
संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है
अपनी प्रार्थना की छठी पंक्ति में हम नित्य बोलते है “त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्” अर्थात् हे सर्वशक्तिमान प्रभो ! हमने तेरे ही कार्य के लिये अपनी कमर कसी हैं। ईश्वरीय कार्य करने का हमारा संकल्प हैं।
ईश्वर का कार्य क्या हैं?
संसार में प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु का कार्य निर्धारित तथा दृष्टि गोचर हैं। पर ईश्वरीय कार्य क्या है? इसे ईश्वर की ही वाणी में समझने का प्रयास करे-गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं ही अवतार लेने के बारे में कहा है-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
एवं
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।
इसी प्रकार रामचरितमानस मे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- जब-जब होई धर्म की हानी, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।तब-तब धरि प्रभु मनुज शरीरा, और हरहिं भवसज्जन पीरा ।। अर्थात् भगवान तीन कार्यों के लिये अवतार लेते है-
- सज्जन शक्ति का संरक्षण
- दुष्टों का विनाश
- धर्म की स्थापना
कोई व्यक्ति या संगठन इन कार्यों को पूरी निष्ठा, निःस्वार्थ बुद्धि और कर्तव्य भाव से सम्पन्न करे तो यह कहा जायेगा कि वह ईश्वर का कार्य कर रहा है।
संघ कार्य भी वस्तुतः ईश्वरीय कार्य हैं इसे समझने के लिये संघ द्वारा सम्पादित कार्यों का अवलोकन करें।
सज्जन शक्ति का संगठन- सात्विक ईश्वर शक्ति का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- ‘संघे शक्ति कलोयुगे’ अर्थात् कलियुग में संगठन की ही शक्ति होगी तथा ईश्वरीय कार्य भी इसी से सम्पन्न होगें ।
संघ कार्य भी यही है सज्जन किसे कहेंगें ? सिद्धांत- वादी, कर्त्तव्यनिष्ठ, प्रमाणिक, परिश्रमी, सक्रिय एवं समाज हित को निज से ऊपर मानने वाला वास्तव में सज्जन है। वर्तमान भ्रान्त धारणा के अनुसार ‘न उधो का लेना न माधो को देना’ के अनुसार समाज के भले-बुरे से निर्लिप्त, सीधा आने-जाने वाला व्यक्ति सज्जन नहीं बल्कि भार स्वरूप है।
दुष्टता का विनाश – संघ स्थान पर दैनिक कार्यक्रमों (शारीरिक, बौद्धिक) का उद्देश्य संस्कारों द्वारा मनुष्यों केअन्दर का पशुभाव नष्ट करके उसके देवत्व को जगाते हुए अनुशासन, समरसता, निःस्वार्थ सेवा तथा सामाजिक कार्यों में जुटने का भाव उत्पन्न करना ।
तेजस्वी हिन्दू शक्ति संगठन से दुष्ट शक्तियों को निस्तेज कर दुष्टों से आतंक की स्वाभाविक समाप्ति । दुष्ट शक्तियों अर्थात् ऐसे लोग जो अन्यायी, स्वार्थी, समाज तोड़क, अंहकारी, अप्रमाणिक तथा स्वयं को देश व समाज के हितों से ऊपर मानते हैं।
धर्म की स्थापना -” धारयति इति धर्म” न्याय से जो समाज की धारणा करता है वह धर्म हैं। संघ शक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि से समाज की धारणा शक्ति बढ़ती है। समाज के अवयव अधिक प्रखरता से जुड़ते हैं। अतः धर्म जोड़ने वाली शक्ति है। धर्म मात्र पूजा पद्धति नहीं, यह रिलीजन या पन्थ से अलग अवधारणा है। हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति हैं।
संघ भी समाज को जाति, भाषा, पन्थ, वर्ग आदि के बाह्यविभेदों से ऊपर उठकर सूत्रबद्ध करता है, सामाजिक समरसता द्वारा समाज को सुसंगठित कर धर्म का संरक्षण करता है। धर्म अर्थात् नैतिक मूल्यों की स्थापना
धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचं इन्द्रियानिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।
राम व कृष्ण अवतारों ने यही किया और यही संघ दैनन्दिन शाखा पर संस्कारों के माध्यम से कर रहा है। धर्म संरक्षण हेतु माँ दुर्गा ने सभी देवताओ की शक्तियाँ एकत्र की अर्थात् उन्हें संगठित किया । आत्मविश्वास जगाकर सज्जन ऊर्जा तैयार की तथा इस संगठित सज्जन ऊर्जा पुरूष से दुष्ट आसुरी शक्तियों का विनाश किया। यही धर्म संरक्षण, सज्जन ऊर्जा के संगठन तथा दुष्ट प्रवृक्तियों के विनाश का संकल्प व उपक्रम, संघ का भी है। अतः संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है।
