
श्री गुरुदक्षिणा कार्यक्रम
यावत् ग्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिक योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति । ।
— मनुस्मृति (अपने भरण पोषण के लिए जितना अत्यन्त आवश्यक है उतने पर ही मनुष्य का अधिकार है। जो अधिक ग्रहण करता है वह चोर है तथा दण्डनीय है।) संघ ने व्यक्ति को गुरु नहीं माना। हिन्दू समाज के ऐतिहासिक, धार्मिक परम पवित्र भगवाध्वज को ही गुरु के रूप में हमने स्वीकार किया है। इसी की छत्रछाया में हम अपनी दैनिक शाखा में सब कार्यक्रम सम्पन्न करते हैं। तन, मन से इसकी नित्य पूजा करते हैं। गुरुदक्षिणा के दिन धन से इसकी पूजा करते हैं। उस धन से ही अपने संघ का न्यूनतम आवश्यक व्यय चलता है। अतः स्वयंसेवक अपना दायित्व समझते हुए अधिकाधिक दक्षिणा करते हैं। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
यह केवल धनसंग्रह की पद्धति नहीं है, दान अथवा चंदा भी नहीं है, अपितु श्रद्धापूर्वक किया गया समर्पण है। अपने समाज के प्रति त्याग, अपने कार्य के प्रति अपनत्व एवं क्षुद्र सांसारिक माया के प्रति निर्मोह इससे पैदा होता है। गुरुदक्षिणा से अपना संगठन आत्मनिर्भर रहता है। संघ कार्य को स्वावलम्बी रखने के लिए ही यह पद्धति विकसित की गई है। श्रीगुरुदक्षिणा के माध्यम से स्वयंसेवकों के हृदय में यह भाव निर्माण होना चाहिये कि अपने इस कार्य में इतनी प्रगति हो कि कभी जगद्गुरु कहलाने वाले इस पवित्र ध्वज के सामने एक बार पुनः संसार नतमस्तक हो जाए, इसके चरणों में अपने जीवन की भेंट चढ़ाकर उसकी पूजा करने के लिए बाध्य हो जाए। यही आकांक्षा, यही आवेश, अपने अंतःकरण में उत्पन्न हो । वर्ष में एक बार धन समर्पण ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं, अपितु प्रत्येक स्वयंसेवक कार्यवृद्धि हेतु अधिकाधिक समय देने की साप्ताहिक मासिक-वार्षिक-जीवन रचना की ओर भी अग्रेसर होने का प्रयत्न निरन्तर करे तथा प्रत्येक गुरुदक्षिणा पर इस दृष्टि से स्वयं का मूल्याकन कर ‘और प्रगति’ का निश्चय करे। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
गुरुदक्षिणा की सूचना, व्यवस्था, पद्धति आदि सभी से स्वयंसेवक के अंतःकरण में पवित्रता, सुचिता, उदात्तता की वृद्धि हो – इसकी ओर विशेष आग्रहपूर्वक ध्यान आवश्यक है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम

श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम विधि
अपेक्षित कार्यकर्ता
सम्पत् हेतु
गणगीत हेतु
* एकलगीत हेतु
अमृत वचन हेतु
प्रार्थना हेतु
* वक्ता/मुख्य अतिथि
* कार्यक्रम विधि बताने एवं मंचासीन बन्धुओं का परिचय कराने हेतु ।
* कार्यक्रम स्थल से बाहर की व्यवस्था (स्वागत करते हुए, जूते, चप्पल, वाहन व्यवस्थित एवं यथा स्थान खड़े करवाने तिलक लगाने, कार्यक्रम में बैठने से पूर्व ध्वज प्रणाम करना आदि सूचना देने) हेतु।
* श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम में पूजन हेतु लिफाफे देने एवं सूची बनाने हेतु अलग से कार्यकर्ता अपेक्षित हैं। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
व्यवस्थाये
- मौसम के अनुसार एवं स्वच्छ स्थान (बिछावन सहित)।
- चुना एवं रस्सी (रेखांकन हेतु)
- ध्जवज दण्ड हेतु स्टैण्ड (यदि स्टैण्ड की व्यवस्था नहीं है तो उचित संख्या में ईटें)।
