
हमारे मन में बहुत प्रश्न उठ रहे है थे की आखिर संघ से कैसे जुड़ते है और संघ में एक स्वयंसेवक कैसे बनते है ? इत्याडियो आदि प्रश्न इन सभी प्रश्नों के उत्तर अब आपको यहाँ मिल जायेगे निचे पढ़े . धन्यवाद !
स्वयंसेवक
संघ ने अपने कार्यकर्ता का इतना सुंदर नाम लिया है जिसको सुनते है मनमोहक हो जाता है और अधिकतम प्रश्न के उत्तर हमें इस नाम से निकल जाते है
हम भी इस प्रश्न का उत्तर निकालने के लिए हमने सोचा की हमे इसका उत्तर केसे मिल सकता है उसके लिए हमें संघ की शाखा में तो जाना ही होगा तभी इसका उत्तर निकल पायेगा
उसके लिए हम संघ की शाखा में गए और शाखा में हमने पहली बार ध्वज को नमस्कार अर्थात प्रणाम किया और शाखा में पुरे एक घंटे तक खेल योग व्याम इत्यादि सब कुछ करने के बाद फिर प्रार्थना के बाद घर के लिए निकल गए लेकिन लेकिन हमारे प्रश्न का उत्तर तो मिला ही नही था
फिर हम अगले दिन गए बहा पर जाकर मालूम किया की स्वयं सेवक कैसे बनते है ? तो उनोहने उत्तर दिया की आप तो स्वयं सेवक बन गए है आश्चर्य चकित हो गए हम दोनों एक दुसरे का चहरा दखने लेगे फिर बाद में मालुम क्या कैसे ?
उनोहने उत्तर दिया की जिसने पहली बार धवजप्रणाम कर लिया है समझ लो वह उस दिन से स्वयं सेवक है . अब हम भी स्वयं सेवक है
स्वयंसेवक के गुण और व्यवहार
1. स्वयंसेवक के गुण
1. अक्षय ध्येयनिष्ठ 2. निरन्तर साधना। 3. 24 घण्टे का स्वयंसेवक। 4. चरित्रवान। 5. समर्पण (अहंकार शून्यता, अनुशासित व संघानुकूल जीवन रचना)। 6. व्यवहार कुशलता (छोटे-बड़े स्वयंसेवकों, परिवार, निवास व व्यवसाय क्षेत्र आदि के प्रति)। 7. दृढ़ता (वीरव्रत, जैसे “लहू देंगे परन्तु देश की माटी नहीं देंगे।”)। 8. आत्मविश्वास। 9. विजिगीषु वृत्ति । 10 आत्मनिरीक्षण। 11. तत्त्व तथा व्यवहार में एकरूपता (कथनी- करनी समान)। 12. लोकसंग्रही। 13. प्रयत्नपूर्वक स्वयं के सर्वांगीण विकास के लिये आग्रही (अधिकाधिक दायित्व ग्रहण करने की मानसिकता)।
2. स्वयंसेवक का व्यहार
क. संघ कार्य में-
स्वयंसेवक के साथ परस्पर बन्धुभाव, निःस्वार्थ, निश्छल, आत्मीयता व स्नेहपूर्ण व्यवहार (पारिवारिक अनुभूति) से ध्येय की ओर बढ़ने वाला। एक-दूसरे का विकास करने के प्रयत्न में संलग्न (कई बार मित्रता तो बनी रहती है परन्तु संघ बीच में से निकल जाता है, यह योग्य नहीं है), सबके गुणावलोकन करने वाला दोषान्वेषण करने वाला नहीं।
ख. स्वयंसेवकों को अधिकारी के प्रति-
आदर, श्रद्धाव
विश्वासयुक्त व्यवहार । अधिकारी के मार्गदर्शन के अनुसार जीवन में सद्गुण लाने का प्रयत्न । सदैव गुणग्रहण करने की मनोभूमिका । कार्य को उत्तरदायित्व पूर्ण तथा प्रमाणिकता से सम्पन्न करने का भाव, अनुशासनयुक्त व्यवहार बनावटी व्यवहार हमारे विकास तथा कार्य में बाधक होगा।
ग. अधिकारी का स्वयंसेवकों के प्रति
स्वयंसेवक के विकास के लिये सहयोगी एवं मार्गदर्शक । कार्यवृद्धि की दृष्टि से विधि-निषेध सहित बताये गये व्यवहार को अपने जीवन में भी क्रियान्वित करने वाला, पक्षपात रहित व आत्मीयतापूर्ण व्यवहार । स्वयंसेवकों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हुए उनका संघ से सीधा सम्बन्ध जोड़ने वाला। माता जैसा वात्सल्य, पिता जैसा हितचिन्तक, बड़े भाई जैसी आत्मीयता, मित्र जैसी अभिन्नता ।
3. समाज के साथ व्यवहार-
