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स्वामी रामानन्द जी का संझिप्त परिचय
उत्तर भारत में सर्वप्रथम भक्ति की पावन गंगा को प्रवाहित करने का श्रेय स्वामी रामानन्द या रामानन्दाचार्य को ही जाता है। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि ” भक्ति दक्षिण उपजी, लायो रामानन्द।” अर्थात् भक्ति दक्षिण भारत में उत्पन्न हुई, स्वामी रामानन्द उसको उत्तर भारत में लाये। स्वामी रामानन्द भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक होने के साथ-साथ धार्मिक तथा सामाजिक चेतना के मार्गदर्शक भी थे।
रामानन्द जिस युग में हुए वह भारत के इतिहास में धर्म, संस्कृति और समाज के पतन का काल था। इस्लाम की आंधी ने सब कुछ छिन्न- भिन्न करके रख दिया था। तैमूर के आक्रमण से लेकर बाबर के आक्रमण तक समूचे समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक पराभाव का काल था। स्वामी रामानन्द की महत्वपूर्ण देन रामभक्ति को एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन का आधार बनाकर राष्ट्रीय जागरण करना था।
शीघ्र ही रामभक्ति की गंगा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक बहने लगी तथा सम्पूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरोने में सहायक सिद्ध हुई। इसने हिन्दू समाज में आशा, आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव जागृत किया।
रामानन्द सम्प्रदाय में मान्यता है कि उनका जन्म माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को प्रयाग में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. पुण्य सदन तथा माता का सुशीला देवी था। धार्मिक संस्कारों से सम्पन्न पिता ने रामानन्द को काशी के श्रीमठ में गुरु राघवानन्द के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण के लिये भेजा। कुशाग्र बुद्धि के रामानन्द ने अल्पकाल में ही वेदों, पुराणों और दूसरे धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। गुरु राघवानन्द और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थ आश्रम स्वीकार नहीं किया व धर्म तथा समाज की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया।
अपने पहले ही सम्बोधन में उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के द्वारा धर्म की रक्षा के लिये विराट संगठित शक्ति खड़ा करने का संकल्प व्यक्त किया। बलपूर्वक मुसलमान बनाये गये हिन्दुओं को फिर से हिन्दू धर्म में वापस लाने के लिये परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानन्दाचार्य ने प्रारम्भ किया। अयोध्या के राजा हरि सिंह के नेतृत्व में नेतृत्व में 34 हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामी ने स्वधर्म अपनाने के लिये प्रेरित किया था।
स्वामी रामानन्द ऐसे महान् संत थे जिनकी छाया तले सगुण तथा निर्गुण दोनो तरह के संत उपासक विश्राम पाते थे। उनकी शिष्य मण्डली में जहाँ एक ओर रैदास, कबीरदास, सेननाई और पीपा नरेश जैसे जाति-पाति, छुआछूत, कर्मकांड और मूर्ति पूजा के विरोधी निर्गुण वादी संत थे तो दूसरी तरफ अवतारवाद व मूर्ति पूजा के समर्थक अनंतानंद, भावानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे संत थे।
उसी परम्परा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसे तेजस्वी साधक और गोस्वामी तुलसीदास जैसा विश्वप्रसिद्ध महाकवि भी उत्पन्न हुआ। जब हिन्दू समाज में चारों ओर जातीय कटुता और वैमनस्य का भाव बढ़ रहा था उस समय स्वामी रामानन्द ने नारा दिया “जाति-पाति पूछे न कोई। हरि को भजै सो हरि का होई॥” इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि यदि रामानन्द और उनके शिष्य समाज के उपेक्षित जनों में एक आशा और भरोसे की नींव न डालते तो उनमें से अधिकतर धर्मांतरण कर लेते।
स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा स्थापित रामानन्द या रामावत सम्प्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन है। इस सम्प्रदाय के संत ‘वैरागी’ या ‘अवधूत’ कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े हैं। अयोध्या, चित्रकूट, नासिक और हरिद्वार में इस सम्प्रदाय के सैकड़ों मठ-मंदिर है। यूँ तो रामानन्द सम्प्रदाय की शाखाएं देशभर में फैली हैं परन्तु काशी के पंचगंगा घाट पर स्थित श्रीमठ ही सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानन्द सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वामी रामानन्द ने प्रेम और रामभक्ति को उत्तर भारत में जनव्यापी एवं सांस्कृतिक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने भारतीय समाज में आत्मविश्वास और सामाजिक चेतना जगाई। उनके द्वारा बहाई गई रामभक्ति की अविरल धारा आज भी भारतीय समाज को समेटे हुए राष्ट्रीय जागरण एवं सामाजिक समरसता का स्रोत बनी हुई है।
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