- चित्र (भारतमाता, डॉक्टर जी एवं श्री गुरुजी के मालाओं सहित)
- मुख्य अतिथि/मुख्य वक्ता के लिये मंच/कुर्सियां ।
- सज्जा सामग्री (रिबिन, आलपिनें, सेफ्टी पिनें, चादरें/ चाँदनी, पर्दे, सुतली, गोंद आदि)।
- पुष्प, थाली, धूपबत्ती, माचिस, चित्रों हेतु मेजें, चादरें ।
- तिलक हेतु चन्दन अथवा रोली, अक्षत, कटोरी/थाली
- कार्यक्रम यदि रात्रि में है तो समुचित प्रकाश व्यवस्था ।
- ॐ ध्वनि वर्धक बैटरी सहित (यदि आवश्यक हो तो)। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
विशेष-
* श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु भगवान वेदव्यास जी का माला सहित चित्र योग्य स्थान पर लगाना अपेक्षित है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
* श्री गुरु दक्षिणा कार्यक्रम हेतु लिफाफे, कागज, कार्बन (सूची बनाने हेतु) एवं पूजन के समय गीत के लिये टेपरिकार्डर एवं अच्छे गीतों की ध्वनिमुद्रिकायें (पैन ड्राइव)। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
कार्यक्रम विधि
- सम्पत्
- गणगीत
- अधिकारी आगमन
- कार्यक्रम की विधि बताना एवं सूचनायें आदि
- ध्वजारोहण
- मंचासीन बन्धुओं का परिचय
- अमृत वचन
- वक्ता/अतिथि द्वारा उद्बोधन
- प्रार्थना
- ध्वजावतरण
- विकिर
- विशेष-
- अधिकारी आगमन के समय उत्तिष्ठ की आज्ञा होगी। पश्चात् आरम् एवं दक्ष की आज्ञा पर सभी स्वयंसेवक दक्ष में खड़े होंगे और ध्वजारोहण होगा।
- श्री गुरु पूर्णिमा के उत्सव में उपस्थित वरिष्ठ अधिकारी द्वारा
- भगवान वेदव्यास के चित्र पर माल्यार्पण (यदि है तो) के बाद दीप प्रज्वलित कर पुष्पांजलि अर्पित करना। * ध्वजारोहण तथा ध्वजावतरण के समय मुख्य अतिथि वक्ता अग्रेसर (अभ्यागत) के बराबर तथा माननीय संघचालक/ कार्यवाह अपने निर्धारित स्थान पर खड़े होंगे।
- कार्यक्रम के उपरांत परिचय की दृष्टि से शाखा टोली सहित प्रमुख कार्यकर्ताओं को रोकना योग्य रहेगा। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम

श्रीगुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु एकलगीत
यह भगवा ध्वज हमारा है स्वाभिमान अपना । यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना || ||
समरस बनाऐं जीवन, हर पल हमें सिखाता । रंग लाल – पीला समरस, हो भव्य रूप पाता ।। समरसता मूल इसका, कहे ऐक्य भाव रखना । यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना ।। 1 ।।
लिए उषाकाल आभा, प्रभा अग्नि ज्वाल जैसी । तप, त्याग, शील शिक्षा, जन मन जगाये ज्योति ।। भरे राष्ट्रभक्ति उर में, कहे सत्यकर्म करना । यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना 11211
जब वीर इसको लेकर, रणक्षेत्र में है जाता । वीरों के उर में साहस, बलिदानी भाव भरता ।। नवचेतना का वाहक, मां भारती का गहना यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना 113 11
भगवा ये ध्वज हमारा, गुरुवंद्य है हमारे यह तत्वरूप धर मन के, गुण सभी निखारे ।। हिन्दुत्व का ये वाहक, ये है मनुजता की गरिमा ।। यह अग्नि जैसा पावन, ये है ईश्वरीय रचना ।।4।। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
श्रीगुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु अम्रतवचन
