अर्जुन का जीवन परिचय : अर्जुन एक महान धनुर्धर के रूप में विख्यात थे। ये द्रोणाचार्य के स्वेच्छा (अपनी इच्छा) से ही स्वानुशासन का पालन करने वाले शिष्य थे। गुरु द्रोण ने सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा केवल उनको ही दी थी।कुशलता की परीक्षा वाले दिन यद्यपि वह सर्वोत्तम सिद्ध हुए. परंतु कार्यक्रम के अंत में कर्ण ने आकर उनको चुनौती दे दी। परंतु कर्ण की उनके के साथ स्पर्धा करने का अवसर नहीं दिया गया, अतः उनको श्रेष्ठता उस दिन सिद्ध नहीं हो पाई।
परंतु द्रोपदी के स्वयंवर पर यह श्रेष्ठता भी सिद्ध हो गई। एक बहुत भारी धनुष विवाह-कक्ष के मध्य में रखा गया। प्रतियोगियों के लिए स्वयंवर में जीतने की शर्त इस प्रकार थी। नीचे रखे हुए शीशे में देखकर बहुत दूर ऊपर घूमती हुई एक गोल प्लैट पर बनी मछली की आँख को तीर से बेधना था। अनेक राजकुमारों ने प्रयत्न किया, परंतु असफल रहे। जब कर्ण उठे तो सभी को लगता था कि वह अवश्य सफल होंगे। परंतु निशाना वह भी बाल-बाल चूक गये।

अंत में वह उठे। बड़ी सरलता से उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा खींचकर बाण चलाया। बाण ठीक निशाने पर लगा। उनोहने ने स्वयंवर की शर्त पूर्ण करके द्रोपदी को जीत लिया। उनको असंदिग्ध अर्जुन एक महान धनुर्धर के रूप में विख्यात थे। ये द्रोणाचार्य के स्वेच्छा (अपनी इच्छा) से ही स्वानुशासन का पालन करने वाले शिष्य थे। गुरु द्रोण ने सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा केवल उनको ही दी थी।
अर्जुन की परीक्षा
कुशलता की परीक्षा वाले दिन यद्यपि उनके सर्वोत्तम सिद्ध हुए. परंतु कार्यक्रम के अंत में कर्ण ने आकर उनकी की चुनौती दे दी। परंतु कर्ण की अर्जुन के साथ स्पर्धा करने का अवसर नहीं दिया गया, अतः उनको की श्रेष्ठता उस दिन सिद्ध नहीं हो पाई।
परंतु द्रोपदी के स्वयंवर पर यह श्रेष्ठता भी सिद्ध हो गई। एक बहुत भारी धनुष विवाह-कक्ष के मध्य में रखा गया। प्रतियोगियों के लिए स्वयंवर में जीतने की शर्त इस प्रकार थी। नीचे रखे हुए शीशे में देखकर बहुत दूर ऊपर घूमती हुई एक गोल प्लैट पर बनी मछली की आँख को तीर से बेधना था। अनेक राजकुमारों ने प्रयत्न किया, परंतु असफल रहे। जब कर्ण उठे तो सभी को लगता था कि वह अवश्य सफल होंगे। परंतु निशाना वह भी बाल-बाल चूक गये।
अंत में वह उठे। बड़ी सरलता से उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा खींचकर बाण चलाया। बाण ठीक निशाने पर लगा। उनोहने स्वयंवर की शर्त पूर्ण करके द्रोपदी को जीत लिया। अर्जुन असंदिग्ध
उनकी ओर आकर्षित हो गई। परंतु उनोहने ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। निराश होकर क्रोध में उनको एक वर्ष के लिए नपुंसक हो जाने का कटु आप दिया। परंतु यह श्राप उनके लिए परोक्ष रूप से वरदान सिद्ध हुआ। क्योंकि एक वर्ष के अज्ञातवास के काल में उन्हे नपुंसक ब्रह्मला बनकर राजा विराट के महल में राजकुमारियों एवं अन्य लड़कियों को नृत्य एवं गान सिखाते रहे।
