बोधकथा निम्नलिखित है ..
बोद्धिक के लिए प्रेरणादायक काहानी

परीक्षा की घड़ी
अनुशासन और नैतिक दृढ़ता जैसे गुणों की संभवतः जितनी कठिन परीक्षा राजनीति में होती है, उतनी अन्यत्र नहीं। इस क्षेत्र में भी स्वयंसेवक ने विपरीत स्थितियों में अपनी गुणवत्ता को प्रमाणित किया।#बोधकथा
1970 के दशक के आरम्भ की घटना है। उत्तर प्रदेश विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से राज्यसभा के लिये कांग्रेस ने एक जाने- माने उद्योगपति को प्रत्याशी के रूप में खड़ा किया। सदस्यों के वोट खरीदने का चोरी-छिपे एक नियमित अभियान चला। भारतीय जनसंघ के सदस्यों में अधिकांशतः स्वयंसेवक थे। उनको भी बड़ी- बड़ी थैलियों के अलावा मंत्रीपद और अन्य पदों का प्रलोभन दिया गया। जनसंघ के एक निर्धन हरिजन विधायक पर भी प्रलोभन का जाल फेंका गया। प्रथम किस्त के रूप में रात को उसके पास 60,000 रुपये भेजे गये। अगले दिन प्रातः वह सीधे उस उद्योगपति के प्रमुख एजेंट के पास गया और उसने सबके सामने नोटों की गड्डियाँ उसके मुँह पर दे मारीं। समूचा लखनऊ हक्का-बक्का रह गया। बाद में जब ऐसे एजेंट अपने क्रय अभियान पर विधायक निवास में घूमते थे तो वे जनसंघ सदस्यों के कमरों के सामने तेजी से चलते हुए कहते थे, ‘चलो-चलो, यहाँ अपना समय नष्ट मत करो। ये तो निक्कर वालों के कमरे हैं।#बोधकथा
राजनीति में उच्च नैतिकता का आदर्श पं. दीनदयाल उपाध्याय ने प्रस्तुत किया। उस समय जनसंघ ने उनसे लोकसभा का चुनाव लड़ने का अनुरोध किया। जब विरोधी कांग्रेसी प्रत्याशी अनैतिक और अवैध हथकण्डे चलाते रहे तो पंडित जी का चुनाव जीतना कठिन हो#बोधकथा
सकता है। वे पंडित जी के पास गये और अनुरोध किया कि उन्हें भी जातिवाद और जाली वोट आदि के वैसे ही हथकंडे अपनाने की अनुमति दी जाये। उस पर पंडित जी ने बड़े गंभीर भाव से कहा, “जनसंघ की दृष्टि में राजनीति सामाजिक कायापलट का साधन है। भले ही मेरी जमानत जब्त हो जाये, पर मैं ऐसे भ्रष्ट आचरण का पाप मोल नहीं लूंगा।’ अन्त में पंडित जी ने कठोर चेतावनी देते हुए कहा, ‘यदि हमारा कोई भी कार्यकर्ता ऐसा कदाचार करता हुआ पाया गया तो मैं तुरन्त चुनाव से अपना नाम वापस ले लूंगा।’#बोधकथा
भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को भी अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जब उन्हें दो में से एक को चुनना होता है। एक ओर सिद्धांतों के प्रति उनकी ध्येयनिष्ठा तो दूसरी ओर उनके तथा उनकी यूनियनों के तत्काल लाभ के लिये समझौते । कई स्थानों पर यूनियनों पर यह दबाव आता है कि वे भारतीय मजदूर संघ से अपना नाता तोड़ लें। परन्तु यूनियन के स्वयंसेवक नेताओं ने हर बार मुँह तोड़ उत्तर दिया है। उन्होंने अनेक मौकों पर ऐसे प्रलोभनों को ठोकर मारी है। #बोधकथा