समाज के प्रति श्रद्धाभावी । सदैव समाज के हित के लिये चिन्तन करने वाला, समाज के प्रत्येक घटक से बन्धुभाव, समाज के सुख-दुःख में सम्वेदनाओं के साथ तादात्म्य भाव। भीषण परिस्थितियों में भी देश और समाज कार्य के लिये सदैव तत्पर रहने वाला (संकट व चुनौतियों के समय आगे और पुरस्कार मिलते समय सदैव पीछे रहने वाला।) अहंकार शून्य, सेवाभावी, स्नेहिल । व्यवसाय/नौकरी में प्रामाणिक । परिवार, वर्ग, भाषा, संस्था, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के मिथ्याभिमान से दूर रहने वाला।
व्यक्तिगत जीवन में-
मृदुभाषी, निश्छल, पारदर्शी, नियमित, व्यवस्थाप्रिय। समय नियोजक, हंसमुख, मितव्ययी, मिलनसार, सम्वेदनशील, समयपालक । व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा सांधिक जीवन में कर्तव्यों को आचरण में प्रकट करने वाला। सभी कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए संघ कार्य को प्राथमिकता देने वाला व स्वदेशी का आग्रही । परिवारजनों में संघ कार्य के प्रति श्रद्धा, आत्मीयता एवं विश्वास निर्माण करने वाला। संघ के संस्कारों के कारण जीवन में सद्गुण सम्पदा बढ़ रही है, ऐसा परिवारजनों को आभास कराने वाला। किसी भी प्रकार के संकट (आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि) आने पर भी मन का संतुलन बनाये रखने वाला।
स्वयंसेवक की संघोनमुखी दिनचर्या
- स्वयंसेवक एक घण्टे की शाखा का ही नहीं अपितु चौबीस घण्टे का स्वयंसेवक ।
- एक घण्टा शाखा पर शेष 23 घण्टे का समाज सम्पर्क के लिये उपयोग ।
- प्रत्येक मित्र स्वयंसेवक तथा प्रत्येक स्वयंसेवक मित्र ।
- एक बार का स्वयंसेवक जीवन पर्यन्त स्वयंसेवक (एकदा स्वयंसेवक-सर्वदा स्वयंसेवक ) ।
- व्यक्तिगत मित्रता को स्वयंसेवकत्व की स्थिति में पहुँचाना।
- • संघ कार्य के लिये अधिकाधिक समय निकाल सके ऐसा व्यवसाय चुनना ।
- संघ कार्य के लिये समय निकालने वाले सूत्र- अपने दैनिक कार्यों (स्नान, भोजन, विश्राम आदि) में न्यूनतम समय लगाना।
- व्यर्थ की गपशप, बहस आदि में समय नष्ट नहीं करना ।
- अनावश्यक कार्यों को यथासम्भव टालना ।
- पहले दिन की रात्रि में अगले दिन की व्यवस्थित योजना बनाना।
- कार्य योजना –
- अपने मौहल्ले व व्यक्तिगत, व्यवसायिक व सामाजिक क्षेत्र में सम्पर्क में आने वाले बन्धुओं को संघ का उद्देश्य, आवश्यकता आदि समझाना। उन्हें कार्यक्रमों में बुलाना, अपना साहित्य पढ़ने के लिये देना, संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं अथवा अधिकारियों से मिलवाना। उनके सुख-दुख में सम्मिलित होना, अन्त में उनको शाखा में लाना।
- • अपना जीवन, व्यावहारिक, प्रामाणिक व प्रेरक हो तथा कथनी- करनी में अन्तर न हो।
- वाणी, चरित्र व धन की प्रामाणिकता उपदेश से नहीं अपितु अपने व्यवहार से प्रस्तुत करना।
- • शाखा को अपने जीवन की प्राथमिकता बनाना। 23 घण्टे संघ कार्य वृद्धि के लिये प्रयास करना ।
- घरों का सम्पर्क-स्वयंसेवक तथा उनके परिवार के सभी लोगों के साथ आत्मीय सम्बन्ध |
संघ कार्य की प्रासंगिकता
- संघ स्थापना के समय देश परतन्त्र ।
- उस समय संघ की प्रतिज्ञा में “हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करना” उद्देश्य था। स्वतंत्र होने के पश्चात् अब संघ की क्या आवश्यकता है ? यह प्रश्न उठा।
- परकीय शासनकर्ताओं के स्थान पर अपने शासनकर्ता आ गये।