जब त्रिग ने विराट पर चढ़ाई की, विराट की सेना ने युधिष्ठिर, भीम, नकुल तथा सहदेव के मार्ग-दर्शन में विपक्षी सेना को पराजित करने के लिए प्रस्थान किया।
इसी समय ही भीष्म, द्रोण, कर्ण दुर्योधन एवं अन्य वरिष्ठ जनों के नेतृत्व में कौरव सेना ने भी आक्रमण कर दिया। उस समय अकेले उनोहने ही पूरी सेना को पराजित किया।
अर्जुन
निकट भविष्य में युद्ध की संभावनाओं का अनुमान लगाकर उनोहने ने हिमालय में जाकर महादेव शिव की उपासना की। उनका का उद्देश्य महादेव से कुछ अति उच्च क्षमता वाले दिव्यास्त्रों को प्राप्त करना था। दुर्योधन को उनकी की इस योजना का पता चल गया। उसने मकासुर को उनको को असफल करने के लिए भेजा। मकासुर ने एक जंगली सुअर का रूप धारण करके अर्जुन पर आक्रमण किया।
अर्जुन का बाण
अर्जुन ने एक बाण पशु की ओर छोड़ा। उसी समय शिव तथा पार्वती शिकारी के रूप में वहाँ घूम रहे थे। पशु को अर्जुन की ओर झपटते देखकर शिकारी (महादेव शिव) ने भी एक बाण उसकी ओर छोड़ा। संयोग से मकासुर को दोनों बाण एक ही समय में लगे। शिकारी के द्वारा शिकार के नियमों का उल्लंघन करने के कारण अर्जुन शिकारी पर क्रुद्ध (नाराज) हुए अर्जुन तथा शिकारी में युद्ध आरंभ हो गया, जिसमें अर्जुन को चोट लगी। तब दोनों में मल्ल युद्ध आरंभ हुआ।
कभी न हारने वाला अर्जुन बेहोश हो गया। परंतु कुछ देर बाद वह उठा और आस-पास से फूल चुनकर महादेव शिव की उपासना फूलों से की। मंत्रोच्चार के साथ जो फूल अर्जुन ने महादेव शिव को समर्पित किये थे, वे सभी शिकारी दम्पत्ति पर गिरने लगे। अर्जुन ने दोनों को शिव-पार्वती के रूप में पहचान कर क्षमा याचना की। शिव ने अपने भक्त का आलिंग्न करके उसे पशुपति नामक अस्त्र (बाण) भेंट किया।
जब अर्जुन ने सुना कि उसके पुत्र अभिमन्यु का वध अनेक महारथियों ने मिलकर धोखे से किया है और उसका प्रमुख अपराधी जयद्रथ है, तो उन्होंने अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व ही जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा की। यद्यपि पूरी सेना ने जयद्रथ को बचाने का पूरा प्रयत्न किया, अर्जुन ने मार्ग में आने वाले सभी शत्रुओं को अपने बाणों से बींध दिया और श्रीकृष्ण की सहायता एवं आशीर्वाद से अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।
युद्ध के सत्रहवें दिन अर्जुन को अपने घोर विरोधी एवं शत्रु कर्ण का सामना करना पड़ा। वे दोनों उस काल के सर्वोत्तम योद्धा थे। कर्ण ने नागास्त्र चलाया। श्रीकृष्ण ने रथ को कई इंच नीचे दबा (झुका) लिया। अन्यथा अर्जुन का वध हो जाता। कर्ण कासर्पबाण अर्जुन के सिर से ऊपर निकल गया व उसके सिर पर टोप से जा टकराया। परंतु कर्ण का मृत्युकाल समीप आ चुका था। उसका रथ कीचड़ में फँस गया। उसी स्थिति में श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने अपने घातक बाण से कर्ण का सिर काट दिया।

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