बोधकथा -२ व्यर्थ की हानि
हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण का कार्य चल रहा था। पं. मदन मोहन मालवीय राजस्थान में एक सेठ के घर दान लेने गए। उन दिनों बिजली नहीं थीं। प्रकाश के लिए लालटेन का प्रयोग होता था। सेठ जी ने नौकर से लालटेन जलाने को कहा। नौकर ने लालटेन जलाने के लिये दियासलाई की 3-4 तिलियाँ जलाई। संयोग से तीनों तिलियाँ बुझ गईं लेकिन लालटेन नहीं जली। इस पर सेठ जी ने नौकर को बहुत डाँटा। मालवीय जी ने सोचा यह सेठ बहुत कंजूस लगता है। सम्भवतः दान में एक पैसा भी नहीं देगा। अगले दिन प्रातः मालवीय जी जागे और प्रस्थान करने से पहले सोचा कि सेठ जी से मिलता चलूँ। मालवीय जी यह सोच ही रहे थे कि सेठ ने उनके कमरे में प्रवेश किया और विश्वविद्यालय के लिए 50 हजार रुपए भेंट किये।#बोधकथा
मालवीय जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि रात तीली बर्बाद करने पर आप जिस तरह नौकर को डाँट रहे थे, उससे तो मुझे यही लगा था कि आप दान बिल्कुल नहीं देंगे। सेठ ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया, ‘मैं व्यर्थ का हानि सहन नहीं करता।’ लेकिन बड़ा प्रयोजन हो अपनी सारी सम्पत्ति भी दे सकता हूँ, आखिर यह है किस दिन के लिए? #बोधकथा
बोधकथा – 3(सदा सत्कर्म करें)
एक बार योगी तैलंग स्वामी को तंग करने के उद्देश्य से एक व्यक्ति ने दूध में चूना घोलकर उनके सामने एक पात्र में रख दिया। स्वामी जी ने दूध का पात्र देखा और चुपचाप उसे पी लिया। उस व्यक्ति ने सोचा कि शीघ्र ही चूना अपना प्रभाव दिखायेगा। लेकिन हुआ इसके विपरीत। स्वामी जी को तो कुछ नहीं हुआ, परन्तु उस व्यक्ति की हालत बिगड़ने लगी। वह व्यक्ति स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और अपनी गलती के लिये क्षमा माँगने लगा। तब स्वामी जी ने कहा, ‘भले आदमी चूने का पानी तो मैंने पिया लेकिन इसका प्रभाव तुम पर हो रहा है। इसका एक ही कारण है कि हम दोनों के शरीर में एक ही आत्मा का वास है। यदि आप दूसरों को कष्ट पहुँचायेगें तो कष्ट आपको भी भोगना पड़ेगा। #बोधकथा
निष्ठा और आस्था
लखनऊ विश्वविद्यालय का भवन बन रहा था । डॉ० बीरबल साहनी वनस्पतिशास्त्र विभाग के प्रमुख थे। इस विभाग के अभी केवल तीन कक्ष ही बने थे। एक विदेशी वैज्ञानिक डॉ० साहनी से मिलने आया। उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि डॉ० साहनी की बैठने के जगह बरामदें में एक कोने पर है। टेबल पर अनेक ग्रंथ पड़े हुए हैं। और साहनी शीशे से एकाग्र होकर अध्ययन कर रहे थे। यह देखकर वह विदेशी मेहमान बोले- प्रोफेसर साहब! क्या आपके लिए स्वतंत्र कक्ष भी नहीं है? डॉ० साहनी आत्मविश्वास से बोले- श्रेष्ठ भाव के लिए निष्ठा चाहिये, काम के प्रति आस्था चाहिये नाकि ठाठबाट ।#बोधकथा
धरम मत छोड़ो रे.