1. पूजा का अर्थ केवल गंधफूल चढ़ाना नहीं है। पूजा का अर्थ है समर्पण की भावना को प्रकट करना। अपने स्वार्थ के लिए जो बहुत उपयोगी वस्तु हो उसे देना ही समर्पण का दृश्यरूप होगा। व्यावहारिक जगत् में हमारे स्वार्थों की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता रहा करती है। सुख, सम्मान, ऐश्वर्य, अन्यान्य प्रकार की उपभोग की सामग्री सब कुछ धन से प्राप्त होता है। उस धन को पर्याप्त प्रमाण में अपने आराध्यदेव के सामने रखना ही सच्चा समर्पण है। वही वास्तव में पूजा है । #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
-प. पू. गुरुजी
2. हम लोगों ने इस पवित्र पताका को अपने समक्ष गुरु के रूप में रखा है। इससे अति प्राचीन काल से आज तक के अपने राष्ट्र के सभी भव्य कार्य, उसके द्वारा सम्पादित समस्त पराक्रम और तेजस्विता आँखों के समक्ष प्रकट हो जाती है। जगद्गुरु का स्थान प्राप्त करने के लिए आवश्यक सभी गुणों का समुच्चय इस एक पताका के दर्शनमात्र से अपने अन्तःकरण में जागृत हो जाता है। यह तो हमारी जीवन-परम्परा की अखंड ज्योति के रूप में, हमारे राष्ट्र पुरुष अर्थात् प्रकट परमात्मा के नाते हमारे सामने है। इसकी सेवा के लिए हमें सब कुछ न्यौछावर करने की आवश्यकता है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
-परमपूजनीय गुरुजी
3. आज हम गुरुपूजन के लिए एकत्रित हुए हैं। गुरु के रूप में हमने भगवाध्वज को स्वीकार किया है। पूजा करने का वास्तविक अर्थ जिसकी हम पूजा कर रहे हैं उसके गुणों को अपने जीवन में लाना। भगवाध्वज का गौरव बढ़ाने वाले अर्थात् उसे फिर से विश्व में लहराने की आकांक्षा रखने वाले हम संघ के स्वयंसेवक हैं। समाज के लिए हम कुछ न करें, घर में बैठें रहें, देश- धर्म-समाज के लिए कुछ भी समय न लगाएं और भगवाध्वज के गौरव को बढ़ाने की आकांक्षा रखें यह दोनों बातें साथ-साथ नहीं चलेंगी। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
• भगवाध्वज को विश्व में लहराना है तो जिन गुणों का यह प्रतीक है अर्थात् त्याग का, समर्पण का, उन गुणों को जीवन में लाना होगा। पहले से अधिक समय संघ-कार्य, समाज कार्य को देना होगा यही वास्तव में सच्ची पूजा है। यही गुरु पूजन का संदेश है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय जी कहते हैं कि अग्नि की ज्वालाओं का प्रतीक है। अग्नि की विशेषता यही है कि वह स्वयं ही पवित्र नहीं है, वरन जो भी उसके सम्पर्क में आया उसे भी अग्नि ने पवित्रता प्रदान की। इतनी दाहकता और पवित्रता का जीवन जीने की शिक्षा इस ध्वज से मिलती है। हिन्दू संस्कृति की तो सदा से यह विशेषता रही है कि जो भी उसके समीप आया उसने उसे अपना बना लिया। यह आत्मसात करने की प्रवृत्ति आर्य संस्कृति की विशेषता है। इस विशेषता को बताने वाला यह ध्वज है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम

श्रीगुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु एकलगीत
हम करें राष्ट्र आराधन,
तन से, मन से, धन से, तन-मन-धन जीवन से,
हम करें राष्ट्र आराधन ।’ अंतर से, मुख से, कृति से, निश्छल हो निर्मल मति से, श्रद्धा से, मस्तक नति से, हम करें राष्ट्र अभिवादन ।। हम….
अपने हँसते शैशव से, अपने खिलते यौवन से, प्रौढ़तापूर्ण जीवन से, हम करें राष्ट्र का अर्चन ।। हम…. अपने अतीत को पढ़कर, अपना इतिहास उलट कर,
अपना भवितव्य समझकर, हम करें राष्ट्र का चिन्तन ।। हम…..
