृति हेतु नहीं।’
प्रकृति के अस्तित्व का प्रयोजन, आत्मा की शिक्षा के निमित्त ही है, इसका अन्य कोई अर्थ नहीं। उसका अस्तित्व इसीलिए है कि आत्मा को ज्ञान लाभ हो और ज्ञान द्वारा आत्मा स्वयं को मुक्त कर ले। अगर हम यह बात लगातार ध्यान में रखें तो हम प्रकृति में कभी आसक्त न होंगे। हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि प्रकृति हमारे लिए एक पुस्तक सदृश है, जिसका हमें अध्ययन करना है, और जब हमें उससे आवश्यक ज्ञान प्राप्त जाएगा, तो फिर वह पुस्तक हमारे लिए किसी काम की नहीं रहेगी। लेकिन इसके विपरीत हो यह रहा है कि हम खुद को प्रकृति में ही मिला दे रहे हैं, यह विचार कर रहे हैं कि आत्मा प्रकृति के लिए है, आत्मा शरीर के लिए है, और जैसी कि एक कहावत है, हम सोचते हैं, ‘मनुष्य पेट भरने के लिए ही जीवित रहता है, न कि जीवित रहने के लिए पेट भरता है’, और यह भूल हम लगातार करते रहते हैं।
प्रकृति को ही अहम मानकर हम प्रकृति में आसक्त बने रहते हैं और जैसे आसक्ति का प्रताहै, वैसे ही आत्मा पर प्रसंस्कार का निर्माण हो जाता है, जो हमें में डाल देता है और जिसके कारण हम स्वतन्त्र भाव से काम न कर दास की भाँति कार्य करते रहते हैं।
इस शिक्षा का सारा सार यह है कि तुम्हें एक ‘स्वामी’ के समान कार्य करना चाहिए कि एक दास की भांति कर्म तो निरंतर करते रहा, परन्तु एक दास के समान न करो। समस्त व्यक्ति किस तरह कर्म कर रहे हैं, क्या तुम यह नहीं जानते-देखते होने पर भी कोई आराम नहीं ले सकता। 99 प्रतिशत व्यक्ति तो दासों की भाँति कार्य करते रहते हैं, और उसका फल होता है दुःख। ये सभी कार्य स्वार्थपूर्ण होते हैं। मुक्त भाव से कर्म करो। प्रेम सहित कर्म करो! ‘प्रेम’ शब्द का यथार्थ अर्थ समझना बहुत मुश्किल है। बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता। दास में सच्चा प्रेम होना जरूरी नहीं।
यदि तुम एक दास मोल ले लो और जंजीरों से बांधकर उससे अपने लिए काम कराओ, तो वह कष्ट उठाकर किसी प्रकार कार्य अवश्य करेगा, पर उसमें किसी प्रकार का प्रेम नहीं रहेगा। इसी प्रकार जब हम जगत हेतु दासवत कर्म करते हैं, तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने बन्धु बान्धवों हेतु जो कर्म करते हैं, यहाँ तक कि हम खुद स्वयं के लिए भी जो कर्म करते हैं, उसके विषय में भी ठीक यही बात है। स्वार्थ हेतु किया गया कार्य दास का कार्य है। कोई काम स्वार्थ हेतु है या नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ हरेक कार्य आनन्ददायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शान्ति और आनन्द न प्राप्त हो।
यथार्थ सत्, यथार्थ ज्ञान और यथार्थ प्रेम-ये तीनों सदैव के लिए परस्पर सम्बद्ध हैं। वस्तुतः ये एक ही में तीन हैं। जहां एक रहता है, वहीं बाकी दो भी जरूर रहते हैं। ये उस अद्वितीय सच्चिदानन्द के ही तीन पक्ष हैं। जब वह सत्ता सापेक्ष रूप में प्रतीत होती है, तो हम उसे विश्व के रूप में देखते हैं यह ज्ञान भी सांसारिक वस्तुविषयक ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है, और वह आनन्द मानव हृदय में विद्यमान समस्त वयार्थ प्रेम की नींव हो जाता है। इसीलिए सत्य प्रेम से प्रेमी या उसके प्रेमपात्र को कभी कष्ट नहीं पहुँच सकता।
