सुभाषित
यहां यदुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥
अर्थ: कोई वस्तू नाहे कितनी ही दूर क्यों न हो तथा उसका
बिलमा कितना ही कठिन क्यों न हो
और वह पहुँच से भी बाहर क्यों माहा, कठिन तपस्या
अर्थात् परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता
अगस्त मास हेतु
मना क्रोध हा खेदकारी, नको रे मना काम नाना विकारी।
नको रे मना सर्वदा अंगिकारु, नको रे मत्सरु दम्भ भारु ।।
अर्थ : हे मन जो क्रोथ, व्यक्ति को कष्ट पहुँचाता है, ऐसा क्रोध न
करो। नाना प्रकार के विकार उत्पन्न करने वाली वासना का सर्वया
त्याग करो। जो द्वेष एवं अहंकार अपने विकास में सदैव बाधक होता है,
उससे दूर रहो।
सितम्बर मास हेतु
वनानि देहतो वह्ने सखा भवति मारुतः।
स एव दीपनाशय, कृशे कस्याति सौहृदम् ॥
अर्थ : जब जंगल में आग लगती है तो हवा भी उसका मित्र बन
जाती है, परन्तु वही हवा एक अकेले दीपक को क्षणमात्र में बुझा देती है
, इसलिये कहा गया है कमजोर का कोई मित्र
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