हैं याद हमें युग-युग की जलती अनेक घटनाएँ
जो माँ के सेवा पथ पर आई बनकर विपदाएँ,
हमने शृंगार किया था माता का अरिमुण्डों से,
हमने ही उसे दिया था सांस्कृतिक उच्च सिंहासन, माँ जिस पर बैठी सुख से करती थी जग का शासन, अब कालचक्र की गति से वह टूट गया सिंहासन, अपना तन-मन-धन देकर, हम करें पुनः संस्थापन । हम करें राष्ट्र आराधन ।। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
श्रीगुरु दक्षिणा हेतु विचारणीय बिन्दु
हमारे जीवन विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक ।
यह एक दिन का नहीं वरन् 365 दिन का समर्पण है वर्तमान समय में कार्य की पूर्ति हेतु धन की आवश्यकता । अतः स्वयंसेवक का समर्पण भाव पुष्ट करने हेतु वर्ष में एक बार श्री गुरुदक्षिणा कार्यक्रम ।
● • हमें सब कुछ समाज से, राष्ट्र से प्राप्त होता है, अतः उसी की सेवा में ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ की भावना से समर्पण। यज्ञ की भावना से- यथाशक्ति नहीं, वरन् संगठन की अपेक्षा- आवश्यकतानुरूप ।
• दान सहायता या चंदा नहीं वरन् समाज एवं राष्ट्र से उऋण होने का विनम्र प्रयास । संघ की इस विशिष्ट पद्धति से स्वयंसेवक का समर्पण भाव बढ़ता है एवं इसी से अपना संगठन आत्मनिर्भर बनता है।
गुरु द्वारा किये गये अमूल्य उपकार की अनुभूति व्यक्ति को कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण की स्वाभाविक प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कारों में कृतज्ञता ज्ञापन स्वाभाविक है। गुरु के प्रति इसी कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक श्री गुरुदक्षिणा है। गुरुकुलों में शिष्य शिक्षा समाप्ति के बाद अपने गुरु को दक्षिणा देकर यह कृतज्ञता प्रकट करते रहे हैं। शिष्य अपनी क्षमता अथवा अपने गुरुजी की इच्छानुसार यह दक्षिणा देते थे। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार दक्षिणा की प्रक्रिया और स्वरूप भिन्न रहे होंगे। परन्तु दक्षिणा का विधान भारतीय समाज में अविरल दीर्घकाल से मान्य रहा है। दक्षिणा पद्धति का प्रारम्भ होने की कोई निश्चित तिथि या काल तय करना कठिन है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
परन्तु यह सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग अर्थात सभी युगों में विद्यमान रही है। सतयुग में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की गाथा है। विश्वामित्र की इच्छानुसार दक्षिणा चुकाने हेतु उन्होंने स्वयं को डोम के यहाँ तथा अपनी पत्नी तथा बालक रोहिताश्व को भी दक्षिणा के बचे हुए धन की पूर्ति हेतु बेचा। द्वापर में एकलव्य ने अपने दायें हाथ का अंगूठा काटकर गुरु की इच्छानुसार दक्षिणा दी। त्रेता में महाराज रघु ने एक असमर्थ बटुक कौत्स को उसके गुरु की इच्छानुसार धन के रूप में दक्षिणा देने में सहायता करने के लिये कुबेर पर आक्रमण करने की तैयारी की थी। उस आक्रमण से पूर्व ही कुबेर ने अयोध्या में स्वर्णमुद्राओं की वर्षा कर दी थी। कलियुग में मूलशंकर (महर्षि दयानन्द) ने अपने गुरु बिरजानन्द की इच्छानुसार अपना सारा जीवन वेदों को पुनः महिमामण्डित करने में लगा दिया। गुरु यही दक्षिणा रूप में चाह रहे थे। अतः स्पष्ट है कि भारतीय समाज में अत्यंत प्राचीन काल से आज तक दक्षिणा देने की परम्परा विद्यमान है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
हिन्दू परिवारों में मांगलिक कार्य हों अथवा कोई अशुभ अवसर हों, दक्षिणा देने की परम्परा है। शुभ अवसर जैसे कथा आदि पर आमंत्रित ब्राह्मणों को भोजनोपरान्त दक्षिणा दी जाती है। इसी प्रकार अशुभ अवसरों जैसे मृत्यु आदि पर भी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देने के दृश्य दिखाई देते हैं। वर्ष में एक समय ऐसा भी आता है जब हमें अपने आत्मीय दिवंगतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। “संघ के प्रारम्भकाल में स्वयंसेवकों ने श्राद्धों में भोजन के बाद मिली दक्षिणा का धन एकत्रित कर घोष खड़ा किया था, यह उल्लेख मिलता है।” #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