उदाहरण हेतु मान लो एक पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे, दूसरे पुरुषों के प्रति उस स्त्री के हरेक व्यवहार से उसमें ईर्ष्या का उद्रेक होता है। वह चाहता है कि उसके साथ वह खाए-पिए और चले-फिरे। ऐसे में तो वह खुद उस स्त्री का दास हो गया है, और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी दास होकर रहे।
यह तो प्रेम नहीं है। यह तो गुलामी का एक प्रकार का विकृत भाव है, जो ऊपर से प्रेम जैसा दृष्टिगोचर होता है। यह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि यह कलेशदायक है, यदि वह स्त्री उस मनुष्य की इच्छानुसार न चले, तो उससे उस मनुष्य को कष्ट होता है। वास्तव में सत्य प्रेम की प्रतिक्रिया दुःखप्रद तो होती ही नहीं। उससे तो केवल आनन्द ही होता हैं और यदि उसमें ऐसा न होता तो, तो समझ लेना चाहिए कि वह प्रेम नहीं है, बल्कि वह और ही कोई चीज है, जिसे हम भ्रमवश प्रेम करते हैं।
जब तुम अपने पति अपनी स्त्री, अपने बच्चों, यहाँ तक कि समस्त विश्व को इस तरह प्रेम करने में सफल हो सको कि जिससे किसी भी तरह दुःख, ईर्ष्या या स्वार्थरूप कोई प्रतिक्रिया न हो, केवल तभी तुम सम्पक रूप से अनासक्त होने की दशा में पहुँच सकोगे।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-‘हे अर्जुन! अगर में कर्म करने से एक पल के लिए भी रुक जाऊं, तो पूरा विश्व ही समाप्त हो जाए। मुझे कर्म से किसी भी प्रकार का लाभ नहीं, मैं ही संसार का एकमात्र प्रभु हैं-फिर भी मैं कर्म क्यों करता हूँ इसलिए कि मुझे संसार से प्रेम है।”
ईश्वर अनासक्त है। क्यों? इसलिए कि वह सच्चा प्रेमी है। उस सत्य प्रेम से ही हम अनासक्त हो सकते हैं। जहाँ कहीं सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति है, वहाँ समझ लेना चाहिए कि वह केवल भौतिक आकर्षण है-सिर्फ कुछ जड़ कणों का अन्य कुछ जड़ कणों के प्रति आकर्षण हो रहा है-मानों कोई एक चीज दो वस्तुओं को निरन्तर निकटतर खींचे ले जा रही है, और अगर वे दोनों वस्तुएं काफी निकट नहीं आ सकतीं, तो फिर कष्ट पैदा होता है। परन्तु जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ भौतिक आकर्षण बिल्कुल नहीं रहता। ऐसे प्रेमी चाहे सहस्रों योजन दूरी पर क्यों न रहे, उनका प्रेम सदा वैसा ही रहता है, वह प्रेम कभी समाप्त नहीं होता, उससे कभी कोई क्लेशदायक प्रतिक्रिया नहीं होती।
इस प्रकार की आसक्ति प्राप्त करना लगभग पूरे जीवन भर का कार्य है। परन्तु इसका लाभ होते ही हमें अपनी प्रेम साधना का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है और हम स्वतन्त्र हो जाते हैं तब हम प्रकृति के बन्धन से छूट जाते हैं और उसके वास्तविक स्वरूप को समझ लेते हैं। फिर वह हमें बन्धन में नहीं डाल सकती, तब हम एकदम मुक्त हो जाते हैं और कर्म के फलाफल की तरफ ध्यान ही नहीं देते। फिर कौन परवाह करता है कि कर्मफल क्या होगा?