स्नान मंत्र
ॐ गंगे च यमुने चैव, गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन सन्निधिं कुरू । ।
संघ की कार्यपद्धति की विशिष्टता
दैनिक एकत्रीकरण-
सभी स्वयंसेवकों का नियमित, निश्चित समय पर, निश्चित अवधि हेतु निश्चित स्थान पर एकत्रित होना। इसे शाखा पद्धति कहते है।
वैयक्तिक सम्पर्क –
सामूहिक सम्पर्क के स्थान पर वैयक्तिक सम्पर्क को वरीयता । इस दृष्टि से गण तथा गण पद्धति की व्यवस्था। विभिन्न बैठकों तथा शाखा एवं नैमितिक कार्यक्रमों की रचना। यह कम सतत् चलता हैं।
संगठनात्मक –
संघ की कार्यपद्धति आंदोलनात्मक नही वरन् संगठनात्मक हैं। हिन्दू समाज को संगठित करने में सहायक प्रश्नों पर आंदोलन अन्यथा नहीं। जैसे गौरक्षार्थ हस्ताक्षर आन्दोलन, रामजन्म भूमि विवाद सम्बन्धी आंदोलन आदि ।
रचनात्मक-
संघ की कार्य पद्धति रचनात्मक है । प्रचारात्मक नहीं। मनुष्य निर्माण कार्य रचनात्मक, गणवेश पहन मेले, तमाशे आदि में व्यवस्था करना प्रचारात्मक हैं। निःस्वार्थी एवं यश- मान की इच्छा से मुक्त व्यक्ति ही समाज के बन्धुओ की सही अर्थ मे सेवा करने मे समर्थ होते हैं।
प्रसिद्धि पराड. मुख-
संघ कार्य मान, सम्मान, प्रतिष्ठा एवं यश अर्जन की इच्छा से करने वाला कार्य नहीं । रचनात्मक प्रक्रिया मौन हैं। वृक्ष के बढ़ने की प्रक्रिया की कोई ध्वनि सुनाई देती है क्या ? मौन कार्य गुप्तता की परिधि में भी नहीं आता।
एकचालिकानुवर्तित्व-
एक नेता के नेतृत्व में कार्य करने का अभ्यास । कार्य करने के पूर्व जितना चाहते वाद-विवाद। तत्पश्चात् सामूहिक निर्णय को निष्ठा से क्रियान्वित करना आवश्यक है।
कार्य के लिये योग्य व्यक्ति तथा व्यक्ति की योग्तानुसार कार्य-
संघ की पद्धति में कार्य के अनुसार योग्य व्यक्ति की खोज अथवा ऐसे व्यक्तियों का निर्माण तथा योग्य व्यक्ति हैं। तो प्रत्येक के लिये योग्य कार्य की व्यवस्था करना ।
सामूहिक निर्णय –
किसी भी कार्य सम्पादन में सम्बन्धि कार्य कर्ताओ के सामूहिक विचार-विमर्श के उपरान्त सामूहिक निर्णय लेने की संघ की पद्धति हैं। यह विचार-विमर्श सभी सम्बन्धित कार्यकर्ताओं को विश्वास में लेने हेतु आवश्यक है। सभी की कार्यशक्ति एवं कार्यक्षमता में गुणात्मक वृद्धि होती हैं। गुण-दर्शन छिद्रान्वेषण नहीं- संघ की कार्य पद्धति में अपने सहयोगी के गुण देखने की प्रेरणा हैं। उनके छिद्रान्वेषण अर्थात् दोष-दर्शन की पद्धति नहीं हैं। सहयोगी के दोषों को शांतिपूर्वक दूर कर गुणों के विकास की चिंता करना अभीष्ट रहता हैं। उसके गुणों का संघ कार्य हेतु उपयोग करना अपेक्षित हैं।
परिचय का महत्व
- परिचय के कारण ही आत्मीयता, घनिष्ठता, पारिवारिक भावनायें श्रद्धा आदर भाव आदि का प्रकटीकरण होता हैं।
- परिचय आत्मीयता के लिये पहला चरण ।
- पारिवारिक भाव ही संघ कार्य का आधार है।
- परिचय होने पर नाम के उच्चारण मात्र से ही आत्मीयता (अपनेपन की अनुभूति होती है।
- परिचय होने पर आपस की दूरी समाप्त हो जाती है और निकटता आती है परिचय के कारण ही आपात्काल में संघ को सफलता प्राप्त हुई जबकि दूसरे संगठन / दल असफल रहें।
- संघ कार्य में परिचय का सर्वाधिक महत्व है। शाखा से लेकर मण्डल खण्ड, नगर, तहसील, जिला, विभाग, प्रान्त व देश व्यापी परिचय । ‘जाने बिन न होय परतीति बिन परतीति होय नहिं प्रीति प्रारम्भ काल में संघ का न कोई संविधान था न ही कोई लेखा-जोखा था केवल परस्पर परिचय के कारण ही संघ देशव्यापी हुआ ।
- परिचय के अभाव में साक्षात्कार देने आये युवक ने साक्षात्कार लेने वाले “ईश्वर चन्द्र विघासागर” से अपना सामान उठवाया। परिचय न होने के कारण ही ‘लवकुश’ अपने पिता श्री राम से युद्ध करने हेतु तत्पर हुए।
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देश के लिए देश के सम्मान मे कम करेंगे 🇮🇳 🙏🙏