• संघ ने समाज में प्रचलित इस दक्षिणा परम्परा को एक नया रूप दिया है। व्यक्तिगत उपयोग के स्थान पर राष्ट्रकार्य के लिये आवश्यक धन की व्यवस्था दक्षिणा के धन से करने की परम्परा डाली है। अपने गुरु भगवाध्वज के सामने धन अथवा सम्पूर्ण जीवन दक्षिणा रूप में अर्पित करना स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझता है। पुष्पार्चन से भी भगवाध्वज का पूजन किया जा सकता है। स्वयंसेवक स्वयं उपस्थित होकर दक्षिणा करे, यही विधान है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
• दक्षिणा का सही स्वरूप भी समझना अत्यावश्यक है। दक्षिणा दान नहीं है, दान में अहं भाव रहता है। अपना स्वयं का नाम प्रमुखता से सबके सामने आये, यह इच्छा रहती है। दक्षिणा चन्दा भी नहीं है। चंदा देकर अपने प्रभाव से अपने स्वार्थ की पूर्ति बड़े-बड़े धनवान राजनीतिक दलों से करते हैं, यह सभी को पता है। दक्षिणा संघ का सदस्यता शुल्क भी नहीं है। सदस्यता के लिये शाखा आना मात्र पर्याप्त है। जितना धन सुविधा से अपने पास देने हेतु है, वही भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर दिया तो दक्षिणा के सही भाव को नहीं समझा है, यही माना जायेगा। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
दक्षिणा करने में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रतिदिन अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर वर्ष के अंत में इस संग्रहीत धन को दक्षिणा में देना अभीष्ट है। अपने जीवन में प्रतिदिन समर्पण एवं त्याग की वृत्ति व्यावहारिक रूप में प्रकट करने में स्वयंसेवक समर्थ हो, यह अपेक्षा है। दक्षिणा करने पर जीवन में कुछ कष्ट हो, अपनी स्वयं की सुविधायें जुटाने के लिये आवश्यक धन प्राप्त करने में कुछ विलम्ब होता हो तो दक्षिणा की योग्य भावना प्रकट होगी, ऐसा मानना चाहिये। संघ के प्रारम्भ में स्वयंसेवकों ने अपने जेब खर्च से बचाकर तथा स्टेशन पर कुलीगिरी आदि से धन अर्जित कर वर्ष के अंत में संचित धन दक्षिणा रूप में भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किये हैं। उस समय स्वयंसेवक स्वयं धन अर्जन करने की अवस्था में नहीं थे। आज स्थिति बदला है, उसका ध्यान रखकर इस संबंध में विचार करना वांछित है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
● दक्षिणा का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि संघ कार्य आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी रहे। इस संबंध में किसी भी प्रकार के दबाव में रहकर कार्य करने की स्थिति न बने, यह स्वयंसेवकों का दृष्टिकोण है। संघ कार्य हेतु आवश्यक धन की व्यवस्था स्वयंसेवक स्वयं ही करते हैं। वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के मंगलपर्व पर भगवाध्वज का पवित्र भाव से पूजन में दक्षिणा अर्पित कर राष्ट्र हेतु तन, मन, धन से समर्पण एवं त्यागवृत्ति के संस्कारों को वर्षानुवर्ष पुष्ट करते जाते हैं। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलगामी कार्य मनुष्य निर्माण का है। प्रत्येक स्वयंसेवक में राष्ट्र के लिये सर्वस्व त्याग करने का भाव निर्माण हो । राष्ट्र कार्य को अपने अन्य कार्यों के ऊपर वरीयता देने का मन बने। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता है। लगातार मन पर संस्कार करने से यह सम्भव होता है। दक्षिणा कार्यक्रम भी इसी प्रकार के संस्कार देने के क्रम में एक पग है। #गुरु दक्षिणा कार्यक्रम
गुरु दक्षिणा कार्यक्रम

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