सन् 1921 प्रिन्स ऑफ वेल्स भारत आयेंगे हजारों लोगों को ईसाई बनाने का षड्यंत्र होगा- रेवाड़ी आश्रम के संचालक परमानन्द जी महाराज ने अपने शिष्य कृष्णानन्द को कहा- “कब तक छला जाता रहेगा हिन्दू समाज” तुम आश्रम के बच्चों को उनके माता-पिता के साथ दिल्ली ले जाओ समारोह स्थल पर जाकर मेरे द्वारा तैयार करवाये भजन गवाओ कृष्णानंद ने अनेक आशंकायें व्यक्त की, हमारा विरोध होगा आश्रम पर संकट आयेंगे, यात्रा का खर्च कहां से आयेगा-आदि आदि।#बोधकथा
लेकिन परमानन्द जी अडिग थे, यह आश्रम भगवान, भक्ति और धर्म के लिए है तुम बिना डरे वही करो, जो मैंने तुमसे कहा है। गुरू का आदेश शिरोधार्यकर कृष्णानंद ने आश्रम के बच्चों को लेकर सब विरोध कठिनाईयों के बावजूद आयोजन स्थल पर पहुंचकर वाद्यों के साथ भजन गाना शुरू कर दिया, जहां हजारो परिवार ईसाईयत अपनाने के लिए इकट्ठे किये थे।#बोधकथा
धरम मत हारो रे, यह जीवन है दिन चार….! धरमराज को जाना होगा, सारा हाल सुनाना होगा। फिर पीछे पछताना होगा, कर लो सोच-विचार ।। एक वृद्ध ने पूछा, कौन है ये…. बच्चों के माता-पिता आगे आगे आकर बोले- हम हरिजन है, हमारे बच्चे हैं परमानन्द जी के आश्रम में रहकर शिक्षा पाते हैं।#बोधकथा
उस वृद्ध के साथ सभी आश्चर्य चकित। हरिजनों के बच्चे, इतने साफ-सुथरे, ..पढ़ाई करते हैं.. उसने सबसे कहना शुरू किया.. भाईयों जब हमारे समाज में साधु महात्मा हम सबको पढ़ाने, ऊंचा उठाने को तत्पर है। तब हमें धरम बदलने की भला क्या पड़ी है। सबको बात समझ में आ गई और धरम बदलने का पादरियों का षड्यंत्र का धरा रह गया।#बोधकथा
शब्द से भी संस्कार
प.पू. श्री गुरूजी तेल चिकित्सा के लिए केरल गये थे। एक दिन शाखा पर बाल स्वयंसेवकों को खेल खेलते देखा। शाखा के बाद उन्होंने एक बालक से पूछा- खेल का नाम क्या था। बालक ने उत्तर दिया- “दीपक बुझाना” प. पू. श्री गुरु जी गंभीर हो गये । पास में खड़े अधिकारी से पूछा- “दीपक बुझाना” खेल का नाम है? खेल भी संस्कार देने के लिये हुए हैं दीपक बुझाना नहीं, दीपक जलाना चाहिये, इसलिए अच्छा नाम दो। दूसरे दिन से उस खेल को नाम दिया गया ‘चुनौती” शब्दों का भी अपना संस्कार होता है ।#बोधकथा
प्रचण्ड आत्मविश्वास
एक पत्रकार ने लोकमान्य तिलक से पूछा- मंडाले कारागार में लिखे हुए गीता रहस्य की हस्तलिखित प्रति यदि अंग्रेजी सरकार ने जप्त कर ली तो? ‘करने दो’ तिलक ने कहा। सरकार मेरा दिमाग तो जब्त नहीं कर सकती। मैं यह ग्रंथ फिर लिख दूंगा । उस समय उनकी उम्र थी साठ वर्ष । इस उम्र में उनका ऐसा प्रचण्ड आत्मविश्वास था ।#बोधकथा
बोधकथा