तुम अपने बच्चों को जो देते हो, तो क्या उसके बदले में उनसे कुछ माँगते हो? यह तो तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनके लिए कार्य करो, बस, वहीं पर बात स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह, किसी अन्य पुरुष, किसी नगर या देश हेतु तुम जो कुछ करो, उसके प्रति भी वैसा ही भाव रखो, उनसे किसी तरह के प्रतिदान की उम्मीद न रखो। अगर तुम सदा
ऐसा ही भाव रख सका कि तुम केवल दाता हो, जो कुछ तुम देते हो, उससे तुम किसी प्रकार के प्रतिदान की उम्मीद नहीं रखते तो उस कर्म से तुम्हें किसी तरह की आसक्ति नहीं होती। आसक्ति तभी आती है जब हम प्रतिदान की उम्मीद रखते हैं। “दासवत् कार्य से अगर स्वार्थपरता और आसक्ति उत्पन्न होती है, तो अपने मन का स्वामी बनकर कार्य करने से अनासक्ति से उत्पन्न आनन्द लाभ होता है। हम बहुधा अधिकार और न्याय की बातें किया करते हैं, लेकिन ये सय केवल बच्चों की बातों के
हैं।
सदृश मनुष्य के चरित्र का नियमन करने वाली दो चीजें होती हैं-बल तथा दस बल का प्रयोग करना सदा स्वार्थवश ही होता है। ज्यादातर सभी स्त्री-पुरुष अपनी शक्ति एवं सुविधा का यथासम्भव उपभोग करने की कोशिश करते हैं। दया देवी सम्पत्ति हैं। भले बनने के लिए हमें दयायुक्त होना चाहिए, यहाँ तक कि न्याय और अधिकार भी दया पर ही प्रतिष्ठित होने चाहिए। कर्मफल की लालसा तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक है, इतना ही नहीं, अन्त में उससे क्लेश भी उत्पन्न होता है। दया और निःस्वार्थता को कार्यरूप में परिणत करने का एक उपाय और है-और वह है, कर्मों को उपासना रूप मानना, यदि हम सगुण ईश्वर में विश्वास रखते हों।
यहाँ हम अपने समस्त कर्मों के फल ईश्वर को ही समर्पित कर देते हैं और इस प्रकार उसकी उपासना करते हुए हमें इस बात का कोई अधिकार नहीं रह जाता कि हम अपने किए हुए कर्मों के प्रतिदान में मानवजाति से कुछ अपेक्षा करें। प्रभु स्वयं निरन्तर कार्य करता रहता है और वह सारी आसक्ति से परे है। जिस प्रकार जल कमल के पत्ते को नहीं भिगो सकता, उसी प्रकार कोई भी कर्म फलासक्ति उत्पन्न करके निःस्वार्थ पुरुष को बन्धन में नहीं डाल सकता । अहंशून्य और अनासक्त पुरुष किसी जनपूर्ण पापपूर्ण नगर के बीच ही क्यों न रहे, मगर पाप उसे स्पर्श तक न कर सकेगा।
अब जो कहानी में कह रहा हूँ, वह सम्पूर्ण स्वार्थ त्याग का एक दृष्टान्त है- कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद पांचों पाण्डवों ने एक बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमें निर्धनों की बहुत-सा दान दिया गया। सभी लोगों ने उस यज्ञ की महत्ता एवं ऐश्वर्य पर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि ऐसा यज्ञ संसार में इससे पहले कभी नहीं हुआ था। यज्ञ के बाद उस स्थान पर एक छोटा-सा नेवला आया। नेवले का आधा शरीर सुनहरा और शेष आधा भूरा था। वह नेवला उस यज्ञ भूमि की मिट्टी पर लीटने लगा। कुछ देर बाद उसने दर्शकों से कहा-
‘तुम सब झूठे थे, यह कोई यह नहीं है।
लोगों ने पूछा- ‘यह तुम क्या कह रहे हो? यह कोई यज्ञ नहीं है? तुम जानते हो, इस यज्ञ में कितना धन खर्च हुआ है? गरीबों को कितने हीरे-जवाहरात बांटे गये हैं, जिससे
वे सबके सब घनी और खुशहाल हो गये हैं? यह तो इतना बड़ा यज्ञ या कि शायद ही ऐसा किसी मनुष्य ने किया हो।”
इस पर नेवले ने कहा- ‘सुनो, एक छोटे से गांव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, साथ में ही उसकी स्त्री, पुत्र व पुत्र वधू भी रहती थी। वे लोग बड़े गरीब थे। पूजा-पाठ से उन्हें जो कुछ मिलता, उसी से उनका गुजारा होता था। एक बार उस गांव में तीन साल तक अकाल पड़ा, जिससे उस बेचारे ब्राह्मण के दुःख-कष्ट की पराकाष्ठा हो गई। एक बार तो सारे कुटुम्ब को पांच दिन तक उपवास करना पड़ा। छठे दिन वह ब्राह्मण भाग्यवश कहीं से जौ का आटा ले आया। उस आटे के चार भाग परिवार के चारों सदस्यों के लिए किए गये। उन्होंने उसकी रोटियां बनायी और जैसे ही वे उसे खाने के लिए बैठे कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। पिता ने उठकर दरवाजा खोला, तो देखा कि बाहर एक अतिथि खड़ा है। भारत में अतिथि को बहुत पवित्र माना जाता है। वह नारायण स्वरूप माना जाता है और उसके साथ उसी के अनुरूप व्यवहार भी किया जाता है।