- यह एक उपलब्द्धी हो सकती है लेकिन इसके कारण समाज की स्थिति और मानसिकता में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ।
- ‘स्वराज्य आया स्वतंत्रता अभी प्राप्त करनी है’ अर्थात् अभी पाश्चात्य विचारों का ही प्रभाव।
- देश आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं (निर्धनता, अस्पृश्यता, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेईमानी, स्वार्थपरता, विभिन्न प्रकार के आतंकवाद, घुसपैठ आदि) से ग्रस्त है। देश में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, स्व का विस्मरण, धर्मस्थलों की दुर्दशा, जातीय कटुता आदि विषय भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इन सबको सुधारने का दायित्व केवल शासन का ही नहीं अपितु समाज का अर्थात् हमारा भी है।
- मुट्ठी भर लोग देश की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते हैं। इसलिये सम्पूर्ण समाज की जागरुकता आवश्यक ।
- यह कार्य संस्कारित व चरित्रवान, प्रामाणिक तथा देशभक्त समाज द्वारा ही सम्भव ।
- इसलिये व्यक्ति निर्माण, समाज संगठन तथा राष्ट्रजागरण का कार्य आज भी आवश्यक एवं प्रासंगिक है।
- वर्तमान में इन गुणों की उत्पत्ति का यशस्वी साधन अपना संघ अर्थात् संघ की शाखा है।
- शाखा के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा ही अपेक्षित गुणों से युक्तः व्यक्तियों का निर्माण सम्भव है। अतः वर्तमान परिस्थितियों में संघ की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है। संघ शाखा से संस्कारित स्वयंसेवकों द्वारा समाज जागरण व समस्या समाधान के उदाहरण
- 1963 में स्वामी विवेकानन्द जन्मशताब्दी के अवसर पर विवेकानन्द शिला स्मारक की निर्मिति का संकल्प कर देश भर में जागरण, धन संग्रह पश्चात् स्मारक का निर्माण। 1964 में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना के बाद 1966 में प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में देश के प्रमुख धर्माचार्यों द्वारा परावर्तन (घर वापसी) को मान्यता तथा 1969 में उडुपी में आयोजित धर्म सभा में अस्पृश्यता अमान्य की तथा धर्म में छुआछूत का कोई स्थान नहीं, की उद्घोषणा की। 1975 आपातकाल के विरुद्ध जनसंघर्ष व सफलता। 1980 में मीनाक्षीपुरम में सामूहिक मतान्तरण के विरुद्ध सामूहिक जनजागरण। 1983 में एकात्मता यात्राओं के माध्यम से मूलभूत एकता की अनुभूति । 1986 से श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन द्वारा हिन्दू समाज का स्वाभिमान जागरण ।
- तिरुमला तिरुपति देवस्थानम् पर इसाईयों के अतिक्रमण के विरुद्ध सफल जनांदोलन, श्रीराम सेतु बचाने में सफलता, श्रीअमरनाथदेव स्थान (जम्मू-कश्मीर) की भूमि प्राप्ति के लिये अभूतपूर्व सफल जनांदोलन। यह सब संघ के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव ।
- कश्मीर में आतंकवाद, पूर्वोत्तर में घुसपैठ, गौहत्या व वनवासी क्षेत्रों में सामूहिक इसाईकरण के विरुद्ध देशभर में एक साथ प्रतिक्रिया ।
- राष्ट्रीय अस्मिता व स्वाभिमान जागरण के प्रत्येक प्रयास में सक्रिय सहभाग तथा देश की एकता, अखण्डता व अस्मिता के विरुद्ध षड्यन्त्रों को विफल करने में समाज की सक्रियता में संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका ।
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