कैसे हो रहे हैं भावी पीढ़ी के संस्कार नागपुर से गई राष्ट्र सेविका समिति की बहिनें आतंकवाद से पीड़ित जम्मू-कश्मीर के एक विस्थापित शिविर में संस्कार वर्ग चला रही थी। उस वर्ग में एक दिन हिन्दू साम्राज्यदिनोत्सव मनाने के लिए हाथ में तलवार पकड़ा हुआ छत्रपति शिवारी का चित्र लेकर गई। चित्र वहां रखकर तैयारी कर रही थी कि एक लड़के ने पूछा- दीदी, ये रावण का चित्र क्यों लायी। हो? बहिन चक्कर में पड़ गयी- रावण का चित्र ? कहाँ है? उस बालक ने शिवाजी महाराज की ओर संकेत किया । अरे यह तो शिवाजी राजा का चित्र है- रावण का नहीं। उसको तो उत्तर दिया परन्तु बहिन के मन में आया कि कैसी हमारी शिक्षा पद्धति है कि छत्रपति शिवाजी का चित्र बच्चे पहचान नहीं पाते। बहुत दुःख हुआ। फिर मन में आया कि आतंकवादी भी हाथ में तलवार लेकर आते हैं। उनके हाथ की तलवारों से अपने प्रियजनों की हत्या होती हुई इस बालक ने देखी होगी। किसी ने कहा होगा कि ये रावण है। तब हाथ में तलवार लिये हुआ हर व्यक्ति यानी रावण यह समीकरण उसके मन में पक्का बैठ गया। कौन डालेगा इन बच्चों में देश और समाज के संस्कार ।
मुझे फासी चाहिये
१९२५ में काकोरी काण्ड में पकड़े गये कई क्रांतिकारी युवकों ठाकुर रोशन सिंह भी थे। यद्यपि वे इसमें सम्मिलित नहीं थे, में पर बिस्मिल के दल के सदस्य होने से वे भी पकड़े गये। लोगों को लगता था कि उनका अपराध नहीं है। अतः उन्हें थोड़ी सजा होगी। यह मुकदमा डेढ़ साल तक चला। जेल में ठाकुर रोशन सिंह सभी को कुश्ती लड़ना सिखाते थे। वे स्वयं अच्छे दमखम वाले पहलवान थे। निरन्तर छः-छः व्यक्तियों के साथ कुश्ती लड़कर भी थकते नहीं थे।#बोधकथा
वे कुशाग्र बुद्धि तथा व्यवहार कुशल थे। हिन्दी व उर्दू का उन्हें ज्ञान था। जेल में बंगला भाषा सीखली- फिर अंग्रेजी सीखने की धुन सवार हुई। रामप्रसाद बिस्मिल उन्हें छेड़ते रहते- ठाकुर साहब क्या फांसी से बचने के लिए अंग्रेजी सीख रहे हैं।
ठाकुर रोशन सिंह तपाक से उत्तर देते नहीं! नहीं! फांसी से बचने के लिए नहीं, मैं उस अंग्रेज जज को अंग्रेजी में गाली दूंगा तो वह चिढ़कर मुझे फांसी का दण्ड देगा। हुआ यही उन्हें भी फांसी का दण्ड मिला तो वे खुशी के मारे उछल पड़े और अदालत में ही थैंक्यू थैंक्यू जज साहब कहा । फिर दोबार जोर से ओम का उच्चारण किया। फांसी वाले दिन पूरी शक्ति से वंदेमातरम् का घोष किया, फिर उतने ही जोर से ओम का उच्चारण करते हुए १६ दिसम्बर १६२७ को शहीद हो गये।#बोधकथा
अपने मन को स्वदेशी बनाओ
अपने स्पष्ट विचारों के कारण लोकमान्य तिलक युवकों के प्रेरणा स्रोत थे। सभी उनसे मार्गदर्शन लेने आते थे। लोकमान्य जब भी पूर्ण में होते, प्रातःकाल फर्गसन महाविद्यालय में घूमने जाते थे। एक दिन भ्रमण के समय कुछ विद्यार्थी । | उनके पास आ गये- मानों वे उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे।
लोकमान्य ने पूछा- बोलो क्या काम है? विद्यार्थियों में प्रमुख लगने वाला एक युवक बोला- ‘स्वदेशी का स्वीकार विदेशी का बहिष्कार आपका आहवान अच्छा है। हमने | स्वीकार किया है। व्यवहार में लाने का प्रयास कर रहे हैं। हमें आप स्वदेशी के संबंध में कोई संदेश दीजिये ।” लोकमान्य ने क्षण भर विचार कर कहा- ‘मन स्वदेशी करो। गम्भीर अर्थवाले केवल इन तीन शब्दों ने स्वदेशी के सम्बंधन में उन युवकों की सारी आशंकाओं को दूर कर दिया। देश की जनता के मन स्वदेशी बनाने के लिए ही तिलक जी ने शिव जयन्ती और गणेशोत्सव प्रारम्भ किय थे।#बोधकथा