उस गरीब ब्राह्मण ने अतिथि से कहा-‘महाराज पचारिए, आपका स्वागत है। इतना कहकर ब्राह्मण ने अपना भोजन अतिथि के सामने रख दिया, जिसे अतिथि झटपट खा गया और बोला- अरे, आपने तो मुझे और भी मार डाला। में दस दिन से भूखा हूँ और रोटी के इस टुकड़े ने मेरी भूख और बढ़ा दी है। तब पत्नी ने अपने पति से कहा-आप मेरा भी भाग दे दीजिए। पति ने कहा- नहीं, ऐसा नहीं होगा। किन्तु पत्नी अपनी बात पर अड़ी रही और बोली- यह बेचारा गरीब भूखा है, हमारे यहाँ आया है। गृहस्थ की हैसियत से हमारा यह धर्म है कि हम उसे भोजन कराएं। यह देखकर कि आप उसे अधिक नहीं दे सकते, पत्नी के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उसे अपना भाग भी दे दूं।
ऐसा कहकर उसने भी अपना भाग अतिथि को दे दिया।’ अतिथि ने वह भी खा लिया और कहा-‘मैं तो भूख से अभी भी जल रहा हूँ। तब लड़के ने कहा- ‘आप मेरा भोजन भी ले लीजिए, क्योंकि पुत्र का यह धर्म है कि वह पिता के कर्तव्यों को पूरा करने में उन्हें मदद दे।’ अतिथि ने पुत्र का भोजन भी खा लिया, लेकिन तब भी वह तृप्त नहीं हुआ, अतएव बहू ने भी उसे अपना भोजन दे दिया। तब कहीं अतिथि की भूख शान्त हुई और वह उन सबको आशीर्वाद देकर चला गया। वे चारों उसी रात भूख से पीड़ित होकर मर गये।
जौ के आटे के कुछ कण इधर-उधर भूमि पर बिखरे हुए थे, जब मैंने उन पर लोट लगायी, तो मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया, जैसा कि तुम अभी भी देख ही रहे हो। उसे समय से मैं संसार भर में भ्रमण कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि किसी दूसरी जगह भी मुझे ऐसा ही यज्ञ देखने को मिले। किन्तु कहीं मुझे ऐसा यज्ञ देखने को नहीं मिला। मेरा आधा शरीर किसी दूसरी जगह सुनहरा न हो सका। इसीलिए कहता हूँ कि यह कोई यक्ष ही नहीं है।
दान का यह भाव भारत से धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। महापुरुषों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। जब बचपन में मैंने अंग्रेजी पढ़ना आरम्भ किया था, उस समय मैंने एक अंग्रेजी कहानियों की पुस्तक पढ़ी, जिसमें एक ऐसे कर्तव्यपरायण बालक का वर्णन था, जिसने काम करके जो कुछ उपार्जन किया था, उसका कुछ भाग अपनी वृद्ध माता को दे दिया था। उस बालक के इस कृत्य की प्रशंसा पुस्तक के तीन-चार पृष्ठों में की गयी थी। किन्तु इसमें कौन-सा असाधारण तत्व है? कोई भी हिन्दू बालक उस कहानी की नीति शिक्षा को नहीं समझ सकता। मुझे भी उसका महत्व आज ही समझ आया है। जब मैं इस पश्चिमी रिवाज को सुनता तथा देखता हूं कि यहाँ प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने लिए ही है। इस देश में ऐसे भी अनेक लोग हैं, जो सब कुछ अपने लिए ही रखते हैं। उनके माता-पिता, पत्नी, बच्चों की फिर चाहे जैसी भी दशा हो जाए।
एक गृहस्थ का ऐसा आदर्श तो कदापि और कहीं भी नहीं होना चाहिए। अब तुमने देखा, कर्मयोग का अर्थ क्या है? उसका अर्थ है-मौत के मुंह में जाकर भी बिना तर्क-वितर्क किए सबकी सहायता करना। भले ही तुम लाखों बार ठगे जाओ, किन्तु मुंह से गलत बात मत निकालो, और तुम जो कुछ भले कार्य कर रहे हो, उनके बारे में सोचो भी मत । निर्धन के प्रति किए गए उपकार पर गर्व मत करो और न उससे कृतज्ञता की ही आशा रखो, बल्कि उल्टे तुम्हीं उसके कृतज्ञ होओ। यह सोचकर कि उसने तुम्हें दान देने का एक अवसर दिया है। अतएव यह स्पष्ट है कि एक आदर्श संन्यासी होने की अपेक्षा एक आदर्श गृहस्थ होना अधिक कठिन है। यथार्थ कर्ममय जीवन, यथार्थ त्यागमय जीवन की अपेक्षा अगर अधिक कठिन नहीं, तो कम-से-कम उसके बराबर कठिन तो अवश्य है।”
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