परिवर्तन का प्रारम्भ अपने से
एक सज्जन ने विनोबा भावे से कहा- “हम गृहस्थ हैं अधिक तो कुछ कर नहीं सकते, घर में बैठे क्या कर सकते है।” विनोबा जी ने कहा- “घर में बैठे-बैठे जो काम आप कर सकते है, वहीं काम आपको बताऊंगा। अपने घर में एक हरिजन बच्चे को रख लीजिये । आपके तीन लड़के हैं तो उसे चौथा लड़का समझ लें। क्या चार लड़के होते तो एक को आप छोड़ देते?” इस पर वे सज्जन बोले- फिर तो लोग हमें गांव में रहने भी नहीं देंगे। विनोबा जी ने कहा- “यही तो हमें करना है। क्रांति इसी को कहते है ।” घर से शुरू कर ठेठ समाज के स्तर तक पहुंच जाये ऐसी हलचल हमें करनी चाहिये ।#बोधकथा
भारतीय संगीतज्ञ स्वाभिमान
देश के पण्डित औंकारनाथ में यूरोप की पर गये तत्कालीन एक उच्च अधिकारी ने पण्डित जी सलाह “आप जार्ज पंचम को पत्र लिखकर संगीत की प्रार्थना करें। करने से आपको रायबहादुर पदवी मिल जायेगी।”
पण्डित कलाकार क्या जार्ज पंचम को अपना संगीत सुनाने भीख मांगेंगे?” यदि उनको आवश्यकता तो मुझे पडी है। राय की पदवी की मेरे मन में कौडी भर कीमत नहीं#बोधकथा
संघ कार्य जोड़ने का है- छोड़ने का नहीं
सन् 1970 की एक घटना । प्रवास-कार्यक्रम के अनुसार श्री गुरू जी का जबलपुर नगर में शुभागमन हुआ । प्रान्त के मुख्य शिक्षक एवं उनसे ऊपर के कार्यकर्ताओं की बैठक लेते हुए श्री गुरुजी ने एक कार्यकर्ता से पूछा- आपके नगर में कितने स्वयंसेवक हैं?
कार्यकर्ता ने तत्कालीन उपस्थिति और सम्पर्कित स्वयंसेवकों की संख्या बतायी। श्री गुरुजी ने कहा- आपके यहां की शाखा बहुत पुरानी है। आपके यहां तो ज्यादा स्वयंसेवक होंगे। ठीक से बताओ । कार्यकर्ता ने कहा- इसमें कुछ लोगों को छोड़ दिया
है । श्री गुरु जी ने कहा- यह छोड़ने का कार्य कब से चला है? वातावरण गम्भीरता हो गया। कार्यकर्ता को उत्तर सूझ नहीं रहा था। श्री गुरुजी ने कहा- संघ कार्य समाज के बन्धुओं को छोड़ने का नहीं है, जोड़ने का है ।#बोधकथा
निराला जी की निराली सम्वेदनशीलता
बहुत जाड़ा था, लोग अंगीठी के पास से उठना नहीं चाहते थे। ऐसे में एक सुबह निराला जी महादेवी वर्मा के यहां आये। निराला जी फटा पुराना कोट पहने थे। महादेवी का मन कचोट उठा, उलाहना के स्वर में कहा- “सर्दी इतनी अधिक पड़ रही है और आप के पास एक साबुत | कोट तक नहीं? देखिये अब आपको एक कोट बनवाना ही पड़ेगा।#बोधकथा
कई बार आग्रह करने पर किसी तरह वे कोट बनवाने को तैयार हो गये। महादेवी जी खुद उनके साथ जाकर कपड़ा लाई और कोट बनवाया। निराला जी वह नया कोट पहनकर प्रसन्न दिखायी दिये। महादेवी जी को भी इसी में सुख था कि चलो वे जाड़े में एक ढंग से कोट तो पहनेंगे। तीन दिन बाद निराला जी महादेवी जी के पास आये तो उनके पास फिर वही फटा-पुराना कोट था।#बोधकथा
पूछा यह क्या? वह कोट क्या रखने को बनवाया है? जो फिर चोगा पहनकर आये हो। निराला जी को जल्दी कोई उत्तर देते नहीं बना, फिर जैसे-तैसे नजरें बचाते हुए बोले- ‘सच कहुं बहिन, वह कोट मैंने आज उतारकर दूसरे को दे दिया क्योंकि वह एक फटी बनियान पहले था और सर्दी से उसका बुरा हाल था।’
‘था कौन वह ?’ निराला बोले- ‘गरीब रिक्शा चालक था।’ महादेवी जी मात्र ‘हूँ’ करके रह गयीं। निराला जी ने कहा मेरी क्या चिन्ता करना? मेरे से ज्यादा उसको आवश्यकता थी।#बोधकथा
नानक और नमाज
एक बार एक नवाब गुरू नानकदेव से बोला कि हिन्दू और मुसलमान एक हैं, ऐसा तुम मानतेहो, तो मेरे साथ नमाज अदा करो।
नानक ने कहा- हाँ बाबा तू नमाज अदा करेगा तब तुम्हारे साथ मैं भी करूंगा। नमाज की शुरूआत हुई। नानक नमाज पढ़ता है या नहीं, यह देखने के लिए नवाब बीच- बीच में आंख खोलकर नानक को देख लेता था। नानक शांति पूर्वक खड़े थे। यह देखकर उस नवाब का पारा चढ़ गया, जैसे-तैसे उसने नमाज पूरी की और गुस्से से नानक से कहा- “तुम धोखेबाज हो, तुमने नमाज पढ़ी ही नहीं, तुम केवल खड़े थे।”
गुरू नानक बोले- मैंने तुम्हें कहा था कि जब तुम नमाज पढ़ोगे, तब मैं भी पढूंगा। तुमने नमाज पढ़ी ही कहां- तुम तो केवल कसरत कर रहे थे। तुम्हारा ध्यान | खुदा की तरफ कहां था, तुम तो मुझे देख रहे थे। तुम्हें वचन देकर मैंने भूल की। तुमने नमाज पढ़ी नहीं और मेरी भी एक नमाज चूक गयी ।#बोधकथा
कर्तव्यपालन की पराकाष्ठा
बात ई. सन् १६७६ की है। भारत के वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उन दिनों स्वदेशी प्रणाली विकसित करने के प्रकल्प-प्रमुख थे। उनके साथ कई अनुभवी वैज्ञानिक पूरे मनोयोग से काम में लगे हुए थे। सप्ताह में वे स्वेच्छा से ६० से ८० घंटे तक का काम करते थे। कुछ वैज्ञानिक तो १०० घंटे भी काम करते थे। स्वदेशी राकेट प्रणाली विकसित करने की उनकी लगन ने भूख-प्यास और नींद तक को पीछे छोड़ दिया था। इसी प्रक्रिया में एस. एल.वी.-३ के प्रक्षेपण का दिन और समय तय हो गया था। सभी लोग प्रक्षेपण की घड़ी की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रक्षेपण के पूर्व उसके सभी अंग उपांग ठीक से काम कर रहे हैं, यह देखना आवश्यक था। प्रणाली का एक वाल्व जांच के दौरान सही नहीं पाया गया। दूसरे चरण की इस जटिल नियंत्रण प्रणाली में हुई गड़बड़ी को देखने इस टीम के ६ सदस्य परीक्षण स्थल पर पहुंचे ही थे कि लाल धुंए वाले नाइट्रिक एसिड (आर. एफ.एन.ए.) का टैंक फट गया और एसिड ने टीम को अपनी चपेट में ले लिया। सभी ६ सदस्य गंभीर रूप से जल गये। उन्हें तुरन्त त्रिवेन्द्रम के अस्पताल में भर्ती कराया गया प्रकल्प प्रमुख अब्दुल कलाम व उनके सहयोगी डॉ. कुरूप चिन्तित अवस्था में उनके साथ पूरी रात वहीं रहे। इन घायलों में टीम प्रमुख श्री रामकृष्णन नायर भी थे। वे प्रातः ३ बजे होश में आये, होश में आने के बाद पहला शब्द ही उन्होंने इस दुर्घटना पर अफसोस जाहिर करने के लिए बोला और अब्दुल कलाम को आश्वस्त किया कि दुर्घटना के कारण परीक्षण कार्यक्रम में जो देरी हो गयी है, उसे वे जल्दी ठीक कर देंगे। अत्यंत गंभीर हालत में भी काम के प्रति उनकी चिन्ता व आशा ने सभी को भीतर तक छू लिया।#बोधकथा
स्वाभिमान
सन् 1968 में डॉ० रघुवंशी यूनेस्को के काम से सेनफ्रांसिस्को से न्यूयार्क | जा रहे थे। बुलन्दशहर में जन्मे डॉ. दिनेश रघुवंशी पूसा में अपनी शिक्षा पूरी | कर अधिकारी बने। वहां से वे यूनेस्को में विशेष अधिकारी बनाये गये थे। यात्रा के दौरान साथ के अमेरिकन मित्रों ने अल्पाहार के लिए आग्रह किया। शिष्टाचारवश यह आमंत्रण उन्हें स्वीकार करना पड़ा। अल्पाहार के समय | कृषि उत्पादन और विशेष रूप से गेहूं उत्पादन पर चर्चा चल रही थी। उन | दिनों भारत अनाज के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था। भारी मात्रा में अमेरिका | से अनाज का आयात करना पड़ता था। इसी का फायदा उठाते हुए अमेरिकी | दोस्तों ने अल्पाहार सामग्री डॉ. रघुवंशी की तरफ बढ़ाते हुए कटाक्ष किया- हम तुम्हें भूखा नहीं मरने देंगे। डॉ० रघुवंशी खून का घूंट पीकर रह गये, साथ ही उन्होंने कुछ संकल्प भी मन में किया ।#बोधकथा
न्यूयार्क पहुंचकर सबसे पहले उन्होंने यूनेस्को से त्यागपत्र दे दिया और | दिल्ली आकर पूसा केन्द्र से भी त्याग पत्र देकर अपने गांव लौट आये। परिचितों, मित्रों व यूनेस्को व पूसा के अधिकारियों ने भी उन्हें इतनी अच्छी स्थाई नौकरी छोड़कर भविष्य से खिलवाड़ न करने की सलाह दी थी- पर | देशभक्ति, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से ओत-प्रोत डॉ० दिनेश रघुवंशी के | मन का संकल्प तो कुछ और ही था। अपनी थोड़ी सी कृषि योग्य भूमि पर उन्होंने अनेक प्रयोग कर नए-नए और अधिक पैदावार देने वाले बीज | विकसित किये और गांव-गांव घूमकर उनका प्रचार किया और जब सफलता मिली तो उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही नहीं था। उनके और उन जैसे अनेक वैज्ञानिकों के कारण ही देश न केवल अनाज उत्पादन में | आत्मनिर्भर हुआ बल्कि आज हम अनाज निर्यात करने की स्थिति में आ गए हैं।#बोधकथा
सेवा का अहंकार नहीं चाहिये
पंजाब दैनिक प्रार्थना सभा का जयंती वर्ष | कार्यकर्ताओं के सुझाव स्वर्ण जंयती स्मारिका प्रकाशित करने का निर्णय हुआ मुद्रक बड़े चाव परिश्रम से मुख्य लिए डिजाइन करवाई। डिजाइन सम्बन्धित कार्यकर्ताओं को पसंद आया। डिजाइन में मुख्यतः एक चित्र जिसमें दाता खड़ा और वह अपने सामने बैठे हुए एक असहाय, दरिद्र व्यक्ति को उसके हाथों कुछ दान स्वरूप दे रहा संख्या संस्थापक महाशय गोकुलचन्द्र जी के सामने जब वह डिजाइन आया उन्होंने इसे छापने यह कहकर मना कर दिया कि अपनेपन, श्रद्धा और प्रेम से अपने समाज के बंधुओं की सेवा करते हैं ना कि उन्हें भिखारी समझ कर स्मारिका गया सचमुच, सेवा करना आसान तो नहीं है परन्तु फिर भी ज्यादा मुश्किल है।#बोधकथा
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